स्त्री का पर्दा करना बनाम शरीर की नग्नता || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

6 min
231 reads
स्त्री का पर्दा करना बनाम शरीर की नग्नता || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्न: आचार्य जी, स्त्री का पर्दा करना कहाँ तक उचित है?

आचार्य प्रशांत: आसपास लोग ऐसे हों कि वहशी दरिंदे, तो पर्दा ठीक है।  

मुझे पता हो कि यहाँ ऐसे लोग हैं जो मेरा मुँह देख के मुझे नोच लेंगे, तो मैं ही पर्दा कर लूँगा। कौन जान मराए? पर ऐसे लोग हैं क्या घर में, गांव में, शहर में? अगर ऐसे हों कि औरत का मुँह देखते ही उस पर टूट पड़ने वाले हैं, तो कर लो पर्दा। पर मुझे नहीं लगता कि ऐसे बहुत लोग हैं।

प्रश्नकर्ता: घर में भी करना पड़ता है पर्दा।

आचार्य प्रशांत: घर में ऐसे लोग हों कि स्त्री मुँह नहीं छुपाएगी तो लुटेगी, तो कर लो पर्दा। पर फिर ऐसे घर में उसको लाए क्यों? ऐसे घर में लाए क्यों जहाँ जानवर बसते हैं? जानवर तो ख़ैर, बेचारों की तौहीन कर दी। कोई जानवर ऐसा नहीं होता कि उसके सामने पर्दा करना पड़े। जानवरों के सामने तो नंगे भी निकल जाओ, तो उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा।

पर्दा की प्रथा ही उन दिनों की है जब आदमी के भीतर कपट और कामुकता ज़बरदस्त चढ़ाव लेने लगे थे।

आदमी जितना सरल होगा, उतना तुम्हें कम ज़रूरत पड़ेगी उसके सामने कुछ भी छुपाने की। तन तो छोड़ दो, मन भी नहीं छुपाना पड़ेगा। एक सरल आदमी के सामने तुम पूरे तरीक़े से नंगे हो सकते हो। तुम उसे जिस्म भी दिखा दो, कोई ख़तरा नहीं; और तुम उसके सामने अपने मन की सारी बातें खोल दो, कोई ख़तरा नहीं। तन-मन सब उसके सामने उद्घाटित कर दो, कोई दिक़्क़त नहीं है।

छुपाना किससे पड़ता है?

छुपाना तब पड़ता है जब जो सामने है, वो बहुत हैवान हो बिल्कुल; तब छुपाना पड़ता है। तो यह याद रखो कि पर्दादारी शुरू कहाँ से हुई थी। पर्दादारी तब शुरू हुई थी जब हैवानियत का बड़ा नाच चल रहा था; दुनिया से धर्म बिल्कुल उठ गया था। आदमी के मन से प्रेम, करुणा बिल्कुल हट गए थे। आदमी ऐसा हो गया था कि माँस दिखा नहीं कि नोंच लेंगे। तब यह प्रथा आई थी कि - पर्दा रखो।

अब बाकी मैं तुम्हारे विवेक पर छोड़ता हूँ।

अगर तुम्हारा घर ऐसा है कि वहाँ अभी-भी जानवर नाच रहे हैं, तो पर्दा रखो। पर अगर तुम्हारे घर में धर्म है, मर्यादा है, 'राम' का नाम है, तो परदे कि क्या ज़रूरत है? कहाँ तक पर्दा रखोगे? अगर आदमी हो ही गया है कुत्सित, कामी, कुटिल, तो तुम रख लो पर्दा। पर्दा उसे यह सूचना देगा कि परदे के पीछे माल बढ़िया है। तो वह तो तलाश करेगा कि जहाँ दिख रहा हो पर्दा, वहीं पर सूचना मिल रही है कि - यहीं पर धावा मारना है। तो परदे की उपयोगिता भी कितनी है? बहुत ज़्यादा तो मुझे नहीं लगती।

जहाँ तुम पर्दा देखो, वहाँ पर जो पर्दानशीं है, उसके बारे में तुम्हें कम पता चलेगा, ज़्यादा पता चलेगा उसके समाज के बारे में; वह जगह कितनी घटिया है कि जहाँ पर्दा रखना पड़ता है।

जो भी छुपाना पड़े, शरीर छुपाना पड़े चाहे मन छुपाना पड़े; जिसके सामने तुम्हे अपना मन छुपाना पड़ रहा है, निश्चित रूप से वह व्यक्ति तुमसे प्रेम तो नहीं करता। तो पर्दा तो यही बताता है कि जिन लोगों के साथ हो, उनसे प्रेम नहीं है।

मन साफ़ हो तो किसी परदे की ज़रूरत नहीं है। और मन साफ़ नहीं है तो पर्दा बहुत काम आएगा नहीं। जो सबसे ज़्यादा बर्बर, असभ्य और पिछड़े हुए समाज थे, उन्हीं में पर्दा सबसे ज़्यादा था।

तुम अगर आज से 1300-1400 साल पहले के भारत में जाओगे, तो वहाँ ये तो छोड़ दो कि औरतें मुँह ढकती थीं, औरतें छाती भी नहीं ढकती थीं, क्योंकि इस तरह की कोई घटना होती ही नहीं थी कि कोई किसी पर आक्रमण कर दे। तो मन करा तो ढका, मन नहीं करा तो नहीं ढका। फिर जैसे-जैसे समाज में हिंसा  बढ़ती  गई, बर्बरता बढ़ती गई, वैसे-वैसे वस्त्र बढ़ते गए। छुपा-छुपी का खेल चलने लगा।

लेकिन इसमें भी अंतर करना ज़रूरी है।

एक होती है निश्चल नग्नता, जैसे बच्चे की। छोटे बच्चे देखा है कई बार नंगे निकल पड़ते हैं? और वो चले जा रहे हैं। इतना-सा है, नंगा। यह निश्चल नग्नता है, निष्कपट है, वो इसलिए नंगा है। और एक होती है उत्तेजक नग्नता, कि जहाँ तुम नंगे हो ही इसलिए रहे हो ताकि दूसरा आकर्षित और उत्तेजित हो जाए।

इन दोनों में भी भेद करना ज़रूरी है।

निश्चल नग्नता का मैं पक्षधर हूँ। लेकिन आमतौर पर तुम जो नग्नता देखते हो समाज में, वो निश्चल नहीं होती है, वो बड़ी कमीनी नग्नता होती है। आप जानबूझ कर, बड़े युक्तिपूर्ण तरीक़े से, इस प्रकार नंगे होते हो कि लोग आपकी ओर अपकर्षित हो जाएँ। वो नग्नता पाप है, क्योंकि तुम नग्न इसलिए हो रहे हो ताकि दूसरे की शान्ति भंग सको।

जंगल में एक आदिवासी स्त्री हो और वो नग्न घूमती हो, उसकी नग्नता दूसरी है। और शहरों की पार्टियों में एक औरत है जो बिल्कुल हिसाब-किताब से नंगी हो कर आई है, कि इतना स्तन दिखाना है, इतनी जांघ दिखानी है, इतना पेट दिखाना है, उसकी नग्नता बहुत ही घटिया नग्नता है; नपी-तुली, कैलक्युलेटेड नग्नता है।

प्रश्नकर्ता: क्या ये जो नागा साधु और जैन गुरु होते हैं, क्या उनकी नग्नता निश्चल नग्नता होती है?

आचार्य प्रशांत: निश्चल नग्नता है। और अगर है नहीं, तो होनी चाहिए। ये वस्त्र उतारते नहीं हैं, आदर्श रूप में इनके वस्त्र गिर जाते हैं।

प्रश्नकर्ता: क्या वस्त्रों के साथ उनका अहम् भी गिरता है?

आचार्य प्रशांत: अहम् के साथ वस्त्र गिरता है। छुपा-छुपी की फिर उनको बहुत ज़रूरत दिखाई नहीं देती।

YouTube Link: https://youtu.be/SwNayu7ZcN4

GET UPDATES
Receive handpicked articles, quotes and videos of Acharya Prashant regularly.
OR
Subscribe
View All Articles