प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। आईआईटी रुड़की (भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान रुड़की) में ‘आज़ाद भवन’ नामक एक छात्रावास है, जो कि अभी तक पूरा शाकाहारी था, वहाँ के भोजनालय में माँसाहारी खाना नहीं मिलता था। अभी दो दिन पहले ख़बर आयी है कि वहाँ भी माँसाहारी खाना मिलना शुरू हो गया है, हफ्ते में दो बार। उस पर वहाँ के छात्रों ने विरोध भी किया लेकिन उनकी बात नहीं सुनी गयी। मैंने भी ‘भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान रूड़की’ से पढाई की है, वर्ष २०१३ से लेकर २०१७ तक मैं कैंपस (संस्थान क्षेत्र) में था। तो मुझे याद है कि २०१५ तक पूरा कैंपस ही शाकाहारी था। किसी छात्रावास में, किसी भोजनालय में, किसी कैंटीन (जलपानगृह) में माँसाहारी खाना नहीं मिलता था। २०१५ में पहली बार विरोध करके एक-दो छात्रावास में शुरू करवाया गया था और अब वहाँ के हर एक छात्रावास में माँसाहारी खाना मिलना शुरू हो गया है। एक आख़िरी छात्रावासथा जो पूरा शाकाहारी था, वहाँ भी शुरू करवा दिया गया है।
तो सात सालों के अन्दर एक पूरा शाकाहारी कैंपस माँसाहारी बन गया है। तो मैं इस बात को समझ नहीं पा रहा हूँ कि विरोध तो दोनों तरफ़ से होता है; शाकाहारी भी करेंगे, माँसाहारी भी; तो सात साल में ऐसा क्या हुआ कि पूरा कैंपस ही उन्होंने माँसाहारी बना दिया।
मेरा इस पर एक और सवाल है जो यह है कि पूरा कैंपस जब शाकाहारी भी था, तब भी वहाँ की कैंटीन और वहाँ के भोजनालय में अंडे मिलते थे। तो क्या अंडा मिलना ये शाकाहारी है या यह भी माँसाहार में आता है? क्योंकि वो अंडे को माँसाहार में नहीं गिनते थे। ये दो मेरे सवाल हैं।
आचार्य प्रशांत: देखो, आईआईटी कैंपस की बात कर रहे हो। वहाँ पर जवान स्टूडेंट्स (विद्यार्थी) हैं। ठीक है? आप सत्रह-अठारह की उम्र में कैंपस में जाते हो और यही जो इक्कीस-चौबीस-पच्चीस की उम्र तक कैंपस में रहते हो। तो जो बदलाव आया है इधर पिछले पाँच-सात सालों में, वो ज़्यादा आया है इस पीढ़ी के दिमाग़ में, इस पीढ़ी की संस्कृति में। ये जो पीढ़ी है, ये ज़बर्दस्त तरीक़े से उथली हुई है। इसके मूल्य में गिरावट आयी है। और जहाँ तक मैं देख पाता हूँ, उसके बहुत कारण हैं। लेकिन एक जो बड़ा कारण है, वो है सस्ता और फ़्री डेटा।
तो आपके हाथ में मोबाइल होता है और डेटा सस्ता है। तो दुनिया भर की चीज़ें आपको उपलब्ध हो जाती हैं। अपनेआप में ये एक सुनने में अच्छी बात लगती है कि भाई अब आप जो चाहो पढ़ सकते हो, देख सकते हो; लेकिन ये अच्छी बात तभी लगेगी, जब आप को पता न हो कि हम लोग कैसे हैं। इंसान भीतर से तो जानवर ही है न! इसी मुद्दे को मुझे बार-बार याद दिलाना पड़ता है आपको। हम भीतर से जानवर हैं और चूँकि हम जानवर हैं तो इसीलिए हम उन्हीं चीज़ों की खोज में रहते हैं, जिनकी खोज में जानवर रहता है। जब इन्टरनेट और सस्ते डेटा के माध्यम से आपको दुनिया की सब चीज़ें उपलब्ध हो जाएँगी तो आप तुरन्त उनमें से कौन सी चीज़ें उठा लोगे? जो सबसे घटिया हैं।
तो सस्ते डेटा का परिणाम ये हुआ है कि जो कुछ घटिया से घटिया हो सकता था, वो घर-घर पहुँच गया है। क्योंकि भीतर का जानवर तो गन्दगी ही तलाश रहा था। सूअर रसमलाई थोड़ी ही सूँघ रहा है कि कहाँ मिलेगी, या सूँघ रहा है वो? मिठाइयों की दुकान के सामने भी उसे खड़ा कर दो तो आगे जो नाली बह रही होगी, वो उसमें जाकर सूँघने लगेगा। इंसान वो सूअर है।
अब बड़ा भद्दा लगता है न सुनने में!।
‘हम सूअर हैं क्या? हमने तो कपड़े पहन रखे हैं, सुबह-सुबह तो नहाये थे, सूअर कैसे हो गए? नहीं, बताइए। और नहाये भी थे वो फ़लाना शैम्पू लगाकर, फिर कंडीशनर लगाया था। गुलाब की खुशबू वाला बॉडीवॉश (देह प्रक्षालक) है मेरे पास; मैं सूअर कैसे हो सकता हूँ?’
(श्रोतागण हँसते हैं।)
आप सूअर हैं या नहीं हैं? मतलब हम सब। आपको नहीं; मैं शामिल हूँ इसमें। तो हम सब सूअर हैं या नहीं, उसका निर्धारण तो इसी से होगा न कि हम खा क्या रहे हैं। अगर हम टट्टी ही खा रहे हैं तो हम क्या हुए? तो देख लीजिए न इन्टरनेट पर हम क्या खाते रहते हैं। डेटा जाकर के चेक (जाँच) कर लीजिए कि इन्टरनेट पर एक इस उम्र का बन्दा क्या करने जाता है। सत्रह-अठारह-बीस साल का लड़का वहाँ पर क्या कर रहा है? लड़का, लड़की; कोई भी।
कितने प्रतिशत डेटा का उपयोग होता है ज्ञान को बढ़ाने के लिए और कितना प्रतिशत डेटा का उपयोग हो रहा है गन्दगी चाटने के लिए? और जो गन्दे से गन्दे लोग हो सकते हैं, वो पिछले पाँच-सात सालों में ही इतने प्रसिद्ध हुए हैं। आप आज के जो इन्फ़्लुएन्सर्स (प्रभावक) हैं इन्स्टाग्राम पर, यूट्यूब पर, कहीं भी; उनको देखिए, वो सब के सब पिछले पाँच-सात साल की पैदाइश हैं और वो महागन्दे हैं, महालीचड़ हैं। और उनको देखने वाले कौन हैं? उनके सब्स्क्राइबर्स (उपभोक्ता) कौन हैं? साठ-साठ साल के लोग? नहीं, वही जनरेशन (पीढ़ी) जिसकी तुम बात कर रहे हो। पन्द्रह साल वाले, बारह-चौदह साल वाले, अठारह साल वाले, बाईस साल वाले।
और गन्दगी बहुत तेज़ी से फैलती है, अपनेआप फैलती है। क्योंकि हम जानवर हैं, हमें चाहिए; जहाँ दिख रही है वो, खट से हम उसको ले लेंगे। अस्पताल तो आप मजबूरी में जाते हैं, है न? लेकिन जहाँ गन्दगी बरस रही होती है, वहाँ अपनी खुशी से जाते हैं, अपने मज़े में जाते हैं। ऐसा ही है न? सही काम बहुत कठिनाई से होता है और घटिया काम सब अपनेआप हो जाते हैं।
ये जो गन्दगी फैली है, इसमें एक मूल्य बड़ा महत्वपूर्ण है। वो ये है कि मैं कुछ भी कर सकता हूँ, मुझे रोको-टोको नहीं। मैं कुछ भी करूँगा और जिन चीज़ों पर परम्परा ने बंदिश लगायी थी, वो तो मैं ख़ासतौर पर करूँगा। क्योंकि साहब मैं ‘ रेबेल' हूँ, (अर्थात्) विद्रोही क़िस्म का हूँ, मैं कुछ भी करूँगा। मैं कुछ भी करूँगा और मज़े मारना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। तो मैं अपने हिसाब से जी भरकर मज़े लूटूँगा और कोई रोक मत देना।
जो पुरानी बातें इस मूल्य को रोकती थीं, उनमें से था अध्यात्म। क्योंकि अध्यात्म बताता है कि मज़े मारने में तुम्हारा कितना नाश होता है और तुम्हें अपनी भलाई चाहिए तो ख़ुद के खिलाफ़ जाना होगा। अभी मूल्य फैला है ख़ुद के खिलाफ़ नहीं जाना है, ख़ुद को खुश करना है। मुझे जिसमें खुशी मिलती है, मैं करूँगा। कोई मुझे रोके नहीं, कोई मुझे टोके नहीं, मुझे ख़ुदकुशी करनी है। समझ में आ रही है बात?
आध्यात्मिक मूल्यों में ही एक प्रमुख होता है, ‘करुणा’, ‘त्याग’। इन्हीं के चलते भारत ज़बर्दस्त रूप से शाकाहारी रहा परम्परागत रूप से। दुनिया भर के शाकाहारियों में भी ज़्यादातर भारतीय ही होते हैं अभी भी। आज भी दुनिया भर में जितने शाकाहारी हैं, उसमें से अधिकांश भारतीय हैं। और भारतीय भी क्या बोलूँ, सीधे-सीधे कहिए तो हिन्ंदू हैं, जैन हैं, सिख हैं, बौद्ध हैं। जो भारतीय पन्थ हैं, उनके अनुयायी ही हैं जो विश्व के शाकाहारियों का बहुमत बनाते हैं।
ये जो कोई मुझे रोके नहीं, कोई मुझे टोके नहीं वाली चीज़ है, उसमें धर्म तो चला गया बिलकुल कूड़े के डब्बे में। और ये सबकुछ बहुत तेज़ी से हुआ है पिछले पाँच-सात-दस साल में, क्योंकि धर्म का तो काम ही है रोकना और टोकना।
आप जो भी कर रहे हो तो धर्म उसमें पूछता है, ‘क्या कर रहे हो बेटा? तुम्हें पता भी है क्या कर रहे हो? ग़ौर से देखो, क्या कर रहे हो। पहले समझो क्या कर रहे हो।’—ये धर्म का काम है। धर्म का काम है। और अभी वो खड़ा हो जाता है पन्द्रह-सत्रह साल का, जिसको अभी ठीक से दाढ़ी-मूँछ भी नहीं आयी हैं—‘कोई मुझे रोके नहीं, कोई मुझे टोके नहीं। मज़े मारने हैं।’
और मज़े मारने का मतलब उनके लिए क्या होता है, वो जानेंगे भी नहीं; पर उनके पास एक फिलोसॉफी (दर्शन) है और वो है एकदम ‘ग्रॉस मटीरियलिज़म’ (स्थूल पदार्थवाद) की। उनको ये बता दिया गया है कि दुनिया इसलिए है कि दुनिया में जो चीज़ें हैं, तुम उनको भोगो, उनसे मज़े मिलेंगे, सुख मिलेगा और जीवन इसीलिए है। उन्होंने कभी फिलोसॉफी का कोई कोर्स (अध्ययन) नहीं करा, उनसे तुम बोलोगे फिलोसॉफी या दर्शन तो ये शब्द ही उनके लिए बड़े अनजाने से हैं, पराये से हैं।
उनको पता भी नहीं है कि वो फिलोसॉफी में चुपचाप दीक्षित हो गये हैं। फिलोसॉफी है उनके पास। बात कितनी अजीब सी है, वो आज तक अपनी दसवीं-बारहवीं ठीक से पास नहीं कर पाया है, लेकिन फिलोसॉफी जानता है? हाँ, जानता है। घटिया फिलोसॉफी है, लेकिन है ज़रूर। है ज़रूर।
फिलोसॉफी समझ रहे हो न क्या है उनके पास? आप कह सकते हो, “मैन इज़ अ फिलोसॉफ़ाइज़िंग एनिमल। (मनुष्य एक दार्शनिक पशु है।)”। हर व्यक्ति की ज़िन्दगी के केन्द्र में उसका एक जीवन दर्शन होता है। भले ही वो ये बोले कि मुझे फिलोसॉफी से नफ़रत है। ऐसे बहुत लोग होते हैं न! जो बोलते हैं, ‘यार! बहुत फिलोसॉफी वगैरह न झाड़ो, हम सीधे-सादे आदमी हैं। हम फिलोसॉफी बहुत नहीं जानते, हम सीधे-सीधे तरीक़े से चलते हैं।’ कोई ऐसे बोल भी रहा हो, तो भी ये निश्चित जानिए कि उसके पास जीवन की एक फिलोसॉफी है ज़रूर। तो ये जो पन्द्रह-सत्रह साल की ‘निब्बी’ जनरेशन (पीढ़ी) है, इसके पास भी अपनी एक फिलोसॉफी है। भले ही उस फिलोसॉफी को ये जानते नहीं। वो फिलोसॉफी इनको चुपचाप चटा दी गयी है। उसी गन्दगी के साथ चटा दी गयी है जो उन्होंने खूब चाटी है इन्टरनेट पर।
यहाँ मैं कैंपस में ही दो दिन से हूँ तो रात में बाहर निकलता हूँ तो देखता हूँ कि सड़कों पर लोग बहुत कम हैं। हमारे समय में ऐसा होता नहीं था कि ग्यारह बजे, बारह बजे, एक बजे कैंपस में सड़कें सुनसान पड़ी हैं। उधर कैंटीन में भी कोई नहीं दिख रहा। स्टूडेंट एक्टिविटीज़ सेंटर (विद्यार्थी क्रियाकलाप केन्द्र) भी लगभग वीरान है। ऐसा कैसे हो गया? तो मैंने पूछा कइयों से कि कहाँ हैं सब। बोले, ‘वो सब अपने-अपने कमरे में अब रहते हैं, लैपटॉप पर रहते हैं और इन्टरनेट चाट रहे हैं।’ वो कैंपस में हैं, जहाँ पूरी एक वाइब्रेंट कम्युनिटी (विविध समुदाय) है। जहाँ पर हज़ारों ऐसे लोग हैं, जिनकी संगत करो तो लाभ हो सकता है। जहाँ बहुत सारी फ़ैसिलिटीज़ (सुविधाएँ) हैं, स्पोर्ट (खेल) से लेकर के कल्चरल (सांस्कृतिक) तक सब कुछ है।
पर स्टूडेंट्स बैठे हुए हैं कमरों में और इन्टरनेट चाट रहे हैं। और इन्टरनेट पर कुछ बहुत अच्छा कर रहे होते वो तो बहुत बढ़िया बात थी। वो इन्टरनेट पर क्या कर रहे हैं, इसका प्रमाण आपको मिल जाएगा घटिया से घटिया लोगों के, इन्फ़्लुएन्सर्स के व्यूज़ और सब्स्क्राइबर्स (दर्शक और सदस्य संख्या) से। उनके व्यूज़ और सब्स्क्राइबर्स कहाँ से आ रहे हैं? आप इंस्टाग्राम पर जाइए, आप देखिए कैसे-कैसे लोगों के सौ मिलियन, सत्तर मिलियन, पचास मिलियन, दो सौ मिलियन फ़ॉलोवर (दस करोड़, सात करोड़, पाँच करोड़ अनुगामी) हैं। उन्हें फ़ॉलो (अनुगमन) करने वाले कौन हैं? उन्हें फ़ॉलो करने वाले वही लोग हैं जो सड़कों पर नहीं नज़र आ रहे, कमरों में घुसकर के मैंने कहा नेट चाट रहे हैं। वही तो फिर उनके सब्सक्राइबर बन रहे हैं न नेट चाट-चाटकर!
अब आदर्श न कृष्ण हैं, न राम; अब आदर्श है सोशल मीडिया पर जो बैठा हुआ है—गँवार, बदमाश, फूहड़, लफंगा। काश मेरी शब्दावली और समृद्ध होती।
ऐसा भी तो हुआ है कि आपके पास इन्टरनेट आ गया है तो बुद्ध की सब शिक्षाएँ आपको अब ज़्यादा एक्सेसिबल (सुलभ) हैं, आप पढ़ सकते हो। पर ऐसा नहीं हुआ है। बहुत सारी वेबसाइट्स हैं, जैसे मान लीजिए—‘celextel.org है, जहाँ पर सब उपनिषदों के अनुवाद रखे हुए हैं। आपको क्या लगता है कि उन पर हिट्स और क्लिक्स (लोग) बहुत बढ़ गये हैं? नहीं ऐसा नहीं हुआ है। सारा ट्रैफ़िक (यातायात) जा कहाँ पर रहा है सस्ते डेटा का? डेटा सस्ता है और सारा ट्रैफ़िक कहाँ को जा रहा है? वो गन्दगी की ओर जा रहा है। जानवर को नहीं मारना है, ये बात तो आपको धर्म ने सिखायी थी न! राम और कृष्ण और बुद्ध ने सिखायी थी। राम और कृष्ण और बुद्ध को देखने की अब फुरसत कहाँ है। वो वहाँ बैठा हुआ है न यूट्यूबर, उसको देख रहे हैं। उसके दस मिलियन, बीस मिलियन, चालीस मिलियन सब्स्क्राइबर (एक करोड़, दो करोड़, चार करोड़ सदस्य) कर रखे हैं। उसको देखो।
गीता क्या पढ़ें, अब तो जो यूट्यूबर है, वही ऑथर (लेखक) भी बन जाता है। अपनी किताब भी छाप देता है। तो अगर पढ़ना भी है तो यूट्यूबर की किताब पढ़ेंगे, गीता थोड़ी ही पढनी है। हालत इतनी ख़राब है और बदलाव इतनी तेज़ी, इतने नाटकीय तरीक़े से हुआ है, पिछले पाँच-सात साल में किताबों की दुकान से ‘कृष्णमूर्ति’ विलुप्त हो गये हैं। आप किसी बुक शॉप (पुस्तकों की दुकान) पर चले जाइए; ‘क्रॉसवर्डस’ हो, ‘ओम’ हो (पुस्तक विक्रेता); आपको कृष्णमूर्ति नहीं मिलेंगे। और मिला करते थे, सिर्फ़ आठ-दस साल पहले तक भी मिला करते थे। वो भी ग़ायब हो गये।
जवान लोगों के लिए, जो आध्यात्मिक यात्रा शुरू ही कर रहे हों, ‘ओशो’ भी लाभप्रद होते है। और ‘ओशो’ का पूरा एक सेक्शन (खण्ड) हुआ करता था बुक स्टोर्स (किताबों की दुकान) पर। ओशो भी विलुप्त होते जा रहे हैं। वहाँ पर कौन आ रहे हैं? यूट्यूबर की किताबें वहाँ पर रखी हुई हैं, वो ही पढ़ा जा रहा है। उनको पढ़ने वाला कौन है? यही सब पन्द्रह साल, सत्रह साल, अठारह साल; क्योंकि यही आसानी से बेवकूफ़ बन जाते हैं। तो इनको खूब बेवकूफ़ बनाया जा रहा है। अभी एक ‘ क्रॉसवर्ड्स हाउस' (क्रॉसवर्ड्स पुस्तकशाला) में गया, तो उन्होंने अपना एक बेस्टसेलर चार्ट (सर्वाधिक विक्रय सूची) ही बना रखा है। तो उन्होंने ‘वन, टू, थ्री, फ़ोर, फ़ाइव, सिक्स’ ऐसे करके लिख रखा था कि ये-ये किताबें हैं। वो जितनी किताबें थीं, वो सब लाइन (पंक्ति) से घटिया किताबें।
खैर, मैंने उसमें देखा किताब है, मैंने उसकी अमेज़न रैंक (श्रेणी) देखी। उसकी अमेज़न रैंक — ‘पाँच हज़ार’। मैंने कहा, ‘तुमने इसको यहाँ पर क्यों लगा रखा है, इसकी रैंक तो पाँच हज़ार है अमेजन पर?’; बोले, ‘वो हमको ऊपर से आदेश आता है कि कौन सी किताबों को बेस्टसेलर डिक्लेयर (सर्वाधिक विक्रित घोषित) कर देना है।’ जो किताब वास्तव में कोई पढ़ ही नहीं रहा, जो किताब बिक ही नहीं रही, वो बेस्टसैलर डिक्लेयर्ड (सर्वाधिक विक्रित घोषित) है और वो वहाँ पर ऐसे लगी हुई है। लेकिन ये कम उम्र के लड़के हैं, सत्रह-अठारह साल; ये इतनी तहक़ीक़ात नहीं करेंगे और इनको ये सच्चाइयाँ कभी पता भी नहीं चलेंगी। इनको कहीं का नहीं छोड़ा गया।
२०१४ के बाद से इतनी तेज़ी से स्थितियाँ बदली हैं इस पीढ़ी के लिए (उसका कोई जवाब नहीं)।
जहाँ धर्म नहीं है वहाँ हिंसा होकर रहेगी। इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है कि आईआईटी रुड़की में पहले नहीं देते थे जानवरों का माँस, अब वहाँ जानवरों का माँस दिया जा रहा है। जानवरों का नहीं, ये इंसानों का भी माँस खाएँगे, बस ये बोलकर के, ‘मेरी मर्ज़ी’। मेरी मर्ज़ी। शुरुआत होगी मरे इंसानों का माँस खाने से। कहेंगे, ‘देखो, हमने किसी को हर्ट (पीड़ित) तो नहीं किया न! हमने किसी को हर्ट तो किया नहीं, हम मरे आदमी को खा रहे हैं तो आपको समस्या क्या है? हमें खाने दो।’ और फिर आगे और बात बढ़ेगी।
मैंने कहा, ‘हर व्यक्ति अपनेआप में एक चलती-फिरती फिलोसॉफी होता है।’ और कोई व्यक्ति कितना श्रेष्ठ है, उसमें कितनी गुणवत्ता है, यह इसी से निर्धारित हो जाता है कि उसकी फिलोसॉफी में कितनी गुणवत्ता है। आपकी ज़िन्दगी की केन्द्रीय फिलोसॉफी अगर घटिया है तो आप आदमी घटिया हो, लेकिन हमें यह विचार करने का वक़्त ही नहीं मिलता कि हमारी फिलोसॉफी क्या है। हमें यह पता नहीं, हमें हमारी फिलोसॉफी मिली किससे है। आज की जनरेशन को उसकी ज़िन्दगी की फिलोसॉफी मिल रही है, किसी घटिया यूट्यूबर से। जब तुम वहाँ से अपनी फिलोसॉफी लेकर के आ रहे हो तो ज़िन्दगी जिओगे कैसे? और सोशल मीडिया का भी पूरा स्वार्थ है इसमें कि उनको अधिक से अधिक व्यूज़ (दर्शक) मिलें। क्योंकि जब उनको व्यूज़ मिलेंगे, तभी तो विज्ञापन दिखा पाएँगे और विज्ञापन से ही उनकी आमदनी होती है।
तो जिन इन्फ़्लुएन्सर्स (प्रभावक व्यक्तियों) से उनको व्यूज़ मिलते हैं, वो उनको हीरो (नायक) की तरह स्थापित करते हैं। ‘देखो, बहुत बड़ा हीरो है। ये बहुत बड़ा हीरो है।’ उनको जगह-जगह सम्मान दिये जाते हैं। फ़ंक्शंस ऑर्गनाइज़ (कार्यक्रम आयोजित) होंगे, उनको बुलाया जाएगा, उनको सम्मानित किया जाएगा। ‘ये देखो, ये हैं, ये हैं…’ तो एक घटिया आदमी को बिलकुल सिंहासन पर बैठाया जाएगा। और ये सबकुछ करा जाता है मुनाफ़े-पैसे के लिए। लेकिन वो जो सत्रह-अठारह साल वाला लड़का है, उसको ये बात समझ में नहीं आती, क्योंकि उसने न दुनिया देखी है, न समझा है, न उसको अनुभव है। वो बेवकूफ़ बन जाता है। बेवकूफ़ ही नहीं बनता, उसको ये लगता है कि ये तो मेरा एम्पावरमेंट (सशक्तिकरण) हो रहा है, मैं डूड (लौंडा/नवयुवा) बन रहा हूँ’। ‘यू नो ब्रो? लाइक डूड।’ (तुम्हें पता है भाई? लौंडा।)
बस इतनी सी बात है—इंसान जानवर है, उसको इंसान बनाने के लिए उसको ज्ञान देना पड़ता है, ज्ञान नहीं है तो वो पशु है। और आज की जनरेशन ज्ञान बहुत ग़लत जगहों से ले रही है। बस इतनी सी बात है कुल। और मुँह बहुत चलता है, क्योंकि विनम्रता और ग्रहणशीलता तो आध्यात्मिक मूल्य है न! कि सुनना सीखो, ये तो अध्यात्म सिखाता है। ये सुनना नहीं चाहते। ये सुनना जानते ही नहीं, क्योंकि इनकी फिलोसॉफी ने इनको सुनना सिखाया ही नहीं है। इनकी फिलोसोफी कहती है, ‘ मुँह चलाओ! कॉन्फिडेंट (आत्मविश्वासी) रहो! पब्लिक स्पीकर (सार्वजनिक वक्ता) बनो!’।
आपने देखा है? छ:-छ:, आठ-आठ, दस-दस साल के बच्चों के लिए पब्लिक स्पीकिंग कोर्स (सार्वजनिक भाषण प्रशिक्षण)! इनका विज्ञापन आ रहा है कि ये कॉन्फिडेंट स्पीकर (आत्मविश्वासी वक्ता) बनेंगे और माँ-बाप कूद-कूदकर अपने बच्चों को उसमें डाल रहे हैं। उस तरह के जो विज्ञापन आते हैं, उसमें जो आठ-दस साल का लड़का दिखाया जाता है, ‘ बी अ कॉन्फिडेंट पब्लिक स्पीकर (विश्वास से भरपूर सार्वजनिक वक्ता बनो)!’ वो कैसा होता है? वह ऐसा होता है—(तनकर आँखें तरेर के देखता हुआ)। वो आँखें तरेरकर के बड़ों को देख रहा है और कह रहा है, ‘मैं ज्ञान दूँगा। मुझे कुछ बता मत देना। मेरी सुनो। भले ही मैं घटिया बोलूँ, पर मैं बोलूँगा ज़रूर।’ बोलना ज़रूरी है। क्या बोल रहे हो, ये देखना ज़रूरी नहीं है, बोलना ज़रूरी है। बोलो, बोलो, मुँह चलाओ; जो जितना मुँह चलाएगा, उतना बड़ा ‘ स्टर्ड' (सशक्त) कहलाएगा; जो बक-बक कर सकता है, वो कूल (आभामय) है, वो डूड है। कुछ आ रही है बात समझ में?
ये कह देते हैं, ‘ माय लाइफ़, माय वे। (मेरा जीवन, मेरी विधि)। ये तो मेरी पर्सनल (निजी) बात हैं न, मैं क्या खा रहा हूँ!’। ये इसलिए कह रहे हैं न कि पर्सनल बात है, क्योंकि इन्हें पता ही नहीं है कि माँसाहार चीज़ क्या होती है। बोलते हैं, ‘मैं कुछ भी खाऊँ, इट्स अ थिंग ऑन माय प्लेट, हाउ डज़ इट बोदर यू मैन? फ़क् ऑफ़। गो योर ओन वे। (यह मेरी थाली में पड़ी चीज़ है, इससे तुम्हें क्या समस्या? भाड़ में जाओ। अपना रास्ता मापो।)’ ये इनका जवाब होता है। ये इसलिए जवाब होता है क्योंकि तुम्हारे पास ज़रा भी ज्ञान नहीं। और ज्ञान से मेरा मतलब आध्यात्मिक ज्ञान नहीं, तुम्हारे पास थोड़ा सा साइंटिफ़िक नॉलेज (वैज्ञानिक ज्ञान) भी नहीं है। तुम नहीं जानते फ्लेश कंजम्प्शन (माँस उपभोग) क्या चीज़ है, इसलिए ये बक़वास कर रहे हो।
जानते हैं आप? इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (सूचना प्रौद्योगिकी) के बढ़ने से हमें लगता है कि हमारे पास अब बहुत ज़्यादा सूचना आ रही है। आपके पास सूचना बढ़ गयी है, लेकिन आपका नॉलेज लेवल (ज्ञान स्तर) गिर गया है, ज्ञान का स्तर आपका गिर चुका है।
क्योंकि आपके पास तो दिन में चौबीस ही घंटे हैं न! और उस चौबीस घंटे में अगर आपके ऊपर घटिया सामग्री की बाढ़ आ गई है तो सही चीज़ पढ़ने का आपको मौक़ा मिलेगा क्या? तो इंटरनेट से पहले तो फिर भी ऐसा होता था कि लोगों के साइंटिफ़िक नॉलेज का भी स्तर ठीक-ठाक हो लेकिन आज वास्तव में नॉलेज (ज्ञान) का स्तर गिरा है।
ये चीज़ कितनी डरावनी है और ये चीज़ कितनी ज़्यादा काउंटर इन्ट्यूटिव (विरोधाभासी) है।
हमें लगता है कि भाई, आज तो सारा डेटा (सामग्री) ऑनलाइन उपलब्ध है तो सबको पता होगा। नहीं, डेटा ऑनलाइन उपलब्ध है लेकिन घटिया डेटा सौ गुना ज़्यादा उपलब्ध है न! और इंसान को खुला छोड़ोगे तो वो घटिया चीज़ की ओर ही भागेगा हमेशा और घटिया चीज़ आपके चौबीस घंटे घेर ले रही है और सही नॉलेज जो है, उसको जगह नहीं मिल रही है। वो क्राउड आउट (भीड़ में लुप्त) हो रहा है। सो वी आर एक्चुअली फ़ार मोर इग्नोरेंट इन द इन्फ़ॉर्मेशन एज देन वी वर वेन थिंग्स वर सिम्पलर (तो जब चीज़ें सरल थीं, तब की तुलना में हम सूचना प्रौद्योगिकी के युग में और अधिक अज्ञानी हैं)। कहने को यह सूचना का युग है, पर आज हम कहीं-कहीं ज़्यादा अज्ञानी हैं बीस साल पहले की अपेक्षा।
समझ में आ रही है ये बात?
ये कहते हैं, ‘ इट्स माय चॉइस ऑफ़ फ़ूड (यह मेरा भोजन का चुनाव है)। मैं माँस खाना चाहता हूँ, तुम्हारा क्या जा रहा है?’। साहब! एक बात बताइए, मेरे घर में मैं एक डीज़ल जेनसेट (डीज़ल विद्युत् जनित्र) चलाऊँ—वो पुराने ढर्रे के डीज़ल जेनसेट याद हैं, जो खूब आवाज़ करते थे और बड़ा काला धुँआ फेंकते थे?—और फिर मैं कहूँ, ‘ये तो मेरे घर में चल रहा है, तुम्हारा क्या जाता है?’। आप मेरे पड़ोसी हैं। ठीक? और मैं अपने घर में वो भड्-भड् करने वाला जनरेटर (विद्युत् उत्पादक) चला रहा हूँ। वो धुआँ भी मार रहा है और शोर भी। और आप मेरे पास आये, मैं कहूँ, ‘जो भी कर रहा हूँ, अपने घर में कर रहा हूँ। माय लाइफ़, माय चॉइस। (मेरा जीवन, मेरा चुनाव।) तुम कौन होते हो मुझे टोकने वाले?’ तो आप तुरन्त क्या जवाब दोगे? आप क्या जवाब दोगे? आप कहोगे, ‘साहब! चल आपके घर में रहा होगा, असर मेरे ऊपर भी पड़ रहा है न! ये धुआँ मेरे घर में भी आ रहा है और ये शोर मेरे कानों में भी आ रहा है।’
ये जो पीढ़ी है आज की, ये ज्ञान से इतनी वंचित है, इसके नॉलेज का स्तर इतना बुरा है कि इसको पता भी नहीं है कि जब तुम चिकन-मटन (मुर्गा-बकरा) कुछ भी खा रहे हो तो उसका असर एक-एक आदमी पर पड़ रहा है समाज के। ये तुम्हारा व्यक्तिगत मसला, प्राइवेट या पर्सनल मैटर (निजी या व्यक्तिगत मसला) नहीं है। तुम्हारी थाली में क्या रखा है, उसका असर मेरी ज़िन्दगी पर पड़ रहा है। तो मैं बोलूँगा, ‘मेरा हक़ है बोलने का। मैं तुमसे कहूँगा कि तुम वो नहीं खा सकते। क्योंकि तुम वो खा रहे हो तो दिक्क़त मुझे हो रही है।
क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) के बड़े से बड़े कारणों में है एनिमल एग्रीकल्चर (पशु कृषि)। आप जब बात करते हो कि मुझे फ़ॉसिल फ़्यूल रिडक्शन (जीवाश्म ईधन के प्रयोग में कमी) करना है, तो आप अधिक से अधिक कार्बन डाई ऑक्साइड घटाने की बात करते हो। है न? और ग्रीन हाउस इफ़ेक्ट (हरित गृह प्रभाव) मिथेन से कार्बन-डाई-ऑक्साइड की अपेक्षा बीस गुना ज़्यादा होता है।
क्लाइमेट चेंज का उत्तरदायी ग्रीन हाउस इफ़ेक्ट होता है, ये तो हम जानते ही हैं न? और ग्रीन हाउस गैसेज़ (हरितगृह गैसों) में मिथेन का जो मॉलिक्यूल (अणु) है, वो कार्बन-डाई-ऑक्साइड के मॉलिक्यूल से बीस गुना ज़्यादा घातक होता है। और मिथेन कहाँ से आती है? मिथेन उन जानवरों से आती है, जिनको आप पालते हो दूध के लिए और माँस के लिए। तो माँस खाना और डेयरी प्रोडक्ट्स (दुग्ध उत्पादों) का इस्तेमाल करना क्लाइमेट चेंज के बड़े से बड़े कारण में है।
अब तुम बताओ, तुम माँस खा रहे हो, मैं तुम्हें खाने दूँ क्या? क्लाइमेट चेंज का असर तो मेरे ऊपर पड़ रहा है न! तुम कैसे बोल रहे हो कि यह तुम्हारा व्यक्तिगत मसला है? नहीं है व्यक्तिगत।
इसी तरीक़े से दुनिया की सत्तर प्रतिशत खेती सिर्फ़ जानवरों का अन्न और उनका चारा उगाने के लिए की जाती है। ये बात आप कभी ख़ुद सोच ही नहीं पाओगे, अगर आप इन्टरनेट पर डेटा नहीं देखने जाओगे, लेकिन इन्टरनेट पर डेटा देखने की फुरसत कहाँ है? हमको तो इंटरटेनर्स (मनोरंजनकर्ताओं) को देखना है। हमें रोस्टर्स (व्यंगकों) को देखना है। कोई आ जाए सिर्फ़ आपका दिल बहलाने के लिए अपनी प्रिटी पिक्चर्स (सुन्दर चित्र) डालने वाली, आप उसके सौ मिलियन फ़ॉलोवर (दस करोड़ अनुगामी) कर दोगे। तो आपके पास वक़्त कहाँ है ये देखने का कि दुनिया भर का एग्रीकल्चर (कृषि) हो क्यों रहा है? सत्तर प्रतिशत खेती इसलिए होती है ताकि मवेशियों को अन्न खिलाया जा सके। और उनको अन्न क्यों खिलाया जा रहा है? ताकि वो फिर आपको पहले दूध दें और फिर उनका माँस आप खाओ। और वो सब जानवर ज़बरदस्ती पैदा किए जा रहे हैं ताकि आपके खाने की हवस पूरी होती रहे।
वो इतनी सारी जगह कहाँ से आयी खेती की? जंगल काटकर के आयी। तुम जो माँस खा रहे हो, उसके लिए जंगल कट रहा है और जब जंगल कट रहा है तो जंगल में जो प्रजातियाँ रहती थीं न! वो विलुप्त हो रही हैं। किसी प्रजाति को ख़त्म कर देने का यह तरीक़ा नहीं होता कि उसको खा जाओ या गोली मार दो। तुम उसका घर काट दो, वो मर जाएगा। वो रहेगा कहाँ, मर जाएगा। बस तुम उसका जंगल काट दो, वो प्रजाति विलुप्त हो जाएगी।
पिछले चालीस साल में हमने उतनी प्रजातियाँ ख़त्म कर डालीं, जितनी पिछले चालीस लाख साल में नहीं ख़त्म हुई थीं। ये कौन समझाए इन सत्रह-अठारह साल वालों को जो बोलते हैं, ‘ माय लाइफ़, माय चॉइस। मैं कुछ भी खाऊँ। मैं बीयर पीता हूँ, मैं चिकन खाता हूँ; मेरी मर्ज़ी।’
और पिछले आठ साल में ही भारत में ख़ास तौर पर चिकन का उपभोग कई गुना हो गया है। कौन खा रहा है चिकन? यही खा रहे हैं, ये जो आज के लड़के हैं। दारू पीनी है, चिकन खाना है और दारू और चिकन तो साथ चलते ही चलते हैं। बिना चिकन के दारू कैसी? क्या इनको पता है कि जब ये वो चिकन खा रहे होते हैं तो इन्होंने कितनी प्रजातियाँ ख़त्म कर दीं? मैंने कहा जानवर नहीं मार दी है तुमने पूरी स्पीशीज़ (प्रजातियाँ) ख़त्म कर दी है। एक-दो-चार नहीं, लाखों स्पीशीज़ ख़त्म कर दीं।
लेकिन तुम्हें कैसे पता चलेगा? देखो न कि तुम लगातार फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम पर क्या देखने में मशगूल हो। तुम्हारे पास सच्चाई देखने का वक़्त कहाँ है? और अपनेआप से पूछना कि तुम जिन लोगों को फ़ॉलो (अनुसरित) कर रहे हो, क्या वो तुम्हें कभी सच्चाई बताते हैं? एक ये सवाल पूछो अपनेआप से। वो बस तुम्हारा मनोरंजन करते है, वो भी घटिया से घटिया तरीक़े से तुम्हारा मनोरंजन करते हैं। वो तुम्हें कभी सच्चाई नहीं बताएँगे, क्योंकि सच्चाई तुम्हें पता चल गयी तो फिर तुम उन्हें सुनना छोड़ दोगे।
एक ‘ क्लाइमेट चेंज एक्टिविस्ट' (जलवायु परिवर्तन कार्यकर्ता) हैं और बहुत जान लगाकर के काम कर रही हैं। उनसे बात हो रही थी, मैंने पूछा कि बताइएगा, अभी क्लाइमेट चेंज को रोकने का, अरेस्ट (नियन्त्रित) करने का कट ऑफ़ इयर (अधिकतम् करणीय वर्ष) क्या है? क्योंकि पहले मानते थे २०५० है, फिर हमने कहा २०३५ है। वो बोलीं, अब कट ऑफ़ इयर है ‘२०२०’। द राईट डे वाज़ यस्टरडे (कुछ करने के लिए उचित दिन कल था)।’ अब तुम उसको नहीं रोक सकते।
तापमान में ०.५ डिग्री की बढ़ोतरी भी पृथ्वी के लिए अति घातक है और अभी स्थिति यह है कि तुम उसे दो डिग्री से नीचे भी नहीं रोक सकते। एक-डेढ़ डिग्री हो चुका है और अब तुम दो डिग्री पर भी नहीं रोक सकते। शायद मामला तीन डिग्री तक जाएगा और तीन डिग्री का अर्थ है, सीधे-सीधे प्रलय और प्रलय के लिए बहुत हद तक ये जो पीढ़ी है "माय लाइफ़, माय चॉइस।” वाली, ये ज़िम्मेदार होगी। और भुगतेंगे भी यही, हमारा क्या है, अगले दस-बीस साल में निकल लेंगे। बेटा, जीना तो तुमको है न, तुमको अभी साठ साल जीना है। तुम ही भुगतोगे। ये जो तुम एक अपनी काल्पनिक डॉल लाइक फ़ेयरीटेल (गुड़ियों की तरह परीकथा वाली) दुनिया में जी रहे हो निब्बो! भुगतोगे तुम ही।
नहीं, ‘निब्बा’ बोलने का मुझे कोई शौक़ नहीं है। मेरे पास बहुत बेहतर शब्द हैं किसी को सम्बोधित करने के लिए, पर मैं इन्हें बोलूँ ‘किशोर!’ तो इन्हें समझ में ही नहीं आएगा। बोलेंगे, ‘व्हट काइंड ऑफ़ वर्ड इस दैट? ‘किशोर’! (वह ‘किशोर’ किस प्रकार का शब्द है?)’ तो मैं वही भाषा बोल रहा हूँ जो तुम्हें समझ में आती है। हिन्दी तो तुम्हें समझ में आनी कब की बन्द हो चुकी न! तुम्हें तो यही भाषा समझ में आती है—‘निब्बिश’। वही बोल रहा हूँ।
अगर हम एक सजग समाज होते तो हम पाते कि ऐसा बहुत हो रहा है कि आप किसी रेस्टोरेंट (भोजनालय) में जा रहे हैं, जहाँ पर माँस परोसा जा रहा है तो आप कहते मेरा हक़ है इस बात को रुकवाने का। आप जाकर के उससे सवाल करते। आप कहते, ‘तू कैसा आदमी है? तू पूरी दुनिया का, पूरी पृथ्वी का दुश्मन है क्या, तू माँस परोस रहा है?’; आपके पड़ोस की मेज़ पर किसी रेस्टोरेंट में कोई माँस खा रहा होता, आप कहते, ‘मैं आपसे बात करना चाहता हूँ। साहब! आप ये जो खा रहे हैं, इसके बाबत मैं आपसे कुछ बात करना चाहता हूँ। यह आप क्या खा रहे हैं? आपको पता भी है, आप जो खा रहे हैं उसका मेरी ज़िन्दगी पर क्या असर पड़ेगा? ये जो आप खा रहे हैं, इसका आपके ही बच्चे की ज़िन्दगी पर क्या असर पड़ेगा, आपने क्या सोचा है? मैं आपसे बात करना चाहता हूँ।’
अगर हम एक सजग समाज होते तो इस तरह के बहुत सारे वार्तालाप हम होते देखते। पर नहीं, हम कहते हैं, ‘भाई! वो खा रहा है, उसकी मर्ज़ी। मैं कैसे कुछ कह सकता हूँ उसको।’ तो ठीक है, आपके घर के बग़ल में जब कोई धुएँ वाला जनरेटर चलाए तो यही कहिएगा, ‘उसकी मर्ज़ी, मैं क्या बोल सकता हूँ इसमें।’
इट्स अ पब्लिक कॉज़ (यह सार्वजनिक विषय है), यह किसी का प्राइवेट मैटर (निजी विषय) नहीं है। लोग कहते हैं न कि हू आर यू टू डिसाइड व्हट वुड बी ऑन माय प्लेट (तुम कौन होते हो यह निर्णय करने वाले कि मेरी थाली में क्या होगा)। नहीं, आई डू हैव अ स्टेक एंड अ वॉइस इन डिसाइडिंग व्हट वुड बी देयर ओन योर प्लेट। एक्स्चुज़ मी! (तुम्हारी थाली में क्या होगा, यह निर्णय करने में मेरा एक पक्ष है और बोलने हेतु एक उचित कारण है। कृपया मुझे बोलने दें!)
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