सोशल मीडिया बैन: गलत कंटेंट से बचने का सही उपाय?

Acharya Prashant

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सोशल मीडिया बैन: गलत कंटेंट से बचने का सही उपाय?
कुछ भी संयोगवश नहीं हो रहा है, अगर गंदगी फैल रही है, टॉक्सिसिटी फैल रही है, बच्चे बर्बाद हो रहे हैं, मिस इंफॉर्मेशन फैल रही है, जनता का मानसिक स्तर गिर रहा है, लोग बेवकूफ़ होते जा रहे हैं और ज़्यादा, वो सबकुछ एक तरह की प्लांड कॉन्सपिरेसी (सुनियोजित षड्यंत्र) है। उसको तोड़ा कहाँ पर जा सकता है? उसको तोड़ा सिर्फ़ ग्रासरूट पर जा सकता है। वही काम आपकी संस्था करने की कोशिश कर रही है कि आम आदमी को जागृत करो, सिर्फ़ उसी तरीके से काम बन सकता है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हाल ही में ऑस्ट्रेलिया में बच्चों के सोशल मीडिया उपयोग पर प्रतिबंध लगाने वाला बिल पास हुआ, जिसमें इंग्लैंड भी रुचि दिखा रहा है। यदि भारत में ऐसा कानून लागू होता है, तो इसका बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य और शिक्षा पर कैसा प्रभाव देखने को मिलेगा? ऐसे कानून के सकारात्मक प्रभाव होंगे या फिर ये बच्चों के डिजिटल विकास और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधा बन सकता है? क्या ये कानून संतुलन बनाए रखेगा या नई चुनौतियाँ खड़ी करेगा?

आचार्य प्रशांत: देखिए, बहुत सारी चीज़ें हैं जो टेक्नोलॉजी कर सकती है। टेक्नोलॉजी जब बहुत सारा नुकसान कर सकती है, तो टेक्नोलॉजी ये भी कर सकती है कि पता लगाया जा सके कि कौन सोलह साल का है और कौन सोलह साल का नहीं है। तो पूरे तरीके से चौदह, पंद्रह, बारह, तेरह साल वालों को यूज़र जेनेरेटेड कंटेंट से वंचित कर देना ठीक नहीं है।

मॉडरेशन (यूज़र कंटेंट की निगरानी या स्क्रीनिंग करना) की ज़रूरत है, रेगुलेशन (नियमित व नियंत्रित करना) की ज़रूरत है, बैन की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि इतना भी बच्चा नहीं होता है बारह साल वाला या पंद्रह साल वाला कि आप कहो कि तुम कहीं कुछ देख ही नहीं सकते। तो ठीक वैसे जैसे हमारे पास अब इतनी बड़ी आबादी हमारे डेढ़-सौ-करोड़ लोग हैं, उसमें से कुछ को छोड़कर बाकी सबको कर पाए न कि आधार दे दिया। और वो अपनेआप में कितनी बड़ी एक्सरसाइज़ थी!

इतने करोड़ लोगों को, सौ-करोड़ से ऊपर लोगों को हमने आधार दे दिए। तो वैसे ही केवाइसी , जानती होंगी न आप? ‘नो योर कस्टमर’ होता है जैसे यूज़र आइडेंटिफ़िकेशन। उसी तरीके से यूज़र आइडेंटिफ़िकेशन का कार्यक्रम होना चाहिए, जिसमें साफ़ ये निकाला जा सके कि ये-ये हैं जो सोलह साल से कम के हैं। और ज़ाहिर सी बात है कि वैसा आप जब एक यूज़र आइडेंटिफ़िकेशन कार्यक्रम चलाओगे तो वो सिर्फ़ सोलह साल वालों के लिए नहीं होगा, वो सबके लिए होगा। उससे बहुत फ़ायदा होगा।

देखो, बात सिर्फ़ ये नहीं होती कि एनोनिमस (नामरहित) आप वहाँ पर सर्फ़िंग कर लेते हो, बात ये भी तो होती है न कि आप एनोनिमसली यूज़र कंटेंट जेनेरेट भी तो कर देते हो। बात सिर्फ़ ये नहीं है कि वो अपनी पहचान छुपाकर गया और वो कुछ जाकर कहीं बम बनाने की चीज़ देख आया, या उसने कुछ हिंसक कुछ देख लिया, या वो जाकर वहाँ पर अश्लील पॉर्न देख रहा है। बात उतनी ही नहीं है।

आप देखोगे कि ज़्यादातर जो ट्रोल्स वगैरह होते हैं, उन्होंने अपना नाम बता ही नहीं रखा होता है। और अगर बता भी रखा होता है, तो नकली नाम बता रखा होता है। वहाँ अपनी प्रोफ़ाइल फ़ोटो में शक्तिमान लगा रखा होता है। तो ये जो पूरा खेल चल रहा है कि जो काम आप किसी के सामने खड़े होकर नहीं कर सकते, जो बात आप किसी के सामने खड़े होकर नहीं कर सकते, वो बात आप पीठ पीछे अपनी पहचान छुपाकर कह देते हो, ये खेल ही गलत है।

सड़क पर घूम रहे हों लोग जिन्होंने अपनी पूरी पहचान छुपा रखी हो, तो आपको अटपटा लगेगा न? जैसे यूरोपीय देश हैं, जहाँ ये बड़ी बात रहती है कि ये हमें ऐसा, जो बुर्का है वो बैन करना है, जिसमें चेहरा भी दिखाई न दे। वो कहते हैं कि कम-से-कम चेहरा तो पता चले। आप सोशल लाइफ़ में पार्टिसिपेट कर रहे हो तो आप जिसके सामने से गुज़र रहे हो, उसको इतना तो जानने का हक है न कि मेरे सामने से कौन गुज़रा। तो कम-से-कम शक्ल तो दिखे, बाकी शरीर आप ढकना चाहते हो, ढक लो चलो।

उसी तरीके से अगर आप ट्विटर पर या फ़ेसबुक पर या कहीं भी, इंस्टाग्राम पर पार्टिसिपेट कर रहे हो, तो उस पूरी बड़ी कम्युनिटी को ये जानने का हक है कि वो किससे बात कर रहे हैं। कौन आया जो लाइक करके या कमेंट करके चला गया? ये लाइक-कमेंट तो छोटी बात है, पूरी-पूरी बड़ी-बड़ी प्रोफ़ाइल चल रही हैं। ऐसी भी प्रोफ़ाइल्स हैं जिनके मिलियंस में फ़ॉलोवर्स हैं, पर जिनका चेहरा कभी किसी ने नहीं देखा।

क्या ये काम आप समाज में कर सकते हो? क्या आप कहीं पार्टी में जाओ, और आपने अपना पूरा चेहरा छुपा रखा है, आप किसी को दिखा नहीं रहे और सालों तक नहीं दिखा रहे? तो जब ये काम आप समाज में नहीं कर सकते, सोसाइटी में नहीं कर सकते, तो सोशल मीडिया पर कैसे कर सकते हो?

तो सोशल मीडिया पर बहुत ज़रूरी है इस तरह का केवाइसी। सारी सोशल मीडिया कंपनियों के लिए केवाइसी नॉर्म्स बिलकुल अनिवार्य होने चाहिए। कोई भी व्यक्ति जो आपके यहाँ अकाउंट बना रहा है, आपकी ज़िम्मेदारी है कि आप उसकी पहचान, जो सरकारी उसके कागज़ हैं, उनको देखकर तय करें, सुनिश्चित करें। आपसे पूछा जाए तो आप उसका फ़ोन नंबर और ये सब बताने का इंतज़ाम करें। हाँ, जो ज्युडिशियल सिस्टम (न्याय व्यवस्था) है, वो इस बात की गैरंटी लेगा कि किसी को प्रताड़ित करने के लिए सरकार उसका फ़ोन नंबर वगैरह किसी कंपनी से नहीं माँग सकती। माँगेंगे तो कोर्ट माँगेंगे, वो भी विद अंडर ड्यू प्रोसेस ऑफ़ लॉ।

बात समझ रही हैं?

तो इससे क्या होगा कि जो ये सोलह साल वाले हैं, ये सब हैं, इनकी पहचान खुली रहेगी। जब इनकी पहचान खुली रहेगी, तो ये जहाँ कहीं भी जाकर लॉग इन कर रहे हैं, कुछ कर रहे हैं, तो जो कंटेंट इनके लिए बना ही नहीं है, वो इनको दिखाई ही नहीं देगा।

मैं समझ रहा हूँ कि इसमें अभी बहुत सारी टेक्नोलॉजिकल बैरियर्स (तकनीकी बाधाएँ) हैं, और कई तरह का डेवलपमेंट करना पड़ेगा। अभी जो एग्ज़िस्टिंग फ़ॉर्मेट्स (मौजूदा प्रारूप) हैं, एल्गोरिदम सॉफ़्टवेयर्स हैं, उनमें ये अभी प्रोविज़ंस (प्रावधान) नहीं हैं तो प्रोविज़ंस डालने पड़ेंगे। पर डाले जा सकते हैं, बहुत मुश्किल नहीं है, ये किया जा सकता है।

कि एक चौदह साल वाले ने जब इंस्टाग्राम पर लॉग इन किया, तो उसको बस वही कंटेंट दिखाई देगा जो चौदह साल वालों के लिए सूटेबल (उपयुक्त) है। बाकी आप लॉग इन बेशक कर सकते हैं, एजुकेशनल कंटेंट (शैक्षिक सामग्री) देखिए, एंटरटेनमेंट भी आप देख सकते हो। पर जो पूरे तरीके से एडल्ट कंटेंट है, वो आपको नहीं दिखाई देगा। इसलिए नहीं कि एडल्ट कंटेंट में पाप है, इसलिए क्योंकि अभी आपकी उम्र नहीं आई है। अभी आपकी चेतना इस काबिल नहीं हुई है कि कुछ चीज़ों को आप देखो-सुनो तो आप उसको बर्दाश्त कर सको और आपका भीतरी स्वास्थ्य बना रह सके। आप वो सब चीज़ें देखोगे तो आप बीमार पड़ जाओगे। इंतज़ार कर लो, दो-चार साल बाद आप इस लायक हो जाओगे, थोड़ा विवेक आ जाएगा कि क्या देखें क्या न देखें, और जो देखें उसको पचा भी पाएँ।

समझ रहे हैं?

तो एक बात और इसमें है, मुद्दा। इतिहास ये बताता है कि ये जो ब्लैंकेट बैन्स (पूर्ण प्रतिबंध) होते हैं न, सफल हो नहीं पाते। हम बड़े चतुर-चालाक लोग होते हैं। हम तरीके निकाल लेते हैं कि किसी भी तरीके के प्रतिबंध, उनके ऊपर से निकल जाने का, उसके नीचे सुरंग खोद देने का, उसके दाएँ से बाएँ से निकल जाने का। पर वो सोलह साल वाला ठीक है, अपने लॉग इन से नहीं देख सकता। मम्मी के लॉग इन से तो देख सकता है, बड़े भैया के लॉग इन से तो देख सकता है, पापा के लॉग इन से तो देख सकता है!

और किसी तरीके से उसने, जो उसको मोबाइल फ़ोन आपने दे रखा है, आपने उसका सोशल मीडिया बंद किया है, फ़ोन थोड़े ही बंद कर दिया है! स्मार्टफ़ोन तो है। स्मार्टफ़ोन पर उसने किसी बहाने से एक दिन लॉग इन करवा लिया किसी से, किसी और का, बड़े का। और उससे अपना वो देख रहा है, मज़े कर रहा है, जो भी करना है। और अच्छा है, अब तो वो जो भी कमेंट कर रहा है, वो पापा के नाम से छप रहा है। धरे भी जाएँगे अगर कानूनन तो पापा धरे जाएँगे!

तो प्रतिबंध सफल हो नहीं पाते हैं। व्यावहारिक पक्ष भी है इस पूरी बात का, मात्र सैद्धांतिक ही नहीं है। जो चीज़ चलेगी, वो है कि देखो करेगा तो है ही, तो रेगुलेट कर दो। रेगुलेट माने नियमित कर दो, माने नियम के अंदर ले आ दो, पूरे तरीके से मत रोको।

और जो मैं बात कर रहा हूँ यूज़र आइडेंटिफ़िकेशन की, वो चीज़ फिर बस जो आपके टीनेज और एडोलेसेंट यूज़र्स हैं, उनको ही नहीं बचाएँगी, वो सबको बचाएँगी। क्योंकि जितनी टॉक्सिसिटि (विषाक्तता) सोशल मीडिया फैला रहा है, उतनी तो मानव इतिहास में बहुत कम देखी गई है। और सोशल मीडिया पर टॉक्सिसिटि फैलने का बड़ा कारण ये है कि वहाँ आप एनोनिमस होकर, गुमनाम होकर, अनाम होकर जो चाहो कर सकते हो।

एकदम कोई मरियल सा, दब्बू सा होगा, जिसकी ज़िंदगी एकदम बर्बाद होगी, जो किसी लायक नहीं होगा, पर वो ट्विटर पर शेर बनकर बैठा होगा। और उसने अपना नाम रखा होगा ‘सिंह की दहाड़।’ और वो वहाँ जाकर जगह-जगह, चाहे वो डॉक्टर हो, प्रोफ़ेसर हो, नेता हो, अभिनेता हो, रिसर्चर हो, दुनिया के जितने भी ढंग के ऊँचे लोग हों, वो जाकर वहाँ सबको गालियाँ दे रहा होगा।

और ये है कौन? ये बिलकुल हो सकता है कि कोई अनपढ़, गँवार, सड़क का लड़का हो। ये भी हो सकता है कि ये ड्रग्स वगैरह का आदि हो। हो सकता है कि इसको समाज में कोई इज़्ज़त न देता हो। तो जिसको समाज में इज़्ज़त नहीं मिलती, उसकी भरपाई ये ऑनलाइन करता है। ये कहता है, ‘समाज में तो मुझे कोई इज़्ज़त देता नहीं, तो मैं उसका खामियाज़ा वसूलूँगा *ऑनलाइन।*‘ तो इसने अपनी ऑनलाइन इमेज, एक पर्सोना (वास्तविक चरित्र से भिन्न एक व्यक्तित्व) क्रिएट किया है। वो पर्सोना ये है कि मैं बहुत धाकड़ आदमी हूँ, मैं बहुत ज़बरदस्त आदमी हूँ। वो खूब गाली-गलौच कर रहा है, जो-जो कर सकता है सबकुछ कर रहा है।

ये तो बीमारी बढ़ाने वाली बात हो गई न! हम ये बीमारी बढ़ने नहीं दे सकते। मिसइन्फ़ॉर्मेशन (झूठी खबर) भी जो लोग फैलाते हैं, वो ज़्यादातर लोग अपना नाम वगैरह छुपाकर फैलाते हैं। आप कोई बता थोड़े ही दोगे उनके नाम। अकाउंट का नाम होगा 'जेआइपीआर सात-सौ-छप्पन।' जाओ, पकड़ लो उसको! कैसे पकड़ोगे?

फिर पकड़ने के लिए जो पुलिस का साइबर विभाग होता है, उसको बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। वो देखते हैं कि कौनसा आइपी (इंटरनेट प्रोटोकॉल इंटरनेट से जुड़े डिवाइस को पहचानने के लिए दिया जाने वाला एक अद्वितीय नंबर होता है) था, ये-वो, शहर कौनसा था वो, बहुत बातें! इतना आसान नहीं होता है कि इन मामलों में आप सिद्ध कर सको कि ऐसा-ऐसा हुआ, और गिरफ़्तारी भी हो जाए। पकड़े भी ज़्यादा वही जाते हैं जिन्होंने अपना सब हाल जाकर वहाँ पर ईमानदारी से लिख रखा होता है। तो वो पकड़े जाते हैं, वर्ना आप छुपना चाहो तो छुप सकते हो।

तो मिसइन्फ़ॉर्मेशन भी रुकेगी, टॉक्सिसिटि भी रुकेगी। इसकी वजह से जो लोगों को प्रोत्साहन मिलता है एक फ़ेक पर्सोना क्रिएट करने का, जिसके कारण उनकी बीमारी और बढ़ती है भीतरी, वो बीमारी भी रुकेगी। बहुत काम हो पाएँगे।

सोशल मीडिया वास्तव में बदमाशी का अड्डा बन गया है। हमने सोचा था कि ये इन्फ़ॉर्मेशन एक्सप्लोज़न (प्रकाशित सूचना या डेटा की मात्रा और इस प्रचुरता के प्रभावों में तेज़ी से वृद्धि) हो रहा है। ये इन्फ़ॉर्मेशन एक्सप्लोज़न नहीं हुआ है, ये मिसइन्फ़ॉर्मेशन एक्सप्लोज़न हुआ है। पहले के लोग, हो सकता है कि हमसे कम जानकारी रखते हों — इंटरनेट से पहले के, सोशल मीडिया से पहले के — पर अगर उनके पास जो सही जानकारी थी, वो हमसे बीस प्रतिशत कम थी, तो उनके पास जो गलत जानकारी थी, वो हमसे पिच्चानवे प्रतिशत कम थी। माने जानकारी के नाम पर जो बढ़ा है ज़्यादा, वो है फ़ेक जानकारी।

आज आप बहुत कुछ जानते हो, लेकिन जो आप जानते हो, सब फ़ेक है। वही जिसको आप व्हॉट्सऐप यूनिवर्सिटी बोलते हो। पहले कम जानकारी थी तो कम-से-कम फ़ेक जानकारी तो नहीं थी। अब तो जानकारी के नाम पर हर आदमी को लगता है कि वही एक्सपर्ट है।

कोई भी होगा, कोई फ़ेक (बंदा)। कोई डॉक्टर बनकर घूम रहा है, वो बता रहा है कि वज़न कैसे कम करना है। कुछ भी, अपनी सौ तरह की बीमारियों का इलाज बता रहा है। उससे पूछो, ‘भाई, कुछ डिग्री-विग्री कुछ?’ कुछ नहीं! वो लेकिन, वो अपना बिलकुल (लगा हुआ है)! कोई हिस्टॉरियन (इतिहासकार) बनकर घूम रहा है। उससे पूछो कि कहाँ से तुम हिस्ट्री में मास्टर्स या पीएचडी करके बैठे हो, बताओ तो। कुछ नहीं! कोई पोलिटिकल एक्सपर्ट बन गया है, कोई जियो-स्ट्रेटजी (भू-रणनीति) पर ज्ञान बता रहा है। पूछो कि तुम हो कौन, तुम्हारा इसमें क्रिडेंशियल (योग्यता प्रमाण) क्या है; कुछ नहीं! क्रिडेंशियल क्या, कई बार तो लोग नाम भी नहीं बताते। वो बस अपना चालू हैं।

तो वो सब रुकना होगा। नहीं तो देखिए, इंसान कॉन्शियसनेस का नाम होता है, चेतना का। और चेतना का आम आदमी के लिए मतलब होता है चेतना की सामग्री, द कंटेंट ऑफ़ कॉन्शियसनेस, कि तुम्हारे मन में, खोपड़े में भरा क्या हुआ है। आपकी चेतना का स्तर क्या है, वो इससे तय हो जाता है कि आपके खोपड़े की सामग्री का स्तर क्या है। अगर खोपड़े की सामग्री एकदम कचरा डाल दी गई है, तो आप भी कचरा हो गए।

जिसके मन में कचरा घुसेड़ दिया गया है, जो कि ज़्यादातर सोशल मीडिया से ही आता है, वो इंसान ही कचरा हो गया। क्योंकि इंसान की हैसियत, इंसान की पहचान उसके शरीर से तो ज़्यादा होती नहीं है, उसकी होती है कॉन्शियसनेस से। हाउ कॉन्शियस आर यू? व्हॉट इज़ द क्वॉलिटी ऑफ़ योर कॉन्शियसनेस (तुम कितने चैतन्य हो? तुम्हारी चेतना की गुणवत्ता कितनी है)? जिसके दिमाग में कचड़ा घुसेड़ दिया गया, उस आदमी की तो ज़िंदगी ही कचड़ा हो गई न! और ये इस सदी के बड़े खतरों में से है।

जैसे हम क्लाइमेट क्राइसिस (जलवायु संकट) की बात करते हैं, जैसे हम एक्सटिंक्शन ऑफ़ स्पीशीज़ (प्रजातियों का लुप्त होना) की बात करते हैं, जैसे हम पॉपुलेशन एक्सप्लोज़न (जनसंख्या विस्फोट) की बात करते हैं, जैसे हम थ्रेट ऑफ़ न्यूक्लियर वॉर (परमाणु युद्ध का खतरा) की बात करते हैं, उसी तरीके से ये जो सोशल मीडिया पर मिसइन्फ़ॉर्मेशन है, वो इस युग के बड़े-से-बड़े खतरों में से एक है।

क्लाइमेट चेंज इतना नहीं बड़ा मैं खतरा बोल दूँगा, लेकिन क्लाइमेट डिनायलिज़्म (जलवायु परिवर्तन को एक गंभीर समकालीन समस्या के रूप में नकारना या संज्ञान न लेना) जो है, उदाहरण के लिए, वो भी तो मिसइन्फ़ॉर्मेशन का ही एक रूप है न। वो क्लाइमेट डिनायलिज़्म जो है, वो सोशल मीडिया से ही तो फैलाया जाता है। और कौन है वो जो क्लाइमेट डिनायलिस्ट है? वो कौन है? जो कुछ नहीं जानता क्लाइमेट के बारे में, और कुछ भी झूठ बोल रहा है।

तो ये नियम भी फिर बनना चाहिए कि अगर कोई सोशल मीडिया पर झूठ बोल रहा था और पकड़ा गया, तो उसकी सज़ा भी होनी चाहिए। क्योंकि ये बड़े-से-बड़ा अपराध है कि तुमने लोगों की चेतना को विषाक्त कर दिया, तुमने लोगों की कॉन्शियसनेस पॉल्यूट कर दी, दूषित कर दी। ये बहुत बड़ा अपराध है। इस पर पकड़ा जाना चाहिए, फिर सज़ा होनी चाहिए।

तुमने एक बात लिखी थी जो बिलकुल गलत थी। वो बात तुम्हारा ओपिनियन भी नहीं थी। उसको तुम फ़ैक्ट की तरह प्रस्तुत कर रहे थे, और वो फ़ैक्ट है नहीं। तो तुम्हें इसकी सज़ा मिलेगी, क्योंकि तुमने जनता में झूठ फैला दिया। जनता में झूठ फैलाना कोई छोटी बात नहीं है। इसकी तो भारी सज़ा होनी चाहिए।

अब एआइ (कृत्रिम बुद्धिमत्ता मशीनों में मानवीय बुद्धिमत्ता का अनुकरण है, जिन्हें मनुष्यों की तरह सोचने और कार्य करने के लिए प्रोग्राम किया जाता है) के ज़माने में आप कोई भी तस्वीर बना लो, कोई भी वीडियो बना लो, कुछ भी कर लो। अगर नियम नहीं है और उनका एग्ज़िक्यूशन नहीं है पकड़े जाने के लिए, तो कैसे फिर आप बचोगे, कुछ भी किसी का दिखा दिया जाएगा। उसके लिए बहुत ज़रूरी है कि ऐसी व्यवस्था बनाई जाए, और ऐसा वॉटरटाइट (अखंडनीय) एक सॉफ़्टवेयर फ़्रेमवर्क हो जिसमें कोई भी व्यक्ति एनोनिमसली ऑपरेट न कर सके।

ये एनोनिमिटी (अनामिता) सबसे पहले समाप्त करनी होगी। ऑब्वियस्ली वो एनोनिमिटी एक डेमोक्रेटिक एनवायरमेंट में ही समाप्त की जा सकती है — जहाँ एक अच्छी, मैच्योर फ़ंक्शनिंग डेमोक्रेसी (परिपक्व कार्यशील लोकतंत्र) हो; जहाँ पर अगर कोई अपना नाम और अपनी तस्वीर सामने रखकर अपनी बात बोल रहा है, तो उसे खतरा न हो कि सरकार उसे पकड़कर जेल में डाल देगी।

तो ये जितनी बातें मैं बोल रहा हूँ, उनके लिए फिर ये भी ज़रूरी है कि लोकतंत्र स्वस्थ रहे। लोकतंत्र के चारों स्तंभ एक समान बलशाली रहें, और एक-दूसरे का बोझ बाँटते हुए काम करें। ये नहीं होना चाहिए कि न्याय व्यवस्था डरी हुई है लेजिसलेचर (विधायिका) से, और एग्ज़िक्यूटिव (कार्यपालिका) इतना भारी है कि उसने प्रेस को बिलकुल दबा दिया है। ये नहीं होना चाहिए।

तो ये सब जब हो जाएगा, तब हमें ये नहीं करना पड़ेगा कि अरे नहीं! बैन कर दो, बैन कर दो। बैन की कोशिश भूलिएगा नहीं, हम पहले भी कर चुके हैं। उदाहरण के लिए, कि बच्चों को मोबाइल फ़ोन नहीं देना है। क्या होता है उससे? आप मत दीजिए मोबाइल फ़ोन, वो दूसरे तरीके से निकाल लेता है। स्कूलों में हो जाता है काम। उसके पास नहीं है, उसके दोस्त के पास है। और मन चीज़ ऐसी होती है कि आप उसको बहुत ज़्यादा अगर किसी चीज़ से वंचित कर दोगे, तो फिर वो विद्रोह करके उस चीज़ की माँग और ज़्यादा शुरू कर देता है। तो रेगुलेट (नियंत्रण) करिए, प्रोहिबिट (निषेध) मत करिए।

प्र: आचार्य जी, मैं आपकी बात से बिलकुल सहमत हूँ कि सोशल मीडिया पर बच्चों के लिए बैन के बजाय इसे रेगुलेट करना ज़रूरी है। मैं एक शिक्षिका रह चुकी हूँ। बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ मुझे उनकी काउंसलिंग भी करनी होती थी। ये बच्चे विद्यालय में बहुत ही अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते थे। उनकी बातें काफ़ी वयस्क लोगों जैसी होती थीं। वो ऐसी ही भाषा का इस्तेमाल अपने सोशल मीडिया कमेंट्स में भी किया करते थे।

मैंने अपने अनुभव से ये पाया है कि बच्चों का इस तरीके का व्यक्तित्व आमतौर पर उनके पारिवारिक माहौल की वजह से ही होता है। परिवार के वयस्क भी सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति के नाम पर ऐसी ही अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते हैं और इसे गंदा व नकारात्मक बना देते हैं। इससे सकारात्मक कंटेंट देखने वालों का अनुभव प्रभावित होता है। इसलिए, मैं समझती हूँ कि सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स पर शुचिता रखने की ज़रूरत है, और साथ ही शिष्टाचार और ज़िम्मेदार अभिव्यक्ति को बढ़ावा देना आवश्यक है।

आचार्य: अच्छा चलिए, हम मार्क ज़ुकरबर्ग के पास चलते हैं। ठीक है। उनकी कंपनी में बड़े-बड़े लोगों ने, इन्वेस्टर्स ने पैसा लगाया हुआ है। पैसा क्यों लगाया है? ताकि पैसा बढ़े। उन्हें आरओआइ (रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट यानी निवेश पर प्रतिफल) चाहिए, ठीक है न। वो पैसा अगर वो सारा निकाल लें तो कंपनी गिर जाएगी। इतना ही नहीं, वो पैसा निकाल लेंगे तो स्टॉक (शेयर बाज़ार) गिरेगा। तो स्टॉक गिरेगा, तो मार्क ज़ुकरबर्ग की जो अपनी नेट वर्थ है, वो भी गिर गई।

तो बहुत ज़रूरी है कि जो इन्वेस्टर है, उसको रिटर्न मिलता रहे। और रिटर्न इयर का ये मतलब नहीं होता कि इस साल जो प्रॉफ़िट था, अगले साल भी उतना ही रहे। इसका मतलब है कि इस साल जितना था, उससे ज़्यादा होना चाहिए। उससे कम होगा तो वो इन्वेस्टर वहाँ से पैसा निकालकर कहीं और लगा देगा। फ़ेसबुक से निकालकर वो अमेज़न में, गूगल में, कहीं लगा देगा। ठीक है न।

अब पैसा कहाँ से आएगा फ़ेसबुक के पास? अगर इन्वेस्टर को रिटर्न देना है, तो फ़ेसबुक के पास पैसा कहाँ से आएगा?

प्र: इन्हीं लोगों से।

आचार्य: पैसा आना है, जो विज्ञापन देता है उससे। अब जो विज्ञापन देता है, इसीलिए देता है न कि विज्ञापन देखा जाए, तभी तो उसका माल बिकेगा। तो वो विज्ञापन कब देखा जाएगा? जब कोई पहले फ़ेसबुक पर टाइम बिता रहा होगा। तभी तो विज्ञापन देखेगा, फ़ेसबुक या इंस्टाग्राम या जो भी उनकी और प्रॉपर्टीज़ हैं। तभी तो वो विज्ञापन देखेगा।

अब आप कैसे हो, मैं कैसा हूँ, पूरी दुनिया कैसी है? हम किस चीज़ पर सबसे ज़्यादा समय बिताते हैं? गंदगी पर। न जाने कितने होंगे, अभी बारह बजने के आसपास हो रहा होगा, तो झूम-झूमकर गिर रहे होंगे। अभी कहीं पर नाचने-गाने की जगह गए होते तो झूमकर थोड़े ही गिर रहे होते नींद में!

अभी ये होता कि अभी तो डांस चल रहा है, उसके बाद अभी ज़बरदस्त तरीके का डिनर होगा भोकाली, तो थोड़े ही सो रहे होते। गंदगी पर हम सबसे ज़्यादा समय बिताते हैं न। हमारा चित्त ही ऐसा है भाई! जंगली लोग हैं! जैसे हम कहते हैं, अभी-अभी तो जंगल से निकले हैं, तो गंदगी चाटने में सबसे आगे रहते हैं।

तो विज्ञापन दाता ये चाहता है कि और ज़्यादा गंदगी पोस्ट हों, तो सारे एल्गोरिदम फिर होते ही ऐसे हैं जो गंदगी को ही फ़ेवर करते हैं। और इसमें कोई एक, मार्क ज़ुकरबर्ग या कोई भी आप और ले लीजिए, वो आदमी ज़िम्मेदार नहीं है; इसमें सब ज़िम्मेदार हैं। क्योंकि कॉर्पोरेट पैराडाइम (कॉर्पोरेट प्रतिमान) ही यही है कि भाई, कंपनी बनाई इसीलिए है कि इन्वेस्टर को पैसा मिलना चाहिए, आरओआइ मिलना चाहिए। है न? तो फिर जो एल्गोरिदम्स होते हैं इनके, ये ख़ुद गंदगी को बढ़ावा देते हैं।

आप क्या सोच रहे हो, वो इन्फ़्लुएंसर है, उसके इतने मिलियन फ़ॉलोवर्स हो गए हैं, वो ऐसे ही हो गए हैं? नहीं, उसको बढ़ावा दिया गया है, वो कुछ नहीं होता वर्ना। वो जो हो गया है दस-बीस, जितने भी मिलियन हो गया है, वो अपने कंटेंट की पैदाइश नहीं है, वो एल्गोरिदम की पैदाइश है। और एल्गोरिदम लिखा ही गया है गंदगी को बढ़ाने के लिए! आप सोचते हो कि कितना बढ़िया आदमी है, इसको इतने लोग फ़ॉलो करते हैं। हमसे पूछो न कि सच्चाई को फ़ॉलो करवाना कितना मुश्किल होता है। और गंदगी को फ़ॉलो करवाना कितना आसान होता है, वो भी हम रोज़ देखते हैं।

समझ में आ रही है बात?

तो ऐसा नहीं है कि हमारे पास टूल्स-टेकनीक्स नहीं हैं, या टेक्नोलॉजी नहीं है, मेथड नहीं है कि हम यूज़र को आइडेंटिफ़ाइ कर सकें या गंदगी को रोक सकें। हम उसे रोकना चाहते ही नहीं हैं, क्योंकि अगर रोक दिया तो आरओआइ कहाँ से आएगा। कहाँ से आएगा? अगर गंदगी है तो आप वीडियो पूरा देखोगे, वीडियो पूरा देखोगे तो पाँच बार ऐड देखोगे, पाँच बार ऐड देखोगे तो जो ऐडवरटाइज़र है, वो आपको और ऐड्स देगा, तो आपकी रेवेन्यू बढ़ेगी, रेवेन्यू बढ़ेगी तो आपका जो स्टेकहोल्डर है, उसको आरओआइ मिलेगा।

अब यही बिलकुल एकदम सात्विक बातें होने लग जाएँ, आध्यात्मिक बातें होने लग जाएँ, और ऐसी बातें होने लग जाएँ जो अहंकार पर चोट करती हैं, वो तो सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म ही खत्म हो जाएगा।

समझ में आ रही है बात ये?

इस पर भी रेगुलेशन चाहिए हमको। और जो सोशल मीडिया कंपनी ये रेगुलेशन न करे, उस पर फिर कार्यवाही होनी चाहिए। पर ये सब कैसे होगा? ये सब तब होगा जब पोलिटिकल विल होगी ये सब करने की। और पोलिटिकल विल कब होगी? जब वो पोलिटिशियन ऐसा इलेक्ट हुआ है जो ये सब करना चाहे। ऐसे पोलिटिशियन को इलेक्ट कौन करेगा? आप और हम। तो पहले सुधार किसमें चाहिए? आपमें और हममें चाहिए। जब हम सही होंगे, तो हमको पता होगा कि हमको वोट किसको देना है। फिर वो जो व्यक्ति आएगा सत्ता में, वो फिर सारे नए, सही तरीके की नीतियाँ बनाएगा। अभी तो सब चोर-चोर मौसेरे भाई हैं! सबका इसी में हित है कि सब एक-दूसरे को बेवकूफ़ बनाते रहें।

कुछ भी संयोगवश नहीं हो रहा है। अगर गंदगी फैल रही है, टॉक्सिसिटि फैल रही है, बच्चे बर्बाद हो रहे हैं, मिसइन्फ़ॉर्मेशन फैल रही है, जनता का मानसिक स्तर गिर रहा है, लोग बेवकूफ़ होते जा रहे हैं और ज़्यादा, वो सबकुछ एक तरह की प्लांड कॉन्सपिरेसी (सुनियोजित षड्यंत्र) है। उसको तोड़ा कहाँ पर जा सकता है? उसको तोड़ा सिर्फ़ ग्रासरूट (ज़मीनी स्तर) पर जा सकता है। वही काम आपकी संस्था करने की कोशिश कर रही है, कि आम आदमी को जागृत करो। सिर्फ़ उसी तरीके से काम बन सकता है।

पर आम आदमी को जागृत कैसे करें, आम आदमी तो और सो रहा है अभी! लेकिन ठीक है, अपनी भी ज़िंदगी सार्थक रहेगी। तुम्हें जगाने की कोशिश करते-करते एक दिन हम सो जाएँगे। अपनी ज़िंदगी बढ़िया कट गई!

ऐसा मत सोचा करो कि कोई भी समस्या आइसोलेटेड (दूसरी समस्याओं से पृथक) होती है। हर चीज़ के पीछे कारण आध्यात्मिक ही है। जब आदमी की ज़िदगी में कुछ नहीं होता, तो आदमी को प्रॉफ़िट्स चाहिए होते हैं। यही कैपिटलिज़्म (पूंजीवाद) है। जो कामना होती है न व्यक्तिगत स्तर पर, वही एग्रिगेट (सामूहिक) स्तर पर कैपिटलिज़्म कहलाता है। और वही कैपिटलिज़्म फिर इस तरह के एल्गोरिदम्स बनाता है, जिससे बहुत नालायक किस्म के इन्फ़्लुएंसर लोग हीरो बन जाते हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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