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स्त्रियों के लिए कमाना ज़रूरी क्यों? || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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स्त्रियों के लिए कमाना ज़रूरी क्यों? || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, स्त्री के लिये कमाना ज़रूरी क्यों है?

आचार्य प्रशांत: स्त्री के लिए तो बहुत, बहुत, बहुत ज़रूरी है, अपने पाँव पर खड़ा होना। स्त्री के लिए भी ज़रूरी है, पुरुषों के लिए भी। पर लड़कियों के लिए, स्त्रियों के लिए, विशेषतया ज़रूरी है कि वो ज़िन्दगी के किसी भी मुकाम पर, आर्थिक रूप से परनिर्भर न हो जाएँ। और प्रकृति का खेल कुछ ऐसा है, आर्थिक रूप से सबसे ज़्यादा पराश्रित स्त्रियों को होना पड़ता है।

शादी हो गई, तो नौकरी छोड़ दो, क्योंकि पति दूसरे शहर में रहता है। लो हो गई बेरोज़गार। हो गई न बेरोज़गार? पति थोड़े ही नौकरी छोड़ता है कभी। नौकरी हमेशा कौन छोड़े? लड़की छोड़े। अब इतना आसान है दूसरी जगह नौकरी मिलना? गई। अपना व्यवसाय वो चला नहीं सकती, क्योंकि अपना व्यवसाय चलाने के लिए दौड़-धूप करनी पड़ती है, और मन में ये बात बैठ गई है कि दौड़-धूप करना लड़कियों का काम नहीं।

प्र: आचार्य जी, ऐसा भी होता है कि बाहर का काम भी करना पड़ता है, और घर को भी देखना पड़ता है।

आचार्य: और अगर दौड़-धूप कर रहे हो, तो साथ-ही-साथ घर को भी देखो। दोगुना बोझ लो। जब दोगुना बोझ रहेगा, तो बाहर सफलता मिलने की संभावना कम हो जाएगी। सफलता न मिले, तो ठप्पा लग जाएगा कि – “इनसे बाहर का कोई काम तो होता नहीं, चलीं थीं बहुत फन्ने खाँ बनने। लो, पैसा भी डुबो दिया, असफलता भी मिली।" और इसके बाद अगर मातृत्व आ गया, तो महीनों-महीनों तक घर पर बैठो। वो भी ज़िंदगी में एक बार नहीं, हो सकता है दो बार, चार बार। अब बैठे रहो घर पर।

और एक बार घर पर बैठ जाओ, कुछ महीने, या कुछ साल, तो उसके बाद अपनी जो तीक्ष्णता होती है, या शार्पनेस (धार) होती है, वो भी कुंद हो जाती है। तलवार को जंग लग जाता है। फिर बाहर निकलने का खुद ही मन नहीं करता। एक बार तुम्हारा गृहिणी बनने में मन लग गया, उसके बाद तुम चाहोगी ही नहीं कि, "मैं बाहर निकलूँ।" और अपना आराम से, घर में गृहिणी बनकर, पराश्रित बनकर, पड़ी रहोगी।

आदमी बेरोज़गार हो जाए, तो दुनिया लानतें भेजती है। तो अहंकार की ख़ातिर ही सही, लेकिन उसे उठकर बाहर निकलना पड़ता है कि कुछ कमाऊँ। औरत बेरोज़गार घर में पड़ी है, उसे तो कोई कुछ कहता भी नहीं, कोई ताना नहीं मारेगा। वो पड़ी हुई है, बढ़िया। ये ख़तरनाक बात है, इससे बचना।

समझ रहे हो?

कम कमाओ, लेकिन इतना तो कमाओ कि रोटी अपनी खाओ। कोई हो घर में तुम्हारा – पिता हो, पति हो, वो हो सकता है एक लाख कमाता हो, पाँच लाख कमाता हो, उससे तुलना मत करो अपनी। अगर तुम बहुत नहीं कमा पा रहीं, तो दस ही हज़ार कमाओ। पर इतना तो रहे न कि मुँह में जो टुकड़ा जा रहा है, वो अपना है। ये मत कह देना कि – “पति जब एक लाख कमाता है, तो मुझे कमाने की क्या ज़रुरत है?” और इस तरह की बातें अकसर प्रेम के नाम पर चल जाती हैं कि – “प्रिय, प्रिये…”

(सामने बैठे श्रोता को सम्बोधित करते हुए) हिमांश, आप पूरा करें मेरी बात को।

श्रोता: मैं कमा रहा हूँ, तो तुम्हें क्या ज़रुरत है?

आचार्य: सुना? “कमा ही रहे हैं, तो तुम्हें क्या ज़रुरत है? बेगम, घर में रानी बन कर बैठो।”

अरे, तब तो अच्छा लगता है न सुनने में कि बिना मेहनत के हुज़ूर बोल रहे हैं कि – “घर में रानी बन कर बैठो।” और तब तो लगता है कि पुरुष आग्रह कर रहा है इतने प्रेम से कि घर में बैठो, और हम कमाने निकल गए, तो इस बेचारे का दिल टूट जाएगा। तो इसका दिल रखने के लिए हम घर में बैठते हैं। ज़रा साल-दो साल, चार साल बाद पता चलता है कि खेल तो दूसरा था।

बाहर निकलो, ढूँढो। शुरू करने के लिए कोई काम छोटा नहीं होता। और तुलना मत करना, मैं फिर कह रहा हूँ कि, "पति इतनी बड़ी नौकरी करते हैं, तो मैं कोई छोटी नौकरी कैसे कर लूँ?" बात तुलना की नहीं है। बात आत्म-निर्भरता की है। तो पाँच हज़ार, दस हज़ार, जितना न्यूनतम कमा सकती हो, उतने से ही शुरु कर लो। बाद में बढ़ता रहेगा। अभी शुरुआत तो करो।

और किसी को बेरोज़गार रखने का ये बड़ा अच्छा तरीका होता है, कि “हाँ, हाँ, कर लेना नौकरी। जब कम-से -कम पचास हज़ार की मिल जाए, तो कर लेना।” न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी। न तुम्हें पचास हज़ार वाली मिलेगी, न करने की आएगी।

ऐसे नहीं, बाहर निकलो।

पूरा व्यक्तित्व बदल जाएगा।

घर में घुसे-घुसे व्यक्तित्व कुंठित हो जाता है।

समझ रहे हो? बाहर निकलो।

मैं घर के काम को छोटा नहीं कह रहा।

उस काम का प्रकार कुछ ऐसा है, कि वो तुम्हारे विकास में बाधा बनता है।

मैं सिर्फ़ ये कह रहा हूँ कि – जो घर में कैद है, उसे दुनिया का कुछ पता ही नहीं चलेगा।

वही काम तुम निरंतर करते रहते हो न।

तुम बाहर निकलते हो, विकास की पचास सम्भावनाएँ होती हैं।

घर में अपनी माँओं को देखा होगा। वो आज से चालीस साल पहले भी रोटी ही बनातीं थीं, वो आज भी रोटी ही बनातीं हैं। बाहर निकलते हो तो प्रोन्नति (प्रमोशन) होते है न? गृहिणी का कोई प्रमोशन होता है? काम में कोई बुराई नहीं है, पर काम में विकास भी तो हो। वो पहले भी दाल ही बनाते थीं, आज भी दाल ही बनाती हैं। फिर उन्होंने सीखा क्या? तरक़्क़ी कहाँ हुई?

और घर में घुसे-घुसे वो दुनिया से ऐसी कट जाती है, कि उसे कोई ख़बर नहीं रहती। हम बारबार कहते हैं कि – तथ्य, सत्य का द्वार है। उसे तथ्यों का ही नहीं पता चलता। जब तक तुम दुनिया में निकल नहीं रहे, सड़कों की धूल नहीं फाँक रहे, बाज़ारों से रुबरु नहीं हो रहे, तुम्हें क्या पता चलेगा?

घर का काम भी करो। मैं पुरुषों से भी कहता हूँ, “घर का काम भी करो”, और स्त्रियों से भी कहता हूँ, “घर का काम भी करो।” पर अगर तुम ऐसे हो कि घर का काम ही कर रहे हो, तो तुम्हारा विकास बाधित हो जाएगा। मैं दोहरा कर कह रहा हूँ, ताकि किसी को गलतफहमी न हो जाए।

मैं घर के काम को छोटा नहीं मानता। घर अपना है, घर के सारे काम अपने हैं। किसी और का घर थोड़े ही है। अपना ही तो घर है, तो उनको मैं छोटा नहीं कह रहा। पर घर के काम की सीमाओं को समझना आवश्यक है।

कमाओ।

बाहर निकलो और कमाओ!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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