सुनो इस शरीर की सच्ची कहानी || (2019)

Acharya Prashant

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सुनो इस शरीर की सच्ची कहानी || (2019)

प्रश्नकर्ता: जैसे पता चला कि शरीर का होश या देहभाव शुरू से ही होता है तो इससे दूसरी तरफ़ जाने की क्या संभावना है?

आचार्य प्रशांत: दूसरी तरफ़ वही जाएगा न जिसको दूसरी तरफ़ लाभ है। जिसको शरीर की तरफ़ रह कर के आराम ना मिल रहा हो, शांति ना मिल रही हो वही दूसरी तरफ़ जाएगा। जिसको एहसास होने लग गया, दिखने लग गया कि शरीर से जितना ज़्यादा ताल्लुक़ रखते हैं, जितना अपनापन रखते हैं, जितना तादात्म्य रखते हैं, जीवन में कमज़ोरी, बेचैनी उतनी बढ़ती है वो ही जाएगा दूसरी तरफ़। तो फिर दूसरी तरफ़ जाने की विधि भी यही है कि देख लो शरीर बने रह कर पा क्या रहे हो।

हम असल में पूरी तरह शरीर भी नहीं बने हुए हैं, हम त्वचा बने हुए हैं। शरीर में तो जो कुछ भी है अगर आपके सामने रख दिया जाए तो उठ कर भागेंगे। जब हम कहते हैं कि हममें देहभाव सघन है तो वास्तव में वो त्वचा भाव और केश भाव होता है। खाल और बाल! हमारा इनसे तादात्म्य होता है। अभी आपकी आँत निकाल कर आपके सामने रख दी जाए फिर? और आँतों के भीतर क्या है आप जानते हैं। मौसम महक उठेगा बिलकुल। अपने ही भीतर जो हम लेकर घूम रहे हैं माने इस देह के भीतर जो लेकर घूम रहे हैं वो सामग्री कुछ बहुत सुंदर-सुगंधित तो नहीं है। है क्या? जो इन छोटी-छोटी बातों पर विचार करने लगता है कि मैं क्या शरीर बन कर घूम रहा हूँ? शरीर बाहर से खाल है अंदर से मल-मूत्र है। मुझे मल बन कर घूमना है क्या? देह बन कर घूम रहा हूँ तो अब देह में मेरा कुछ भी नाम हो सकता है — अमित। पर अगर मैंने कह दिया कि देह हूँ, तो वास्तव में मेरा नाम हो गया अमित मल। आइए अमित मल साहब!

ये छोटी बातें व्यक्ति अगर अपने जीवन में देखने लगे तो देह से खुद ही पीछे हटने लगेगा। कोई ज़रूरी काम करना है आपको, ऐसा जो आपको वास्तव में प्राणों से ज़्यादा प्यारा है और वो करते हुए आपको नींद आने लगे। उसके बाद आप कैसे देह बने रह जाते हो अगले दिन भी, बोलो?

आज की रात कीमती है, कोई ज़रूरी काम करना है, और आप कर रहे हो और ये देह सोने को आतुर हो रही है, उसी रात देह से नाता टूट जाना चाहिए। "तू सगी नहीं है मेरी आज दिख गया। क्या मुझे करना, क्या तू कर रही है? तेरे इरादे नापाक़ हैं। कम-से-कम तेरे इरादे और मेरे इरादों में कोई साम्य नहीं है। मुझे काम करना था और तुझे सोने की पड़ी है।"

आप बात करते हो निर्मलता की और देह ऐसी है कि उसे दो दिन नहलाओ नहीं तो गंधा जाती है। आप बात करते हो कि असीम चाहिए, विराट चाहिए और देह में जो कुछ भी है वो सब सीमित है। आप कहते हो आश्रित नहीं होना है, दूसरों पर निर्भर रहकर नहीं जीना है और देह लगातार दूसरों पर ही निर्भर है। उसका खाना-पीना, हवा-पानी, जल सब बाहर से है। बच्चे की देह है तो माँ की देह के लिए व्याकुल है, पुरुष की देह है तो उसे स्त्री की देह चाहिए, स्त्री की है तो पुरुष चाहिए। देह तो दूसरे के लिए लगातार व्याकुल है, दूसरे पर ही आश्रित है। बूढ़े हो गए तो फिर जवानों की देह चाहिए कि अरे हमें सहारा देकर इधर-उधर ले चलो। बीमार हो गए तो फिर किसी चिकित्सक की देह चाहिए, उसके सामने जा कर बैठे, "अरे चिकित्सक साहब! उपचार कर दीजिए इस देह का।"

आत्मा स्वीकार नहीं करती किसी और का अवलम्बन, और शरीर के लिए स्वाबलंबन जैसा कुछ है नहीं। अब बोलो शरीर से कितना रिश्ता रखना चाहते हो, बोलो? जिन्होंने शरीर के ही दम पर प्रसिद्धि पाई, जिनको शरीर के ही नाते जानते हो उन फ़िल्मी सितारों की जवानी की और बुढ़ापे की तस्वीरें देख लिया करो। देह क्या है स्पष्ट हो जाएगा। देहभाव से मुक्त होने का अच्छा तरीक़ा है। कोई रहे हों अपने ज़माने के फौलाद सिंह, गामा पहलवान, बलिष्ठ देह वाले, सुंदर चेहरे वाले, कोई ग्रीक हीरो, कोई कामदेव, उनकी बुढ़ापे की तस्वीर देख लो। कोई सुपरस्टार हों देख लो आजकल कैसे लगते हैं। सत्तर के दशक के किसी सुपरस्टार की आज तस्वीरें देख लो या उस ज़माने की कोई तारिका हों उनकी आज की तस्वीर देख लो। उनमें से बहुत सारी तो आजकल तस्वीरें खिंचवाती ही नहीं, लाज आती है।

जिसने ये देख लिया, देखने के बाद भी वो अपने-आपको शरीर कैसे कह सकता है? सुंदर-से-सुंदर भोजन खाते हो और उसका मल बना देते हो, ये है इस शरीर की फ़ितरत। तुम शरीर कहना चाहते हो अपने-आपको? और तब भी शरीरभाव ना छूट रहा हो तो जाकर भर्तहरि का पहले श्रृंगार शतकम् और फिर वैराग्य शतकम् पढ़ लो, पता चल जाएगा। उन्हें भी एक समय शरीर बड़ा प्रिय था, फिर दिल ऐसा टूटा कि सीधे वैराग्य पर आकर रुके। पहले कहते थे कि, "अरे सुंदर त्वचा, आकर्षक माँस, देह, उभार, नाभि इनसे आकर्षक क्या होता है।" फिर बोले, "अरे खाल, इस खाल से क्या चूमा-चाटी करनी। जिस खाल के ठीक नीचे मल, मवाद, पित्त, मूत्र, तमाम तरह के रज यही बैठे हुए हैं, बस वो दिख नहीं रहे हैं।"

बहुत पतली-सी चमड़ी की चादर है, उस चादर के पीछे छुपा हुआ है मल-मूत्र इसलिए दिख नहीं रहा है। क्या चाटे जाएँ उस चमड़ी को! चाटते वक़्त ख़्याल नहीं आएगा कि चमड़ी के ठीक पीछे क्या है। जिसको ये विचार आने लग गया वो कैसे देहभाव में जी लेगा बताओ? बड़ी बेईमानी चाहिए अपने-आपको देह कहने के लिए और किसी को तुम्हारी देह का पता हो ना हो, तुम्हें तो पता ही है। औरों से हम तो बहुत सारी चीज़ें छुपा जाते हैं। औरों के सामने आते हैं तो अपना आँख का कीचड़ पोंछ कर आते हैं, नाखून-वाखून काट लेंगे, गंदगी साफ़ कर लेंगे, भरी सभा में पाद भी मारेंगे तो थोड़ा छुप कर मारेंगे कि किसी को पता ना चले। लेकिन तुम्हें तो पता ही है न कि अभी-अभी तुमने कितनी बदबू फैलाई? तुम्हें तो अपनी देह की औकात और असलियत पता है न। औरों से छुपा लो, तुम्हें नहीं पता है क्या?

उसके बाद भी यही — मैं तो देह हूँ, मैं तो देह हूँ। बड़ी बेईमानी की बात है न। दूसरों को रिझाने जा रहे हो देह दिखा कर और जिसको रिझाने जा रहे हो उससे मिलने के ठीक पहले गरर-गरर-गरर-गरर माउथ फ्रेशनर किया है। तुम जानते हो न कि तुम्हारे मुँह से कितनी बदबू उठती है, सभी के मुँह से उठती है और फिर भी तुम मुँह में नकली खुशबू बसा रहे हो। ये तुम दूसरे को धोखा दे रहे हो या अपने-आपको दे रहे हो? और फिर ऐसे ही रिश्ते टूटते हैं, बड़ी निराशा आती है, झटका लग जाता है। शुरू-शुरू में तो दाँत चमका कर और कुल्ला मंजन कर के और गलिस्टरिंग डाल कर पहुँचते थे। फिर जब रिश्ता जम गया तो एकदिन ऐसे ही पहुँच गए — प्याज़ का डोसा खा कर और बोले, "प्रियतमा चुम्बन!" ये प्रियतमा अगर उस क्षण के बाद भी देहभाव में जिये तो ये नर्क की अधिकारी है। इसका पूरा हक़ है कि इसको नर्क ही मिले। जिसे जगना होगा, जिसे चेतना होगा, वो उस क्षण में जग जाएगी कहेगी "ये है असलियत। पान खाएँ सईयाँ हमार।"

जानते हो जितनी महँगी दिल की सर्जरी होती है उतनी ही महँगी कॉस्मेटिक सर्जरी होती है और उसका बाज़ार बहुत गर्म है। इसी तरीके से कोई डेंटिस्ट आपको बताएगा कि दाँत टूट गया हो उसका उपचार कराने में कम पैसा लगता है और दाँत उबड़-खाबड़ हों या आगे से उभरे हुए हों, उसको ठीक कराने में ज़्यादा पैसा लगता है।

सड़क पर मरा हुआ कुत्ता पड़ा है, आप अपने आँगन में घूम रहे हो, आपके पाँव के नीचे एक केंचुआ आ गया, बारिश का मौसम है। आपको दिख नहीं रहा देह की क्या गति होनी है? उस कुत्ते की देह, उस केंचुए की देह और आपकी देह क्या वाकई अलग-अलग हैं? श्मशान घाट जाकर देखिएगा कभी कि ऊँचे-से-ऊँचे, अमीर-से-अमीर, इज़्ज़तदार-से-इज़्ज़तदार मुर्दे के साथ क्या व्यवहार किया जाता है। चिता से उसका बाजू लटक रहा है नीचे, कोई बहुत सप्रेम, सस्नेह उठाकर नहीं रखता, बेअदबी से उठाया और ऐसे रख दिया। किसी सोते आदमी का बाजू आप वैसे उठा कर रखें तो उतने में बाजू चटक जाएगा। ये देह की औकात है। जब उसमें प्राणों का निवास नहीं रह जाता तो कोई मूल्य नहीं होता। प्राण क्या है? चेतना।

बड़ी प्यारी पत्नी थी, बड़ा प्यारा बेटा था, मर गए तो उनकी देह को फूँक क्यों आए बताओ, अगर उनकी देह से ही प्रेम था तो? बीवी से बहुत प्यार था, बेटा था, बाप था, माँ थी, पति, पत्नी, कोई था मृत्यु हो गई तो उनकी देह को फूँक क्यों आए, अगर तुम उनकी देह से ही प्रेम करते थे तो? माने जब तुम प्रेम भी करते हो तो समझो — देह से नहीं करते, चेतना से करते हो। पर ये बात समझते नहीं तो जीवन भर देह के ही चक्कर में पड़े रह जाते हो। चेतना की कुछ कद्र ही नहीं कर पाते। जब अपनी ही चेतना की क़दर नहीं करते तो किसी और की चेतना की क्या क़दर करोगे।

चेतना ना बचे उसके बाद देह का हश्र देखा है? दो दिन पुराना मुर्दा भी देखा है, कैसा हो जाता है?

ये है इस देह की औक़ात। बड़ी सुंदरता निखारते फिरते हो। ये जितने प्रेमी घूम रहे हैं देह के ये पास आने से घबराएँगे, मर जाओगे उसके चार घण्टे बाद कोई पास नहीं बैठना चाहेगा, बदबू उठती है। सड़ने लगते हो तो बर्फ़ पर रख दिए जाते हो। ज़्यादा देर तक फूँके नहीं गए तो तुम्हारी वजह से बीमारी फैल जाएगी, ये है देह की औक़ात, कीड़े पड़ जाएँगे। और चमकाओ। मैं गंदा रहने को नहीं कह रहा हूँ, मैं पूछ रहा हूँ बस कि जीवन का जितना अंश, अपनी ऊर्जा, अपने समय, अपने संसाधनों का जितना बड़ा हिस्सा शरीर की देखभाल में बिता रहे हो क्या वो हिस्सा शरीर पर जाना चाहिए था या जीवन का कोई और ऊँचा उद्देश्य होना चाहिए जिसकी तरफ़ तुम्हारा समय जाए, संसाधन जाएँ? इस शरीर का क्या भरोसा है?

कहते हैं सिद्धार्थ राजकुमार के साथ हुआ था ऐसा। उनके पिता को कुछ ऋषियों ने आगाह करा था कि आपका बेटा सन्यासी निकल सकता है; कुछ देखे होंगे उसके लक्षण। तो पिता ने बड़ा बंदोबस्त किया। उसको कभी दुःख महसूस ना होने दें, उसके लिए भोग-विलास के सब साधन इकट्ठे कर दिए और राज्य की जो सुंदर-से-सुंदर लड़कियाँ थीं उनको बुलाते और कहते, "मेरे बेटे के साथ रहो, दोस्ती करो।" राग-रंग हो, नाच-गाना हो। एक रात ऐसे ही देर तक चला नाच-गाना, मदिरा इत्यादि भी रही होगी तो वो जितनी लड़कियाँ आईं थी उन्होंने भी पी, शायद सिद्धार्थ ने भी पी होगी। सब अपना बेहोश पड़े हैं। बहुत देर रात, करीब-करीब भोर, अचानक सिद्धार्थ की नींद खुली होश आया, अब वो अव्वल नम्बर की सुंदरियाँ जिनको बुलाया गया था वो सब बेहोश, ढुलकी पड़ी थीं और मैं कल्पना कर रहा हूँ कि सिद्धार्थ ने बिलकुल फटी-फटी आँखों से देखा होगा कि कहाँ गया इनका रूप। किसी का काजल और जो कुछ भी मुँह पर मल रखा है चॉक-खड़िया वो सब धुला हुआ है, किसी के मुँह से लार बह रही है, किसी के सुंदर कपड़े और अस्त-व्यस्त हो गए हैं तो वो और बदसूरत लग रही है उत्तेजक लगने की जगह। कोई मुँह फाड़े पड़ी हुई है बेहोशी में, कोई खर्राटें मार रही है। किसी ने इतनी पी ली है कि उसने उल्टी कर दी है और वो अपनी ही उल्टी में लथपथ पड़ी हुई है। सिद्धार्थ ने ये सब देखा और कहा, "ठीक! अगर ये है रूप की असलियत तो नहीं चाहिए।"

रूप भी तभी सुहाता है जब वो बड़ी तैयारी कर के आता है। जो रूप आपको बड़ा उत्तेजित और आकर्षित करता है वो पहले घण्टों तैयारी करता है उत्तेजित बनने के लिए। वो तैयारी कैसे हो रही है अगर आप ये देख लें तो उस रूप से आपका जी हट जाएगा। बाल नोचे जा रहे हैं, खाल नोची जा रही है, घिसा जा रहा है। सब पुरुषों के लिए ये निश्चित होना चाहिए कि स्त्रियों के ब्यूटी पार्लर में कम-से-कम तीन महीने काम करें। ये व्यवस्था बननी चाहिए। जा कर देखो तो, जिस रूप-यौवन के पीछे तुम इतने पागल रहते हो उसकी हक़ीक़त क्या है। जितने फल और सब्जियाँ रसोई में नहीं पाए जाते उतने मुँह पर मले जा रहे हैं, दुनिया भर के रसायन देह पर घिसे जा रहे हैं, भौहें नोची जा रही हैं, बाल नोचे जा रहे हैं, बाल रंगे जा रहे हैं, मोम रगड़ा जा रहा है। और चीख-पुकार भी मची हुई है, हाय! हाय! हाय! हाय! आँसू भी निकल रहे हैं पर ये कार्यक्रम होना ज़रूरी है ताकि देह आकर्षक प्रतीत हो सके। जिसने इस व्यापार को देख लिया मुझे बताओ अब वो देह को कीमत कैसे देगा?

तो यही तरीक़ा है। इस तरीक़े में मैंने ऐसा कुछ बताया ही नहीं जो आपको नहीं पता। बात चाहे सौंदर्य प्रसाधनों की हो और चाहे श्मशान की, पता तो आपको सबकुछ ही है न? वो सब पता होने के बाद भी कोई कैसे देह की ही तरफ़ बैठा हुआ है इसपर मुझे आश्चर्य है।

जब शरीर का कोई हिस्सा बड़ी माँग करने लगे किसी भी तरीके से, पेट माँग करता है कि मुझे भोजन दो, कहीं दर्द हो गया तो वो जगह माँग करती है कि मुझे आराम दो, दवा दो, कामोत्तेजना चढ़ने लगी तो जननांग माँग करते हैं कि हम पर ध्यान दो, तो उसको देखा करिए और कहा करिए कि "कैसा लगेगा जब तू धू-धू कर के जलेगा? क्योंकि वही हैसियत है तेरी। बहुत उछल रहा है न?" और देखिए उसको राख होते हुए। वो राख होने जा रहा है, वो राख हो ही रहा है। बात समय की है। औकात राख की और बात लाख की, ये है अफसाना-ए-ज़िस्म! लाख से नीचे की बात नहीं करता और हैसियत है राख की।

अपने-आपको आईने में जब निहारें कि कितना खूबसूरत लग रहा हूँ तो अपनी लाश भी देख लिया करें उसी आईने में। ज़िन्दगी फिर सच्ची बीतेगी, झूठ से बचे रहेंगे। और लाश यहाँ है कौन नहीं। "साधो रे! ये मुर्दों का गाँव!"

फकीरों के तो अंदाज़ ही ऐसे रहे हैं। सुना है न एक बैठा था पेड़ के नीचे, गाँव से थोड़ा बाहर। उसके पास एक यात्री आया, बोला "बताओ बस्ती कहाँ है?" फ़क़ीर ने बोला उधर (दाईं तरफ इशारा करते हुए), गाँव था इधर (बाईं तरफ) और उसने बोला उधर (दाईं तरफ)। तो वो पथिक उल्टी दिशा में चल दिया और थोड़ी देर में लाल-पीला वापस लौटा बोला "क्या आदमी हो तुम? हमें तो पता था कि फ़कीर सीधे-सच्चे होते हैं। तुम बरगला रहे हो यहाँ बैठ कर के। हम पूछ रहे थे 'बस्ती कहाँ हैं?' तुमने मरघट भेज दिया।" फ़कीर ने बोला, "पागल! बस्ती तो वहीं है, यहाँ तो उजड़ती है। बसते तो हमने वहीं (श्मशान में) देखा लोगों को, वहाँ जो गया वो बस गया। वहाँ (गाँव में) तो हमने किसी को बसते देखा नहीं। उधर तो जो गया उजड़ा। बसे तो लोग वहीं जाकर के, तो बस्ती तो वही है।"

ये सब कोई बहुत दूर की बात नहीं। फिर कह रहा हूँ जितनी बात कह रहा हूँ आपको भी पता है न? इनको दबाया मत करिए। हमने इन बातों का ज़िक्र भी प्रतिबंधित कर रखा है। जैसे मैं कह रहा था कि ब्यूटी पार्लर में काम करना अनिवार्य होना चाहिए, वैसे ही श्मशान में भी ड्यूटी बजाना अनिवार्य होना चाहिए। ताकि जो बातें दबी छुपी हैं वो थोड़ा सामने आएँ, फिर हल्का जीएँगे। सबको महीने-दो-महीने में एक-आध बार मरघट का चक्कर लगाना चाहिए। भाई घर है अपना, जाओगे नहीं देखने क्या हाल-चाल है? संगी-साथी कैसे हैं? कोई दिक्कत तो नहीं? कुत्ते तो नहीं आ कर मूत जाते हैं? मूत जाते हैं। वही घर है। बड़े इज़्ज़तदार बनते हो। पर ये बातें हमने छुपा रखी हैं। ये बड़ी आम बातें हैं पर हम उनको दबाए रहते हैं, उन पर पर्दा डाले रहते हैं, उनके ज़िक्र को प्रतिबंधित किए रहते हैं। खुलेआम बात किया करिए।

कोई बहुत पीछे पड़ा हो कि चलो-चलो कहीं मिलते हैं, चैट करते तो बहुत दिन हो गए अब मिलना भी तो चाहिए। तो उसको जीपीएस भेज दो किसी श्मशान का। जब वो वहाँ पहुँचे तो बोलो "व्हाट अ कूल शमशान !" सारा रोमांस उतर जाएगा और जिसका रोमांस इतने पर भी ना उतरे वो समझ लो सच्चा आशिक़ है। उसके साथ ठीक है। तो डेटिंग के लिए शमशान। वहाँ पूछना आशिक़ मियाँ से कि "यहाँ जोड़ों में तो नहीं दिख रहे? यहाँ तो सब अकेले ही अकेले हैं और तुम लगे हो पीछे कि आओ जोड़ी बनाएँ। वो जोड़ी यहाँ किसने तोड़ी?"

ऐसी बातों को हमने बिलकुल दबाकर छुपा कर अपनी चेतना के किसी पुराने संदूक में बंद करने की प्रथा बना ली है। अब ये सब बातें हम कर रहे हैं, ये वीडियो जाएँगे या कि अभी लाइव भी जा रहा है तो वहाँ आ रहे होंगे बहुतों के उद्गार — मैन! ही टॉक्स सो नेगेटिव! ब्रो ही हैज़ नो पॉज़िटिविटी! ऑल ही टॉक्स इज़ डेथ एंड डिस्ट्रक्शन! (यह व्यक्ति कितना नकारात्मक है, हमेशा मृत्यु और बर्बादी की बातें करता रहता है।)

बेटा तुम्हारी ग़लती नहीं है, तुम्हें सिखाया ही यही सब कुछ गया है। रही अपनी चेतना, अपनी अक्ल की बात तो अपना तो तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। तो उद्गार भी तुम्हारे वही सब हैं एम.टीवी वाले — मैन यू गॉट बी पॉज़िटिव! (सकारात्मक बनो) अच्छा है, तुम पॉज़िटिव मुर्दे बनना, ठीक है? एक ऐसे लेटना दूसरा उस पर क्रॉस बना कर लेट जाना (धनात्मक चिन्ह बनाते हुए)। जोड़ा भी सलामत रहेगा, पॉज़िटिविटी भी रहेगी।

प्र: आचार्य जी, मेरा प्रश्न ये है कि हम बात ज़्यादा शरीर के बारे में ही करते हैं। चेतना के बारे में जन्म से लेकर बुढ़ापे तक भी बात ही नहीं होती, हमारा उससे परिचय ही नहीं होता है।

आचार्य: शरीर के बारे में कौन बात करता है?

प्र: हम सभी करते हैं।

आचार्य: घुटना कभी अपने बारे में बात करेगा क्या? घुटने के बारे में बात कौन कर रहा है? चेतना ही तो कर रही है। बस उस चेतना को ये पट्टी पढ़ा दी गई है कि शरीर के साथ जुड़ने में कुछ लाभ है। चेतना बेचारी थोड़ी ग़रज़मन्द है, मजबूर है, चेतना में कुछ कमी है, उसका कुछ खोया हुआ है, कुछ मिसिंग है तो वो सबसे पूछती फिर रही है कि, "वो जो मिल नहीं रहा है, वो जिसकी तलाश है वो कहाँ मिलेगा?" और प्रकृति और समाज ये दोनों आकर उसको बता देते हैं, "वो तुम्हें मिलेगा देह में", तो चेतना बेवकूफ़ बन जाती है, चेतना की ग़रज़मंदी का फ़ायदा उठा लिया जाता है।

हम सब अपूर्ण हैं, कुछ खाली-सा, कुछ खोखला सा है और हमें नहीं मालूम कि उसमें हमें क्या भरना है, हमें नहीं मालूम कौन है जो उसको पूरा करेगा। पर वो खोखलापन काटता है, जीने नहीं देता तो हम ज़रा जल्दबाजी कर बैठते हैं। जो कुछ भी मिलता है, अपने खोखलेपन को उसी से भर देते हैं। सबसे पहले क्या मिलेगा और सबसे आसानी से क्या मिलेगा? बच्चा पैदा हुआ है उसके पास कुछ नहीं है पर एक चीज़ तो है, क्या? शरीर तो है न। तो चेतना में तत्काल शरीर को भर दिया जाता है। इसीलिए फिर चेतना हर समय किसकी बात करती रहती है? जैसा आपने कहा — शरीर की। क्योंकि उसे कुछ चाहिए, किसी पर तो अपनी उम्मीद टिकाए न वो।

उसकी बड़ी खराब हालत है। जीवन भर वो देह से ही आस लगाए रहती है कि इसी के भरोसे क्या पता वो मिल जाए जिसकी तलाश है। अब देह खुद नाशवान है, देह खुद बहुत ज़्यादा नहीं चलनी है तो वो चेतना को कुछ कैसे दे देगी जो अमर हो, अविनाशी हो। चेतना का तो बुद्धू ही बन गया। वो ऐसे ही बोलती रह गई, "मेरी आँखें! मेरी आँखें!"

आँखें फूट गई। ये क्या हो गया?

"मेरे दाँत! मेरे दाँत!" दाँत टूट गए। अरे गड़बड़! "मेरी खाल! मेरी खाल!" खाल लटक गई।

"मेरे बाल! मेरे बाल!" बाल झड़ गए। अरे बन गए बुद्धू!

और जीवन भर जो किया, जो संसार रचा वो सब भौतिक, वो सब देह से ही संबंधित। देह नहीं झड़ी कि पूरा संसार ही झड़ गया। चेतना ठूठ की तरह बंजर खड़ी रह गई पहले की तरह निरीह, अकेली। जिस वास्ते यात्रा शुरू की थी वो मकसद ही नाकामयाब गया।

विचार ही कर लो — मृत्यु के क्षण में यदि तुम्हें पता चले कि पूरा जीवन बर्बाद जिया है, कैसा लगेगा? ये तो खैरियत की बात है कि ऐसा पता ही नहीं चलता। ज़्यादातर लोगों को मौत के क्षण में भी ये राज़ नहीं खुलता कि उनकी पूरी ज़िंदगी व्यर्थ गई है तो आसानी से मर लेते हैं। पर मरने वाले हो और उसी वक़्त तुम्हें पता चले कि जितने साल, जितने दशक तुम जिये यूँ ही जिये, कैसा लगेगा? इसी देह के भरोसे जिये और अब यही जा रही है, झड़ रही है। उस क्षण के खौफ़ से अगर बचना चाहते हो तो अभी भी जग जाओ, अभी भी समय है। तुम्हारी ज़िंदगी में दो ही दिन हो तो भी अभी बहुत समय है, जग जाओ।

एक डीज़ल गाड़ी है, यहाँ संस्था में खड़ी है और सरकार ने, ग्रीन ट्रिब्यूनल ने बना दिया नियम कि डीज़ल गाड़ियाँ दस वर्ष से ज़्यादा चल नहीं सकती सड़क पर। और वो होने जा रही है दस साल की और चली बहुत कम है। और दस साल जिस दिन पूरे हुए उसका कटना निश्चित है। तो किसी ने कहा "अरे चला ही लिया होता। क्योंकि दस साल जिस दिन पूरे होंगे ये तो कटेगी ही। चला ही लिया होता।"

कैसे चला लिया होता? व्यर्थ ही उसमें डीज़ल भरकर कहीं भी घूम आते? कोई उद्देश्य होना चाहिए न?

तो गाड़ी इसलिए है — दस साल के पहले-पहले उसे सोद्देश्य घुमा लो क्योंकि दस साल पूरे हुए नहीं कि वो तो कटेगी और दस साल से पहले भी उसे अगर व्यर्थ घुमाया तो समय भी खराब करोगे, डीज़ल भी खराब करोगे।

दोनों ही काम तुम नहीं कर सकते — ना तो तुम ये कर सकते हो कि गाड़ी चलाई ही नहीं और ना तुम ये कर सकते हो कि गाड़ी खूब चलाई पर व्यर्थ चलाई। तुम्हें गाड़ी चलानी भी है और सोद्देश्य चलानी है, सप्रयोजन चलानी है, मंज़िल की ओर चलानी है, सचेत होकर चलानी है। वो गाड़ी देह है।

वो कटने वाली है, उससे पहले उसे चला लो और खाली मत चलाना कि व्यर्थ धुँआ छोड़ रहे हैं। मक़सद की तरफ चलाओ, सही चलाओ, खूब चलाओ। बचा कर क्या करोगे? बड़ी चमचमाती गाड़ी है, एकदम चमक रही है, नौ साल तीन-सौ-चौसठ दिन की हो चुकी है। आ हा हा! क्या शाइन मरती है! अगले दिन क्या होगा उसका? कटेगी। बचा कर क्या करोगे? बचाना मत।

इतना ही बचाना कि दस साल चल जाए। इससे ज़्यादा तो वो वैसे भी नहीं चलेगी। खूब रगड़ो उसे, रगड़ ही दो। अमर तो वो वैसे भी नहीं है भाई! रगड़ दो। ये बर्ताव होना चाहिए शरीर के साथ, रगड़ दो उसको। इतना ही बचाओ कि बस दस साल खिंच जाए। खूब रगड़ दो।

जीवन का उद्देश्य शरीर की सुरक्षा नहीं है, जीवन का उद्देश्य है चेतना को मुक्ति तक पहुँचाना।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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