आचार्य प्रशांत: तुम जो कुछ भी सोच रहे हो उसको सत्य मत मान लेना। तुम्हारी बड़ी दुविधा है, हम बहुत फँसे हुए लोग हैं। हम जो सोच रहे हैं उसके अलावा हमें कुछ पता नहीं होता। साथ-ही-साथ मैं कहे रहा हूँ, तुम जो सोच रहे हो उसे सच मत मान लेना। इसी चक्की में पिसना है, (दोहराते हुए) इसी चक्की में पिसना है।
जो तुम्हें लग रहा है उसके अलावा तुम्हारा कुछ अनुभव नहीं। जो तुम्हें जिस समय लग रहा होता है तुम्हारे लिए वही सच होता है; ऐसा ही है न? हमारे अनुभव ही हमारे लिए सत्य हो जाते हैं, ठीक है न? और मैं कह रहा हूँ, अनुभवों को सत्य मान नहीं लेना है।
इसी संघर्ष में लगातार लगे रहना है। ‘तो आचार्य जी, आपने तो बड़ा पिसाने वाला काम बता दिया’। “दो पाटन के बीच में साबुत बचा ना कोई”। यही तो बात है, इसी चक्की में पिसकर के मुक्त हो जाओगे।
एक तरफ़ है विचार और भावनाएँ; जो आ रही हैं, प्रकृति से। उनसे तुम इनकार नहीं कर सकते क्योंकि वो है, यहाँ है (शरीर में)। और दूसरी ओर उनको तुम हामी भी नहीं भर सकते क्योंकि तुम्हें अच्छी तरह पता है कि तुम प्रकृति से परे हो। तुम्हें इस शरीर में रहकर के भी इस शरीर से पराया होना है। ये बड़ी तपस्या कि बात है, इसी को तो मैं कह रहा हूँ; ‘चक्की के दो पाट हैं, उनमें तुम फँसे ही हुए हो, न तुम इधर के हो सकते हो न उधर के हो सकते हो, तुम बीच के हो’।
एक तरफ़ है प्रकृति और एक तरफ़ है आत्मा। न तुम पूरे तरीक़े से शरीर हो सकते हो, न तुम पूरे तरीक़े से विशुद्ध चैतन्य हो सकते हो। लेकिन हार नहीं माननी है, घुटने नहीं टेक देने है और घुटने टेके एक ही दिशा में जाते हैं कि तुम कहे दो कि चलो मैं अपनेआप को प्रकृति ही मान लेता हूँ।
घुटने कभी कोई ऐसे नहीं टेकता कि वो विशुद्ध चैतन्य हो गया। तो शरीर जो है वो उम्र भर सताता रहेगा और साथ-ही-साथ तुमको समर्पण की शर्तें बताता रहेगा। वो कहेगा, नहीं सताऊँगा, बस घुटने टेक दे। (दोहराते हुए) नहीं सताऊँगा घुटने टेक दे। तू नहीं सोएगा; मैं तुझे सताऊँगा, घुटने टेक दे; मैं तुझे आराम दिलाऊँगा, तू घुटने टेक दे। घुटने नहीं टेकने है बस!
दूसरी ओर चक्की का दूसरा पाट है, क्या? ‘चेतना’। तुम लाख चाहो कि तुम पूरी तरीक़े से सिर्फ़ चेतना ही हो जाओ, शरीर से कोई मतलब नहीं रखो; हो नहीं पाएगा। तो तुम बीच में रहोगे, वहीं पर पिसते रहोगे और तुम्हें वहीं पिसना है। तुम्हें क्या नहीं करना है? तुम कितना भी पिसो, तुम्हें घुटने नहीं टेक देने हैं। इस पिसने को ही तपस्या कहते हैं, इसी को परायापन कहते हैं कि चक्की के एक पाट से पराये हो गये, घुटने नहीं टेक दिये। हालाँकि उस पाट से जैसे ही तुम पराये होओगे, वो जिसको तुम छोड़ के आ रहे हो वो तुम को दलना शुरू कर देगा, वो तुम को परेशान करना शुरू कर देगा। बात समझ में आ रही है?
जैसे कि तुम गाड़ी के भीतर बैठे हो तो तुम्हें हज़ार तरीक़े का सुकून मिल रहा हो, एसी चल रहा है, गाड़ी भी चल रही है और तुम गाड़ी से उतरकर गाड़ी के सामने आ जाओ तो तुमको कुचल दे। प्रकृति भी यही कहती है, कहती है; मेरी गाड़ी में बैठ जा, लॉन्ग ड्राइव जाएँगे, फुल स्पीड।
उसकी गाड़ी के अन्दर बैठ जाओ तो तुमको सारे मज़े मिलेगें। गाना चल रहा है, ठंडी हवा है, मुलायम गद्दी है, सौ की गति है। तुम उसकी गाड़ी से उतरोगे, वही गाड़ी तुमको कुचलने को तैयार हो जाएगी। लेकिन तुम्हें गाड़ी में बैठे नहीं रहना है, तुम्हें उतरना है और कुचले जाने से बचना भी है। आया मज़ा?
ये नहीं करना है कि कौन..., इससे अच्छा इस पर बैठे ही रहो। जैसे इससे उतरो ये पीछे से मारने आती है। शरीर यही करता है न? जैसे उससे उतरो खट से आता है मारने के लिए। और उसकी गोद में बैठ जाओ, शरीर ही बन जाओ तो बड़ा आराम दे देता है; अच्छा है, बढ़िया।
ख़ुद को धिक्कारना सीखो, ख़ुद को चुनौती देना सीखो। भीतर से कुछ गर्मी न उठती हो तो अपने आपको ही एक बढ़िया मुक्का मार लिया करो मुँह पर।
ये मैं विधियाँ बता रहा हूँ ध्यान की। आज तुम्हें समझ में नहीं आएगी, तुम्हारे लिए ध्यान का यही मतलब है कि माला जपना और ऐसा करना और ये और वो, इधर-उधर की बातें। मेरी विधि है; मुक्का विधि। शरीर ज़्यादा चाँय-चाँय कर रहा है, पटाक से एक चाँटा मारो ख़ुद को ही, एक दम शंट कर दो।
इतना अपना लिहाज़ मत किया करो। चाँटे से बात न बने तो? चप्पल, भूल गये, सिखाया था न? वो ध्यान की विधि है, वो अध्यात्म है असली। हम इसी लायक हैं। जो एक बार जान जाता है, कि ये शरीर किस लायक है, अहंकार किस लायक है। वो फिर ये भी जान जाता है कि सत्य किस लायक है। जो अहंकार को ही पूज रहा है, मुझे बताओ वो सत्य को कैसे पूज पाएगा?
सत्य का मान कर पाओ इसके लिए पहले, ज़रूरी है न कि स्वयं का अपमान कर पाओ। जो स्वयं का अपमान नहीं कर सकता वो सत्य का मान क्या करेगा? तुम्हें सत्य का मान करना सिखाया है। समझ में आ रही है बात कुछ?
जब तुम्हारा अपमान हो रहा है तो वो तुम्हारा अपमान नहीं है, वो तुम्हारे झूठ का अपमान है। उसे होने दो और कोई और न कर रहा हो तुम्हारा अपमान, तो ख़ुद ही करलो अपना।
स्वयं की जितनी अवमानना करोगे, तुममें उतनी पात्रता आती जाएगी सत्य को उतनी मानना देने की। नहीं तो ऐसा नहीं हो सकता, कि तुम अन्धेरे और रोशनी दोनों की एक साथ स्तुति करो। सम्भव नहीं है न? शिखरों का पूजन अगर करना है तो पातालों को हेय बोलना सीखना पड़ेगा न, नहीं?
ये सारी बातें जो आधुनिक मूल्य व्यवस्था है उसके विरुद्ध जाती हैं, देखो। हमें ये बताया गया है कि सब चीज़े बराबर हैं, हर चीज़ कि इज़्ज़त करो, ऐसा है वैसा है, मैं साफ़ कह रहा हूँ; बेइज़्ज़ती करना सीखो क्योंकि जो निचला है उसकी बेइज़्ज़ती नहीं कर सकते तो जो ऊँचा है उसकी इज़्ज़त कैसे करोगे, बोलो मुझे? भेद करना सीखो।
आध्यात्मिक यात्रा के आरंभ में ही तुमसे माँगा जाता है, ‘विवेक’। और विवेक का मतलब ही है भेद कर पाना, अंतर कर पाना। क्या सत् है, क्या असत् है? क्या मान्य है, क्या अमान्य? क्या ग्राह्य है, क्या अग्राह्य है? और क्या सम्मान्य है और क्या अपमान्य है? जो अपमान्य है उसका अपमान होना चाहिए। दूसरों के अपमान की बात बाद में। सबसे पहले अपना अपमान करना सीखो। ख़ुद को सिर मत चढ़ा लो, हम अपने ही सिर चढ़े होते हैं, सिर हम पर चढ़ा होता है।
एक बड़ा व्यर्थ का शब्द है जो हमारी संस्कृति में आ गया है, ‘स्वाभिमान’। स्वाभिमान से ज़्यादा निरर्थक और नुकसानदेह शब्द दूसरा नहीं है। तुम सत्याभिमानी बनो, स्वाभिमानी नहीं। अभिमान करना है तो सत्य का करना है ‘स्व’ का नहीं। ‘स्व’ का अभिमान तो माने अहंकार का अभिमान, झूठ का अभिमान। जो झूठ का अभिमानी है वो क्या जिएगा, निरर्थक उसका जीवन, ‘थू’ जैसा।
सत्याभिमानी बनो, जिधर सत्य है उधर जुड़ो, उसको मान्यता दो, उसकी पूजा करो, उसकी प्रसंशा करो, उसके साथ खड़े हो जाओ। ‘स्व’ को भी अगर कुछ वरीयता मिलनी है, कुछ लिहाज़ मिलना है तो बस तभी जब ये ‘स्व’ भी खड़ा हो जाय सत्य के साथ। स्वाभिमान भी ठीक हो सकता है, अगर वो सत्याभिमान के पीछे-पीछे चले। पर ये ‘स्व’ तो अधिकांशतया पुजारी ही होता है; असत्य का। इसीलिए मैं कह रहा हूँ, ‘स्वाभिमान अच्छी चीज़ नहीं है’।