“ सुणए पोहि न सकै कालु ” सुनने वाले को काल नहीं पा सकता।
~ जपुजी साहिब
वक्ता: सुनने वाले को काल नहीं पा सकता। कबीर ने भी कहा है ये और जितने सरल तरीके से कबीर कहते हैं उतने ही सरल शब्दों में कि,
काल-काल सब कहें, काल लखे न कोए।जेती मन की कल्पना, काल कहावे सोए ।।
जहाँ कल्पना है वहीं काल है;जहाँ काल है वहीं मृत्यु है। सुनना— कल्पनाओं का उनके स्रोत में समाहित हो जाना है।
जो कल्पनाएँ अपने घर से निकल के संसार में बेलगाम दौड़ रहीं थी वो वापस आ गई हैं। जिन्न देखें हैं? जो बोतलों से निकलते हैं और बोतलों से निकलकर वो कितने बड़े हो जाते हैं, और फिर कोई आता है और उससे कहता है कि वापस चल बोतल में तो जिन्न बोलता है – ‘जो हुक्म मेरे आका।’ और इतना विशाल और भयानक जिन्न वो ज़रा सी टिबरी में वापस चला जाता है। ऐसी ही है कल्पना भी – उसको फैलने दो तो भूत-प्रेत, पिशाच, जिन्न, सब बन जाएगी। और अगर उसे बोलो, ‘चल’, तो बस इतनी सी चीज़ है।
मौत का ख़याल भी ऐसा ही है – फैंटम, कल्पना, जिन्न – फैलने दो तो फैलता ही चला जाएगा और अगर मालिक हो अपने तो बोलो उसको कि, ‘चल वापस’ और वो कहेगा कि – ‘जो हुक्म मेरे आका’। एक ख़याल के अलावा मौत और कुछ नहीं है, पर इससे खुश मत हो जाइएगा। जैसे ही कहता हूँ कि एक ख़याल के अलावा मौत कुछ नहीं है तो आपके मन में आता है कि ज़िन्दगी तथ्य है और मौत ख़याल है। ज़िन्दगी तो हकीकत है मौत ख़याल है – नहीं, ऐसा नहीं है।
मौत ठीक उतना ही बड़ा ख़याल है जितना बड़ा ज़िन्दगी। जो ज़िन्दगी को सच्चा माने बैठा है उसे मौत को भी सच्चा मानना पड़ेगा; जिसे मौत से मुक्ति चाहिए उसे जीवन से मुक्ति लेनी होगी।
जो इस जीवन को सच्चा मानता है वो मरेगा। जिसे मौत से मुक्ति चाहिए उसे इस जीवन का झूठ देखना पड़ेगा।
जो आया है सो जाएगा। जिसे जाना नहीं है , उसे ये जानना पड़ेगा कि वो कभी आया ही नहीं था।
जिसका जन्म हुआ है यदि वो ये अपेक्षा करे कि अमर रहूँ, कभी मौत ना आए तो पागलपन की बात है। ये अपेक्षा कभी पूरी नहीं होगी कि आप कहो कि, ‘जन्म तो ले लिया है पर कभी मरेंगे नहीं’। यदि मरना नहीं है तो साफ़-साफ़ देखना पड़ेगा कि मैंने कभी जन्म ही नहीं लिया , “मैं हूँ ही नहीं”।
जिसे मरने से बचना है उसे अभी मर जाना होगा। जो मौत से बचना चाहते हों वो तुरंत मर जाएँ।
और कोई तरीका नहीं है मौत से बचने का। जो अपनेआप को जिंदा मानेंगे उन्हें तो मरना ही पड़ेगा। बस मरे हुए को मौत नहीं आती। मर जाओ, यही समझा गए हैं संत कि जल्दी मरो, क्या फ़ालतू ज़िन्दगी ढो रहे हो।
“मरो हे जोगी मरो, मरो मरण है मीठा”
अपनेआप को जबतक वो जानोगे जिसने जन्म लिया, किसने जन्म लिया? देह ने, तब तक लगातार मौत के खौफ में जीओगे क्योंकि जिस शरीर ने जन्म लिया है अगर वो हो तुम, तो वो तो जाएगा। आपको ताज्जुब होता होगा कि क्यों सारे शास्त्र, क्यों सारे संत बार-बार अमरता की बात करते हैं, क्योंकि सत्य है ही अमर; क्योंकि जिसको हम ज़िन्दगी कहते हैं उसका ज़हर ही है मौत का खौफ। हमारे सारे खौफ मूलतः मौत का खौफ हैं। और वो जब तक नहीं जा सकता जब तक आप शरीर से जुड़े हुए हो।
जो शरीर से जितना जुड़ा हुआ है उसको मौत का खौफ उतना ज़्यादा रहेगा।
मौत का खौफ ना जीने दे रहे है और न यही है कि मार ही डाले। आ रही है बात समझ में?
अहम वृति जन्म लेती है। जिन्हें अमर होना हो वो उस वृति को उसके स्रोत में समाहित कर दें। जब तक कहोगे कि, “मैं देह हूँ” –मरोगे, जब तक कहोगे कि, “मैं मन हूँ” – मरोगे। जब यही कह दोगे कि, “यह सब कुछ नहीं, मैं तो वही हूँ” तब अमर हो जाओगे, फिर मौत का कोई खौफ नहीं रहेगा।
सुनना वो है, जो वो क्षण उपलब्ध कराए जब तुम देह नहीं रहते। जब शरीर अपना एहसास कराना बंद कर देता है, जब मन भटकना बंद कर देता है, उस स्तिथि में जो घटना घटती है, वो है सुनना।
और तुम जब तक वैसे हो, तब तक अमर हो। मन ही मृत्योन्मुखी है, मन ही आत्मा होकर अमर हो जाता है। अमरता की झलकें तो पाते ही रहते हो, मौत से पूरी तरह ही निजात पा लो। मौत से पूरी तरह निजात पाने को ही कहते हैं समाधि , कि आखिरी समाधान हो गया। अब ऐसा नहीं है कि जलक भर मिलती है। अब ऐसा नहीं है कि पर्यटक की तरह वहां जाते हैं। अब वहां घर ही बना लिया है, वहीं रहते ही हैं।
सुनना झलक है। समाधि स्थापना है।
सुनाया तुम्हें इसी लिए जाता है ताकि एक बार तो हो आओ और जाते-जाते-जाते एक दिन ऐसा आता है कि तुम लौट के ही नहीं आते—वो समाधि है।
‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।
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