सुनो तो सही || आचार्य प्रशांत (2017)

Acharya Prashant

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सुनो तो सही || आचार्य प्रशांत (2017)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मैं पूरे ध्यान से भी सुनूँ तो भी बाद में याद बहुत कम रहता है, कुछ बातें याद रह जाती हैं बाकी नहीं। क्या मेरा दिमाग़ चुन-चुनकर सुन रहा है और बाद में बाकी बातों को अनसुना कर रहा है?

आचार्य प्रशांत: ये बात बहुत गौर या चिन्ता करने की होती नहीं। बहुत लोगों ने ये सवाल बहुत बार पूछा है। मैं तो कहता हूँ कुछ भी न याद रहे, तुम सुनो बस। स्मृति तक कुछ जाता है या नहीं जाता उसकी बहुत परवाह मत करो, तुम सुनो बस। स्मृति महत्वपूर्ण नहीं है, श्रवण महत्वपूर्ण है। ये ज़मीन है, अब ज़रा सूख रही है, अभी पानी बरसा था परसों। बताओ, वो कहाँ गया? इसी ज़मीन पर गिरा था वो कहाँ गया? कहाँ है वो? वो गहरे समा गया, वो दिखाई नहीं देगा पर प्रमाण है, परोक्ष क्या प्रमाण है? ये पेड़ प्रमाण है उस पानी का। ये मिट्टी मन है तुम्हारा, ये पेड़ जीवन है तुम्हारा। जो बूँदें गिरती हैं उनको अनुग्रह जानना, वो गुरु के वचन हैं। वो तुम्हारे मन की सतह पर दिखाई दें, मिट्टी की सतह पर दिखाई दें आवश्यक नहीं है।

वो परतें हैं और फिर गहरे चले जाते हैं। गहरे चले गये तो अदृश्य हुए हैं, विलुप्त नहीं हो गये, जहाँ वो गये हैं वहाँ से वो जीवन देंगे; किसको? इन पेड़ों को। तो उन वचनों का प्रभाव तुम्हारे जीवन पर दिखाई देगा, तुम्हें याद भले नहीं है। पर तुम्हारी ज़िन्दगी में हरापन आएगा इन पत्तियों की तरह।

देखिए, मैं जो भी कह रहा हूँ वो न सुनने का बहाना न बन जाए। अगर मैंने कोई बात कही है और कोई तुम्हें बार बार याद दिलाता है कि कही गयी थी, फिर भी तुम्हें याद नहीं आती तो इसका अर्थ ज़रूर है कि वो बात तुमने जान-बूझकर अनसुनी करी है। फिर तुम्हे अपने आप से सवाल करना होगा कि कहीं मेरा मन मेरे साथ खेल तो नहीं खेल रहा। स्मृति लक्ष्य नहीं होना चाहिए, लक्ष्य होना चाहिए पूर्ण श्रवण।

शास्त्र कहते हैं, श्रवण, मनन, निदिध्यासन तदोपरान्त समाधि। मैं कहता हूँ, श्रवण में यदि समग्रता है तो आगे के सारे चरण भी शीघ्र ही, स्वतः अपितु तत्क्षण भी हो सकते हैं। सुनने के बाद नहीं होगा चिन्तन-मनन, नहीं होगा निदिध्यासन, फिर उसके बाद नहीं कभी आएगी समाधि। पूर्णता से, गहराई से, समग्रता से सुना तो सुनना ही समाधि हो जाएगा। सुनते-सुनते पाओगे कि तुम बचे नहीं। कितने नहीं बचे ये तुम पर निर्भर करता है।

समाधि सबीज हो सकती है, निर्बीज भी। बड़ी गहराई से सुना, बड़ी गहराई से सुना पर अपनेआप को बचा ले गये तो सबीज समाधि होगी। उसका नतीजा ये निकलेगा कि जब तक सुन रहे होगे मेरी उपस्थिति में होगे, तब तक तो लगेगा कि कोई समस्या नहीं बची सारे समाधान हो गये समाधि आ ही गयी। पर समस्याओं का बीज अभी बचा रह जाएगा, नीचे कहीं छुपा रह जाएगा। तो जैसे ही सुनना बन्द करोगे वैसे ही फिर पाओगे कि समस्याएँ उठ खड़ी हुई हैं। और इसी के साथ मैं ये कहता हूँ कि सुनने से ही निर्बीज समाधि भी सम्भव है।

तुम इतनी आकुलता से इतनी तत्परता से भी सुन सकते हो, कि समस्याओं का, वृत्तियों का बीज ही जल जाए सुनते-सुनते। अब जब तुम मेरी उपस्थिति में नहीं भी होओगे, सत्संग में श्रवण नहीं भी कर रहे होओगे तब भी तुम्हारी पुरानी वृत्तियाँ लौटकर नहीं आएँगी, तुम निर्बीज हुए। पर वो तुम्हारा चुनाव है, तुम कितनी उपस्थिति के साथ सुनना चाहते हो ये तुम्हारे ऊपर है। तुम सुनो।

तुम कहते हो तुम्हें नहीं याद रहता कि सत्र में क्या बोला गया। अगर एक व्यक्ति है, जिसे सबसे कम याद रहता है कि क्या बोला गया तो वो मैं हूँ। कल इन्होंने एक प्रश्न दिया था न, उसमें मेरी ही किसी किताब से इन्होंने कोई उद्धरण लिखा और मैं उसको पढ़ रहा हूँ, यूँ जैसे कि इनका प्रश्न हो फिर ये मुझे याद दिला रही हैं कि ये मैंने नहीं लिखा है, ये आपके वचन हैं। मुझे कहाँ पता होता है मैंने क्या बोला? ये तो बड़ी पुरानी बात है अगर किताब में छपा है तो कम-से-कम दो साल-तीन साल पहले का कोई सत्र होगा। अभी जो हाल के सत्र हों अभी जो आज का सत्र हो जो अभी का हो मुझे उसका ही नहीं कोई पता होता मैं क्या बोल गया।

कई बार जो बोलता हूँ उसको तुम लोग लिखकर के बाद में व्हाट्सएप वगैरह पर भेजते हो। फिर उठकर जाता हूँ खोलता हूँ तो वो मुझे भी आया होता है, मैं देखता हूँ तो, ‘अच्छा, ये मैंने बोला है। ठीक है, बढ़िया बोला।’ समाधि से बोलोगे तो याद नहीं रहेगा और समाधि में सुनोगे तो भी याद नहीं रहेगा। वो जगह स्मृति से बहुत-बहुत गहरी है। स्मृति वहाँ नहीं पहुँच सकती।

श्रोता: यही चीज़ बेहोशी में भी लागू है, अगर आप बेहोशी में बोलो तो भी याद नहीं रहता क्या बोल गये और बेहोशी में सुनो तब भी याद नहीं रहता क्या सुना।

आचार्य: बढ़िया। समाधि भी है तो बेहोशी ही न, बस वो होश से ऊपर की बेहोशी है और जो हमारी रोज़मर्रा की बेहोशियाँ होती हैं वो होश से नीचे की बेहोशियाँ हैं। हाँ, जब बेहोश होते हो तो आपका असली चेहरा होता है। चाहे वो नीचे वाली बेहोशी हो चाहे ऊपर वाली। जो नीचे वाली बेहोशी होती है तो भी आपका असली चेहरा निकलकर आता है। असली माने कौनसा चेहरा? आपकी अहंता का चेहरा, आपके सारे छिपे हुए मनोभावों का चेहरा। जो आप होश में दबाए फिरते थे। होश में आपने उसपे पर्दा डाल रखा है सभ्यता का, शालीनता का।

जब ज़रा शराब पी नहीं कि वो पर्दा हटता है फिर आपका असली चेहरा सामने आता है। पर ये जो असली चेहरा है, ये असली अहंता का चेहरा है, और जब आप समाधिस्त होते हो तब भी आपका असली चेहरा सामने आता है। पर अब ये असली आत्मा का चेहरा है। दोनों असली हैं। दोनों में जो दिखाई दे रहा है वो विशुद्ध है, एक में विशुद्ध अंहकार दिखाई दे रहा है और दूसरे में विशुद्ध आत्मा दिखाई दे रही है। असल में एक तरह की बेहोशी का प्रयोग करके दूसरे तरह की बेहोशी भी लायी जा सकती है।

विशुद्ध अंहकार का प्रयोग करके विशुद्ध आत्मा तक पहुँचा जा सकता है। गुरजिएफ यही करते थे। वो आपकी शालीनता का स्वाँग हटा देते थे, फाड़ देते थे। आप उनके पास जाएँ वो ऐसा स्थितियाँ पैदा करते थे कि आपका सभ्यता का नकली मुखौटा उतर जाता था। वो आपको क्रोध दिला देते थे, अपनी ही हरकतों से। वो कुछ ऐसा करते थे कि आपको खूब गुस्सा आये। तो आप गये थे गुरु जी, गुरु जी करते और गुरु जी ने ऐसा गुस्सा दिलाया कि आप गुरु जी को दस गालियाँ बक रहे हैं (श्रोतागण हँसते हैं)। फिर वो बोलते थे कि रुको, स्टॉप राइट नाउ (अभी रुक जाओ)। ये तुम्हारा असली चेहरा है। विशुद्ध अंहकार दिखाकर, वो आपको विशुद्ध आत्मा में प्रवेश करा देते थे। जो शराब न पीते हों, खासतौर पर उन्हें पकड़-पकड़कर शराब पिलाएँ और फिर जब वो बकना शुरू करें तो कहें, ‘देखो, सुनो ये हो तुम।’ ये उघड़ न जाए इसीलिए सौ परतें तुमने बिछा रखी हैं।

लोगों को बुलाएँ, ‘आ जाना पाँच बजे।’ पाँच बजे जब लोग पहुँचे तो छह बजे तक पहले इंतज़ार कराया और छह बजे कहें कि अब छोड़ो न कल मिलेंगे। और कल जब मिलने का हो तो बोलें, ‘अच्छा हाँ, मैंने कहा था कि कल मिलेंगे, ये थोड़े ही कहा था उसी पुरानी जगह पर मिलेंगे आज तो मैं दूसरे शहर में हूँ, चलो वहाँ आ जाओ।’ तो वो तुम्हारी सामाजिक शालीनता को बचे ही नहीं रहने देते थे। होश हटा देते थे तुम्हारा। कोई उनसे पूछता, ‘तुम्हारा क्या तरीका है?’ तो कहते, ‘शराब से आफ़ताब तक।’

दस-पन्द्रह साल पहले की घटना होगी, अभी याद आ रही है। मैं एक बार गाड़ी के सर्विस सेन्टर (सेवा केन्द्र) में खड़ा था। गाड़ी सर्विस हो रही थी, उसकी डिलीवरी लेने गया था। तो वहाँ पर जो उनका हेड मेकेनिक था, उसकी एक सज्जन से बहस चल रही थी। वो उस सज्जन को समझा रहा था कि आपके गाड़ी के साइलेंसर को बदलने की ज़रूरत है। वो सज्जन कह रहा था कि नहीं कोई ज़रूरत नहीं चल तो रहा है न, थोड़ी-बहुत आवाज़ आती है। बहुत देर तक समझाता रहा, बहुत देर तक समझाता रहा, वो काहे को माने। वो उसे कह रहा था, ‘तुम उसको कुछ करके ऐसे ही लगा दो।’ मैकेनिक कह रहा था, ‘हम ऐसा कर ही नहीं सकते हैं, जो आप कह रहे हैं। या तो हम नहीं बदलेंगे या हम पूरा बदलेंगे जुगाड़ वाला काम हम नहीं करेंगे। या तो हम ही नया लगा देंगे या जैसी है वैसी ले जाइए।’ सज्जन क्यों माने, वो मान नहीं रहे थे। शायद खर्चा न करना चाहते हों। मैंने उस मैकेनिक से कहा, ‘सुनो ऐसा करो, साइलेंसर उतार दिया है न?’ बोला, ‘हाँ।’ मैंने कहा, ‘अब ले जाकर इनको साइलेंसर दिखा दो।’ लेकर गये साइलेंसर देखने, उस में छेद-ही-छेद, पूरा ज़ंग लगा हुआ। मान गये।

घटना साधारण है, पर अर्थ समझो। हमें हमारा विकृत चेहरा दिखाया जाए तभी हम बदलाव के लिए तैयार होते हैं। चीज़ कितनी सड़ चुकी है, ज़ंग खा चुकी है, उसमें कितने छेद हैं। जब तक तुम ये प्रत्यक्ष देखोगे नहीं तब तक तुम बदलने को तैयार नहीं होगे। ये गुरजिएफ की विधि थी। पहले तुम्हें दिखा तो दे कि तुम कितने सड़े हुए हो। तब तुम बदलाव के लिए तैयार होते हो। अन्यथा तो तुम इसी भाव में, अकड़ में रहते हो कि ज़्यादा कोई दोष नहीं है हम में। वो थोड़ी सी आवाज़ आती साइलेंसर में से। वो झड़ रहा था साइलेंसर इतना उसमें ज़ंग था कि वो झड़ रहा था साइलेंसर। पर दिखाई नहीं पड़ता था ना, नीचे छिपा रहता था। वैसे ही हमें मन में नीचे क्या छिपा है वो दिखाई नहीं पड़ता। तो हम बदलाव के लिए भी तैयार नहीं होते। उसको उघाड़ना बहुत ज़रूरी है।

उघाड़ने के लिए जो रोज़ की सामान्य स्थितियाँ होती हैं, उनसे हटकर दूसरी स्थितियाँ लानी होंगी। जो रोज़ की सामान्य स्थितियाँ हैं उसमें तो मैं भी छुपा, तू भी छुपा, काम चल रहा है। नयी स्थितियाँ लाओ न। कुछ ऐसा जो रोज़ होता न हो, फिर राज़ फाश होते हैं। बाल्मीकि रोज़ कमा-कमाकर लाते थे, बीवी को दे देते थे, बीवी अपना ऐश करती थी। बाल्मीकि कमाये जाएँ, बीवी उड़ाये जाए, ऐश कर रही है। दोनों के मुखौटे चल रहे थे, मुखौटों का मुखौटे से रिश्ता।

एक दिन पूछ लिया बाल्मीकि ने, ‘मैं जब फँसूँगा, यम के दूत आएँगे और ले जा रहे होंगे नर्क की ओर, तू चलेगी? ईमानदारी से बताना।’ सवाल में कुछ ऐसा खारापन था, कुछ ऐसी आग कि बीवी झूठ नहीं बोल पायी। बीवी के मुँह से निकल ही गया, ‘नहीं, तब तो सैयाँ, तुम अकेले ही जाओगे। अभी मुझे दिये जाओ दुबई घुमाने को और हज़ार तरह के गहने और कपड़े खरीदने को। अभी दिये जाओ। जब तुम्हारे कर्मों का हिसाब-किताब होगा तब तुम अकेले ही झेलोगे। झेल ही रहे हो दिन-रात। तुम्हारी मानसिक पीड़ा को मैं दूर कर पाती हूँ क्या? जो तुम्हारा अन्तर्दहन है उसे मैं शीतल कर पाती हूँ क्या?’

बीवी बोल बैठी, मुखौटा उतर गया। अब बाल्मीकि को ऊपर वाली बेहोशी में जाना पड़ा, ऊर्ध्वगमन करना पड़ा। अब समाधि की ओर जाना पड़ा। उस समाधि का फूल है रामायण। आपदाओं में, आपातकाल में, तुम्हें अपने रिश्तों की हकीकत पता चलती है। जब तक रोज़ का वही चल रहा है, नून, तेल, लकड़ी तब तक तो यही लगता है, सब ठीक-ठीक है।

ज़रा आपातकाल आने दो न, ज़रा स्थितियों को चुनौतीपूर्ण होने दो, तब मुखौटे उतरेंगे, तब दस्ताने उतरेंगे और नाखुन सामने आएँगे। हम वो लोग हैं तो विपत्ति में परमात्मा को भी छोड़कर फुर्र हो लें, तो देह भी कहाँ से याद रहेगा? जो आत्मा को भुलाये बैठा है वो किसी और का क्या होगा? जो तुम्हारा बाप-माँ, आदि-अन्त, सबकुछ है तुम उसको भुलाए बैठे हो, तुम किसी के क्या होओगे?

YouTube Link: https://youtu.be/PFeR5s9hhvc

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