तैंतिस कोटि देवता मरिहैं || आचार्य प्रशांत, मीराबाई पर (2015)

Acharya Prashant

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तैंतिस कोटि देवता मरिहैं || आचार्य प्रशांत, मीराबाई पर (2015)

कीट पतंग और ब्रह्मा भी चले गए

कोई न रहेगा अवसान

~ मीरा

प्रश्न: सर, ब्रह्मा भी चले गए, यह बात कुछ समझ में नहीं आ रही है।

वक्ता: कुछ नही है जो मन से न निकला हो

मन ही जन्म है, मन ही मत्यु है। व्यर्थ ही नहीं कहते हैं कबीर कि तैंतिस कोटि देवता मरे हैं। तैंतिस कोटि देवता मरे हैं, कैसे? क्यों?

बात सीधी है, क्योंकि वो सारे देवता हैं क्या? मन की उपज।

जो मन से जन्म पाता है, वो मृत्यु भी पायेगा। जिसका आना है, उसका जाना भी होगा।

ब्रह्मा मूर्त रूप हैं, उन्हें ब्रह्म न जान लेना।

ब्रह्म से समस्त ब्रह्मा हैं, और ब्रह्मा से समस्त ब्रह्माण। ब्रह्माण भी जायेंगे, ब्रह्मा भी जायेंगे।

जो न आया है, न जाएगा, उसको नाम भर दिया गया है ब्रह्म।

वो नाम भी मन की खातिर दे दिया गया है, क्योंकि तुम्हें नामों के अलावा और कुछ सूझता नहीं। तो वो जो एक सत अविनाशी मूल-तत्व है, उसका नाम ब्रह्म है। उसके अलावा सब कुछ विनाशशील है। सब कुछ मर्त्य है। वो जाएगा।

और हुआ भी यही है। भारत को ही ले लो, हिन्दुओं को ही ले लो, वेदों के आरम्भ के काल में जिन देवताओं की पूजा होती थी, वो वैदिक-काल के अंत तक आते-आते अमहत्वपूर्ण हो गए। मरण और किसको कहते हैं? स्मृति में ही ज़िन्दा थे और स्मृति से ही लोप हो गया उनका, तो मर गए।

आज भी दुनिया में कम से कम डेढ़-सौ जीवित धर्म हैं। जिनके अनुयायी हैं। जिनके सिद्धांतों का और संगीताओं का पालन हो रहा है। जितने धर्म हैं, उससे कहीं ज़्यादा आकर के जा चुके हैं। कहाँ गए वो सारे देवी-देवता?

क्या आश्वस्ति है इस बात की कि ब्रह्मा नाम की परिकल्पना भी शेष रहेगी सुदूर भविष्य में?

जब समस्त ब्रह्माणों को काट दिया जाता है, जब समस्त ब्रह्माओं को काट दिया जाता है, तब जो खुला-साफ़-व्यापक दिखाई देता है, सो ब्रह्म है।

ऐसा नहीं है कि वो काटने से पहले था नहीं। उसी में उपजना था और उसी में काटना था। सब उसी में था।

जैसे कि करोड़ों लहरों वाला समुद्र; लहरें उठ रही हैं, गिर रही हैं, समुद्र तो बस है। लहरों के साथ भी है, लहरों के बिना भी है।

बस, है।

लहर के दृष्टिकोण से जीवन है और मृत्यु है, क्योंकि कभी आई थी और कभी विलुप्त हो गई।

सागर के दृष्टिकोण से न जन्म है, न मृत्यु है, मात्र होना है। जिसे जीवन कह सकते हो, यदि चाहो तो, न चाहो तो नाम देने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है। जीवन कहने की आवश्यकता नहीं है और सागर भी न कहो तो भी चलेगा। क्योंकि वास्तव में तुम जिसे सागर कहते हो वो भी मात्र एक लहर है।

जिसको तुमने नाम दे दिया, वो तो उस अनंत सागर की एक लहर बन जाता है, क्योंकि नाम तो सीमित को ही दिया जा सकता है। क्योंकि हम सीमित हैं इसीलिए नाम दे कर के सब कुछ सीमित कर देना चाहते हैं।

लहराने का नाम समुद्र है।

तुम्हारा जो आम समुद्र होता है, उसमें लहरें न भी रहें तो जल शेष रहेगा।

ये जो अस्तित्व का महा-समुद्र है, इसमें लहरें ही लहरें हैं। जब लहरें हटती हैं, तो शून्य शेष रहता है। आधा-अधूरा शून्य नहीं, पूर्ण शून्य।

तो जो लहरों को देखने का अभ्यस्त हो, उसे जब अगर लहरें न दिखाई दें, तो वो कहेगा सब मिट गया। क्योंकि उसकी दृष्टि पकड़ ही बस लहरों को पाती थी। लहरें नहीं दिखाई दे रहीं, वो कहेगा “सब मिट गया”।

पर जो ज़रा नज़र वाले हैं, जिनकी आँखें ज़रा मर्म देखती हैं, वो कहेंगे कि, “जो है वो तो है ही, कुछ बदलता कहाँ है?”

तभी तो जानने वालों ने समय की व्यर्थता, समय की निस्सारता, समय की भ्रामकता को जाना है। समय का अर्थ ही है लहर का उठना, लहर का गिरना। इसी में हमारी सारी कहानी निहित रहती है- कभी धूप, कभी छाँव; कभी आना, कभी जाना; कभी अच्छा, कभी बुरा; कभी जन्म, कभी मृत्यु; कभी पाना, कभी खोना। कुछ नहीं है ये, वही है- लहर उठी, लहर गिरी। लहर उठी, लहर गिरी।

दृष्टि ऐसी रखिये जो लहरों को नाम न दे होने का, जो ये न कहे कि लहरे हैं, जो लहरों के पार देखे। क्योंकि यदि आप लहरों को होने का नाम दोगे तो लहरों के न होने को आप मृत्यु का नाम भी दोगे, और आपका पूरा जीवन मृत्यु के भय में बीतेगा। आपके जीवन पर सदा एक विराम की छाया रहेगी- मृत्यु आ रही है, आ रही है, आ रही है; लहर जा रही है, जा रही है, जा रही है।

दृष्टि ऐसी रखो जो उसी को न देखे जो उठ रहा है, गिर रहा है; जो चलायमान है, जिसमे स्पन्दन हो रहा है, जिसमे गति हो रही है। वो गहरी गति के बीच भी उसको देखे जो अचल है, स्थिर है।

कृष्णमूर्ति कहते हैं ऐसे, जैसे खुला मैदान हो, और उसमें मात्र एक पेड़ खड़ा हो। लम्बा, चौड़ा, विस्तृत मैदान और उसमें मात्र एक पेड़ खड़ा हुआ हो, उस पेड़ को याद करो। आँख ही है, कुछ भी देख सकती है, लहर पे जा के अटक सकती है।

तुम्हारे चित्त पर है, तुम्हारा चित्त अगर लहरा रहा है, तो उसे लहरें ही दिखाई देंगी। सब कुछ तुम्हारे ही मन में तो है, लहरें कोई बाहर थोड़ी हैं, लहराते मन के लिए लहरें हैं और शांत मन के लिए समुद्र है।

मन को समुद्रवत कर लो, लहरों से कोई बैर नहीं है, लहरें प्यारी हैं। लेकिन लहरों के मध्य रहकर भी भूलो मत कि तुम लहर में नहीं हो, समुद्र में हो तुम और प्रमाण ये है कि लहर के साथ उठोगे, लहर के साथ गिरोगे, लेकिन रहोगे तब भी। तुम यदि लहर में होते तो लहर के जाने के साथ तुम ख़त्म हो गए होते, तमाम लहरें आईं और चली गयीं, तुम्हारा होना अक्षुण्य है, तुम लहर में नहीं हो। लगता हमेशा यही है कि लहर में हो क्योंकि प्रत्येक परिस्थति में एक नई लहर होती है, तो तुम्हें भ्रम हो सकता है- लहरों में जीवन है।

जब कोई लहर नहीं होती, तुम तब भी होते हो, तब और भी ज़्यादा होते हो। तब तुम्हें अपना होना और सपष्ट पता चलता है तो ये क्यों सोचते हो कि लहर गई तो हम गए? क्यों घबराते हो शांति से? क्यों डरते हो समुद्र से?

बात ज़रा महीन है, लहर के अलावा समुद्र में कुछ है नहीं, ये वो समुद्र है जिसमें लहरें हटा दो तो बस शून्य है। तो जीना तुम्हें लहरों में ही पड़ेगा। कोई ये उम्मीद न करे कि लहरें सारी हट जायें और हम शांत जल में तैरेंगे। वो नहीं मिलेगा तुम्हें। जीवन माने लहरें। जीवन माने आघात। जीवन माने परिस्थितियाँ। जीवन माने कुछ न कुछ चलेगा, ऊँच-नीच, तो लगातार लहरे रहेंगी, उठोगे-गिरोगे। और जीवन जीने की कला ये है कि लहरों में उठते-गिरते भी ये एहसास हमेशा बना रहे कि लहर आनी-जानी है, वास्तव में मैं समुद्र में हूँ। हाँ वो समुद्र कभी दिखाई न पड़ेगा, क्योंकि लहरों से प्रथक वो कुछ है ही नहीं।

आँखों से देखोगे तो लहर – आँखें समुद्र को कभी नही देख पाएंगी – दिल से देखोगे तो समुद्र। तो जीवन ऐसा रहे जिसमें आँखों और दिल दोनों से देखो।

क्या दिक्कत है?

आँखें क्यों बंद करनी हैं?

लहर भी मज़ेदार है।

सुख के भी मज़े लो, दुःख के भी मज़े लो। सुख आये तो सुखी हो लो, दुःख आये तो दुखी हो लो, पर दिल हमेशा आनंदित रहे, वो हमेशा शांत रहे।

जैसे कि समझ लो कोई बच्चा है, जिसे माँ हाथों में ले कर झूला झुला रही हो और वो उसे ज़ोर से कभी दांए की तरफ़ करती है, कभी बाएं की तरफ़ करती है; कभी उछाल देती है, कभी नीचे को कर देती है। अब वो कभी दाएं है, कभी बाएं है; कभी उपर है, कभी नीचे है, पर जहाँ कहीं भी है, है गोद में ही। अब ज़रा मूर्ख बुद्धि बच्चा हो, माँ टी.वी. ज़्यादा दिखाती हो, तो डर सकता है कि अरे बाप रे कभी बाएं, कभी दाएं, कभी उपर, कभी नीचे; और ज़रा बच्चे जैसा बच्चा हो, तो कहेगा, ठीक है, कहीं भी है, एक ही जगह है, कहीं भी है, एक ही जगह है।

कहाँ?

गोद में! समस्या क्या है।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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