प्रश्नकर्ता: आप कहते हैं, पुनर्जन्म होता भी है तो समष्टि का, प्रकृति मात्र का और व्यक्ति का कोई अपना निजी पुनर्जन्म होता नहीं। ऐसा आपने बार-बार कहा है। तो मैं पूछना चाहता हूँ कि अगर व्यक्ति का पुनर्जन्म होता नहीं, तो फिर मुक्ति का अगले जन्म से कोई संबंध हो ही नहीं सकता, क्योंकि अगला जन्म तो व्यक्ति का है नहीं, तो इसका मतलब तो यह हुआ न कि मरने के बाद सबको डिफॉल्ट (स्वयमेव) मुक्ति मिल जाती है। जब मरने के बाद मुक्ति मिल ही जानी है, तो व्यक्ति अध्यात्म की ओर क्यों जाए? और मुक्ति के लिए कोई भी कोशिश क्यों करे?
आचार्य प्रशांत: तर्क का जो पूरा ढाँचा है, समझ गए आप लोग? कह रहे हैं, “आचार्य जी, आप कह रहे हैं पुनर्जन्म अगर होता भी है तो समष्टि का होता है, एक इंसान का अपना कोई पुनर्जन्म नहीं होता।" जैसा मैंने पहले कहा था न, राजू अगले जन्म में काजू नहीं बन जाना है। तो कह रहे हैं, "जब अगला कोई जन्म होता नहीं है, तो अगले जन्म में जो मुक्ति वाली बात थी, वह बात भी ख़ारिज हो गई।" ठीक है।
"अब अध्यात्म की ओर तो हम आते ही इसलिए थे कि भई, मुक्ति मिलेगी आगे चलकर। मुक्ति आगे चलकर के मिलनी नहीं, क्योंकि आप कह रहे हैं, आगे कुछ होता नहीं तो हम काहे के लिए अध्यात्म की ओर आए? मजे मारने दो न, जब आगे कुछ है ही नहीं।" यह इनका कुल मिलाकर तर्क है (प्रश्नकर्ता का)।
आप गिरनार जी अपनी वर्तमान हालत को लेकर के कितनी ग़लतफ़हमी में हैं! 'आगे मुक्ति पाऊँगा, अगले जन्म में मुक्ति पाऊँगा, अठारहवें जन्म में मुक्ति पाऊँगा।' यह बातें तो वही करेगा न जो इस गुमान में होगा कि अभी जो चल रहा है, सब ठीक है, अभी कोई बंधन है ही नहीं, मुक्ति की अभी इसी क्षण कोई ज़रूरत है ही नहीं। या तो आप कह दीजिए कि आपकी ज़िंदगी में वर्तमान में कोई बंधन है नहीं। फिर ठीक है, फिर मुक्ति क्यों माँगनी? फिर आगे की भी मुक्ति क्यों माँगनी, जब कोई बंधन ही नहीं है तो?
और अगर अभी आपकी ज़िंदगी में बंधन है तो आप कैसे आदमी हैं, जो कह रहे हैं कि अगले जन्म में मुक्ति देखी जाएगी? आप अगर अभी बंधे हुए होते हैं, तो आप यह कहते क्या कि मुक्ति अगले जन्म में मिले? और अगर कोई आकर के बोले अगला जन्म होता नहीं, तो आप कहने लग जाएँगे, 'फिर मुक्ति किसको चाहिए, मौज करो'? तुम मौज कर कैसे लोगे इतने बंधनों के साथ?
अध्यात्म का उद्देश्य आपको अगले दस साल या पाँच सौ साल बाद मुक्ति दिलाना नहीं होता। भविष्य से अध्यात्म का बहुत कम संबंध है। अध्यात्म का संबंध वर्तमान से है। और आप वर्तमान में ही पीड़ा में हैं। आप वर्तमान में ही बेड़ियों में हैं। अध्यात्म कहता है, "अभी ठीक, अभी इसी पल, देखो हथकड़ियों को अपनी। देखो कि तुम्हारे शरीर के ऊपर, तुम्हारे मन के ऊपर, तुम्हारी पूरी हस्ती के ऊपर, बाहर भी अंदर भी कितनी ज़ंजीरे हैं।”
जिसको यह बात दिख जाएगी वह क्या बोलेगा? मुझे आजादी चाहिए, कब? अभी चाहिए न, वह यह थोड़े ही बोलेगा कि ‘पुनर्जन्म जब होगा।’
माने अब ऐसा भी कोई अभी तय नहीं है कि तुम मरोगे और मरते ही बिल्ली बनकर पैदा हो जाओगे।
जो लोग बताते हैं कि एक इंसान ही कुछ और बन जाता है, अगर उन्हीं लोगों की मान रहे हो तो उन्होंने तो यह भी बताया है कि ‘मरने के बाद बहुत समय तक तुम प्रेत-वेत बनकर के भटकते हो।‘ पता नहीं कितने समय तक। फिर तुम्हारा नंबर आता है। फिर तुमको बताया जाता है, ‘अजी हाँ, आपका नंबर आ गया। कहाँ आप यहाँ पेड़ पर उल्टे लटके हैं!' फिर तुम भागते हो, 'अरे! भागो रे! भागो रे! अपना नंबर आ गया।' और किसी गर्भवती बिल्ली—जो भी तुम्हारा नंबर लगा होता है, अलॉटमेंट (आबंटन) पर है न। वह जिसको जो एलॉट हुआ, उसको वहीं जाना पड़ेगा। तो किसी मादा बिल्ली के गर्भ में घुस गए। इतनी प्रजातियाँ हैं, पशुओं की भाई; कुछ भी, कहीं भी घुस सकते हो, क्या भरोसा। भागे-भागे आए हैं, प्रेत महाराज! पेड़ पर उल्टे टंगे थे और वह बेचारी औरत थी, जाकर फट से उसके गर्भ में घुस गए।
जो परेशान होगा अपने बंधनों से वह इतनी लंबी कहानी गढ़ेगा? पहले अभी यह वर्तमान जन्म पूरा करेंगे अगले चालीस साल। फिर मरेंगे, फिर पेड़ पर लटकेंगे छह सौ साल और उसके बाद जाकर के घोड़ी के गर्भ में घुसेंगे और दूसरी घोड़ी बनकर पैदा होंगे! फिर इंद्र अवतार लेंगे। और अवतार लेकर जब ब्याह करने जाएँगे, तो हम पर चढ़कर जाएँगे; हम घोड़ी हैं न! और फिर इंद्र के स्पर्श से हमको मुक्ति मिल जाएगी।
ऐसे ही तो कथाओं में कहा जाता है; ‘और फिर वह घोड़ी अचानक एक रूपवती कन्या बन गई, बोली, मैं तो देखिए, गंधर्व कन्या हूँ। मैं तो पुराने पापों के कारण बंधन में पड़ी हुई थी। अब आप अवतार हैं, आपने हमें स्पर्श दे दिया, तो हमें मुक्ति मिल गयी।' इतना बोल करके वह धुआँ बनकर के रॉकेट की तरह फुर्र से आसमान की ओर भाग गई। यह तो तुम्हारी कल्पनाओं का स्तर है।
नंदन, चंपक, पराग, चंदा-मामा। यह तुम्हारा अध्यात्म चल रहा है; बाल कहानियाँ, कक्षा पाँच। और तुम्हें मैं कुछ समझाता हूँ कि पुनर्जन्म का वास्तविक अर्थ समझो। पुनर्जन्म निश्चित रूप से होता है, पर पुनर्जन्म का वह मतलब नहीं है, जो तुम अपने अज्ञान में आज तक समझते आए हो।
तुम्हारा अज्ञान इतना बड़ा है कि तुमने सब शास्त्रों को विकृत कर डाला। तुम्हें उनका असली मतलब नहीं समझ में आया तो तुम्हें जो छोटा-सा अपनी सीमित बुद्धि से मतलब समझ में आता था, वह अर्थ तुमने शास्त्रों पर आरोपित कर दिया। तुमने यह नहीं कहा कि ‘वे बड़ी बात कर रहे हैं, तो हम अपनी बुद्धि बड़ी बनाएँगे, उस बड़ी बात को समझने के लिए।' तुमने कहा, ‘मेरी बुद्धि छोटी है, तो मैं शास्त्रों की बात का अर्थ ही छोटा कर दूँगा।' यह तुम गुड्डे गुड़िया की कहानियाँ सुनाया करते हो, 'वो फिर मर गया, फिर उसके पेट से आत्मा निकली, आत्मा इधर-उधर घूम रही है।’
तुम्हें आत्मा का ‘आ’ पता है? पता हो नहीं सकता। बताओ क्यों? क्योंकि आत्मा अखंड है। समझाते ही रह गए ऋषि बाबा, क्या? 'पूर्णात् पूर्णमिदं', सब पूर्ण है। और पूर्ण का तुम सबकुछ भी छीन लो, रहना उसे पूर्ण ही है। और पूर्ण से किसी भी तरह का कुछ भी आए, उसे पूर्ण ही होना है।
हमने आत्मा को भी अपूर्ण बना डाला। यह तो छोड़ दो कि सबकुछ पूर्ण है, हमने आत्मा को भी अपूर्ण बना डाला। इतने छितराए हुए मन के साथ, ध्यान के ऐसे अभाव के साथ हमने ग्रंथों को पढ़ा कि हमें समझ ही नहीं आया कि आत्मा और जीवात्मा में जमीन आसमान का अंतर है। जीवात्मा बड़े से बड़ा धोखा है, भ्रम है, छल है, और माया है, और आत्मा एक अनंत सत्य है।
हमने आत्मा का ही ऐसे अर्थ कर दिया जैसे वही जीवात्मा हो। और जीवात्मा क्या करती है? ‘फुर्र से पेट से निकलती है, मरते वक्त, और जाकर पेड़ पर बैठ जाती है।’ ‘सोनू की दादी ने बहुत ज़ोर देकर समझाया है कि बूढ़े बरगद पर तीन प्रेत रहते हैं। तीन मरे थे सोनू की दादी के सामने, वही तीनों जाकर वहाँ पेड़ पर बैठ गए हैं बूढ़े बरगद पर।’ यह हमारे अध्यात्म का स्तर है!
अब कोई ताज्जुब है कि अध्यात्म हमें दुखों से मुक्ति नहीं देता, बल्कि और ज़्यादा हमें भ्रम में डाल देता है। जो अध्यात्म का हमारा संस्करण है, जिस तरह का अध्यात्म हम चला रहे हैं, वो हमारे किस काम आएगा?
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