तनाव आलस को आमन्त्रण है || आचार्य प्रशांत (2017)

Acharya Prashant

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तनाव आलस को आमन्त्रण है || आचार्य प्रशांत (2017)

प्रश्नकर्ता: न आलस है, न उठा हुआ है, न सोया हुआ, कुछ ऐसा मतलब एक कंफ्यूजन (संशय) है कि क्या ये, ये क्या है? नींद भी है उसमें हल्की सी, जागृति भी है, अब जागृति का तो पता नहीं लेकिन कुछ है, विचार भी नहीं है लेकिन कुछ है। लेकिन बड़ा आनन्दमयी अवस्था सी है, मतलब वो उसमें ऐसा लगता है कि आलस भी है, मतलब पड़े रहे बस, आँख आदि खुली रहे, धूप मद्धम-मद्धम आ रही है, अभी मौसम बदल रहा है, तो इसका रस लेने का मन प्रतीत होता है, ये शंका पैदा करता है कि कहीं कोई गहरी अवस्था मतलब नींद में तो नहीं जा रहे हैं या अक्सर हमारे को ये प्रतीति या आलस का ही कोई लक्षण है?

आचार्य प्रशांत: चार शब्द लेते हैं और इनके अन्तरसम्बन्ध लेते हैं- तनाव, आलस, विश्राम और ऊर्जा; तनाव, आलस, विश्राम और ऊर्जा, तनाव और आलस साथ-साथ चलते हैं। तनाव, ऊर्जा की असहजता है; तनाव, ऊर्जा का पागलपन है, तो जब आप तने हुए होंगे, तनित हैं तनाव में हैं तो उस वक्त ऊर्जा तो आपसे निकलेगी, इस बात को हम मानते हैं। आप दुनिया की ओर देखें तो दुनिया की अधिकांश ऊर्जा तनाव के बिन्दु से ही निकल रही है। आप कार्यों को देखें, कर्मों को देखें वो हो किस कारण से रहे हैं कार्य के पीछे का कारण क्या है?

प्र: तनाव। आचार्य: तनाव। आपको जितना तनाव होता है आप उतना अधिक काम करते हैं, है न? लेकिन ये तो अजीब बात है, मैंने तनाव का सम्बन्ध आलस से बोला, मैंने तनाव का सम्बन्ध ऊर्जा से नहीं बोला है, तनाव की प्राकृतिक परिणति है आलस। जिन लोगों को आलस बहुत सताता हो, सुस्ती के मारे हुए हों, वो ज़रा गौर से सुनेंगे।

आप सुस्ती के मारे इसीलिए हो क्योंकि आप की ऊर्जा विक्षिप्त है, आप इतनी ज़ोर से दौड़ते हो कि थोड़ी ही देर में आपके पास कोई विकल्प नहीं रहता थम जाने के अलावा और यदि आप न थमो तो आपकी दौड़ ऐसी उपद्रवी है कि वो आपको गिराकर थमा देती है; आपकी दौड़ में ऐसी अव्यवस्था, ऐसी अराजकता है, आप ऐसा टेढ़ा-मेढा भागते हो कि आपको थमना ही पड़ता है। लेकिन तनाव, उत्तेजना है और उत्तेजना में कर्ताभाव को और अहंकार को बड़ा प्रश्रय मिलता है।

उत्तेजना में आप हुए न उत्तेजित, उत्तेजना में आप बन गये न केन्द्र, मन को जैसे उपाधि मिल गयी, मन को जैसे तारीफ़ मिल गयी तूने किया देख कितनी ऊर्जा है तेरे भीतर तूने कर डाला; हर प्रकार का तनाव मूलतः अहंकार है, अकड़ है, उसमें बड़ा दंभ है। क्या दंभ है उसमें?

प्र: मैंने किया।

आचार्य: मैं अगर तनाव ले रहा हूँ तो जाहिर सी बात है कि मुझे क्या लग रहा है? मैं हूँ कर्ता, मैं करूँगा, मेरे भरोसे चल रहा है सबकुछ। तनाव आप तभी तो लोगे न जब आप कहोगे आपके भरोसे चल रहा है सबकुछ। अब आप तनाव लोगे तो ऊर्जा का एक रेला सा आएगा, बड़ी लहर जिसे आपने कृत्रिम रूप से खड़ा करा है, जिसे आपने तन-तन के उत्तेजित होकर खड़ा करा है; वो लहर आएगी तो आपको ऐसा प्रतीत हो भी सकता है कि उस लहर से कुछ काम हो गये, देखो मैं उठा, मैंने बड़ी अन्त:प्रेरणा जगाई, मैंने बड़ा पुरुषार्थ दर्शाया और उसके कारण मैंने इतने काम साध लिये। अन्ततः बल किसको मिल गया? मुझे मिल गया।

पर जब गलत केन्द्र को बल मिल जाएगा, तो कुछ भला तो हो नहीं सकता न? नतीजा ये निकलेगा कि ऊर्जा चुकेगी, ऊर्जा इतनी बेढंगी रहेगी कि वो आपको ही खाने लगेगी, आप अपनी ही कारगुजारियों से थक जाओगे, आप और कुछ गँवाओगे कि पाओगे पता नहीं, लेकिन एक चीज़ आप निश्चित कमाओगे, थकान।

कर्ता-भाव से युक्त, तनाव से युक्त और उत्तेजना से युक्त जीवन की परिणति है फिर थकान। और थकान जब गहराती जाती है तो उसके लिए एक शब्द होता है प्रमाद। थकान, चेतना पर पर्दा बनकर छा जाती है, इसे प्रमाद की अवस्था कहते हैं। जैसे कि जीवन अव्यवस्थित होने के कारण शरीर पर चर्बी-ही-चर्बी चढ़ जाए, तो पहले तो चर्बी इसलिए चढ़ी क्योंकि जीवन में अव्यवस्था थी और अब चूँकि प्रमाद छा गया है, तहें बन गयी हैं तो इसीलिए अब आप चाहो भी कि आपसे सहज ऊर्जा बहे, तो बह नहीं सकती। आपके अतीत ने, आपके पुराने बहुत सारे जीवन ने आपको इतना सारा वज़न दे दिया है, प्रमाद मानसिक वज़न है, चर्बी शारीरिक वज़न है।

आपके पुराने जीवन ने आपको इतना सारा वज़न दे दिया है कि अब आप चाहो भी तो आपकी दौड़ हिरण की कुलाचों जैसी नहीं होगी; अब प्रमाद तय करेगा कि आप कैसे चल रहे हो और प्रमाद अब आपसे अपेक्षा करेगा, प्रमाद अब आपका मालिक बनेगा और वो आपसे कहेगा और भोगो। जितना आपका वज़न हो जाता है, भूख भी उसी अनुसार हो जाती है। प्रतीक है वज़न, शारीरिक प्रतीक है पर उसको मन पर लगाकर देखना।

एक बार वज़न बढ़ गया, तो वज़न बरकरार रखने के लिए ही खाना पड़ता है न? अन्यथा शरीर कहेगा कि अरे! अभी तो भूख बाकी है; ठीक उसी तरीके से एक बार मन पर वज़न बढ़ गया, तो सिर्फ़ उस वज़न को बरकरार रखने के लिए आपको विक्षिप्त ही जीना पड़ता है। अब आप अपने मालिक नहीं रहे, अब मन पर जो वज़न छा गया है, जो संस्कार चढ़ गये हैं, जो वृत्तियाँ चढ़ गयी हैं, जो कचरा जम गया हीरे के ऊपर; वो अब आपका नियंत्रण कर रहा है वो मालिक हो गया, वो आदेश दे रहा है ऐसे करो, ऐसे चलो, ऐसे रहो। आ रही है बात समझ में?

और प्रमाद आपको भोग में और गहरे-गहरे उतरता जाता है; अहंकार मिटना नहीं चाहता, मिटना उसकी नियति है लेकिन वो मिटना नहीं चाहता। इसीलिए नहीं मिटना चाहता क्योंकि जानता है कि मिटना कभी भी हो सकता है, इसीलिए सतत उसकी एक ही इच्छा है, बना रहूँ। बने रहने के लिए उसे क्या करना पड़ेगा? भोगना पड़ेगा, तो लगातार भोग में उत्सुक रहता है मुझे और मिल जाए और मिल जाए। क्या-क्या भोगता है वो? वो सबकुछ भोगता है जो भोगा नहीं जा सकता, वो उसको भी भोग लेता है, वो परमात्मा तक को भोगने की चेष्टा करता है, शरीर को भोगेगा, घास को भोगेगा, पत्थर को भोगेगा, नदी को भोगेगा, पहाड़ को भोगेगा, दुनिया के सब लोगों को भोगेगा, तमाम विचारों को भोगेगा, सुख को भोगेगा, दु:ख को भोगेगा।

वो सब भोगना चाहता है क्योंकि उसे किसी तरह बने रहना है, सारी ऊर्जा चली जाती है भोगने के प्रयासों में; तो अब ऊर्जा उपलब्ध कैसे रहेगी किसी भी काम के लिए। प्रमादी आदमी की हालत ऐसी हो जाती है कि कोई दिनभर मेहनत करके सौ रुपया कमाए, दस रुपए की उसकी भूख हो, लेकिन सौ रूपए का खा जाए, अब उसके पास बचा क्या? क्या बचा? उसको हमेशा ऊर्जा की कमी पड़ेगी क्योंकि उसकी ऊर्जा अब उसको बनाये रखने के काम आ रही है, उसके काम नहीं आ रही, समझिएगा अन्तर कि जैसे किसी गाडी में बस इतना ईंधन हो कि पेट्रोल-पम्प तक चली जाए। उस गाडी को लेकर आप कहीं भी जा सकते हो क्या? उस गाडी का ईंधन बस इस काम आ रहा है कि उसमें और ईंधन डलवा दिया जाए, उस गाडी का ईंधन बस अब इस काम आ रहा है कि उसमें और ईंधन डलवा दिया जाए।

प्रमादी आदमी ऐसा हो जाता है, उसके पास कोई ऊर्जा नहीं बचती तो इसीलिए जो भी सतकार्य होते हैं, जितने भी सार्थक कर्म होंगे, उनके लिए वो हमेशा अपनेआप को सुस्ती में घिरा पाएगा, इसलिए नहीं कि उसके पास ऊर्जा थी नहीं, इसलिए क्योंकि अब उसकी ऊर्जा दिशा विमुख हो गयी है, उसकी ऊर्जा पगला गयी है, उसकी ऊर्जा पलट करके उसको ही खा रही है और वो निरन्तर भूखा है। दिन में चौबीस घंटे उसके पास भी हैं, चौबीसों घंटे के साठों मिनट और साठों मिनट के साठों पल उसके पास भी हैं, लेकिन वो पल वो व्यतीत कर रहा है अपनी ही मेंटेनेंस में। जैसे कि कोई गाड़ी हो, दिन-भर जिसकी देखभाल की जाती हो, वो गाड़ी आपको कहाँ ले जाएगी? आपके पास एक गाड़ी है और वो गाडी आप की नहीं है, आप उस गाड़ी के हो गये हैं दिनभर आप क्या कर रहे हैं? दिनभर आप उस गाडी की बस देखभाल कर रहे हैं, वो गाडी आपको कहीं ले जा पाएगी क्या? हम वैसी गाड़ी हो जाते हैं।

अहंकार बड़ी देखभाल माँगता है, मुर्खताएँ बड़ी देखभाल माँगती हैं, दुनिया की जितनी बेवकूफियाँ हैं वो बड़ी देखभाल माँगती हैं, क्यों? क्योंकि वो बनी रह नहीं सकती हैं, वो झूठी हैं। यथार्थ उन्हें तोड़ने को आतुर रहता है और उन्हें बार-बार चोट लगती है; आपकी कल्पनाएँ, आपकी विक्षिप्तताएँ जब भी जीवन से टकराती हैं तो चोट खाती हैं। और चोट खाती हैं तो आपको उनको पुनः देखभाल देनी पड़ती है, मरम्मत करनी पड़ती है। तो सारा दिन किस में बीत जाता है? अपनी ही मरम्मत में, सारे दिन आपके ध्यान का केन्द्र क्या रह जाता है? अपनी मरम्मत, अपनी देखभाल, आपको और कुछ समझ में ही नहीं आता। आप बैठे होंगे ये (आस-पास की ओर इशारा करते हुए) विशाल पहाड़ों के बीच में सुन्दर धुंध है, कोहरा है इससे अधिक रमणीक स्थल क्या होगा? नीचे भरी हुई झील और आपको कुछ दिखाई नहीं देगा आपके मन में क्या घूम रहा होगा? कहिए?

प्र: मरम्मत।

आचार्य: मैं मैं मैं मेरी मरम्मत क्या खोट है? मैं अपनेआप को कैसे ठीक करूँ? यहाँ मेरा क्या होगा? हो सकता है आप उस झील के बगल पहुँचें और आपको विचार आए कि किसी तरीके से मैं यहाँ पर कोई दुकान लगा सकता हूँ क्या? आपको झील नहीं दिखाई दे रही, ये खुली जगह आप देखें कहीं अच्छा रियल स्टेट, आपको कुछ समझ नहीं आ रहा, आपको सिर्फ़ मैं समझ आ रहा है, कोई स्त्री यहाँ से गुजरे आप उसको देखें और आपको अपनी पत्नी की याद आने लग जाए, न आपको ये जगह देखी न वो स्त्री दिखी, आपको कौन दिखा? आपकी पत्नी। कहाँ ऊर्जा बची है, सारी ऊर्जा तो सेल्फ सर्विसिंग (स्वयं-सेवा) में व्यय हो रही है, अपनी ही देखभाल में सारी ऊर्जा जा रही है, अब कहाँ तुम ज़िन्दगी में कोई काम करोगे, सारा काम तो तुम अपने ही ऊपर करे ले रहे हो और जितना काम तुम अपने ऊपर कर रहे हो अपनेआप को उतना बर्बाद कर रहे हो, क्योंकि एक-एक काम जो तुम करते हो अपने ऊपर, वो तुम्हें बना नहीं रहा है वो तुम्हारे ऊपर और कई लेप चढ़ा रहा है।

जैसे कि कोई पागल, अपनी ही देखभाल और दवाई करे, जैसे कि कोई विक्षिप्त आदमी अपने लिए स्वयं ही दवाओं का निर्धारण चुनाव कर ले, जाकर खरीद भी लाये, मैं पागल हूँ मैंने चुना है ये-ये दवाइयाँ हैं मेरी, जाए खरीद भी लाये, सेवन भी शुरू कर दे, ऐसे हैं हम। पूरा दिन हमारा जाता है अपने ही लिए दवाइयाँ तय करने में, उनका सेवन करने में, और पागल हो जाने में, फिर और दवाइयाँ तय करने में इत्यादि-इत्यादि। आलस यही है, ऊर्जा की कमी नहीं, ऊर्जा का बौरा जाना।

एक सूत्र दिये दे देता हूँ कोई आलसी आपको ऐसा नहीं मिलेगा, कोई आपको बड़ा आलसी मिले आप थोड़ासा उसके जीवन को परख लीजिएगा, हफ़्ते भर उस पर नज़र रख लीजिएगा और जो बात मैं कह रहा हूँ उसको सत्यापित कर लीजिएगा। कोई आलसी आपको ऐसा नहीं मिलेगा जो उद्वेग के क्षणों में प्रचंड ऊर्जावान न हो जाता हो, आप जिस किसी को आलसी पा रहे हैं उसको आप ये भी पाएँगें कि अन्यतर कुछ क्षण होते हैं जिनमें उसमें इतनी ऊर्जा होती है कि जैसे बम का विस्फोट हो गया हो और दोनों ही अवसरों पर पागल है। जब उसमे ऊर्जा नहीं है तब भी वो पागल है और जब उसमें ऊर्जा है तब भी वो पागल हैं और ये दोनों बातें साथ-साथ चल रही हैं, साथ-साथ चलना ही है कि कैसे कोई जाकर के मदिरालय में, वेश्यालय में अपना सारा पैसा उड़ा आए, तो सुबह उसको नाश्ते के लिए भी कुछ बचेगा क्या?

रात तुमने क्या किया? रात तुमने क्या किया? रात तो तुममें ऊर्जा का अतिवेग था, रात तो तुम ऊर्जा छलका रहे थे जैसे प्याले छलकते हैं, सुबह क्या बचा है तुम्हारे पास? सुबह नाश्ते के भी पैसे नहीं है क्योंकि रात में ऊर्जा खूब छलकी। तो जिस किसी को आप सुस्त पाएँ, उसकी सुस्ती पर ध्यान मत दीजिएगा, अगर आप ज़रा भी उसको सलाह देना चाहते हैं, जिस किसी को सुस्त पाएँ, उसकी सुस्ती पर ध्यान मत दीजिएगा, आप तो ये पकड़िएगा कि वो किस मदिरालय में अपनी ऊर्जा छलकाकर आ रहा है, आप उसकी ऊर्जा का छलकना बन्द कर दें, उसकी सुस्ती जाती रहेगी।

सुस्ती तो अभाव है, जैसे बैंक में डाका पड़ गया हो और अब वहाँ पर मुद्रा का, नोटों का अभाव हो, उस अभाव का आप क्या कर लोगे? आप तो ये देखो की लुटाई कहाँ चल रही है? लुट गया बैंक अब वहाँ क्या बचा? सुस्ती, अब वहाँ कुछ है नहीं, सब गँवा दिया, अब वहाँ जाकर के छानबीन क्या कर रहे हो? अब वहाँ जाकर के क्या कह रहे हो कि अरे! उठो कुछ करो। वहाँ उठने के लिए कुछ शेष नहीं, क्या उठेगा? तुम तो ये देखो कि छुप-छुपकर अपने व्यक्तिगत क्षणों में, अपने गोपनीय क्षणों में वो ऊर्जा गवाँ कहाँ रहा है, उस जगह को पकड़ लो, लीकेज (रिसाव) बन्द कर दो। ये जो रिसाव हो रहा है निरन्तर हज़ार छिद्रों से ये बन्द कर दो और हमारा रिसाव अनवरत है; कभी-कभी तो वो इतना प्रकट हो जाता है कि जैसा मैंने कहा कि बम का विस्फोट, जब वो प्रकट नहीं होता तो भी सतत है।

आप यहाँ बैठे हुए हो मन चल रहा है न? कुछ-न-कुछ सोच रहा है और जो भी सोच रहा है, उसके केन्द्र में तुम हो, मेरी मरम्मत, मेरी देखभाल, मैं कैसे कुछ पा लूँ, मेरा कैसे कुछ छूट न जाए, मेरे डर, मेरा व्यक्तिगत जीवन, यही रिसाव है ऊर्जा का। ‘चलती चक्की’ और कौनसी चक्की चल रही है? और कौनसी चक्की चल रही है? कोई भी चक्की चले, क्या माँगती है? ऊर्जा, वो तुम्हारी ऊर्जा है, तुम्हारा जीवन निचोड़ रहा है, तुम्हारे जीवन की बूँद-बूँद चुसी जा रही है और चक्की चल रही है, चक्की चल रही है, चक्की थमने का नाम नहीं ले रही। जानते हो सज़ा क्या होगी तुम्हारी, सज़ा ये होगी की जिस क्षण तुम्हें वास्तव में ऊर्जा चाहिए, जिस जगह तुम्हें वास्तव में ऊर्जा चाहिए, वहाँ तुम पाओगे कि तुम बिलकुल अशक्त हो, बलहीन, नपुंसक। सब तो गवाँ आए, न जाने कहाँ? अब जहाँ ज़रूरत थी वहाँ हाथ कुछ है नहीं।

आइन रेंड का फाउंटेनेट हेड उपन्यास है, कई लोगों ने पढ़ा होगा, इसमें गेल वायनैंड चरित्र है, विद्रोही है, दुनिया को समझता है लेकिन दुनिया को फिर भी इतना महत्त्व तो देता ही है कि दुनिया से उलझा हुआ है; दुनिया पर थूकता है पर थूकने के लिए ही सही उलझा हुआ है। ज्ञानी हैं, समझदार हैं लेकिन विरक्त नहीं है अभी; वो बड़े-बड़ों को धारशायी करता है, धूल चटाता है। अपनेआप में एक चमकता हीरा है, फिर उसे एक दिन कोई ऐसा मिलता है जो उससे भी आगे के आयाम का है, हॉवर्ड रोर्क। गेल वायनैंड फ़िदा हो जाता है रोर्क पर, उसे कभी उम्मीद नहीं थी कि ऐसा कोई शख्स हो भी सकता है; वो पहले तो रोर्क को मिटाने की कोशिश करता है पर जल्दी ही समझ जाता है कि इसको मिटाना ऐसा होगा जैसे अपनेआप को मिटा दिया। वो कुरबान जा रहा है रोर्क पर और रोर्क जैसा है, जाहिर है जमाना उसके खिलाफ़ रहेगा; तो जमाना रोर्क के खिलाफ़ है, रोर्क को जेल होती है।

जेल के बाद अमेरिका भर की तमाम मीडिया उसके खिलाफ़ दुष्प्रचार का, बदनामी का अभियान चलाती है। गेल वायनैंड बड़ा आदमी है, बड़ी रसूक है उसकी, बड़ी ताकत है। और जब दुनिया रोर्क के खिलाफ़ है, रोर्क को मिटाना चाह रही है, तो वो कोशिश करता है रोर्क को बचाने की और उसकी कोशिश पूरी है, वो जान लगा देता है, रोर्क उसके लिए करीब-करीब देवता तुल्य है, वो जान लगा देता है रोर्क को बचाने के लिए। अन्तत: वो पाता है कि उसे रोर्क के विरोधियों से समझौता करना पड़ रहा है, वो रोर्क को बचाने के लिए ज़्यादा कुछ कर नहीं पाता, ये उसकी सज़ा है।

तुमने अपनी ऊर्जा यदि गलत जगह लगाई तो एक दिन ऐसा आएगा कि जब तुम पाओगे तुम्हें कुछ बहुत ऊँचा मिल गया है और उसकी सेवा में तुम अपनी ऊर्जा रखना चाहते हो और तुम उसकी सेवा कर नहीं पाओगे क्योंकि तुम्हारे पास कोई ऊर्जा शेष नहीं होगी। तुम सबकुछ तो गँवा आए वेश्यालय में, अब कोई कबीर कोई कृष्ण भी तुम्हारे सामने आ जाए तो तुम्हारे पास कुछ होगा नहीं उसे अर्पित करने को। वहाँ पर तुम कह दोगे मेरे हाथ खाली हैं, मैं आपको क्या दे सकता हूँ? दिल तुम्हारा रोएगा क्योंकि तुम देना चाहोगे, लेकिन तुम पाओगे तुम्हारे पास कुछ बचा नहीं देने के लिए क्योंकि सब तो तुम न जाने कहाँ खर्च कर आये? ये काम हम रोज़-रोज़ करते हैं, रोज़-रोज़ करते हैं। कहानी में एक घटना और भी होती है डोमिनिक फ्रैंकन है स्त्री चरित्र, वो गेल वायनैंड की पत्नी हैं, वो भी पूछती है रोर्क को, परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनती हैं कि वो गेल वायनैंड से ब्याह कर लेती है; जिस दिन गेल वायनैंड असफल रहता है रोर्क की सुरक्षा में, उस दिन डोमिनिक उसे छोड़कर रोर्क के घर चली जाती है, ये दूसरी सज़ा है और रोर्क अब डोमिनिक को स्वीकार कर लेता है और गेल वायनैंड न विरोध करता है न आपत्ति। उसे दिख गया है कि वो इस लायक ही नहीं कि डोमिनिक उसके साथ रहे, वो जाने देता है और सम्भावना बहुत थी गेल वायनैंड में। जिस तरह से उसका चरित्र बुना गया है उपन्यास में बड़ा सुन्दर व्यक्तित्व, जगी हुई आत्मा, जिसने अपना जीवन खुद गढ़ा; तमाम विरोधों में, कठिनाइयों में, योद्धा रहा, लड़ा और जीता, ऐसा चरित्र गेल वायनैंड और इस चरित्र को अन्त में बड़ा हताश होना पड़ता है बड़ा दुखद अन्त है इसका।

अगर गेल वायनैंड को हताश होना पड़ता है, तो सोचिए कि आम आदमी का क्या होगा? गेल वायनैंड तो हज़ारों में एक है तब भी उसे हताशा मिलती है, तो तनाव का और उत्तेजना का और भय और असुरक्षा का फल होना ही है आलस। और आलस गहराया तो मन के ऊपर प्रमाद बनकर छाना है और दूसरी चीज़ होती है विश्राम; विश्राम का सम्बन्ध मैं ऊर्जा से जोड़ रहा हूँ। ये बात थोड़ी अजीब लगेगी क्योंकि विश्राम तो ऐसा लगता है कि जैसे ऊर्जा थम गयी हो।

जिन व्यक्तियों को आप सतत ऊर्जा पूर्ण पायें, आप पाएँगें कि वो कभी भी अव्यवस्थित नहीं होते, उनकी ऊर्जा लगातार बहती रहती है, पर बौराती कभी नहीं है इसीलिए लगातार बह पाती है; उनमें आप ऊर्जा का अतिरेक और अभाव नहीं पाएँगें। वहाँ पर एक सातत्य होता है, एक निरन्तरता, एक मधुर प्रवाह। ऐसा नहीं होगा कि सुबह वो उत्साह से और उमंग से भरा हुआ है और शाम आते-आते खाली हो चुका है। वो सुबह जैसे काम कर रहा है, वो शाम को भी ऐसे ही काम कर रहा है; उसका जीवन ही काम है, वो जहाँ मौजूद है, वहीं काम हो रहे हैं। उसे काम करना नहीं पड़ता, वो कहीं भी जाएगा काम होगा, वो जहाँ पहुँचेगा, उसके पहुँचने भर से काम हो जाएगा, उसका होना माने काम का होना।

काम अब उसके लिए कार्य या कर्म नहीं है, काम उसकी छाया है, उसे करना नहीं पड़ता, उससे हो जाता है। जैसे कि इस हो जाने पर स्वयं उसका भी वश न हो, वो है तो हो जाएगा। जैसे कि वो मज़बूर हो गया हो, जैसे कि वो स्वयं भी बंधक हो, ‘दास कबीर’, अब समझ में आया दास कबीर क्यों? क्यों कहते हैं दास? कहते हैं ‘पाँव तले की घास हूँ, दासों का दास हूँ’ कबीर का वक्तव्य है, कहते हैं, ‘पाँव तले की घास हूँ और दासों का दास हूँ।’ दास हो गया है वो, क्योंकि उसने ये मालकियत छोड़ दी है, उसने ये हक छोड़ दिया है कि मैं तय करूँगा, कब काम करना है और कब काम नहीं करना है, उसने ये मालकियत ही छोड़ दी, उसने ये हक छोड़ दिया।

तुम अगर ये तय करोगे कि तुम अभी काम कर सकते हो, तो फिर तुम ये भी तय कर सकते हो कि काम नहीं कर सकता हूँ, ये तय करना खत्म, हम हैं तो काम होगा; हम जगेंगे तो जागृति का काम शुरू हो जाएगा, हम सो रहे होंगे तो सोते में भी काम ही आगे बढ़ रहा होगा, हम हँस रहे हैं तो हमारी हँसी, सिर्फ़ हँसी नहीं है वो काम आगे बढ़ा रही है, हम चल रहे हैं तो हमारी पदचाप, सिर्फ़ पदचाप नहीं हैं, उससे हमारा काम आगे बढ़ रहा है, हम खा रहे हैं तो उससे भी काम बढ़ रहा है, हम बाज़ार जाएँगे वहाँ भी उससे काम आगे ही बढ़ेगा, हम पहाड़ पर जाएँगे तो वहाँ काम हो जाएगा, हम किसी के बगल में भी बैठ गये तो जान लो काम हो रहा है, हमने किसी से हँसी-ठिठोली भी की तो उसको हँसी ठिठोली मत समझ लेना, काम हो रहा है। हम खेल रहें हों, तो उसको भी खिलवाड़ मत समझ लेना, काम हो रहा है।

अब काम लगातार हो रहा है और करने वाले ने मालकियत छोड़ दी है, वो विश्राम में है। विश्राम का सम्बन्ध है काम से; तनाव का सम्बन्ध नहीं है काम से। आपने बड़ा उल्टा तुक जोड़ रखा है और इस उल्टे तुक के कारण आप बड़ा दुख पा रहे हो, ज़िन्दगी में बड़ा अफ़सोस है। ये उल्टा तुक हटाओ और ये उल्टा तुक तो तुम्हें सिखाया गया है, ये जितने सफल लोग हैं और उपलब्धि की जितनी कहानियाँ हैं, सब तुम से यही कह रहे हैं कि जितनी मेहनत करोगे, जितनी योजना बनाओगे, मन पर जितना बोझ बढ़ाओगे, उतने आगे बढ़ोगे। वो तुम्हें घंटे गिनाते हैं, वो कहते हैं इतने घंटे श्रम करो तो तुम्हें इसका फल मिलेगा और ये सब बातें तुमने ग्रहण कर ली हैं, ये बड़ी ज़हरीली बातें हैं।

तनाव से यदि तुमने कुछ सिद्ध भी कर लिया तो वो तुम्हारे लिए और तनाव का कारण बनेगा, दुनिया के लिए बड़े तनाव का कारण बनेगा। मैं इनकार नहीं कर रहा की तनाव से कोई सिद्धि हो नहीं सकती, तनाव से कोई सफलता तुम्हें मिल सकती है लेकिन वो सफलता बड़ी-सी-बड़ी विफलता है, वो विष वृक्ष है, जो बोएगा वो उसकी हवा से विषाक्त हो जाएगा और उसके जाने के बाद उसके फल पूरे संसार में फैलेंगे, प्रभावित करेंगे। कोई इमारत अगर तनाव की बुनियाद पर खड़ी है तो उस इमारत से दुनिया भर में दुख व्याप्त हो रहा होगा, जान लो इस बात को और अधिकांश इमारतें हमारी ऐसी ही हैं। समझ मैं आ रही है बात? सुफल बस वहीं लगता है जहाँ काम विश्राम में हुआ हो, जहाँ काम ऐसे हो गया हो कि हँसते-खेलते। हँस रहे थे, खेल रहे थे काम हो गया, जी रहे थे काम हो गया, रो भी रहे थे तो रोना गौण था, काम हो गया। जीवन हमारा कुछ ऐसा है कि हम रोते हैं तो भी उसमें काम हो जाता है, हँसते है तब तो हो ही जाता है। जीवन हमारा ऐसा है कि हम जीतते हैं तो जानना कि काम जीता। और मज़ेदार बात ये है की हम हारते हैं तो भी हमारा काम जीत जाता है, जीवन ऐसा है। अब विश्राम है क्योंकि तुम्हारे प्रयत्नों के फल पर काम की सिद्धि निर्भर कर ही नहीं रही।

तनाव तो तुम्हें तब हो न, जब तुम कहो कि मैं जीता तो काम हुआ और मैं हारा तो काम नहीं हुआ; तुम यदि ये कहोगे अपनेआप से कि मैं जीता तो काम हुआ और मैं हारा तो काम नहीं हुआ, तो तुम्हे तनाव लेना पड़ेगा, क्योंकि अब जो तुम्हारा काम है उसके ऊपर शर्त लग गयी है, क्या शर्त लग गयी है? तुम हार नहीं सकते, हारे तो काम असफल हो जाना है।

जीवन ऐसा रहे कि तुम हारो, चाहे जीतो काम हो। याद रखना तुम छोटे हो, तुम जीव हो, तुम कभी हारोगे, तुम कभी जीतोगे। तुम सदैव नहीं जीत सकते, लेकिन तुम जीतो, चाहे तुम हारो, काम जीतना चाहिए। हमारी तो हार भी कुछ बुलन्दियों की बात है। हम खड़े हैं तो जीते हैं, हम अड़े हैं तो जीते हैं, हम झुके हैं तो भी जीते हैं, तो हमें दास होने में कोई आपत्ति नहीं। कैसी आपत्ति? जो आपत्ति करता है उसको हमने कहा चल हट, जो आपत्ति करता है हमने उसको ही रवाना कर दिया है, करेगा कौन आपत्ति? तनाव की ज़िन्दगी की अगर आदत पड़ गयी होगी तो विश्राम आलस जैसा लगेगा, ये आलस नहीं है। भागने की लगातार अगर आदत पड़ गयी होगी तो सहज़ ठहर जाना हार जैसा लगेगा, ये हार नहीं है।

प्र: लेकिन लगेगा।

आचार्य: लेकिन लगेगा, कुछ समय तक। पुरानी धूल है साफ़ होते-होते होती है, आपको कुछ ही समय तक लगेगा, संसार को बहुत समय तक लगेगा। आप यदि ठहर गये हो तो संसार आपसे बहुत समय तक कहता रहेगा तुम बाहर हो गये क्या? दौड़ में, होड़ में कहीं नज़र नहीं आते? अब तुम उन्हें कैसे बताओ कि जो जीत गया वो और क्यों दौड़े। दुनिया की हालत ऐसी है जैसे मैराथन हो बयालीस किलोमीटर की और कोई हो सच्चा तगड़ा धावक, वो दूसरों से, घंटे भर पहले ही पहुँच जाए और वो पहुँच कर विश्राम कर रहा है और दूसरे अभी दौड़ लगा रहे हैं और दुनिया आकर उससे कह रही है क्या हो गया तुम इतने आलसी क्यो हो? देखो, सब मेहनत कर रहे हैं, तुम हार गये क्या? उठो बन्धु ज़रा साहस धरो, तुम भी दौड़ो और ये पगले जान ही नहीं पा रहे कि अरे! ये जीत चुका है, अब ये क्या दौड़ेगा और तुम्हें उदाहरण दिये जा रहे हैं ये फ़लाने को देखो, वो अभी तक दौड़ रहा है।

मैराथन की दौड़ में तो बयालीसवें किलोमीटर से पहले आप रुक नहीं सकते, ज़िन्दगी की दौड़ में आप अनन्त यात्रा कर चुके हो इसीलिए जहाँ हो वहीं रुक सकते हो। मैराथन की यात्रा में तो बयालीस किलोमीटर से पहले रुके तो विजेता नहीं कहलाओगे, ज़िन्दगी में तो आप अनन्त यात्रा कर चुके हो पहले ही, इसीलिए जहाँ हो वहीं रुक जाओ।

मैराथन में विजयी तुम तब होते हो जब मुकाम पर पहुँचकर रुक जाते हो; ज़िन्दगी की यात्रा में विजयी तुम तब होते हो जब जान जाते हो कि जहाँ हूँ, वहीं मुकाम हैं और यहीं रुक जाऊँ। वहाँ जो पहुँचा, वो जीता, वहाँ जो पहुँचा, वो जीता और जीत कर रुका; यहाँ रुककर जीता। वहाँ जो पहुँचता है, वो जीता माना जाता है और जीतकर रुकता है, यहाँ जो रुक गया सो जीता; ज़रा उल्टा है मामला। रुकने का मतलब समझते हो न? हम चल क्यों रहे हैं हम अपने लिए चल रहे हैं अपनी फ़िक्र में अपनी फ़िक्र छोड़ दो।

ये जो लगातार का भय है मेरा क्या होगा? बस ये छोड़ दो, तुम जीत गये। तुम और कोई खयाल करते ही नहीं, तुम्हें एक ही खयाल है, कहीं मैं बर्बाद न हो जाऊँ, कहीं मेरा कुछ अहित न हो जाए, कुछ बिगड़ न जाए, कुछ छीन न ले जाए। बताने वालों ने ये नहीं बताया कि तुम्हारा कुछ छिन नहीं सकता। उन्होंने तुमसे कहा है, ‘सबकुछ छिन जाए तुम देख लेना कि तुम फिर भी हो, तो छिनने से इतनी आपत्ति क्यों?’ वो ये नहीं तुम्हें आश्वासन दे रहे हैं कि कुछ नहीं छिनेगा कभी, वो तो बल्कि और ज़ोर-ज़ोर से बता रहे हैं कि सब छिन जाना है, समय सब ले जाएगा, यम सब ले जाएगा, वो तो और ज़ोर-ज़ोर से घोषणा करते हैं, “उड़ जाएगा हंस अकेला।” वो तो और बताते हैं कि सब छिन जाएगा और साथ-ही-साथ बताते हैं कि सब छिनने के बाद भी फ़र्क क्या पड़ा? जो छिनता है छिन ही जाने दो, फ़र्क क्या पड़ा? काहे की चिन्ता?

तुम मानने को तैयार नहीं, तुम कहते हो नहीं बहुत फ़र्क पड़ेगा छिन गया तो, वो तुम से कह रहे हैं देखो अगर तुमने जीवन में ज़रा-सा भी कुछ असली कमाया है कि पाया है तो वो नहीं छिनेगा, भरोसा तो करो और नकली है अगर कुछ तो उसके छिनने में तुम्हे एतराज़ क्यों? असली कुछ है तो नहीं छिनेगा, यकीन मानो तुम्हारे जीवन में अगर ज़रा-सा भी कुछ असली है, तो कभी धोखा नहीं देगा तुमको।

ऊर्जा की साधना न करिए, विश्राम की साधना करिए, शिव प्रसन्न हैं, शक्ति स्वयं आ जाएँगीं, शिव प्रसन्न हैं, शक्ति स्वयं आ जाएँगीं। तो मैं कह रहा हूँ ऊर्जा की साधना मत करिए, वो जो विश्रामस्थ कैलाश पर बैठा है उसकी साधना करिए, वो हिलता-डुलता नहीं, वो क्या करता है? योगस्थ है, विश्राम और उसके विश्राम से दुनिया चलती है। दुनिया की सारी ऊर्जा उसके विश्राम से है। दुनिया की सारी शक्ति उसके विश्राम से है और जिस दिन वो विश्राम से उठ जाता है, क्या होता है?

प्र: प्रलय।

आचार्य: प्रलय, उसका विश्राम है तो दुनिया चल रही है। तुम्हारे विश्राम से, तुम्हारे सारे काम सधेंगें और विश्राम का अर्थ हाथ का चलना नहीं होता, दोहरा रहा हूँ विश्राम का अर्थ होता है मन का नाहक न चलना, मन का सो जाना विश्राम है। जीव के लिए जो सम्यक अवस्था है उसको कहते हैं जाग्रत सुषुप्ति। जब जगे हो तो ऐसे जगे रहो जैसे सुषुप्ति में हो। जगे हैं, इन्द्रियाँ काम कर रही हैं, मन भी काम कर रहा है, पर भीतर कुछ ऐसा है जैसे वो गहरी सुषुप्ति में हो, उस पर असर नहीं पड़ता। बाहर-बाहर जगे हैं, भीतर-भीतर सोये हैं; बाहर-बाहर क्रिया है और भीतर-भीतर स्थिरता, अचलता। बाहर सब चलायमान है और भीतर कुछ ऐसा है जो रंच मात्र भी नहीं डिगता, अचल-अचर। सारे काम बाहर-बाहर हो रहे हैं, भीतर तो कुछ हिलता नहीं, जिसने इस न हिलने वाले की साधना कर ली, उसकी चलित क्रियाएँ सब सध जाएँगीं, तुम पाओगे तुम्हारे जीवन में चलने-फिरने में बड़ी अलयता है, बड़ी कुरूपता है; तो रुकना, कूद-फाँद से काम नहीं बनेगा। रुकना माने, बिस्तर पर सोना नहीं, रुकना माने?

प्र: मन की स्थिरता आचार्य: ये (सिर की ओर इशारा करते हुए) स्थिर रहता है, बाहर सारे काम हो जाते हैं; फिर तुम्हें ऊर्जा का कभी अभाव नहीं अनुभव होगा, दिनभर काम करोगे और वो काम होगा ही नहीं, वो क्या होगा? वो विश्राम होगा और काम दिन भर कर रहे हो, विश्राम है। भई हम लोग तो क्या सिखाते हैं? विश्राम, “सुमरन मेरा हरि करें मैं पाऊँ विश्राम; माला फिरूँ न जप करूँ मुँह से कहूँ न राम, सुमिरन मेरा हरि करें मैं पाऊँ विश्राम” बहुत-बहुत आगें की बात है। इसको शाब्दिक तौर पर मत ले लीजिएगा, भूल हो जाएगी। पर विश्राम की कीमत इतनी है कीमत इतनी है कि कबीर कह रहे हैं कि उसके आगे तो मैं पूजा-पाठ, सुमिरन सब छोड़ने को तैयार हूँ, सब छोड़ सकता हूँ विश्राम नहीं छोड़ सकता। अस्तित्व का केन्द्रिय मूल्य हैं विश्राम और यदि आप ज़रा ध्यान देंगे तो आप पाएँगें कि विश्राम और मुक्ति एक ही चीज़ के दो नाम हैं।

अस्तित्व का केन्द्र हैं विश्राम, अस्तित्व कह रहा है विश्राम से बड़ा कोई मूल्य नहीं, कोई मूल्य ही नहीं। बाकी सारी चीज़ें जिन्हें तुम कीमत देते हो फीकी हैं विश्राम के आगे, तो फिर अस्तित्व सबसे ज़्यादा किसके खिलाफ़ है? तनाव के खिलाफ़।

तनाव का मतलब है आन्तरिक चक्की चले जा रही है चले जा रही है और तुम सबसे ज़्यादा किसके पक्ष में खड़े हो? तनाव के। क्योंकि दिनभर तुम तनाव को ही प्रश्रय देते हो। अब तुम्हारी और अस्तित्व की ठन गयी कि नहीं, अस्तित्व कह रहा है तनाव की ज़रूरत नहीं और तुम कह रहे हो बिना तनाव के जीऊँगा कैसे? तो इसीलिए तुम लगातार अस्तित्व के विरोध में पाते हो सबकुछ, इसीलिए इतनी दंद-फंद हैं, इतने द्वन्द्व हैं, इतनी लड़ाइयाँ हैं; आदमी-आदमी की लडाई है, आदमी-पर्यावरण की लड़ाई है, आदमी के भीतर हज़ार लड़ाई हैं।

प्र: चारों ओर लड़ाई है।

आचार्य: अपनी फ़िक्र करने को कहते हैं हिंसा, ये हिंसा की सबसे सीधी परिभाषा है। अपनी फ़िक्र करने का खयाल हिंसा है, बाकी सारी छोटी हिंसाएँ इस मूल खयाल से उद्भूत होती हैं।

प्र: लेकिन ऐसा होता नहीं हैं न? हमें पता है कि ठीक है ऐसा होता है लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। आचार्य: डरे हो इसलिए नहीं हो पाता। डर में विश्वास है और तुम्हारा विश्वास अकारण नहीं है। तुम्हारे अनुभव ऐसे रहे हैं कि डर ने तुम्हें कुछ दिया है, इसीलिए डर में तुम्हारा विश्वास गहरा गया है। तुम बच्चे थे स्कूल की परीक्षा थी तुम्हें डराया गया कि पढ़ोगे नहीं तो फेल; उस डर के मारे तुम पढ़े और उस डर के कारण तुम उत्तीर्ण भी हो गये, तो डर ने तुम्हें कुछ दिया न? तो डर में तुम्हारा विश्वास और गहरा गया। बस चूक इतनी हुई कि तुम ये नहीं देख पाए तब कि डर ने छीना क्या? जो मिला वो प्रकट था, जो छिना वो अव्यक्त था, उसका तुम कोई हिसाब नहीं रख पाए। जैसे किसी को सौ किलो लोहा मिल जाए और खुश होता हो, क्यों? सौ किलो लोहा मिला और उसके बदले में मैंने सिर्फ़ पचास ग्राम का हीरा दिया और वो खुश हो रहा है कि पचास ग्राम देकर सौ किलो हासिल कर लिया, उसको ये समझ में ही नहीं आ रहा है कि पचास ग्राम का हीरा?

प्र: सौ किलो के हीरे से ज़्यादा है।

आचार्य: मैंने हीरा गँवा दिया लोहे में। हाँ लोहा बहुत सारा था, इतना सारा लोहा था सौ किलो लोहा कोई रख गया तुम्हारे घर और छिना क्या है घर से एक ज़रा-सा सूक्ष्म, पता ही नही चलता कि छिन गया। तुम हिसाब ही नहीं रख पाए, मन भर गया तमाम चीज़ों से, छिना क्या? वो जो सूक्ष्म शान्ति होती है, वो बिन्दु छिन गया, तुम हिसाब ही नहीं रख पाए कि क्या गँवा दिया। तो मैं इनकार नहीं कर रहा हूँ कि डर से तुम्हें लाभ नहीं होता है, निश्चित डर से तुम्हें कुछ मिलता है, कोई शक नहीं इसमें, लेकिन साथ ही ये देखा करो कि (उससे क्या छिन रहा है)

प्र: जैसे आपने अभी बताया था कि लीकेज हम सारी बन्द कर दें और उससे ऊर्जा एकत्रित एक तरीके से होगी जब हम लीकेज बन्द होगीं, तो हम ऐसा क्या करें वो ऊर्जा एकत्रित होगी उसे तो बचा पाएँ या वो ऊर्जा का अतिरेक विश्राम में तब्दील हो पाए?

आचार्य: नहीं, ऊर्जा एकत्रित नहीं होगी, ऊर्जा बहेगी ही नहीं, ऊर्जा बहेगी ही नहीं। अपने सवाल ऐसा पूछा है कि अगर नदियों में जो पानी बह रहा है ये न बहे तो इसका हमें क्या इन्तज़ाम करना पड़ेगा? आपको कोई इन्तज़ार नहीं करना पड़ेगा। वो पहाड़ के शिखर पर बर्फ बनकर बैठा रहेगा और आपको कुछ करना नहीं है उसका। वो मौजूद है, उसकी निराकार मौजूदगी है, बह नहीं रहा है, वो मौजूद है, आपको उसका कोई प्रबंध नहीं करना है। आप इस बात पर ध्यान मत दो कि यदि ऊर्जा रिसेगी नहीं तो मैं उसका उपयोग क्या करूँगा? प्र: हम उसे पचा कैसे पाएँगें या?

आचार्य: समझिएगा बात को, थोड़ा सूक्ष्म है। जिसकी ऊर्जा बह रही है वो एक आदमी है और जिसकी नहीं बह रही वो दूसरा आदमी है। जिसका रिसाव हो रहा है, जिसके मन में छेद-ही-छेद है, जिसकी चक्की निरन्तर चल रही है वो एक आदमी है और जिसकी नहीं चल रही वो दूसरा है। तो जब आप उन छेदों का इन्तज़ाम कर लोगे तो आप, आप नहीं रहोगे आप बदल गये, आप दुसरे हो गये।

आपका जो प्रश्न है वो कुछ ऐसी धारणा से रहा है कि मैं बैठा हूँ, ये एक अवस्था है (एक हाथ दिखते हुए) कि जिसमें ऊर्जा का अपव्यय हो रहा है, और एक दूसरी अवस्था है (एक हाथ दिखते हुए) जिसमें ऊर्जा का सदुपयोग हो रहा है और इस अवस्था से, इस अवस्था को लाना है (एक हाथ से दूसरे हाथ मे ऊर्जा के स्थानांतरण का अभिनय करते हुए) और इन दोनो ही अवस्थाओं में, मैं तो मैं हूँ। आप अपनेआप को कायम मान रहे हो, मैं तो मैं हूँ। एक अवस्था ये (एक हाथ दिखाते हुए), एक अवस्था ये (एक हाथ दिखाते हुए); अवस्था बदल जाएगी। अवस्था नहीं बदलेगी, आपका पुनर्जन्म हो जाएगा; आप दूसरे हो जाओगे, ये जो दूसरा है उसको ये सवाल उठेगा ही नहीं कि मैं इस ऊर्जा का करूँ क्या? क्योंकि ये अब उसकी उर्जा नहीं है। वो दास है उसे ये तय ही नहीं करना कि मुझे उर्जा का क्या करना है?

ये जो पहला वाला था ये व्यर्थ की मालकियत समझता था, तो इसको ये चिन्ता सताती थी कि मैं मालिक हूँ तो मैं निर्धारित करूँगा न कि मुझे ऊर्जा का क्या करना है? बंदा बदल गया, आदमी बदल गया। ये जो नया आदमी है, इसको ये चिन्ता सताएगी ही नहीं कि मुझे इस ऊर्जा का क्या करना है? क्योंकि इस ऊर्जा पर अपना वो हक मान ही नहीं रहा। ये मेरी ऊर्जा है ही नहीं, जिसकी है उसके काम में अपनेआप लग जाएगी, ये बात अभी आप कल्पना नहीं कर पाओगे, ये बात आप विचार करने लगोगे तो उलझ जाओगे कि वो आदमी कैसा होगा? और मैं बदल जाऊँगा तो कैसा हो जाऊँगा?

इसीलिए मैं कहता हूँ ऐसे विचारों में फँसो ही मत कि बाद में क्या होगा? अभी तो बस ये देख लो की रिसाव-ही-रिसाव, छिद्र-ही-छिद्र हैं, लीकेज-ही-लीकेज हैं। अभी तो बस उन छिद्रों का मुँह बन्द करो, बाद में क्या होगा? जो भी होगा शुभ होगा। बाद में क्या होगा? जो भी होगा मंगल होगा, चिन्ता क्यों करनी? चिन्ता करना किसका काम है? पहले आदमी का कि बाद वाले?

प्र: पहले वाले का।

आचार्य: जब पहले का काम है चिन्ता करना तो बाद वाले की चिन्ता क्यों कर रहे हो? वो तो स्वयं चिन्ता मुक्त है, लेकिन हम यही करते हैं, हम कहते हैं, ‘पहले बताओ कि बाद में क्या होगा? फिर छलांग लगाएँगें।’ अब बाद में जो कुछ होगा उस पहले वाले को पसन्द आना नहीं है, बाद में जो होगा वो पसन्द किस को आना है? बाद वाले को। बाद वाला अभी है नहीं और बाद वाले की खबर किसको दी जा रही है? पहले वाले को। पहला वाला उस खबर का क्या करेगा? पहला वाला उस खबर का इस्तेमाल करेगा न बदलने के लिए। पहला वाला कहेगा, ‘ठीक है हमें पता चल गया की बदलकर क्या बनना है? और बदलकर जो बनना है उसकी तस्वीर हमें पसन्द नहीं आयी, इसीलिए हम इनकार करते हैं, अब हम बदलेंगे ही नहीं।

मन जब-जब भी ये सवाल पूछे न कि मुक्ति से क्या मिल जाएगा या कि ऊर्जा बचा लूँगा फिर ऊर्जा का उपयोग क्या करूँगा? मन जब भी दूसरे आयाम के विषय में सवाल करे तो समझ जाना कि ये सवाल नहीं कर रहा है, ये अपनी सुरक्षा का प्रबंध कर रहा है। ये सवाल नहीं है ये मन का कवच है। मन बदलने से बचना चाहता है इसलिए ऐसे सवाल खड़े कर रहा है। इस सवाल का जवाब अच्छा आएगा तो भी मन नहीं बदलेगा, इस सवाल का जवाब बुरा आएगा तो भी मन नहीं बदलेगा। तो इस सवाल का जवाब नहीं देना है, इस सवाल को बस उपेक्षित कर देना है।

प्र: ये भी मन की चाल हो सकती है, ये सवाल करना है।

आचार्य: चाल है, चाल ही है, चाल ही है। मैं बुद्ध बन गया मुझे क्या मिलेगा? और ये पहला सवाल है सारी दुनिया में सब बुद्ध हो गये दुनिया कैसे चलेगी? और देखिए आपके भीतर से तुरन्त इन सवालों के प्रति हास्य नहीं उठता, आपके मन में इन सवालों के प्रति सहमति उठती है। क्योंकि सवाल तो वाज़िब है, सब बुद्ध हो गये तो दुनिया कैसे चलेगी? देखिए, फँस गये न तुरन्त? हमारे सामने परमात्मा भी आये तो कहेंगे कि पहले डेमो (प्रदर्शन) दिखाना। मोक्ष का सैंपल मिलेगा क्या? और पाँच-सात अलग-अलग तरीके के भेजना, मिसेज़ (श्रीमती) से पूछ कर बताएँगें कौनसा वाला ठीक है, फिर मिसेज़ आएँगी और वो मोक्ष के सात सैंपल में से एक पर ऊँगली रखेंगी और कहेंगी पहले लेकिन डिस्काउंट ले लेना।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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