सुनो सब ससुराल वालों || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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सुनो सब ससुराल वालों || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: नमस्कार, आचार्य जी। मैं आपको दो-ढाई साल से सुन रही हूँ। पहले तो मुझे आपकी बातें थोड़ी कम समझ में आती थीं, पर अभी धीरे-धीरे क्योंकि जैसे कहते हैं कि तीस साल के बन्धन हैं या जो मन हमने सोसायटी (समाज) से लिया है, हर चीज़ सोसाइटी से मिली हुई है। तो अभी मुझे ये नहीं समझ में आता कि मैं जो भी फ़ैसला लेती हूँ, अपना स्वयं का आंकलन करती हूँ, सेल्फ़ असेसमेंट (आत्म मूल्याँकन) भी करती हूँ कि क्या ये सही है, क्या ये ग़लत है।

अगर मैं किसी चीज़ के साथ अपना स्टैंड ले रही हूँ, उस चीज़ के साथ खड़ी हूँ तो कहीं ये मेरा अहंकार तो नहीं है? क्योंकि उस वक़्त दुनिया आपके खिलाफ़ होगी और मैं अपने-आप को सेल्फ-डाउट (आत्म संदेह) ये दूँगी कि "अरे नहीं, शायद मैं ग़लत हो सकती हूँ।" तो मुझे ये नहीं समझ में आता कि ये सही क्या है और उसमें ग़लत क्या है?

और दूसरा प्रश्न मेरा ये है कि मेरी अभी शादी हुई है। मुझे रिलेशनशिप (सम्बन्ध) मैनेज (प्रबंधित) करने में, जैसे कि अपने पेरेंट्स (अभिभावक) के साथ कैसे भी रह लेते हैं आप ध्यान नहीं देते, पर आप एक सेकेंड फैमिली (दूसरा परिवार) में जाते हैं आपको बहुत सारे इश्यूज (मुद्दे) आते हैं, कॉन्फ्लिक्ट (टकराव) होते हैं। तो उससे बहुत ज़्यादा ओवर इमोशनल (अतिभावुक) होना, तो वो एक समस्या बन गई है। क्योंकि मेरे पास अपने अंदर कुछ ऐसा, जैसे आप कहते हैं कि 'भीतर का वातावरण मेरा वैसा नहीं है कि मैं खड़ी रहूँ। बाहर तो कुछ-न-कुछ चलता रहेगा, क्रिटिसिजम (आलोचना) भी, बहुत कुछ ऐसी चीज़ें होंगी जो मेरे बस में नहीं हैं। तो मैं अपने-आप अंदर कैसी खड़ी रहूँ?

कभी सोचती हूँ शांत बैठकर कि, ‘अरे यार, मैं किस समस्याओं पर बैठी हुई हूँ?’ पर वो सिर्फ़ दस मिनट होता है दिन में। और बाकी जो तेईस घंटे हैं उनमें यही चलता रहता है कि, ‘अच्छा, इसने ये किया, उसने वो किया।’ और ऐसा सिर्फ़ मेरी पर्सनल लाइफ (व्यक्तिगत जीवन) में ही नहीं, मेरी प्रोफेशनल लाइफ (पेशेवर जीवन) में भी ऐसा है कि जैसा आप बोलते हो कि बाहर से कोई भी आ गया, तुमको हिलाकर चला गया और आप रोड-रोलर की तरह बनिए। ऐसा नहीं कि आप फरारी की तरह।

तो वो ऊँचा स्तर कैसे पाएँ? तो वो इन्वॉल्वमेंट तो बिलकुल आपको नहीं मिलेगा। वो मुझको ख़ुद से बनाना होगा मेरे अंदर। और वो मेरे अंदर चीज़ खड़ी हो जाएगी तो शायद इन बाहरी स्थितियों से उतना फ़र्क नहीं पड़ेगा।

आचार्य प्रशांत: पहली बात आपने पूछी कि, ‘पता कैसे हो कि अभी जो सोच रहे हैं वह ठीक ही है, कहीं अपना अहंकार तो नहीं है?’ ये जो आपने पहली बात पूछी, इसका भी सम्बन्ध इसी सेंकेड फैमिली से है न?

प्र: हाँ, बिलकुल, वही है। ये मेरे हर चीज़ में, हर चीज़ में…

आचार्य: ले-देकर के आप अभी नयी-नयी शादी करके आयीं हैं और आपका सारा सवाल जो है वो ससुराल को लेकर है।

प्र: नहीं, पर किसी ने आकर के क्रिटिसाइज़ कर दिया, अब मुझे वो लेना है कि नहीं, कुछ पोलिटिकली (राजनीतिक)...

आचार्य: तो कोई भी कभी भी सौ प्रतिशत आश्वस्त नहीं हो सकता कि वो जो कर रहा है वो एकदम ठीक ही है। आप यही कर सकते हैं कि जितना आपको अधिकतम समझ में आ रहा है ईमानदारी से, आप उस पर अडिग रहें। अगर आप इंतज़ार करेंगे कि कोई ज़बरदस्त किस्म की क्लैरिटी (स्पष्टता) उठे उसके बाद ही आगे बढ़ेंगे, तो आप कभी नहीं बढ़ सकते। एक-एक कदम आगे बढ़ाते रहना होता है, उससे रास्ता और साफ़ होता जाता है।

तो इसमें कोई भी नहीं है जो आपको आकर प्रमाणित करेगा कि आप जो सोच रही हैं वो बिलकुल एबस्युलिटली (बिलकुल) ठीक है। कोई नहीं मिलने वाला।

और ये बिलकुल हो सकता है कि आप जो सोच रही हों, उसमें ये थोड़ा-बहुत ऊपर-नीचे कहीं कुछ हो। बिलकुल हो सकता है। लेकिन आपके पास कोई विकल्प नहीं है। अपनी चेतना, अपनी बुद्धि, अपनी आंकलन से जो अधिकतम और श्रेष्ठतम लगता है, वही तो आपको करना पड़ेगा न? और आप क्या करेंगी?

जो आपको नहीं करना है, उसका नाम है बेईमानी, कि एक बार जान भी गयीं कि क्या सही है और जानने के बाद भी आप कुछ और कर रहे हो, बस वो मत करो। मैं ये नहीं कह रहा कि जो आपने जाना है, वो एब्सोल्यूट होगा। ना, सत्य को तो छूआ जा नहीं सकता कोई कितना भी ऊँचा हो, कितना भी जान ले, उसमें बिलकुल संभावना है कि थोड़ी-बहुत त्रुटियाँ, ज़्यादा त्रुटि भी रह गई हो, बिलकुल हो सकता है। लेकिन आपको चलना उसी पर है। इतना मत करिएगा कि ठीक कुछ और है, कर कुछ और रहे हैं क्योंकि डरे हुए हैं या कोई और बात ज़्यादा कीमती‌ लग गई।

ठीक है?

दूसरा क्या था?

प्र: कि 'ओवर इमोशनल ' हूँ मैं, जैसे हमारी एक मिडिल क्लास (मध्यम वर्ग), कन्जरवेटीव (अपरिवर्तनवादी) फैमिली होती है, तो वहाँ पर कुछ रिचुअल्स (रसम रिवाज़) होते हैं। जैसे कि आप कहते हैं कि बड़े होना इस बात का कोई द्योतक नहीं है कि आपको उतनी ही एहमियत दी जाए। तो ज़रूरी भी हैं कि ऐसे रिचुअल्स…

आचार्य: कहाँ पर ये रिचुअल्स हैं?

प्र: ये मेरी फैमिली में भी हैं, मेरे भाई हैं, उनकी भी शादी हुई है मुझसे दो साल पहले और अब की फैमिली में भी देख रही हूँ। या मेरे आसपास मेरे दोस्तों में…

आचार्य: आपको समस्या कहाँ पर हो रही है उन रिचुअल्स से? अपने फ्रेंड्स के यहाँ पर समस्या हो रही है? कहाँ हो रही है?

प्र: नहीं, समस्या मुझे है क्योंकि मुझे भी वही करना पड़ रहा है।

आचार्य: कहाँ पर?

प्र: मेरे इन-लॉस के यहाँ।

आचार्य इन-लॉस (ससुराल वालों) के यहाँ।

ये तो मैं जानता ही नहीं ये सास-ससुर से कैसे सौदा करते हैं। मुझे कैसे पता?

(श्रोतागण हँसते हैं)

प्र: नहीं, बात ये नहीं है। है सबको समस्या या कुछ भी होंगे, आपको चीज़ें ऐसी नहीं लगेंगी कि ठीक हैं, आप कर लोगे तो भी कोई दिक्क़त नहीं है, पर नहीं करोगे तो मतलब आपको…

आचार्य: मैं कुछ नहीं समझ पा रहा, ये मेरे लिए ग्रीक-हिब्रू और लैटिन है। मैं बिलकुल नहीं जानता ये क्या है। मुझे तो ये नहीं समझ में आया आजतक, मेरे लिए बहुत ये खौफ़ की बात थी कि शादी करने के बाद पत्नी की माँ को 'मम्मी' बोलना होगा। मैं तो उसी सदमे से... मैं ये कर ही नहीं सकता, मेरे मुँह से निकलेगा ही नहीं। कोई रैंडम स्त्री, मैं उसको मम्मी बोलना शुरू कर दूँ, मैं बोल ही नहीं पाऊँगा। ‌आप लोग कैसे बोल लेती हैं, मैं आपकी तारीफ़ करता हूँ। मुझसे तो नहीं हो पाता, ना पापा बोल पाता।

पापा होना मतलब मज़ाक की बात है? छोटी बात है? कोई खड़ा हो गया रैंडम , वो पापा हो गया। क्यों पापा हो गया, भई? इन-लॉ (ससुराल वाले), इन-लॉ क्या होता है? लॉ ? मैं किसी लॉ (कानून) को मानता ही नहीं। फ़ादर इन लॉ (कानूनन-पिता), ये बात ही कितनी अश्लील है। वास्तविक पिता नहीं हैं, लॉ (कानून-पिता) कहेगा पिता हैं। कोई लॉ पिता बना देगा मेरा? लॉ की हिम्मत किसी को मेरा बाप बना दे?

ब्रदर इन लॉ (कानूनन भाई), सिस्टर इन लॉ (कानूनन बहन), कौन सा लॉ है जो किसी को मेरी सिस्टर (बहन) बना रहा है भाई? कैसे बना दिया तुमने?

ये सब मैं नहीं जानता। आप चली गयीं हैं, रह रही हैं, रह रही हैं, इसमें क्या कर सकता हूँ? ऊपर से पूछ मुझसे रहीं हैं। मतलब, मैं तो आपके अनाड़ीपन की दाद देता हूँ। किस आदमी से क्या पूछने आए हो?

(श्रोतागण हँसते हैं)

मैं महा-अनाड़ी। मुझसे पूछेंगी तो और खटपट हो जाएगी। ये सब बहुत सूक्ष्म बातें होती हैं – सास-बहू वार्तालाप। इनमें चेतना के सूक्ष्मतम तन्तुओं को छुआ जाता है। मैं सड़क की फाँका-मस्ती करनेवाला आदमी, इतनी सूक्ष्मता मुझे आती ही नहीं। मुझे नहीं पता। सासु-माँ किस बात पर नाराज़ हो जाती हैं और जहाँ सास है वहाँ देवरानी भी हो सकती है, जेठानी भी हो सकती है। अब रसोड़े में कौन था मैं क्या जानूँ?

(श्रोतागण हँसते हैं)

हमारा काम भैया रेस्तराँ (भोजनालय) से चल जाता है, रसोड़ा रखना ही नहीं है। माफ़ करिएगा मैंने आपको निराश किया, लेकिन शोभा नहीं देता कि मैं इस पर कुछ बोलूँ। और कोई ज्ञान रहा हो, नहीं रहा हो, १८-१९ की उमर से इतना मुझे समझ में आ गया था कि सन-इन-लॉ जैसा तो कुछ हो ही नहीं सकता। नहीं हो सकता तो नहीं हो सकता। और रिश्ता मुझे बनाना है तो मैं बनाऊँगा, दुनिया की कोई ताक़त रोक नहीं सकती, लेकिन किसी कानून से पूछ कर नहीं बनाऊँगा। किसी अदालत में जाकर ठप्पा नहीं लगवाऊँगा।

कुछ बातें आत्मिक होती हैं जो चौराहे पर प्रदर्शनी करके नहीं करी जातीं। मुझे किसी के अगर साथ रहना होगा तो उसके लिए मैं पंडाल में तंबू लगाकर के हज़ार लोगों को बुलाकर के पहले एक नुमाइश नहीं करूँगा।

आत्मा दिखाते फ़िरते हो क्या किसी को? प्रेम आत्मा की बात होती है। पर नहीं, हम बाकी सब चीज़ें दिखाते रहते हैं, छुपाते हैं क्या? जो चीज़ वाकई सार्वजनिक है। लगता है कि बिस्तर भर छुपा लो, आत्मा दिखा दो। दो लोगों को साथ रहना है, उसमें ये इतने सारे बाकी कहाँ से घुसे हुए हैं मुझे समझ में ही नहीं आया। ना तब आया, ना आज तक आता है। कृपा करें, समझा दें।

दो लोग हों, पाँच लोग हों, जो भी हों। मैं किसी से दोस्ती करता हूँ तो मैं कहीं ठप्पा लगवाने जाता हूँ? तो मैं नहीं समझ पाता था। मुझे किसी लड़की के साथ रहना है तो किसी से ठप्पा लगवाकर क्यों रहूँगा? ये कौन होते हैं? मैं तुम्हारा टैक्स नहीं दे रहा, मैं चोरी कर रहा हूँ? तुम्हें समाजिक तौर पर जो चाहिए वो तुम मुझसे ले लो। तुम मेरी आत्मा थोड़े ही ले सकते हो मुझसे!

मेरा एक घर है। उस घर की सीमा का निर्धारण तुमने कर दिया है, ठीक?

ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी तय करती है कि प्लॉट की सीमाएँ क्या होंगी। प्लॉट का नम्बर भी क्या है वो भी अथॉरिटी ने तय कर दिया, पर प्लॉट के अन्दर मैं क्या करूँगा, ये किसको हक है तय करने का?

शरीर का जो बाप होता है न, उसके बाद बस एक बाप हो सकता है। उसका नाम है गुरु। कोई फ़ादर-इन-लॉ जैसी चीज़ हो ही नहीं सकती।

फ़र्स्ट फैमिली, सेकेंड फैमिली कह रहीं हैं न? तो संतों ने बताया है कि आपका पहला परिवार तो ये धरा ही है जिसमें आप पैदा हुईं। और आपका दूसरा परिवार ऊपर है, वहाँ। उसी के लिए गाते हैं;

'लागा चुनरी में दाग़ छुपाऊँ कैसे, जाके बाबुल से नज़रें मिलाऊँ कैसे?'

दूसरा परिवार भी आपने इसी धरती पर खोज लिया तो अब मुक्ति कहाँ से होगी? पहला परिवार यहाँ होता है, सेकंड फैमिली यहाँ नहीं हो सकती। सेकेंड फैमिली वहाँ होती है (ऊपर की ओर इशारा करते हुए)।

ये मैं समझ नहीं पाता। आप यहाँ बैठी हुई हैं, आप महिलाएँ, अपना घर छोड़कर क्यों जाते हो? पहली बात तो आप जहाँ रहते हो, वो भी बहुत ज़्यादा आपका घर नहीं है। इतना ही काफ़ी नहीं था कि आप पहले एक घर में थे, वहाँ से उठकर किसी और घर में पहुँच जाते हो? जाते काहे को हो? मुझे यह भी नहीं समझ में आया। मेरी बुद्धि ही विकसित नहीं हो पा रही। किसी के घर में जाने का मतलब क्या है, क्यों गए? क्या करने गए थे? घर नहीं था अपने पास?

फिर वहाँ जाकर बोल रहे हो, ‘अब ये मेरा घर है।‘ और अगर तलाक़ हो गया तो ‘पचास प्रतिशत मुझे चाहिए भी!’ ये भी समझ में नहीं आता।

पहली बात तो गए ही क्यों? और गए भी हो तो याद रखो किसी और का है। पहला वाला भी तुम्हारा नहीं था, दूसरा वाला घर तुम्हारा कैसे हो गया?

पर माँ-बाप बताते हैं न, ‘हाँ, अब बड़ी हो रही है। अब अपने घर जाएगी।' और जहाँ कहा बड़ी हो रही है, तहाँ वो बच्ची समझ जाती है कि क्या है, जल्दी से दुपट्टा ठीक करती है। कहती है, ‘इनकी तो नज़र, तुरंत शुरू हो जाते हैं, अब बड़ी हो रही है।‘

‘अपने घर जाएगी’, अपना घर क्या होता है? थोड़ा-सा उनके पास चले जाओ जिन्होंने जीवन को जाना है, वो तुम्हें बताएँगे अपना घर क्या होता है, घर बोलते किसको हैं।

फिर पूछ रहा हूँ, क्या अपने-आप में यही पर्याप्त दुर्भाग्य नहीं था कि एक घर मिला हुआ था ईंट-पत्थर का? तुमने एक की जगह दो घर बना लिए, फ़र्स्ट फैमिली , सेकेंड फैमिली। ईंट-पत्थर का जो घर होता है, उसी को तो देह बोलते हैं न? देह का एक रखा, फिर देह का दूसरा रखा। फिर अचरज करते हो कि ‘स्त्रियों को मुक्ति क्यों नहीं मिलती? स्त्रियाँ अध्यात्म में भी पीछे क्यों हैं?’ तुम दस घर बनाओ, उसके बाद अध्यात्म में आगे बढ़ोगे?

घर न्यूनतम रखो, छोटे-से-छोटा रखो। ना ये सब बताया करो, ‘घर के काम करने होते हैं, घर के काम करने होते हैं।‘ एक बार मंडली बैठी हुई थी, मैंने उनसे बहुत बात की। मैने कहा ये, ‘जो घर के काम हैं न, यही नर्क हैं तुम्हारा। क्यों इतने काम करने होते हैं?’ तो कुल समझाने के बाद उन्होंने निष्कर्ष यह निकाला कि ‘ठीक है, घर के काम रहेंगे लेकिन अब से घर के और लोगों से भी करवाएँगे। पति से भी करवाएँगे, इनसे भी करवाएँगे।‘

माने वो इतना तो समझने को तैयार हैं कि घर के काम में सब हाथ बटाएँ। इसके लिए वो राज़ी हो गयीं, पर वो ये मानने को तैयार ही नहीं थीं कि तुम्हारे घर के काम व्यर्थ हैं। ये उनको समझ में ही नहीं आ रहा कि ये जिसको तुम घर का काम बोलते हो, ये दो पैसे की चीज़ है, मत करो। कम-से-कम करो, न्यूनतम स्तर पर इसको ले आ दो।

जो झारफानूस साफ़ कर रहे हो, पचास चीज़ें इकट्ठा कर ली हैं, फ़र्नीचर चमका रहे हो, बेडशीट में किसी भी तरह की कोई रिंकल भी नहीं होनी चाहिए, पतिदेव के पैंट में एक दाग लग गया तो अब ये दोबारा धुलने जाएगी। कम धोया करो न कपड़े। क्यों एक बार पहन कर धोने हैं? चलाओ हफ़्ते भर। घर का काम अपने-आप कम हो जाएगा। ऊँचे-ऊँचे पैमाने हैं।

हमारे यहाँ कोई पैमाने नहीं हैं। संस्था वाले देखो। ये देखो, ये ग्लास है। ये वही ग्लास है जो समझ लो नवंबर वाले महोत्सव में इस्तेमाल हुआ था। तब से एक बार भी नहीं धुली।

(श्रोतागण हँसते हुए)

ठीक है?

इसे कहते हैं काम कम करना। ये जो देख रहे हो जिस पर मैं बैठा हूँ, ये कोई यूँ ही आकर के रख गया था बोधस्थल में। हम काम इतना कम करते हैं कि इसको बदला तक नहीं। यही दे दिया जाता है मुझे – बैठ जाओ। जबकि इस पर बैठना बड़े खतरे का खेल है। ये चुभता है और ये बहुत दूर है। ये टेबल, अभी इसको उठाएँगे तो इसकी एक टांग गिर जाएगी। ये तो संस्था का भी नहीं है, ये मेरी व्यक्तिगत चीज़ है पंद्रह साल पुरानी।

जो असली चीज़ है वह हो रही है न? (चलते हुए सत्र को दर्शाते हुए) तो इसकी कौन कितनी परवाह करे! (सामने रखी मेज़ को दर्शाते हुए) हाँ ठीक है, यह भी अच्छी हो जाए, अच्छी बात है। वो एक अतिरिक्त रूप से अच्छी बात है। लेकिन ये ठीक नहीं भी है, नहीं है ठीक, ये तीन दिन से ठीक नहीं है तो भी काम तो चल रहा है न?

चलने दो। जो मूल चीज़ है उस पर ध्यान दो। घर को बहुत चाक-चौकस रखोगे, उससे कुछ नहीं पा जाओगे। बच्चों को दिन में दो बार नहलाना है और देखे जा रहे हैं कौन-कौन सी रेसेपी होती हैं, आज नया व्यंजन बनाना है। मत करो न, नहीं भी करोगे तो क्या हो जाएगा?

और इस तरह के काम जितना दूसरों से करवा सकते हो, कराओ। कुछ लोगों को रोज़गार दोगे। और जब उन्हें रोजगार दोगे, तो यह भी समझ जाओगे कि इस तरह के कामों का मूल्य कितना था। बेरोज़गारी बहुत है न भारत में, तो इस तरह के जो काम होते हैं वो दूसरे लोगों को दे दो, उन्हें रोज़गार मिलेगा। और समझ जाओगे कि ये काम कोई दो हज़ार का था, कोई पाँच का था और हम इसमें अपनी ज़िंदगी लगाए दे रहे थे।

बूढ़े हो जाइए, कुछ भी हो जाइए, किसी पर आश्रित मत हो जाइएगा, कि ‘अब तो घर में बहू आ गई है, तो अब बहू साफ़ करेगी न। हम बूढ़े हो गए हैं, हमारा तो टट्टी-पेशाब निकलने लग गया है, बैठे ही बैठे।’ होता है, इसमें कोई अपमान की बात नहीं, ये तो प्राकृतिक बात है, होता है। ‘लेकिन अब बहू आ गई है तो वो साफ़ करेगी।‘ ये मत करवाइएगा किसी से। ना बहू से, ना दामाद से।

जैनों में एक बड़ी सुंदर प्रथा होती है, सिर्फ़ मुनियों में। वो जब पाते हैं कि समय आ रहा है तो प्रतीक्षा नहीं करते हैं कि ‘हम लटके रहें, लटके रहें फिर मौत हमें नोचकर ले जाए।‘ वो स्वेच्छा से मृत्यु का वरन् कर लेते हैं। खाना-पीना बंद कर देते हैं। ये मुझे बड़ा अच्छा लगता है। इतनी ही हालत ख़राब हो रही है तो क्यों किसी पर बोझ बन कर जी रहे हो?

और बहुओं को भी लगता है कि कुछ काम कर दो और ज़्यादा, ये सफ़ाई कर दो उससे सासू माँ खुश हो जाएँगी। ये रिश्ता कैसा है? क्यों है?

अब देवी जी की शक्ल देखिए कैसी हो गई है। मैंने कहा था कि मुझसे ये पूछिए? इस जगत में एक मम्मी काफ़ी हैं। दूसरी मम्मी फिर महा-माँ को ही रहने दो। दूसरी मम्मी मत बनाओ। दूसरा डैडी मत बनाओ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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