स्वाभिमान में 'स्व' कहाँ? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

Acharya Prashant

6 min
46 reads
स्वाभिमान में 'स्व' कहाँ? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

वक्ता : वो जो छोटा आदमी है, जो उसको अपना आत्म-सम्मान बोल रहा है। तो वो आत्म-सम्मान कहाँ से आ रहा है? वो समाज के वातावरण से आ रहा है जिसमें बड़े लोगों को प्राथमिकता दी जाती है, ठीक? तो क्या ये वास्तव में उसका आत्म-सम्मान है या ये उसके भीतर किसी और ने भरा है? बताओ मुझे।

हर लड़की गोरी दिखना चाहती है क्योंकि लड़के गोरी लडकियों को प्राथमिकता देते हैं। अब इसमें कोई आत्म-सम्मान है क्या? ये तो लड़कों का सम्मान है न जो लड़कियों ने अपने भीतर भर लिया है, सही या नहीं?

जिसको आप अपना आत्म-सम्मान बोल रहे हो, वो वास्तव में एक मूल्यांकन है जो किसी ने आपके बारे में बनाया है। आपके आत्म-सम्मान की जड़ में एक मूल्य व्यवस्था है जो आपको बताती है कि क्या महत्वपूर्ण है और क्या मूल्यवान है। क्या होगा जब आपकी मूल्य व्यवस्था ही बाहरी समाज से आई हो? उदहारण के तौर पर – अगर सामाजिक मूल्य प्रणाली ये है कि जो लोग बहुत पैसा कमाते हैं, सिर्फ़ उनको महत्वपूर्ण समझो, सिर्फ़ वही मूल्यवान हैं। तो इसका मतलब ये हुआ कि अगर आप ज्यादा नहीं कमा रहे हैं तो आप में आत्म-सम्मान नहीं है क्योंकि आपको समाज ने यही सिखाया है कि उसी का मूल्य है जिसके पास पैसा है, सही है न? बात समझ रहे हो? नहीं समझ में आ रही? आप जिन बातों को कहते हो कि जिनसे मेरा आत्म-सम्मान निर्धारित हो रहा है, वो बातें भी तो बाहर से ही आ रही हैं।

आत्म-सम्मान और सम्मान में ज़्यादा फ़र्क नहीं है। बल्कि बिलकुल भी फ़र्क नहीं है। स्वार्थापरता एक बात है। पर आत्म-सम्मान, ये स्वाभिमान जिसको आप बोलते हो, ये सब बकवास है। स्वार्थापरता ठीक है। मेरे पास एक चेतना है जो मुझे बहुत प्यारी है। ये ठीक है, पर आत्म-सम्मान नहीं। आत्म-सम्मान सिर्फ़ एक मूल्यांकन है जो किसी और के मूल्य व्यवस्था से आता है।

और क्या-क्या नहीं होता सम्मानिता के नाम पे। क्या आपने देखा है कि इस झूठे सम्मान के नाम पे आपसे क्या-क्या करवाया जाता है और आपको क्या-क्या नहीं करने दिया जाता? बहुत सारे काम ऐसे हैं कि जो आपने कर दिए तो आप सम्मानित नहीं रह गए। भले ही वो काम करने से आप दावा करो कि मुझे संतुष्टि मिल रही है, पर सम्मानित होने वाली बेड़ियाँ हमेशा आपके पैरों को जकड़े रहेंगी, सही है न?

‘भई हम इज्ज़तदार लोग हैं। हम ऐसे काम नहीं करते।’ – ये सब खेल है सम्मानित होने का। जब आप सम्मानित होते हो तो कोई और पहरेदार बैठा होता है जो निर्णय करता है कि क्या करोगे या क्या नहीं करोगे। जब आपका आत्म-सम्मान होता है, जिसे आप अपनी चेतना का भी नाम देते हो – मेरी अंतरात्मा – तो वो पहरेदार आपके अन्दर ही घुस के बैठ जाता है और फिर वो और खतरनाक हो जाता है। आप सम्मानिता से तो एक बार को फिर भी मुक्ति पा सकते हो, पर क्या आप अपने आत्म-सम्मान को छोड़ सकते हो? आत्म-सम्मान तो वो पहरेदार है जो अन्दर घुसा के बैठा दिया है समाज ने। वो आपको भी नहीं छोड़ेगा। सोचीए इस बारे में!

एक बार आपको बिलकुल गहराई से पढ़ा दिया गया, बहुत गहराई से आपको पढ़ा दिया गया कि बेटा दिन के समय सोना बहुत बुरा है, ठीक है। सोचिए एक बच्चे के बारे में जिसे बहुत गहराई से पढ़ा दिया जाता है कि दिन के समय सोना बहुत बुरा है। अब अगर वो अकेला भी है, कोई देख नहीं भी रहा, तो भी क्या वो सो सकता है? वो पहरेदार अब उसके अन्दर घुस के बैठा दिया गया है आत्म-सम्मान के नाम पर।

तो फिर आत्म-सम्मान है क्या?

क्या ये ऐसी बात नहीं हो गयी कि तुम्हारा मालिक तुम्हारे अन्दर बैठा दिया गया हो? समझ रहे हो न? एक चीज़ तो ये होती है कि बाहर वाले ने आपको नियंत्रित कर रखा है; और दूसरा ये कि बाहर वाले ने आपके अन्दर एक मशीन लगा दी हो। अब वो उस मशीन के द्वारा आपको नियंत्रित कर रहा है। और उस मशीन का क्या नाम है? – आत्म सम्मान या चेतना। फिर आप अपने आप को दोषी महसूस करने लगते हो।

देखा है न, एक बार तुमने जब बहुत सारी चीज़ें रट लीं, तो फिर तुम वो कर ही नहीं सकते, फिर तुम अपने आप को दोषी महसूस करने लग जाते हो कि ‘हाय राम! मैं ये क्यों कर रहा हूँ?’ और तुम सोचते हो कि तुम दोषी हो। भई! तुम दोषी नहीं हो। वो तो तुम्हें इतना पढ़ा दिया गया है कि वो दोष तुम्हारे भीतर बैठा दिया गया है। तुम्हें नहीं पता कि कैसी-कैसी बातों पर तुम अपने आप को दोषी महसूस कराते हो। और फिर पछतावे होते हैं, पश्चाताप और दस तरह के खेल होते हैं, और फिर दमन होता है। क्या ये सब जुड़े हुए नहीं हैं? हैं या नहीं?

पर हम ऐसे समाज में रहते हैं जो आत्म-सम्मान को बहुत ज़्यादा महत्वपूर्ण समझता है। जब आपको बताया जाता है कि ये बहुत सम्मानित इंसान हैं, तो आप बहुत खुश हो जाते हो। आपको तुरंत समझ जाना चाहिए कि बहुत बड़ा बागी है।

जितना कोई सम्मानित है, समाज ने उसको उतनी बुरी तरह से नियंत्रित किया हुआ है। क्या हम ये देख सकते हैं? अगर नहीं, तो पूछो मुझसे और बात करो, तभी तो समझेंगे न बात को। देखो कैसे मीडिया और समाज इन शब्दों का इस्तेमाल करता है – ‘वो तो इस शहर का बहुत सम्मानित नागरिक है। वो तो एक बहुत सम्मानित शिक्षक है। मेरा स्वाभिमान गवारा नहीं करता कि मैं ये सब काम करूँ।’ आप बहुत खुश होते हो जब किसी को बोलते हो कि ‘यार! वो न बहुत स्वाभिमानी लड़का है।’ इसका मतलब समझते हो क्या है?

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories