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तनाव और दबाव नहीं झेल पाते? || आचार्य प्रशांत (2020)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, नमस्ते। मैं तनाव, दबाव माने प्रेशर सिचुएशन (तनावपूर्ण स्थिति) झेल नहीं पाता हूँ। जैसे ही मुझ पर दबाव पड़ता है बाहर से, मैं टूट जाता हूँ अन्दर से। अभी जवान हूँ तो ये हालत है और पूरी ज़िन्दगी सामने पड़ी है। न जाने क्या-क्या चुनौतियाँ आनी हैं, कैसे झेलूँगा?

आचार्य प्रशांत: देखो, कोई भी बाहरी दबाव किसी ऐसी ही चीज़ को तोड़ सकता है जिसको वो स्पर्श कर सके, है न? बात समझ रहे हो? जो चीज़ जिस आयाम में है, वो उस आयाम के ही किसी बल द्वारा तोड़ी जा सकती है। आयाम समझते हो? तल। अब उदाहरण के लिए, ये जो मेज़ है मेरे सामने, ये एक आयाम है, एक तल है, एक डायमेंशन है। ठीक है? इसको मैं एक मुक्का मारकर शायद तोड़ सकता हूँ, लेकिन इसको तोड़ने के लिए ज़रूरी होगा कि मुक्का इसी तल पर आकर इस मेज़ से टकराए। है न?

अगर इससे कुछ दूर जाकर के या ऊपर जाकर के या नीचे जाकर के मैं मुक्केबाज़ी करूँ, मैं दीवार पर मुक्का मारूँ या मैं हवा में मुक्का चलाऊँ तो क्या ये मेज़ टूटेगी? नहीं न। कोई भी वस्तु अपने ही तल की किसी ताक़त का दबाव अनुभव कर सकती है।

तुमने लिखा है — दबाव पड़ता है बाहर से, टूट जाता हूँ मैं अन्दर से। बाहर की चीज़ अन्दर की चीज़ को कैसे तोड़ सकती है? इसका मतलब तो फिर ये है कि अन्दर-बाहर एक है। इसका मतलब जो अन्दर है, वो अन्दर है ही नहीं अभी पूरी तरीक़े से। अन्दर और बाहर में सन्धि है। अन्दर और बाहर में एक एका है। नहीं तो बाहर जो हो रहा होता वो हो रहा होता, अन्दर तक पहुँच ही नहीं होती बाहर वाले की। बाहर का आयाम अलग होता, अन्दर का आयाम अलग होता। बाहर के आयाम में घटती कोई घटना अगर अन्दर इतना अन्दर डाल रही है, तो इसका मतलब जो अन्दर है वो वास्तव में अन्दर है ही नहीं। वो बाहर का ही हिस्सा है। वो बाहर से ही जुड़ा हुआ है‌, है न? अगर अन्दर जो है वो बाहर से जुड़ा हुआ नहीं है, तो बाहर घटती घटना अन्दर टूट-फूट कैसे कर देती?

मतलब समझो। अन्दर जो होता है न, उसे आत्मा कहते हैं। आत्मा वो है जो अस्पर्शित रहती है दुनिया की हर चीज़ से। उसे कोई छू नहीं सकता, उसे कोई कँपा नहीं सकता, उसे देखा नहीं जा सकता, उस तक पहुँचा नहीं जा सकता, तो उसे तोड़ा कैसे जा सकता है? वो अटूट है, अकाट्य है, अछेद्य है, अवध्य है, अखंड है, उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। याद है न — ‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि’; शस्त्र उसको छेद नहीं सकते, अर्जुन! और पावक, माने अग्नि उसको जला नहीं सकती। वो आत्मा है।

क्योंकि शस्त्र आयेगा तो बाहर-बाहर कुछ कर लेगा न! बाहर क्या होता है? ये शरीर होता है। बाहर शरीर होता है, माने खाल ही भर शरीर नहीं होती, जहाँ तक शरीर है उस पूरी जगह को शरीर ही मानते हैं। यहाँ तक कि ये जो तुम्हारा दिल है, हृदय है, चाहे तुम्हारे फेफड़े हों, ये भी बाहर ही हैं, क्योंकि बाहर का कोई तीर आकर के इनको छू जाएगा। है न?

और क्या कह रहे हैं कृष्ण? कि आत्मा वो है जिसे शस्त्र बेध नहीं सकता। तुम्हारा जो दिल है, हृदय है या तुम्हारा जो फेफड़ा है या तुम्हारे भीतर जो भी हड्डी-माँस वगैरह हैं, वो सब तो बाहर की गोलियों से और तीरों से बींधे जा सकते हैं न, तो वो भी बाहरी ही हैं।

व्यक्ति के पास कुछ ऐसा होना चाहिए जिसे कुछ नहीं छू सकता दुनिया का। व्यक्ति के पास वही होना चाहिए जिसकी चर्चा श्रीकृष्ण अर्जुन से बार-बार कर रहे हैं — "पानी उसे भिगा नहीं सकता, धूप उसे सुखा नहीं सकती, आग उसे जला नहीं सकती, जन्म उसका होता नहीं, मृत्यु उसे मार नहीं सकती।" वो अगर नहीं है तो तुम दुनिया के ही आश्रित-ग़ुलाम रहे आओगे। फिर वही हालत रहेगी जो तुमने यहाँ लिखा है कि बाहर से दबाव पड़ा नहीं कि भीतर टूट गये। इसका मतलब जिसको तुम भीतर समझ रहे हो, वो बाहरी का ही निर्माण है‌।

बाहरी क्या है? बाहरी देह है, बाहरी मन है‌, बाहरी समाज है, बाहरी समाज से आने वाले सब प्रभाव हैं। ये सब बाहरी चीज़ें होती हैं।

तुमने जिसको अपनी हस्ती, अपना वजूद माना है, वो सब कुल-मिलाकर के इसी से निर्मित है क्या? लग तो ऐसा ही रहा है‌। तुम्हारी अपनी जैसे कोई आंतरिकता है ही नहीं‌। तुम्हारे विचार कहाँ से आये? बाहर से आये। तुम्हारा पैसा कहाँ से आया? बाहर से आया। तुम्हारा नाम कहाँ से आया? वो ख़ानदान से आया। तुम्हारा शरीर कहाँ से आया? माँ-बाप से आया। शिक्षा कहाँ से आयी? बाहर की शिक्षा-व्यवस्था से आयी। रुचियाँ कहाँ से आयीं? माहौल से आयीं। देह जो इतनी बड़ी हो गयी है अब, इसका आकार और विस्तार कहाँ से आया? बाहर से लिए हुए अन्न-जल से आया, हवा-पानी से आया।

जो भी कुछ तुम्हारे पास है — भावना, विचार, तुम्हारी पूरी अस्मिता — वो तुमने कहाँ से पायी? वो तुमने दुनिया से ही पायी। जब दुनिया से ही पायी तो तुम पूरे के पूरे फिर बाहरी हो न।

दो-तीन साल पहले, छोटे-छोटे बच्चे थे, उनके साथ मैं पहाड़ों पर शिविर कर रहा था। तो उनके साथ मैंने गाना गाया था। वो शायद अभी यूट्यूब पर होगा। क्या था वो गाना? "मैं पूरा बाहरी हूँ।" वो गाना तुम्हारे ही लिए है। उसको सुनना तुम — "मैं पूरा बाहरी हूँ।" वहीं लगे हाथ, वो बच्चे थे छोटे, उनके साथ गाते-गाते ही गीत की रचना होती गयी और मैं गाता गया। "मैँ पूरा बाहरी हूँ…।" (गाते हुए)

मैं तो पता नहीं पूरा बाहरी हूँ कि नहीं, पर तुम ज़रूर हो (प्रश्नकर्ता को सम्बोधित करते हुए)। और यही ख़तरा है पूरे तरीक़े से दुनिया की निर्मित्ति बन जाने में। जो दुनिया का है उसे दुनिया के ही हिसाब से चलना पड़ेगा। जो दुनिया का है, दुनिया उसे बना भी सकती है, बिगाड़ भी सकती है। सुख भी दे सकती है, दुख भी दे सकती है। झूला झुलाती है उसे फिर दुनिया — कभी उठा देगी, कभी गिरा देगी। दुनिया के रहम-ओ-करम पर हो जाता है; बड़ी गुलामी, बड़ी निर्भरता!

ऐसे नहीं होना है। जो ऐसे जी रहा है, वो फिर जी ही नहीं रहा है। उसका जीवन तो फिर ऐसे ही हो गया बिलकुल जड़, किसी यंत्र जैसा। कोई और आकर बटन दबा रहा है, कोई और आकर के उससे काम करा रहा है, कोई और तय कर रहा है कि कब चलेगा, कब सोएगा।

आत्मा तक पहुँचना होता है। आत्मा तक पहुँचने का ज़रिया क्या है? आत्मा तक पहुँचने का ज़रिया है अध्यात्म। आत्मा तक पहुँचने का ज़रिया है आत्म-जिज्ञासा। इसीलिए तो ये पूरा क्षेत्र है न विज्ञान का, अन्दरूनी विज्ञान का। इसके बिना बाहर-बाहर तुम जो कुछ भी हासिल कर लो — पद, प्रतिष्ठा, ज्ञान — वो सब होते हुए भी तुम डरे-डरे रहोगे, टूटे-टूटे रहोगे। दुनिया तुम्हारे सिर चढ़कर नाचेगी।

समझो कि कौन हो तुम, समझो कि कौन नहीं हो‌ तुम। और शुरुआत करनी पड़ेगी ये समझने से कि क्या नहीं हो तुम। शुरुआत करनी पड़ेगी — ‘मैं क्या नहीं हूँ? कौन नहीं हूँ मैं?’ और फिर तुम पहुँच जाओगे — ‘कौन हूँ मैं?’, इस प्रश्न पर।

पहले झूठ काटना पड़ेगा। झूठ ही तो सच के ऊपर तमाम तरह का पर्दा बनकर बैठा रहता है न? तो शुरुआत करनी पड़ेगी झूठ को काटने से। उसमें सहारा देते हैं उच्चतम कोटि के आध्यात्मिक ग्रन्थ। एक माहौल पैदा करते हैं वो। कुछ सवाल पूछते हैं वो तुमसे। कोई तुम पर अपनी बात थोपते नहीं, तुम्हें विवश कर देते हैं कुछ सोचने के लिए। तुम्हें विवश कर देते हैं कुछ ऐसे सवालों से उलझने के लिए जो सामान्यतया हमारे सामने आते नहीं हैं।

तो, वो सबकुछ जो बाहरी है पर भीतरी बनकर बैठ गया है, अध्यात्म उसको काटता है। जैसे-जैसे वो कटता जाता है, वैसे-वैसे तुम उसको पाते जाते हो जो बाहरी नहीं है, जो बिलकुल तुम्हारा अपना है। उसके बाद कोई बाहरी दबाव तुमको परेशान नहीं कर पाएगा। बिलकुल नहीं।

सोना, सज्जन, साधुजन, टूटि जुरै सौ बार। दुर्जन कुम्भ-कुम्हार के, एकै धका दरार।। ~ कबीर साहब

आ रही है बात समझ में?

उसके बाद, बाहर से कितने भी तुम पर आघात होते रहेंगे, "टूट जुरै सौ बार"। सोना, सज्जन, साधुजन, इन पर बाहर से बहुत चोटें पड़ती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि टूट ही गये लेकिन थोड़ी देर में देखो तो ये जुड़े होते हैं। तुम इन्हें सौ बार तोड़ो, ये सौ बार तुमको जुड़े हुए मिलेंगे, क्योंकि इनके पास कुछ ऐसा है जो सब तरह के आघात-अपघात झेल जाएगा। वो बहुत मज़बूत है।

वो जो इनके पास है, वो तुम्हारे पास भी है; बस उस तक पहुँचना है। तो आत्मजिज्ञासा और अध्यात्म के साथ रहो। धीरे-धीरे दुनिया के प्रति निरपेक्ष होते जाओगे। दुनिया के प्रति बस साक्षी जैसे होते जाओगे। दुनिया कुछ बिगाड़ नहीं पाएगी तुम्हारा।

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