प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर, मेरा क्वेश्चन है कि औरतें श्मशान घाट क्यों नहीं जाती हैं? ऐक्चुअली एक इंसिडेंट हुआ, जैसे कुछ दिनों पहले हमारे सर्कल के एक 13 साल के लड़के की मृत्यु हुई। मेरे दोनों लड़के उसके फ्रेंड्स थे — बड़ा लड़का मेरा 14 साल का है और छोटा लड़का 10 साल का। तो मैं दोनों को ले के श्मशान घाट गई शाम को अंत्य विधि के लिए। तो जैसे कैब बुक की थी हमने, जैसे ही कैब पहुँची श्मशान घाट, पहले तो वो कैब वाले ने टोका हमें — कि आप क्यों जा रहे हैं? बच्चों को ले के ऐसी जगह पर जाना अच्छा नहीं है।
मैंने बोला उसे कि ज़िन्दगी का सत्य जितने जल्दी पता चले उतना अच्छा है। अब मुझे नहीं पता उसमें उनको क्या समझा होगा लेकिन फिर बाद में जैसे अंदर गए श्मशान घाट, तो देखा कि वहाँ पर एक भी औरत नहीं थी। पूरे श्मशान घाट में मैं ही अकेली औरत थी और बाकी सब जेंट्स थे, जो भी विधि के लिए आए थे। फिर वहाँ से वापस आने के बाद मुझे घर वालों ने भी बोला कि बच्चों को आप क्यों ले गए थे वहाँ पर? उनके मन पर असर पड़ेगा। फिर और भी इंटरेस्टिंग कमेंट सुनने को मिले — ऐसी जगह पर औरतों को नहीं जाना चाहिए। यहाँ पर नेगेटिव एनर्जी होती है जो औरतों को पकड़ लेगी बहुत जल्दी, वूमेन आर मोर वल्नरेबल। जैसे औरतों की मेंस्ट्रुएशन साइकिल ऊपर नीचे हो सकती है इससे, और औरतों की मनोदशा पे भी उससे फ़र्क़ पड़ता है।
सर और एक प्रसिद्ध गुरु जी है — जो इंग्लिश में बोलते हैं, बाइक वग़ैरह चलाते हैं, उनका एक बुक था वो मैंने पढ़ा था तीन-चार साल पहले, मैं उनको फॉलो करती थी। तो उसमें भी यही लिखा था उन्होंने कि — औरतों का जब मेंस्ट्रुएशन साइकिल चल रहा है तो इन दैट टाइम-पीरियड दे आर मोर वल्नरेबल। तो उन्हें ऐसी जगह पर नहीं जाना चाहिए जहाँ पर डेथ हुई है या जहाँ पर ये अंतिम संस्कार हो रहे हों। तो मेरा क्वेश्चन यही है कि, ये ऐसी सारी अफ़वाहें क्यों फैलाई गई है? इसमें क्या सत्यता है? और औरतों का श्मशान घाट जाना क्यों वर्जित है?
आचार्य प्रशांत: हम निरुत्तर हैं, हम कुछ नहीं बोल सकते इस पर। बात किसी स्तर की हो तो कोई जवाब दिया जाए। ये बात बस ऐसी है कि इस पर — वाह! वाह! यही कहा जा सकता है।
मिथोलॉजी इज़ गाइनकोलॉजी — लेटेस्ट है ये। औरतों का मेंस्ट्रुअल साइकिल ख़राब हो जाएगा अगर वो वहाँ चली गई — श्मशान पर, कैसे? कोई प्रयोग है? कोई परीक्षण है? कोई वजह है? कोई कारण? कॉज़ैलिटी का कोई सिद्धांत? कैसे? क्यों? इन बातों, इन सवालों का कोई महत्त्व ही नहीं है, बस हमने बोल दिया तो मान लो — क्योंकि ऐसा चला आ रहा है, हमने बोल दिया तो मान लो।
प्रश्नकर्ता: और वो कह रहे थे कि यहाँ पर जब बॉडी जलती है तो प्राणमय कोष का विघटन हो रहा होता है, और इसमें से इनफेक्टेड परमाणु सेल निकलते हैं जो ऐसा कुछ चार्वाक ग्रंथ में पढ़ा है जो कि औरतों के मेंस्ट्रुएशन साइकिल को अफेक्ट करते हैं।
आचार्य प्रशांत: परमाणु निकल रहे हैं। परमाणु — ये सब तो मटेरियल बात है, मटेरियल बातें तो कोई साइंटिस्ट बताएगा ना।
प्रश्नकर्ता: मैं भी नहीं मानती ये सब लेकिन ये कैसे मतलब रिडिक्युलस कमेंट्स आ रहे थे, कि लोगों की सोच कहाँ पर मतलब है, कितना अंधविश्वास फैला हुआ है।
आचार्य प्रशांत: तो उसको बस रिडिक्युलस ही रहने दीजिए, उसको अपने भीतर किसी तरह की जगह मत दीजिए। उसको क्यों इज़्ज़त दे रही हैं? उसके बारे में इतनी बात करना भी उसको सम्मान देने, इज़्ज़त बख्शने वाली बात है। ये सब बातें चुटकुले की तरह ठीक है बस। इनमें दम क्या है? इसका क्या हम करेंगे? उपेक्षा कर लो, हँस लो। अतीत की मूर्खताएँ हैं, इनको अतीत के अजायब घरों में डाल दो, कि देखो ऐसी बातें भी हम कभी सोचा करते थे। म्यूज़ियम में जाने वाली बातें हैं, इनका और क्या करोगे?
देखिए जिसको जीवन के तथ्यों का पता नहीं है वो कभी मुक्त नहीं होगा, क्योंकि ग़ुलामी एक तथ्य होती है, आप ग़ुलाम हो — ये बात एक तथ्य है। और आपको वो बात अगर पता नहीं है तो ग़ुलामी कभी कटेगी भी नहीं ना। आप एक तरीके से जी रहे हो, आपका जीवन व्यर्थ जाने वाला है क्योंकि आप जीवन की सच्चाई से परिचित नहीं हो। वो सच्चाई कुछ जगहों पर ज़्यादा साफ़ दिखाई देती है। वैसे तो अगर दिन प्रतिदिन ही जीवन को ध्यान से देखो तो सच्चाई दिखने लग जाती है कि बात क्या है। पर श्मशान जैसी जगहों पर और ज़्यादा साफ़ दिखाई पड़ता है कि ज़िन्दगी चीज़ क्या है। जिसको आप जीवन की सच्चाई देखने से वंचित करोगे वो फिर ग़ुलाम ही रह जाएगा हमेशा। क्योंकि उसको अपने बंधन ही नहीं दिखाई देंगे। जिसको बंधन नहीं दिखाई देंगे वो ग़ुलाम रह जाएगा।
देह बहुत बड़ा बंधन होता है। देह को लेकर के हमारी जो धारणाएँ होती हैं, देह से जो हम आसक्ति से बंधे होते हैं, वो बड़ी ग़ुलामी होती है।
श्मशान में बहुत सारी चीज़ें एकदम राख की तरह बिखरती हैं, महिलाओं को वहाँ जाने से वही रोकेगा जिसका स्वार्थ होगा महिलाओं को ग़ुलाम ही बनाए रखने में। अगर महिलाओं को ग़ुलाम बनाए रखने में आपका स्वार्थ है, तो ही आप कहेंगे कि महिलाएँ श्मशान इत्यादि जगहों पर ना जाएँ।
जहाँ कहीं भी जीवन की सच्चाई सामने आती हो वहाँ तो हमें विशेष कर जाना चाहिए। और मैं बिल्कुल नहीं कह रहा हूँ कि जीवन की सच्चाई सिर्फ़ श्मशान में ही सामने आती है। वो रसोई में भी सामने आती है, सड़क पर भी सामने आती है, छत पर भी सामने आती है, बाज़ार में भी सामने आती है, हर जगह सामने आती है। पर श्मशान में वो बिल्कुल दहक कर सामने आती है, प्रज्वलित होकर सामने आती है। श्मशान में वो ज़्यादा साफ़ दिखाई पड़ता है, सब कुछ जो हमने अपने आप से आज तक छुपा रखा होता है।
“उड़ जाएगा हंस अकेला,” वहाँ दिखाई पड़ता है। नहीं तो हमें यही रह जाता है कि इससे जुड़ जाए, उससे चिपक जाए, फ़लानी चीज़ इकट्ठा कर लें, यही तो जीवन है। श्मशान में जो जाता है उसको दिखाई देता है — नहीं-नहीं जिसको तुम आज तक जीवन समझ रहे थे, वो झूठ था। ये रहा प्रमाण और चिता है वो प्रमाण है कि हमारा पूरा जीवन झूठ है। मृत्यु प्रमाण है कि हमारा जीवन झूठ है।
जिन आधारों पर हम जी रहे होते हैं मृत्यु सबको राख कर देती है। मृत्यु को इसीलिए देखना मुक्ति की दिशा में बड़ा अच्छा कदम होता है, और जीते जी मृत्यु को देख लो बेहतर है ना। मर ही गए बंधनों में तो क्या लाभ? जीते जी ही जान लो कि जीवन बंधन में बीत रहा है, तो क्या पता जीवन मुक्त हो जाओ। क्या पता जीते जी एक आंतरिक स्वतंत्रता को पा लो।
पर महिलाएँ अगर आंतरिक स्वतंत्रता को पा लें, तो पुरुषों के लिए, पुरुषों के एक वर्ग के लिए बड़ी समस्या हो जाती है। पुरुषों के किस वर्ग के लिए समस्या हो जाती है? जिनके स्वार्थ हैं, पुराने शोषणकारी तौर तरीकों को चलाने में। सब पुरुष ऐसे नहीं होते, और पुराने ही पुरुष ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने जान लगा दी है महिलाओं की स्वतंत्रता के लिए भी। तो ऐसा नहीं है कि सब पुरुष दमनकारी होते हैं या कि अतीत में जितने पुरुष हुए हैं, वो सब महिलाओं के शोषक ही थे। ऐसा कुछ भी नहीं है।
महिलाओं के सबसे बड़े मित्र तो हमारे ऋषि ही थे, हमारे दार्शनिक ही थे, चिंतक ही थे। श्रीकृष्ण हो, बुद्ध हो, कबीर साहब, नानक, रैदास संतों की जो पूरी परंपरा रही है वो सब महिलाओं के बड़े मित्र थे। जो भी कोई आपको जीवन की असलियत से रूबरू कराए वो आपका दोस्त है, और जो कोई आपसे ज़िन्दगी के तथ्य छुपाए उससे बड़ा कौन आपका दुश्मन है?
महिला ज़िन्दगी को ना समझे इसमें पुरुषों के एक वर्ग का स्वार्थ रहा है। फिर पुरुषों का वो वर्ग अपने स्वार्थ के लिए किस्से कहानियाँ भी रच लेता है, कुछ ग्रंथ भी लिख देता है, और उन ग्रंथों को प्रचारित करने वाले गुरु भी खड़े कर देता है। वो झूठे ग्रंथ है और वो गुरु भी झूठे हैं। आपके पास वेदांत है, आपके पास गीता है, आपके पास उपनिषद् है। आपको बाकी बातों पर क्यों ध्यान देना है? आपको संतवाणी कम पड़ गई क्या कि आप इधर-उधर जाकर के औरों की बात सुनते हो?
जहाँ तक शरीर की बात है। चाहे वो मेन्स्ट्रुअल साइकिल हो, चाहे वो ये बात हो कि इंफेक्शन लग जाएगा। चाहे ये बात हो कि परमाणु छूटते रहते हैं अन्नमय कोष से इन बातों के लिए आप साइंटिस्ट के पास जाइए। ऐटम्स और मॉलिक्यूल्स क्या करते हैं? क्या नहीं? ये बात आपको कोई धार्मिक गुरु थोड़ी बताएगा। ये बात तो कोई आपको वैज्ञानिक या साइंटिस्ट ही बताएगा उसके पास जाइए या डॉक्टर के पास जाइए।
इंफेक्शन है कि नहीं? ये बात आपको गुरु जी थोड़ी बताएँगे कोई, ये बात तो आपको डॉक्टर बताएगा। डॉक्टर से जाकर के पूछिए कि भाई इंफेक्शन की क्या बात है? डॉक्टर कहेगा हाँ श्मशान में इंफेक्शन हो सकता है। पर श्मशान जितना इंफेक्शन का खतरा तो और भी 50 जगहों पर होता है। जब उन जगहों पर जाने की पाबंदी नहीं है तो श्मशान पर ही जाने की पाबंदी क्यों? और श्मशान में अगर इंफेक्शन का कुछ खतरा है तो लौट के नहा लो भाई। तो दोनों को है, ये बात भी ठीक है — पुरुषों को भी है, महिलाओं को भी है।
वो कहेंगे नहीं महिलाओं के शरीर की संरचना थोड़ी अलग होती उनको इंफेक्शन का थोड़ा ज़्यादा खतरा है। तो भाई महिलाओं को फिर वो खतरा अन्य जगहों पर भी पुरुषों से ज़्यादा है, फिर तो महिला जहाँ भी जाएगी उसको इंफेक्शन का ज़्यादा खतरा है। तो क्या कहीं ना जाए? इंफेक्शन का खतरा है तो क्या करें? घर में बैठ जाए, बंधक बन जाएँ? घर को ही कैद बना ले अपनी? नहीं। वो बाहर निकलेगी, उसको ये बताओ ना कि सावधानी से कैसे निकलना है। और श्मशान में ऐसा नहीं है कि इंफेक्शन ही इंफेक्शन तैर रहा है। कुछ 10-20% इंफेक्शन की संभावना बढ़ती होगी, पता नहीं उतनी भी बढ़ती है कि नहीं बढ़ती है।
बल्कि वहाँ तो खुला आसमान होता है। संक्रमण की संभावना बंद जगहों पर ज़्यादा होती है, क्योंकि वहाँ जो पैथोजन है वो इंफेक्शन कॉन्सेंट्रेट हो सकता है। खुली जगह पर कोई चीज़ कॉन्सेंट्रेटेड कैसे होगी? बैक्टीरिया हो, वायरस हो, कुछ भी हो, जब सब खुला हुआ है तो उड़ जाएगा ना।
तो मुझे नहीं मालूम कि कौन सा रिसर्च पेपर है जो कह रहा है कि श्मशान पर इंफेक्शन हो जाएगा। और ये बात तो बिल्कुल ज़बरदस्त है, पता नहीं कौन-सी चित्र कथा से, कॉमिक से निकल के आ रही है कि — मेंस्ट्रुअल साइकिल ऊपर नीचे हो जाता है श्मशान जाकर के। बात कुछ नहीं है, बात बस ये है, कि उसको ग़ुलाम बनाए रखो उसको ज़िन्दगी का यथार्थ मत जानने दो।
संतों ने बार-बार हमें मृत्यु का स्मरण कराया है, क्योंकि जो मृत्यु को जान गया वो जीवन को जान जाता है।
जो आपका दोस्त होगा ना वो बार-बार आपको मौत की याद दिलाएगा। इसीलिए जब आप दर्शन में जाते हो तो वहाँ पर 'डेथ' बहुत बड़ा मुद्दा है। पूरा कठ-उपनिषद् ही यही है कि — नचिकेता मृत्यु के सामने जाकर खड़े हो गए हैं। मृत्यु बहुत बड़ा मुद्दा है।
अल्बेर कामू का पूरा साहित्य ही मृत्यु को केंद्र में रखकर रचा गया है। पाश्चात्य दार्शनिक अस्तित्ववादी उनका पूरा दर्शन ही इसी पर है कि, जिए कि ना जिए ये मौत चीज़ क्या होती है? तो जो जीवन को समझना चाहते हैं वो मृत्यु में प्रवेश करते हैं, नचिकेता की तरह। कठ-उपनिषद् के नचिकेता की तरह मृत्यु में प्रवेश करते हैं — कि बताओ क्या बात है? ये चीज़ क्या है मरना? क्योंकि मरने को नहीं समझूँगा तो फिर ना जन्म समझूँगा ना जीवन समझूँगा। जो मरने को नहीं समझा वो मरे-मरे जीता है। जो आपका मित्र होगा, जो महिलाओं का मित्र होगा, जो किसी भी मनुष्य का मित्र होगा वो उससे कहेगा आओ मृत्यु को समझते हैं, मृत्यु बहुत ज़रूरी है।
मृत्यु वो चीज़ है जिसने सिद्धार्थ गौतम को महात्मा बुद्ध बना दिया। उन्होंने एक बूढ़ा आदमी देखा, बीमार आदमी देखा, उन्होंने एक मरा आदमी देख लिया, बोले, "अच्छा, बूढ़े पड़ते हैं फिर बीमार होते हैं, फिर?" अरे! वो क्षण था कि मानवता को बुद्ध मिल गए, मृत्यु ने मानवता को बुद्ध दे दिए। अब महिलाएँ अगर मृत्यु को ही नहीं देखेंगी तो फिर महिलाओं में कोई बुद्ध भी नहीं पैदा होने वाले और हुआ भी यही है।
महिलाओं को जीवन के यथार्थ से इतना दूर कर दो कि महिलाओं में बुद्धत्व की, कृष्णत्व की, कोई संभावन ही शेष ना रहे उनको बस क्या दे दो? — रंग महल, स्वप्न महल। मैं अपना बढ़िया डॉल्स हाउस — गुड़ियों का घर, शीश महल की सुंदर सलोनी सेक्सी गुड़िया। ये गुड़िया अपने किसी काम नहीं आती। किसके काम आती है? ये पुरुष के काम आती है। ये पुरुष की देह की वासना पूरी करती है, ये पुरुष की संतानें पैदा करती है। पुरुष कहता है मेरा वंश चल रहा है। महिलाओं के थोड़ी वंश चला करते हैं। वंश किनके चलते हैं? — पुरुषों के चलते हैं।
महिलाओं के पास तो अपना नाम तक नहीं होता। सरकार ने नियम बनाना चाहा था अभी कि — कोई महिला अगर अपने नाम से अपने पति का नाम हटाना चाहे, तो पति की एनओसी लेकर के आए। अभी-अभी सुप्रीम कोर्ट ने या हाई कोर्ट ने उस पर रोक लगाई है। सरकार से पूछा है कि क्या चाह रहे हो? — माने अगर महिला का नाम है मालिनी वर्मा और वो कह रही है मैं मालिनी लिखूँगी, तो कह रहे हैं — पति से एनओसी ले के आओ पहले (नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट)। ये नियम बना रही है सरकार। अब समझ में आ रहा है कि श्मशान ना जाए महिलाएँ, क्यों ज़रूरी है पुरुषों के लिए? ताकि वो मालिनी कभी मालिनी ना होने पाए, वो मालिनी वर्मा बनी रहे।
किसी ने मुझसे पूछा था कि, ये क्यों हम करते हैं कि महिला के नाम के आगे पुरुष का नाम जोड़ते हैं। मैंने कहा पुराने घरों में होता था, वहाँ बर्तनों पर भी नाम उकेर दिया जाता था। आप में से जो लोग पुराने अपने किसी पैतृक घर वग़ैरह जाते हो, खासतौर पर अगर गाँव में घर हो तो, वहाँ पुराने आप बर्तन हांडों को उठाएँगे तो उस पे उकेरा हुआ पाएँगे नाम, किसका? — मालिक का, स्वामी कौन है इस बर्तन का, ये कड़ाही किसकी है।
तो वैसे ही महिलाओं के साथ ही जोड़ दिया जाता था। और मालूम है महिलाओं के टैटू आप सोचते हो आज की बात है — जो बहुत पुरानी दादियाँ हो 80-90 साल की, उनके पास जाकर देखना। उनके सबके टैटू बने होते हैं, वो दादियों को लिखना पढ़ना नहीं आता पर यहाँ (हाथ में) उनका नाम, उनके मालिक का नाम लिखा होता है, और वही काम पुरुष आज भी करना चाहते हैं। ये जो सारा का सारा कार्यक्रम चल रहा है ना धार्मिक उन्माद का — धर्म को बढ़ाओ, धर्म को बढ़ाओ। वो बस इसलिए चल रहा है कि महिलाओं पर फिर से वही कब्ज़ा मिल जाए जो आज से 100 साल पहले हुआ करता था।
अब हम यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात करते हैं। मैं भी उसका पक्षधर हूँ — समान नागरिक संहिता। लेकिन अभी-अभी वो पास हुई है एक राज्य में — उत्तराखंड में, और उसमें ये है कि अगर महिला पुरुष अपनी सहमति से साथ रहना चाहते हैं, तो चुपचाप गुमनाम नहीं रह सकते, उन्हें जाकर सरकार के पास रजिस्टर कराना पड़ेगा। सरकार कौन होती है इसमें घुसने वाली? क्यों बताएँ वो सरकार को? बस ये है कि महिला अपनी आज़ादी से कुछ भी करने ना पाए। महिला जहाँ भी जाए पुरुष के संरक्षण में जाए, पुरुष की अनुमति से जाए। ये सारा खेल आपको लग रहा है कि धर्म का है, इसका है, सत्ता का है। ये सारा खेल बस जो आधी मनुष्यता है, जो महिलाएँ हैं हमारी आबादी की आधी, उन महिलाओं पर कब्ज़ा करने का ये सारा खेल चल रहा है।
और उस खेल के लिए फिर ज़रूरी है कि उल्टे-पुल्टे तरीक़े के प्रचारक पैदा किए जाएँ, गुरु लोग पैदा किए जाएँ और वो इधर-उधर की बातें फैलाएँ। ऐसे बोलें जैसे बड़ी वैज्ञानिक बात बोल रहे हैं। कोई फ्रेंच में बोले, कोई अंग्रेजी में बोले, पर ले देके बात वही बोली जा रही है — 700 साल पुरानी दकियानूसी बात अलीबाबा की। 700 साल पुरानी बात को भी आज ऐक्सेंट के साथ अंग्रेजी में बोल दो तो ऐसा लगता है कोई बहुत बड़ी बात बोल दी। और वो 700 साल पुराना अंधविश्वास है, पाखंड है और आज लोग उस पाखंड के सामने घुटने टेक रहे हैं फिर से।
जो चीज़ हमें लगा था कि विज्ञान ने हरा दी, मिटा दी, हटा दी — वो चीज़ फिर से वापस लौट रही है और बहुत सशक्त होकर वापस लौट रही है। कोई बड़ी बात नहीं कि कुछ दिनों में नियम बन जाए — कानूनन वर्जित हो जाए कि, महिलाएँ श्मशान में नहीं जाएँगी, पकड़ी गई तो 7 साल के लिए जेल हो जाएगी। बिल्कुल ये नियम हो सकता है, बिल पास किया जा सकता है। सोचो वो महिला बोल ही नहीं सकती, “मेरा नाम मालिनी है।” उसे बताना पड़ेगा कि मेरे पति का भी क्या नाम है, नहीं तो ना उसका आधार बनेगा, ना डीएल (ड्राइविंग लाइसेंस) बनेगा, ना नौकरी मिलेगी ना कुछ होगा। कह रहे हैं, पति अगर अनुमति देगा तो तेरा ये सब होगा, नहीं तो नहीं।
सऊदी अरब — ये बनाना है हमें भारत को। महिलाओं का श्मशान जाना वर्जित है तो मरने पर भी महिलाओं को श्मशान मत ले जाओ फिर। उन्हें ब्यूटी पार्लर ले जाओ जब मर जाए तो। वो मर जाती है तब काहे श्मशान उसको लेकर जाते हो, तब भी ना जाए फिर। जब जीते जी नहीं जा सकती तो मर के भी ना जाए। जीते जी पुरुष चाहता है वो तीन जगहों पर रहे — बिस्तर पर रहे, रसोई में रहे और ब्यूटी पार्लर में रहे। तो मर भी जाए तो पुरुष से बोलो, वहीं बिस्तर पर रख मुझे और मेरे साथ सोया कर, वही जो तेरी ज़िन्दगी भर की हसरत थी। बाँध दे मुझे बिस्तर से या रसोई में खड़ा कर दे। सोचो खड़ी हुई है मर के भी रसोई में दाल बघार रही है — यही होना चाहिए।
वेश्याघर में महिलाओं का होना वर्जित नहीं है, जहाँ किसी महिला को कभी नहीं होना चाहिए, वहाँ वो है और वहाँ कोई वर्जना नहीं है। क्योंकि वहाँ पुरुष स्वयं उनके ख़रीददार हैं। ठीक? पर श्मशान में नहीं जा सकती वो।
इलाज कराने तुम महिला डॉक्टर के पास जाते हो — आधी डॉक्टर महिलाएँ हैं। हेल्थ केयर प्रोफेशनल्स जो होती हैं जो आपकी सेवा करती हैं, वो नर्स तीन चौथाई महिलाएँ ही होती हैं। तो आपको मरता हुआ भी वही देखती हैं। आप प्राण महिलाओं के सामने ही त्यागते हो चाहे वो डॉक्टर हो चाहे नर्स हो, और श्मशान नहीं जा सकती वो।
जब पैदा हुए थे तो सबसे पहले जानते हो ना किसकी गोद में आए थे? वो भी एक महिला ही थी और वो माँ नहीं थी — वो नर्स थी, दाई थी, जो भी बोलो मिडवाइफ़ जो भी बोलो। तो जन्म भी महिला के हाथों, मर भी रहे हो तो वहाँ महिला ही मौजूद होगी, संभावना यही है — पर नहीं श्मशान नहीं जाएगी वो। मुर्दा ना देख ले कहीं, क्योंकि वो मुर्दा देख लेगी तो उसे शरीर की असलियत पता चल जाएगी। और पुरुष चाहता है महिला शरीर ही बनी रहे। जो शरीर बना रहेगा सूत्र समझ लीजिए अच्छे से — वो ग़ुलाम बना रहेगा।
जो शरीर बना रहेगा वो ग़ुलाम बना रहेगा।
कम पुरुष मिलेंगे जो महिलाओं की विद्वत्ता की तारीफ़ करें। पुरुष जब तारीफ़ भी करता है तो महिला के शरीर की ही करता है। जो शरीर बना रहेगा, ग़ुलाम बना रहेगा। पुरुष तारीफ़ कर करके महिला को शरीर ही बनाए रखता है। बताओ कितनी गज़लें, कितने शेर पढ़े हैं, कितनी कविताएँ किसी महिला की विद्वत्ता की प्रशंसा में? कि — क्या तेरी ऊँची चेतना है, क्या तेरी तीक्ष्ण प्रज्ञा है, कुशाग्र मेधा वाली है तू, अरे! मर मिटे, हम मर मिटे। ऐसा पढ़ा कभी कुछ?
तेरी बुद्धि पर तेरी मेधा पर — कुछ बोलो अच्छा सा — फ़िदा हो गए, जान दे दी लुट गए, जो भी सब होता है। ये तो कभी तारीफ़ भी होती है तो किस बात की होती है? — क्या तेरी पलकें हैं, क्या तेरी जुल्फ़ें हैं, क्या तेरे गाल हैं, क्या तेरे उभार हैं और महिलाएँ बिल्कुल फूल जाती है — अरे! रे! तारीफ़ हो गई हमारी। तारीफ़ हो के वो और ज़्यादा जिस्म ही बन जाती हैं, जितना वो प्रशंसित होती हैं उतना ज़्यादा वो देह बनती जाती हैं।
ये एक साज़िश है समझो। कोई अगर तुम्हारे शरीर की तारीफ़ कर रहा है तो उसने थप्पड़ मार दिया तुमको, उसने तुमको देह बना दिया, उसने तुमको गिरा दिया है। पशु देह होते हैं, मनुष्य देह नहीं होता — मनुष्य चेतना होता है। और मनुष्य हैं आप अपने आप को महिला क्यों मानती हैं? महिला बाद में हैं आप, बहुत बाद में हैं — पहले मनुष्य हैं आप।
और कोई आ के आपको देह ही बनाए दे रहा है — वाह! वाह! आज तो बहुत सुंदर लग रही हो, नीला पहन के आई हो, ये हार कहाँ से खरीदा? क्या हुआ? कल सैलूून गई थी क्या? बालों में क्या लगाया आज? क्या चाल है? — मदमाती, नागिन की तरह चलती है और बिल्कुल ऐसे हुई जा रही है — फूल के कुप्पा। अरे! रे रे! तारीफ़ हुई जा रही है, ब्लश मारना सब कुछ चल रहा है। समझो, ये नहीं होने देना है शरीर बने रहोगे तो ग़ुलाम बने रहोगे, श्मशान जाकर पता चलता है कि शरीर तो राख जैसी चीज़ है। जो इस बात को जान गया वह आज़ाद हो जाता है।
सारा 'विसड़म' यही जानने में है 'आई एम नॉट द बॉडी' — “नाहं देहोऽस्मि।” और ये बात महिलाओं तक ठीक से पहुँचने नहीं दी जाती, उनको और ज़्यादा क्या बना के रखा जाता है? — शरीर।
कुछ तो प्रकृति का ऐसा काम, कि जितना ध्यान पुरुष को देना पड़ता है अपने शरीर पर महिला को उससे थोड़ा ज़्यादा ध्यान देना पड़ता है, ये प्रकृति ने ऐसा बनाया है। लेकिन प्रकृति ने थोड़ा ही अंतर करा है, बहुत बड़ा अंतर समाज ने कर दिया है। प्रकृति की ओर से थोड़ा अंतर है। हाँ, हम मानते हैं ये बिल्कुल वैज्ञानिक तथ्य है — महिला को अपने शरीर पर थोड़ा ज़्यादा ध्यान देना पड़ेगा, पुरुष की अपेक्षा 10% ज़्यादा। पर उसको 10,000% ज़्यादा ध्यान दिलवाया जाता है, ये काम प्रकृति का नहीं है, ये काम समाज का है।
उसको कहा जाता है तू अपने होठों पर ध्यान दे — लाल-लाल ओठ होने चाहिए, गुलाबी-गुलाबी गाल होने चाहिए। दुनिया भर का 90% कॉस्मेटिक्स क्या है? — महिलाओं के साज की सामग्री, अजीब बात।
पॉलिटिक्स में महिलाओं की भागीदारी? —5%
सीईओस दुनिया में महिलाएँ कितनी है? — 3%
संसद में महिलाएँ कितनी है? — 10%
किसी भी ऊँचे क्षेत्र में देख लो महिलाएँ कितनी है? — कहीं 2% कहीं 5% कहीं 15%। नोबेल कितने प्रतिशत महिलाओं को मिला है? — 10%। लेकिन कॉस्मेटिक्स में साज श्रृंगार के सामान में महिलाओं की हिस्सेदारी कितनी है? — 95%
ये करा है पुरुषों ने, आधे मनुष्यों को उन्होंने मनुष्य ही नहीं रहने दिया देह बना दिया। उस कॉस्मेटिक्स के बाज़ार और श्मशान में आप रिश्ता देख रहे हो ना? सारी महिलाएँ खड़ी हुई है कॉस्मेटिक्स की दुकान में। कोई महिला नहीं खड़ी हुई है श्मशान में। क्योंकि श्मशान में आप देह को राख होता देखते हो और कॉस्मेटिक्स की दुकान में आप सोचते हो कि देह ही तो हीरा-मोती है। कोई हल्दी मल रही है, कोई उपटन मल रही है।
आपस में बातचीत भी हो रही तो यही हो रही है, कोई बोल रही है लौकी लगाती हूँ आँख पर, कोई बता रही है नहीं करेला मल ले तू। नाक के अंदर डाल ले करेला, ये बातें हो रही हैं। इन बातों से तुम्हारा जीवन आगे बढ़ेगा? तुम्हारी बुद्धि पैनी होगी? बैठी हुई यही चर्चा चल रही है बस। कोई सत्तू मल के आ गई है माथे पर और यही सब है और पुरुष इसमें संतुष्ट रहते हैं, कहते हैं तुम ये सब बातें करो तो ठीक है।
आज गोभी का फेशियल किया है। इस पर कोई पुरुष कभी वर्जना नहीं लगाएगा। वर्जित करना है तो इन बातों को वर्जित करो ना कि मूर्खता की बातें हैं, ये बातें मत करो। आपके बच्चे हो अपने बच्चों को बोलिएगा कि — इतना ज़्यादा बॉडी आइडेंटिफाइड नहीं होते कि, जब देखो तब यही कर रहे हो कि कैसे खाल को मुलायम कर लूँ और ये कर लूँ, वो कर लूँ।
शरीर एक रिसोर्स है, संसाधन है उसका इस्तेमाल करना है। हर समय उसको चमकाते ही नहीं रहना है। और खासतौर पर ये बात अपनी बच्चियों को समझाइए, बच्चों को भी समझाइए लड़के-लड़की दोनों को समझाइए। आ रही बात समझ में?
इतने सुंदर-सुंदर संतों ने गीत गाए हैं। सब मृत्यु को समर्पित है। “आई गमनवा की साड़ी” संत कबीर का है। आदमी सुन लेता है भीतर जैसे रोशनी कौंध जाती है, सब भीतर द्वार दरवाजे खुल जाते हैं, सब मृत्यु के गीत हैं। सुंदरतम गीत होते हैं जो मृत्यु को याद करते हैं। ज्ञानियों ने कहा है — मौत से ज़्यादा सुंदर कोई नहीं होता। अरे ज्ञानियों को छोड़ दो जो आम फिल्में उनमें भी तुम गाते हो — “ज़िन्दगी तो बेवफ़ा है एक दिन ठुकराएगी मौत महबूबा है अपने साथ लेकर जाएगी।” आम लोगों ने भी, शायरों ने भी मौत को महबूबा की तरह याद करा है। कुछ बात होगी ना? मौत को जानना ज़रूरी है।
चाहे वो कठ-उपनिषद् के ऋषि हो, चाहे शायर हो आज के, चाहे दार्शनिक हो बीच के — सब याद कर रहे हैं मौत को, मौत में कुछ बात तो होगी ना। छोटी चीज़ नहीं होती मौत — “मरो है जोगी मरो, मरो मरण है मीठा। ऐसी मरणी मरो जित मरनी गोरख मर जीठा।”
मरो है जोगी मरो, मरो मरण है मीठा। मरणी मरौ जिस मरणी, गोरख मरि दीठा।। ~संत कबीर
कुछ बात तो होगी ना मौत में? “मरना है मर जाइए टूट जाए अहंकार, ऐसी मरनी क्यों मरे दिन में सौ-सौ बार।”
मरिये तो मर जाइये, छूट परे जंजार। ऐसी मरना क्यों मरे, दिन में सौ-सौ बार।। ~ संत कबीर
कुछ बात तो होगी ना मौत में?
और डेथ पर आप कविताएँ पढ़िएगा। शेली ने लिखा है, टेनिसन ने लिखा है। मैकबेथ, हेमलेट ये लिखे जा सकते थे अगर मौत ना होती? शेक्सपियर के फ्लॉड हीरोज़ हो सकते थे, अगर मौत ना होती? मौत से बातें करते हैं शेक्सपियर के हीरोज़। जूलियस सीज़र को इम्मॉर्टलाइज़ कर दिया। सीज़र डेड इज़ मोर पावरफुल दैन सीज़र अलाइव।
फ्रेंड्स, रोमंस, कंट्री मेन आई कम टू बरी सीज़र, नॉट टू प्रेज़ हिम। द इविल दैट मेन डू इज़ रिमेंबर्ड आफ्टर देम बट द गुड इज़ ऑफन बरीड विथ देयर बोन्स।
(Friends, Romans, countrymen, give me your attention. I've come to bury Caesar, not to praise him. The bad things men do live on after their deaths, but the good things are often buried with their bones. )
स्पीच है ये किसकी है? — मार्क ऐन्टनी की स्पीच और लोग याद करते हैं, कहते हैं ओरेटरी का ये उदाहरण है। और कहाँ दी जा रही है स्पीच? — श्मशान पर उसको भी जाना मना होता तो स्पीच ही ना होती कभी ये।