वक्ता: कहते हैं ना कि, “इंटेलीजेंट होना चाहिये”। ये *‘ इन्टेलिजेन्स (समझ)*’ है।
सारी आध्यात्मिकता यही है – स्रोत से जुड़ने की।
‘स्रोत’ माने क्या? स्रोत माने क्या? – जहाँ से वास्तव में सब आ रहा है। जिसने वास्तव में चिट्ठी लिखी है, जो डाकिया नहीं है, हलकारा नहीं है, जो वास्तव में प्रेम-पत्र लिख रहा है।
अब तुम सोचो तुम कैसी होओगी, कि डाकिया आया, पिया की चिट्ठी लेकर के, और तुम डाकिये से ही लिपट मरीं? (हँसी) पिया छूट गये, क्योंकि बेवकूफ़ हो, ‘स्रोत’ का कुछ पता नहीं। यही हमारी हालत है। स्रोत का हमें पता नहीं, डाकियों से हमारा बड़ा अनुराग है।
एक बार – नानक की ज़िंदगी से है- कि एक बार रात का समय था, एक गाँव पहुँचे। तो वहाँ पर खाने-पीने की, हलवाई की एक दुकान थी। भूख लग रही थी, फ़क़ीर हैं, पैसे नहीं थे। तो पहुँच गये, उसके सामने खड़े हो गये। तो देखते हैं, फ़क़ीर बैठा हुआ है, और फ़क़ीर ‘सिख’ हो गया है। तो नानक की ही शिक्षाओं को एक छोटी-सी किताब में, एक गुटखे में, लिखे हुए है, और वो, और उसका बेटा, भाई, दो-चार लोग कुछ चर्चा कर रहें हैं। नानक कुछ देर सुनते रहे। नानक ने कहा, “बहुत बढ़िया”।
नानक के साथ उनका शिष्य था, मरदाना। मरदाना खड़ा हुआ, मरदाना भी बोल रहा है, “देखिये, ये लोग बड़े सुधी लोग हैं। जितनी बातें आपने कहीं हैं, सब इन्होंने पकड़ लीं हैं, और चर्चा कर रहे हैं”। तो नानक उनके सामने पहुँचे और बोलते हैं, “कुछ खाने को दे दो, भूख लग रही है!” और उसने यह डाँट के भगाया नानक को, “चले आते हैं भिखारी”। तो नानक बोले मरदाना से, “चल भाई, यहाँ मेरे गुटखे की कीमत है, मेरी नहीं। यहाँ मेरे गुटखे की कीमत है, मेरी नहीं”।
यही बेवकूफ़ी है, यही फूहड़पन है, कि तुम्हें स्रोत का पता नहीं। तुम गुटखा पकड़ कर बैठे हो, स्रोत तुम्हारे सामने खड़ा है, तुम्हें दिख नहीं रहा। समझ में आ रही है बात?
हालाँकी कहानी यह कहती है कि उसके बाद उस हलवाई ने आकर नानक के पाँव पकड़ लिए, और कहा, “नहीं! आप आईये, भूल हो गई!” लेकिन यही हालत हम सभी की है। उसने जो डाकिये भेजे हैं, उनकी कद्र करना शुरू कर देते हो – ये गंगा और क्या है? ये किसका संदेश ला रही है? – और तुम गंगा में ही रम जाते हो।
मज़े का और आनंद का यही मूलभूत अंतर है। इस बात को बिल्कुल साफ़-साफ़ समझ लो। मज़े का अर्थ है – डाकिये का आकर्षण। और आनंद का अर्थ है – पिया का साथ। साफ़-साफ़ समझ लो! अब जब भी कुछ अन्दर से सबकुछ बड़ा मज़ेदार लग रहा हो, तो बस पूछ लेना कि, “जो कुछ मज़े दे रहा है वो वास्तव में स्रोत है, या कुछ और ही है? पिया है या डाकिया है?” यह सवाल पूछ लेना बस।
अगर डाकिया है, तो चिट्ठी ले लेना, डाकिये को प्रणाम कर देना। उसे बिस्तर पर मत लेटा देना, वो सेज पिया के लिये है, डाकिये के लिये नहीं है। चिट्ठी ले लो, धन्यवाद अदा करो कि, “तू चिट्ठी लेकर के आया, बहुत अच्छा किया तुमने”। पर उसको सेज पर मत लेटा लेना। क्योंकि डाकिया अगर सेज पर लेट गया, तो पिया को लौटना पड़ेगा।
बात साफ़-साफ़ समझो! (एक श्रोता को संबोधित करते हुए) मिश्राजी! बात आ रही है समझ में? ‘प्लेज़र’ (मज़ा) और ‘जॉय’ (आनंद) का अन्तर समझ में आ रहा है? दोहरा रहा हूँ – “*वाटेवर प्लीज़ेज यू, होल्ड्ज़ यू बैक* (जो कुछ भी तुम्हें भाता है, वही तुम्हें रोकता है)”। निसर्ग्दत्ता की पंक्तियाँ हैं! *“वाटेवर प्लीज़ेज यू , होल्ड्ज़ यू बैक”*। अब बात समझ में आ रही है? क्योंकि जहाँ डाकिया है, वहाँ पिया नहीं हो सकता; जहाँ ‘प्लेज़र’ है, वहाँ ‘जॉय’ नहीं हो सकता।
और हममें से कई लोग हैं, जो बिल्कुल पगलाये जा रहे हैं प्लेज़र (मज़े) के पीछे। डाकिया तो मिल जाएगा; पिया से हाथ धो बैठोगे। डाकिया ही डाकिया रह जायेगा ज़िंदगी में। अगर होशियार हो, यही ‘होशियारी’ है, यही इन्टेलिजेन्स (समझ) है। ‘होशियारी’ का मतलब ही यही है कि, “बीच में क्यों रुकूँ? सीधे परम तक जाऊँगा। सीधे स्रोत तक जाऊँगा”।
“नहीं! गंगा की धार नहीं, गंगोत्री चाहिये। नहीं गंगोत्री भी नहीं चाहिए, मुझे समझना है कि, गंगोत्री भी कौन भेजता है। मुझे उस तक जाना है। पगले होते हैं वो, जो यहीं पर रुक जाते हैं। होशियारी इसी में है कि, “मैं आख़िर तक जाऊँगा। रुकूँगा नहीं, पूरा पाऊँगा”।
“कहे कबीर मैं पूरा पाया”।
आधा-अधूरा तो सभी पाते रहते हैं। वो तो भिखारियों वाली बात है। पर कोई कबीर होता है, जो कहता है, “कहें कबीर , मैं पूरा पाया”। यही अंतर है। वो मज़े नहीं लेते। वो – आनंद, आनंद, आनंद। तुम कबीर की बातों में मज़ा नहीं पाओगे। तुम्हें मस्ती मिलेगी, तुम्हें मौज मिलेगी, तुम्हें आनंद मिलेगा।
*“आनंद मंगल गाओ मेरे सजनी*, भजन में होत आनंद-आनंद”।
तो कबीर आनंद की बात करेंगे। जिसके वजूद से सबका वजूद है, उसको पहचानो। जितना ऊपर चढ़ते जाते हो, भूलना नहीं, गंगा भी उतनी ही निर्मल होती जाती है। जितना नीचे के पानी में नहाओगे, उतना उसमें गंदगी मिल चुकि होगी, क्योंकि बीच के कई लोग उसकी धार में आ चुके होंगे। तो ऊपर कि तरफ चढ़ते रहो, स्रोत की तरफ बढ़ते रहो। जितना स्रोत की तरफ बढ़ोगे, पाओगे कि धार उतनी ही निर्मल हो रही है। आ रही है बात समझ में?
पूछा करो, “किसके दम से मिला है मुझे यह सब? जो कुछ भी कीमती है, वह किसने दिया है? कहाँ से आया? जिस रोशनी पर यह चाँद अब इतराता फिरता है, वह रोशनी कहाँ से मिली?”
(श्रोताओं से पूछते हैं) जवाब दीजिये।
(सामने बहती हुई गंगा की धार की ओर इंगित करते हुए)
इस धार को सूखने में दो मिनट नहीं लगेंगे, अभी ये अपने स्रोत से कट जाए तो। उसी के होने से इसका वजूद है। हाँ, वो दिखाई नहीं देता। दिखाई इस कारण नहीं देता क्योंकि बहुत ऊपर है। इतना ऊपर है, कि हमारे लिये अप्राप्य हो गया है। यह हमारे स्तर की है, तो दिखाई देती है। वो हमसे इतना ऊपर है, कि हमें दिखाई ही नहीं देता।
श्रोता १ : जब दिखाई नहीं देता, तो पहुँचेंगे कैसे?
वक्ता: चलते जाओ इसी के साथ-साथ। बस ये ध्यान रखो कि निर्मलता की तरफ जाना है, क्योंकि ये दो तरफ़ को बहती है। निर्मलता जिधर को है, उधर को जाना है। जिधर निर्मलता है, उधर ख़तरा भी है।
यहाँ बैठे हो, यहाँ से हरिद्वार की तरफ जाओगे, तो ख़तरा कम होता जाएगा। और यहाँ से बदरीनाथ की तरफ जाओगे, तो ख़तरा बढ़ता जाएगा। जिधर निर्मलता है, उधर ख़तरा भी है, और उधर अकेलापन भी है।
नीचे की तरफ जाओगे, तो भीड़ बढ़ती जाएगी, और जितना ऊपर की तरफ जाओगे, उतनी भीड़ छंटती जाएगी। कहाँ जाना है- भीड़ की तरफ़, या अकेले होने की तरफ़? पिया तो वहीं मिलेंगे – अकेले! वो पब्लिक(भीड़) में सेज नहीं सजाते, कि चौराहे पर पिया ने सेज सजाई है। ऐसा नहीं होता। वो काम तो बड़े अकेलेपन का है। भीड़ चाहिये, या पिया चाहिये?
श्रोता १: पिया।
वक्ता: सिर को झुकाकर बिल्कुल ऐसे हाथ खोल दो, आँचल फैला दो, (हाथ खोलते हुए) ठीक ऐसे। सिर को झुकाकर ग्रहण करो। और उसके बाद फिर कोई कंजूसी नहीं। दिल खोलकर बाँटो, भले ही उसमें तुम्हें गालियाँ मिलती हों, भले उसमें कोई चोट देता हो – यही मज़ा है जीने का। जीना इसी का नाम है।
मुफ़्त का लेते हैं, और मुफ़्त में बाँटते हैं – यही हमारा व्यापार है। यही धंधा है हमारा। क्या धंधा है? मुफ़्त में लो! मुफ़्त में मिलता है। ‘वो’ तुमसे कोई कीमत माँगता ही नहीं। एक बार तुमने सिर झुका दिया, उसके बाद ‘वो’ कोई क़ीमत नहीं माँगता। कीमत यही है के सिर झुकाना पडे़गा। इसके अलावा कोई कीमत माँगता ही नहीं, मुफ़्त में मिलेगा सब।
मुफ़्त में लो। और उसके बाद कोई कृपणता नहीं। ये नहीं कि, “मुझे मिल गया है, तो अब – आई एम दा चूज़ेन वन (मैं ख़ास हूँ)। मुझमें कुछ ख़ास होगा, जो मुझे मिला”। तुममें ख़ास कुछ नहीं है बेटा! बस धन्यवाद दो कि तुम्हें मिला। हालाँकि ये बात अहंकार को इतनी बुरी लगती है, उसे लगता है, “ज़रूर मुझमें कुछ खास था, तो मुझे मिला। ज़रूर मेरी कोई काबिलियत रही होगी। मैं बड़ा होशयार हूँ, या मैं बड़ी सुन्दर हूँ, इस कारण मुझे मिला है”। अनुकंपा है कि तुम्हें मिला है, कृपा है, और कुछ नहीं है। तुम्हें ठेस पहुँचती है, मैं जानता हूँ।
तुम्हें ऐसा लगता है कि, “क्या इसका मतलब हम भिखारी हैं?” भाई तनख्वाह लेते हुए तो ठसक रहती है। किस बात की? काम किया है, तो मिला है। लेकिन उससे तुम्हें जो कुछ मिला है बेटा, वास्तव में ऐसे ही मिला है जैसे भिखारी को मिलता है। हाँ यह अलग बात है कि तुम्हारा अहंकार है, तो तुम इस ‘मिलने’ को सोच रहे हो कि ऐसे मिला है जैसे की किसी भिखारी को मिला है।
लेकिन देने वाले ने ऐसे नहीं दिया था, जैसे भिखारियों को दिया जाता है। उसने ऐसे दिया था जैसे किसी प्रेमी को दिया जाता है, उसे भीख नहीं कहते। लेकिन तुममें घमण्ड बहुत है। तो इसीलिये जब भी बात ये होती है कि – तुम्हें मुफ़्त मिला है – तो तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम्हें ‘भिखारी’ घोषित किया जा रहा है।
देने वाले ने भीख नहीं दी थी, देने वाले ने प्रेम का तोहफा दिया था। और तुम्हारी किसी पात्रता पर नहीं दिया था, क्योंकि प्रेम पात्रता देखकर होता ही नहीं। उसने तो यूँ हीं दे दिया था। पर तुम में प्रेम नहीं था। तुममें प्रेम होता, तो तुम कहते, “हाँ ठीक! मुझमें कुछ विशेष नहीं है, फिर भी तूने दिया। धन्यवाद”। तुमने उसका क्या अर्थ किया? “मुझमें कुछ ख़ास है, तो मुझे कुछ मिला। या कि शायद देने वाले को ही मुझसे कुछ लाभ हो रहा होगा, इस कारण मुझे मिला”।
मुफ़्त मिला है, और जब मुफ़्त मिले, तो मुफ़्त बाँटना भी चाहिये। नहीं बाँटा तो ये बड़ी ब्लैक-मार्किटिंग (काला-बाजारी) हुई। होर्डिंग (जमाखोरी)! कि तुम्हें तो मिला, और तुमने दबा के रख लिया। और जब दबा के रखोगे, तो सड़ जायेगा। क्योंकि ये चीज़ ऐसी है, कि दबा कर रखी नहीं जा सकती। ये बाँटने से ही ज़िंदा रहती है। आ रही है बात समझ में?
मैं अभी तुम्हारे पहले ही सवाल का जवाब दे रहा हूँ। जो तुमने कह रही होना, “कल क्या होगा?” कल बाँटोगी नहीं, तो और पाओगी नहीं। और सिर झुकाओगी नहीं, तो पाओगी नहीं। दोनों काम एक साथ चलने चाहिये। समझ रहे हो? “सर, हम तो ख़ास हैं कि यहाँ आये, बाकी लोग नहीं आये। तुम यहाँ आये भी, तो उसके लिए कितनी जान लगानी पड़ी?(एक श्रोता की ओर इंगित करते हुए) यह तो आने को राज़ी नहीं थी।
(एक दूसरे श्रोता की ओर इंगित करते हुए) उसका अपहरण किया गया! कैसे ख़ासियत? इतनी ही कोशिश अगर दूसरों पर की जाती, तो उनमें से भी बहुत लोग आ जाते बेटा! आ जाते या नहीं आ जाते?
श्रोतागण: आ जाते!
वक्ता: फ़िर?
(मौन)
अच्छा नहीं लग रहा है ना सुनकर?
श्रोता १: (धीरे से) अच्छा लग रहा है।
वक्ता: इसका मतलब सर, हम आपके लिए ख़ास नहीं हैं?
(श्रोतागण हँसते हैं) आप किसी को भी बुला सकते थे और?
श्रोता २: हम आपके लिए खास बनने थोड़े ही न आए हैं।
वक्ता: हमे तो लग रहा था, हम प्रिविलेज क्लब (विशेषाधिकार मंडल) के मेम्बर (सदस्य) हुए।
श्रोता ३: बिसिनेस क्लास!
वक्ता: बिसिनेस क्लास!
तुम ख़ास हो, पर उतने ही जितने दूसरे ख़ास हैं। अभी एक संत हुए हैं, वो अपने आप को भगवान कहते थे। तो उनसे पूछा, “क्यों कहते हो अपने आपको ‘भगवान’?” कि, “मैं भगवान् हूँ”। तो उन्होंने उत्तर दिया, “मैं यही तो कहता हूँ कि मैं भगवान हूँ। मैं ये थोड़ी कहता हूँ कि तुम भगवान नहीं हो”। (हँसी)
“मैं बस उतना ही भगवान हूँ, जितने तुम भगवान हो। अन्तर ये है कि मुझमें हिम्मत है इस बात को कह पाने की, तुम डरते हो। बाकी भगवान तुम भी पूरे ही पूरे हो। जितना मैं भगवान्, उतने ही तुम भगवान्। ओशो की बात कर रहा हूँ।
“और मैं अपने आप को भगवान् कह भी इसीलिए रहा हूँ, ताकि तुममें भी हिम्मत आये, कि तुम भी कह सको, कि मैं भी भगवान हूँ””।
तो सब ख़ास हो और कोई भी ख़ास नहीं भी है।
~ ‘बोध-शिविर सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं ।