सोशल मीडिया बैन: गलत कंटेंट से बचने का सही उपाय?

Acharya Prashant

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सोशल मीडिया बैन: गलत कंटेंट से बचने का सही उपाय?
कुछ भी संयोगवश नहीं हो रहा है, अगर गंदगी फैल रही है, टॉक्सिसिटी फैल रही है, बच्चे बर्बाद हो रहे हैं, मिस इंफॉर्मेशन फैल रही है, जनता का मानसिक स्तर गिर रहा है, लोग बेवकूफ़ होते जा रहे हैं और ज़्यादा, वो सबकुछ एक तरह की प्लांड कॉन्सपिरेसी (सुनियोजित षड्यंत्र) है। उसको तोड़ा कहाँ पर जा सकता है? उसको तोड़ा सिर्फ़ ग्रासरूट पर जा सकता है। वही काम आपकी संस्था करने की कोशिश कर रही है कि आम आदमी को जागृत करो, सिर्फ़ उसी तरीके से काम बन सकता है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर, आचार्य जी, आज मेरा प्रश्न अभी रिसेंटली ऑस्ट्रेलिया में बच्चों के सोशल मीडिया उपयोग पर बैन का बिल पास हुआ है, और ऑस्ट्रेलिया इसमें पहला देश बन गया है। इंग्लैंड भी इसी दिशा में आगे कर रहा है। यदि इंडिया में भी ये बिल पास हो जाए तो इसका बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर और पढ़ाई पर क्या प्रभाव देखने को मिलेगा? कुछ सुधार होगा या फिर बच्चों का जो डिजिटल विकास है, स्वतंत्रता है, उसमें ये बिल बाधा बन जाएगा?

आचार्य प्रशांत: देखिए बहुत सारी चीज़ें हैं जो टेक्नोलॉजी कर सकती है। टेक्नोलॉजी जब बहुत सारा नुकसान कर सकती है तो टेक्नोलॉजी ये भी कर सकती है कि पता लगाया जा सके कि कौन सोलह साल का है और कौन सोलह साल का नहीं है। तो पूरे तरीके से चौदह, पंद्रह, बारह, तेरह साल वालों को यूज़र जेनेरेटिड कंटेंट से वंचित कर देना, ठीक नहीं है। मॉडरेशन (किसी काम को उचित सीमाओं के अंदर करने) की ज़रूरत है, रेगुलेशन (अधिनियम) की ज़रुरत है, बैन की ज़रुरत नहीं है। क्योंकि इतना भी बच्चा नहीं होता है बारह साल वाला या पंद्रह साल वाला या आप कहो कि तुम कहीं कुछ देख ही नहीं सकते। तो ठीक वैसे जैसे हमारे पास, अब इतनी बड़ी आबादी हमारे डेढ़-सौ करोड़ लोग हैं, उसमें से कुछ को छोड़कर के, बाकी सबको कर पाए न कि आधार दे दिया और वो अपने आप में कितनी बड़ी एक्सरसाइज़ थी!

इतने करोड़ लोगों को, सौ-करोड़ से ऊपर लोगों को हमने आधार दे दिए। तो वैसे ही केवाईसी, जानती होंगी न आप, "नो योर कस्टमर" होता है जैसे यूज़र आइडेंटिफिकेशन। उसी तरीके से यूज़र आइडेंटिफिकेशन का कार्यक्रम होना चाहिए। जिसमें साफ़ ये निकाला जा सके कि ये-ये हैं, जो सोलह साल से कम के हैं। और ज़ाहिर सी बात है कि वैसा आप जब एक यूज़र आइडेंटिफिकेशन कार्यक्रम चलाओगे तो वो सिर्फ़ सोलह साल वालों के लिए नहीं होगा, वो सबके लिए होगा। उससे बहुत फ़ायदा होगा। देखो बात सिर्फ़ ये नहीं होती कि एनोनिमस आप वहाँ पर सर्फ़िंग कर लेते हो, बात ये भी तो होती है न कि आप एनोनिमसली यूज़र कंटेंट जेनेरेट भी तो कर देते हो।

बात सिर्फ़ ये नहीं है कि वो अपनी पहचान छुपाकर के गया और वो कुछ जाकर के कहीं बम बनाने की चीज़ देख आया या उसने कुछ हिंसक कुछ देख लिया या वो जाकर वहाँ पर अश्लील पोर्न देख रहा है। बात उतनी ही नहीं है, आप देखोगे, ज़्यादातर जो ट्रोल्स वगैरह होते हैं, उन्होंने अपना नाम बता ही नहीं रखा होता है। और अगर बता भी रखा होता है तो नकली नाम बता रखा होता है। वहाँ अपनी प्रोफ़ाइल फोटो में शक्तिमान लगा रखा होता है।

तो ये जो पूरा खेल चल रहा है कि जो काम आप किसी के सामने खड़ा होकर नहीं कर सकते, जो बात आप किसी के सामने खड़े होकर नहीं कर सकते, वो बात आप पीठ पीछे अपनी पहचान छुपाकर कह देते हो। ये खेल ही गलत है। ये खेल ही गलत है। सड़क पर घूम रहें हो लोग जिन्होंने अपनी पूरी पहचान छुपा रखी हो तो आपको अटपटा लगेगा न? जैसे यूरोपीय देश हैं, जहाँ ये बड़ी बात रहती है कि ये हमें ऐसा, जो बुर्का है वो बैन करना है जिसमें चेहरा भी दिखाई न दे। वो कहते हैं, ‘कम-से-कम चेहरा तो पता चले, आप सोशल लाइफ़ में पार्टिसिपेट कर रहे हो तो आप जिसके सामने से गुज़र रहे हो, उसको इतना तो जानने का हक है न कि मेरे सामने से कौन गुज़रा? तो कम-से-कम शक्ल तो दिखें, बाकी शरीर आप ढ़कना चाहते हो, ढ़क लो चलो।‘

उसी तरीके से अगर आप ट्विटर पर या फेसबुक पर या कहीं भी इंस्टाग्राम पर पार्टिसिपेट कर रहे हो तो उस पूरी बड़ी कम्युनिटी को ये जानने का हक है कि वो किससे बात कर रहे हैं। कौन आया जो लाइक कर के या कमेंट कर के चला गया? ये लाइक-कमेंट तो छोटी बात है। पूरी-पूरी बड़ी-बड़ी प्रोफ़ाइल चल रही है। ऐसी भी प्रोफ़ाइल्स हैं, जिनके मिलियंस में फ़ालोवर्स हैं पर जिनका चेहरा कभी किसी ने नहीं देखा। क्या ये काम आप समाज में कर सकते हो, क्या आप कहीं पार्टी में जाओ और आपने अपना पूरा चेहरा छुपा रखा है, आप किसी को दिखा नहीं रहे और सालों तक नहीं दिखा रहे।

तो जब ये काम आप समाज में नहीं कर सकते, सोसाइटी में नहीं कर सकते तो सोशल मीडिया पर कैसे कर सकते हो? तो सोशल मीडिया पर बहुत ज़रूरी है इस तरह का केवाईसी, सारी सोशल मीडिया कंपनियों के लिए केवाईसी नॉर्म्स बिल्कुल अनिवार्य होने चाहिए। कोई भी व्यक्ति जो आपके यहाँ अकाउंट बना रहा है, आपकी ज़िम्मेदारी है कि आप उसकी पहचान, जो सरकारी उसके कागज़ हैं उनको देखकर तय करे, सुनिश्चित करे। आपसे पूछा जाए तो आप उसका फ़ोन नंबर और ये सब बताने का इंतज़ाम करें। हाँ, जो जुडिशियल सिस्टम हैं वो इस बात की गारंटी लेगा कि किसी को प्रताड़ित करने के लिए सरकार उसका फ़ोन नंबर वगैरह किसी कंपनी से नहीं माँग सकती। माँगेंगे तो कोर्ट माँगेंगे वो भी विद अंडर ड्यू प्रोसेस ऑफ़ लॉ।

बात समझ रहीं है?

तो इससे क्या होगा कि जो ये सोलह साल वाले हैं, ये सब हैं, इनकी पहचान खुली रहेगी। जब इनकी पहचान खुली रहेगी तो ये जहाँ कहीं भी जाकर लॉग इन कर रहे हैं, कुछ कर रहे हैं तो जो कंटेंट इनके लिए बना ही नहीं है वो इनको दिखाई ही नहीं देगा। मैं समझ रहा हूँ इसमें अभी बहुत सारी टेक्नोलॉजिकल बैरियर्स है और कई तरह का डेवलपमेंट करना पड़ेगा। अभी जो एक्सिस्टिंग फॉर्मेट्स हैं, एल्गोरिदम सॉफ्टवेयर्स हैं उनमें ये अभी प्रोविजंस नहीं हैं तो प्रोविजंस डालने पड़ेंगे। पर डाले जा सकते हैं, बहुत मुश्किल नहीं है, ये करा जा सकता है। कि एक चौदह साल वाले ने जब इंस्टाग्राम पर लॉग इन किया तो उसको बस वही कंटेंट दिखाई देगा जो चौदह साल वालों के लिए सूटेबल है।

बाकी आप लॉग इन बेशक कर सकते हैं एजुकेशनल कंटेंट देखिए, एंटरटेनमेंट भी आप देख सकते हो। पर जो पूरे तरीके से ऐडल्ट कंटेंट है, वो आपको नहीं दिखाई देगा। इसलिए नहीं कि ऐडल्ट कंटेंट में पाप है इसलिए क्योंकि अभी आपकी उम्र नहीं आई है। अभी आपकी चेतना इस काबिल नहीं हुई है कि कुछ चीज़ों को आप देखो-सुनो तो आप उसको बर्दाश्त कर सको और आपका भीतरी स्वास्थ्य बना रह सके। आप वो सब चीज़ें देखोगे तो आप बीमार पड़ जाओगे।

इंतज़ार कर लो, दो-चार साल बाद, उसके बाद आप इस लायक हो जाओगे, थोड़ा विवेक आ जाएगा कि क्या देखें, क्या न देखें और जो देखें उसको पचा भी पाएँ।

समझ रहें है?

तो एक बात और इसमें है मुद्दा। इतिहास ये बताता है कि ये जो ब्लैंकेट बैन्स होते हैं न, सफल हो नहीं पाते। हम बड़े चतुर-चालाक लोग होते हैं। हम तरीके निकाल लेते हैं कि किसी भी तरीके के प्रतिबंध, उनके ऊपर से निकल जाने का, उसके नीचे सुरंग खोद देने का, उसके दाएँ से, बाएँ से निकल जाने का। वो पर सोलह साल वाला ठीक है, अपने लॉगिन से नहीं देख सकता। मम्मी के लॉगिन से तो देख सकता है, बड़े भैया के लॉगिन से तो देख सकता है, पापा के लॉगिन से तो देख सकता है!

और किसी तरीके से उसने, जो उसको मोबाइल फ़ोन आपने दे रखा है, आपने उसका सोशल मीडिया बंद करा है, फ़ोन थोदे ही बंद कर दिया है! स्मार्ट फ़ोन तो है? स्मार्ट फ़ोन पर उसने किसी बहाने से एक दिन लॉग इन करवा लिया किसी से, किसी और का, बड़े का और उससे अपना वो देख रहा है, मज़े कर रहा है, जो भी करना है। और अच्छा है अब तो वो जो भी कमेंट कर रहा है, वो पापा के नाम से छप रहा है। धरे भी जाएँगे अगर कानूनन तो पापा धरे जाएँगे। तो प्रतिबंध सफल हो नहीं पाते हैं। व्यावहारिक पक्ष भी है इस पूरी बात का, मात्र सैद्धांतिक ही नहीं है। जो चीज़ चलेगी वो है कि देखो करेगा तो है ही, तो रेगुलेट कर दो। रेगुलेट माने नियमित कर दो, माने नियम के अंदर ले आ दो। पूरे तरीके से मत रोको।

और जो मैं बात कर रहा हूँ यूज़र आइडेंटिफिकेशन की वो चीज़ फिर बस जो आपके टीनएज और एडोलेसेंट यूजर्स हैं उनको ही नहीं बचाएँगी, वो सबको बचाएँगी क्योंकि जितनी टॉक्सिसिटी सोशल मीडिया फैला रहा है, उतनी तो मानव इतिहास में बहुत कम देखी गई है। और सोशल मीडिया पर टॉक्सिसिटी फैलने का बड़ा कारण ये है कि वहाँ आप एनोनिमस होकर, गुमनाम होकर, अनाम होकर जो चाहो कर सकते हो। एकदम कोई मरियल सा, दब्बू सा होगा, जिसकी ज़िंदगी एकदम बर्बाद होगी जो किसी लायक नहीं होगा पर वो ट्विटर पर शेर बनकर बैठा होगा और उसने अपना नाम रखा होगा 'सिंह की दहाड़' और वो वहाँ जाकर, जगह-जगह चाहे वो डॉक्टर हो, प्रोफेसर हो, नेता हो, अभिनेता हो, रिसर्चर हो दुनिया के जितने भी ढ़ंग के ऊँचे लोग हों वो जाकर वहाँ सबको गलियाँ दे रहा होगा। और ये है कौन?

ये बिल्कुल हो सकता है कोई अनपढ़, गँवार, सड़क का लड़का हो। ये भी हो सकता है कि ये ड्रग्स वगैरह का आदि हो। हो सकता है कि इसको समाज में कोई इज़्ज़त न देता हो तो जिसको समाज में इज़्ज़त नहीं मिलती उसकी भरपाई ये ऑनलाइन करता है। ये कहता है, ‘समाज में तो मुझे कोई इज़्ज़त देता नहीं तो मैं उसका खामियाजा वसूलूँगा ऑनलाइन।‘ तो इसने अपनी ऑनलाइन इमेज, एक परसोना क्रिएट करा है। वो परसोना ये है कि मैं बहुत धाकड़ आदमी हूँ, मैं बहुत ज़बरदस्त आदमी हूँ। वो खूब गाली-गलौच कर रहा है, जो-जो कर सकता है सबकुछ कर रहा है।

ये तो बीमारी बढ़ाने वाली बात हो गई न। हम ये बीमारी बढ़ने नहीं दे सकते। मिस इंफॉर्मेशन भी जो लोग फैलाते हैं वो ज़्यादातर लोग अपना नाम वगैरह छुपाकर फैलाते हैं। आप कोई उनको बता थोड़े ही दोगे उनके नाम, अकाउंट का नाम होगा 'जेआईपीआर सात-सौ-छप्पन!' जाओ पकड़ लो उसको, कैसे पकड़ोगे? फिर पकड़ने के लिए, फिर जो पुलिस का साइबर विभाग होता है उसको बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। वो देखते हैं कौन-सा आईपी था, ये-वो, शहर कौन-सा था वो, बहुत बातें! इतना आसान नहीं होता है कि इन मामलों में आप सिद्ध कर सको कि ऐसा-ऐसा हुआ और गिरफ़्तारी भी हो जाए। पकड़े भी ज़्यादा वही जाते हैं जिन्होंने अपना सब हाल जाकर वहाँ पर ईमानदारी से लिख रखा होता है तो वो पकड़े जाते हैं। वरना आप छुपना चाहो तो छुप सकते हो।

तो मिस इंफॉर्मेशन भी रुकेगी, टॉक्सिसिटी भी रुकेगी इसकी, वजह से जो लोगों को प्रोत्साहन मिलता है एक फेक परसोना क्रिएट करने का, जिसके कारण उनकी बीमारी और बढ़ती है भीतरी, वो बीमारी भी रुकेगी, बहुत काम हो पाएँगे।

सोशल मीडिया वास्तव में बदमाशी का अड्डा बन गया है। हमने सोचा था कि ये इंफॉर्मेशन एक्सप्लोज़न हो रहा है, ये इंफॉर्मेशन एक्सप्लोज़न नहीं हुआ है, ये मिस इंफॉर्मेशन एक्सप्लोज़न हुआ है। पहले के लोग, हो सकता है हमसे कम जानकारी रखते हों, इंटरनेट से पहले के, सोशल मीडिया से पहले के, पर अगर उनके पास जो सही जानकारी थी वो हमसे बीस प्रतिशत कम थी तो उनके पास जो गलत जानकारी थी वो हमसे पिच्चयानवे प्रतिशत कम थी। माने जानकारी के नाम पर जो बढ़ा है ज़्यादा, वो है फेक जानकारी। आज आप बहुत कुछ जानते हो लेकिन जो आप जानते हो सब फेक है। वही जिसको आप व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी बोलते हो। पहले कम जानकारी थी तो कम-से-कम फेक जानकारी तो नहीं थी अब तो जानकारी के नाम पर हर आदमी को लगता है कि वही एक्सपर्ट है।

कोई भी होगा, कोई भी होगा कोई फेक, कोई-कोई डॉक्टर बनकर घूम रहा है वो बता रहा है कि वज़न कैसे कम करना है। कुछ भी, अपनी सौ तरह की बीमारियों का इलाज बता रहा है। उससे पूछो, भाई! कुछ डिग्री-विग्री कुछ? कुछ नहीं! वो लेकिन वो अपना बिल्कुल। कोई हिस्टोरियन बनकर घूम रहा है उससे पूछो कि कहाँ से तुम हिस्ट्री में मास्टर्स या पीएचडी करके बैठे हो, बताओ तो, कुछ नहीं! कोई पॉलिटिकल एक्सपर्ट बन गया है। कोई जिओस्ट्रेटेजी पर ज्ञान बता रहा है। पूछो तुम हो कौन, तुम्हारा इसमें क्रेडेंशियल क्या है? कुछ नहीं! क्रेडेंशियल क्या, कई बार तो लोग नाम भी नहीं बताते। वो बस अपना चालू है।

तो वो सब रुकना होगा। नहीं तो, देखिए, इंसान कॉन्शियसनेस का नाम होता है, चेतना का और चेतना का आम आदमी के लिए मतलब होता है चेतना की सामग्री, द कंटेंट ऑफ़ कॉन्शियसनेस, कि तुम्हारे मन में खोपड़े में भरा क्या हुआ है।

आपकी चेतना का स्तर क्या है वो इससे तय हो जाता है कि आपके खोपड़े की सामग्री का स्तर क्या है। अगर खोपड़े की सामग्री एकदम कचरा डाल दी गई है तो आप भी कचरा हो गए। जिसके मन में कचरा घुसेड़ दिया गया है; जो कि ज़्यादातर सोशल मीडिया से ही आता है, वो इंसान ही कचरा हो गया। क्योंकि इंसान की हैसियत, इंसान की पहचान उसके शरीर से तो ज़्यादा होती नहीं है, उसकी होती है कॉनशियसनेस से। हाउ कॉन्शियस आर यू? व्हाट इज़ द क्वालिटी ऑफ़ योर कॉन्शियसनेस? जिसके दिमाग में कचड़ा घुसेड़ दिया गया उस आदमी की तो ज़िंदगी ही कचड़ा हो गई न? और ये इस सदी के बड़े खतरों में से है।

जैसे हम क्लाइमेट क्राइसिस की बात करते हैं। जैसे हम इक्स्टिंगक्शन ऑफ़ स्पीशीज़ की बात करते हैं। जैसे हम पॉपुलेशन एक्सप्लोज़न की बात करते हैं। जैसे हम थ्रेट ऑफ़ न्यूक्लियर वॉर की बात करते हैं। उसी तरीके से ये जो सोशल मीडिया पर मिस इंफॉर्मेशन है, वो इस युग के बड़े-से-बड़े खतरों में से एक है। क्लाइमेट चेंज इतना नहीं बड़ा मैं खतरा बोल दूँगा लेकिन क्लाइमेट डिनायलिज़्म जो है, उदाहरण के लिए, वो भी तो मिस इंफॉर्मेशन का ही एक रूप है न। वो क्लाइमेट डिनायलिज़्म जो है वो सोशल मीडिया से ही तो फैलाया जाता है। और कौन है वो जो कलाइमेट डिनायलिस्ट है वो कौन है? जो कुछ नहीं जानता क्लाइमेट के बारे में। और कुछ भी झूठ बोल रहा है। तो ये नियम भी फिर बनना चाहिए कि अगर कोई सोशल मीडिया पर झूठ बोल रहा था और पकड़ा गया तो उसकी सज़ा भी होनी चाहिए। क्योंकि ये बड़े-से-बड़ा अपराध है कि तुमने लोगों की चेतना को विषाक्त कर दिया। तुमने लोगों की कॉन्शियसनेस पोल्यूट कर दी, दूषित कर दी। ये बहुत बड़ा अपराध है। इस पर पकड़ा जाना चाहिए फिर सज़ा होनी चाहिए।

तुमने एक बात लिखी थी जो बात बिल्कुल गलत थी, वो बात तुम्हारा ओपिनियन भी नहीं थी उसको तुम फैक्ट की तरह प्रस्तुत कर रहे थे, और वो फैक्ट है नहीं। तो तुम्हें इसकी सज़ा मिलेगी क्योंकि तुमने जनता में झूठ फैला दिया। जनता में झूठ फैलाना कोई छोटी बात नहीं है। इसकी तो भारी सज़ा होनी चाहिए। अब एआई के ज़माने में आप कोई भी तस्वीर बना लो, कोई भी वीडियो बना लो, कुछ भी कर लो। अगर नियम नहीं है और उनका एग्ज़ीक्यूशन नहीं है पकड़े जाने के लिए तो कैसे फिर आप बचोगे, कुछ भी किसी का दिखा दिया जाएगा। उसके लिए बहुत ज़रूरी है कि ऐसी व्यवस्था बनाई जाए और ऐसा वाटर टाइट एक सॉफ्टवेयर फ्रेमवर्क हो जिसमें कोई भी व्यक्ति एनोनिमसली ऑपरेट न कर सके।

ये एनोनिमिटी सबसे पहले समाप्त करनी होगी। ओबवियसली वो एनोनिमिटी एक डेमोक्रेटिक एनवायरमेंट में ही समाप्त करी जा सकती है। जहाँ एक अच्छी मैच्योर फंक्शनिंग डेमोक्रेसी हो। जहाँ पर अगर कोई अपना नाम और अपनी तस्वीर सामने रखकर के अपनी बात बोल रहा है तो उसे खतरा न हो कि सरकार उसे पकड़ के जेल में डाल देगी। तो ये जितनी बातें मैं बोल रहा हूँ उनके लिए फिर ये भी ज़रूरी है कि लोकतंत्र स्वस्थ रहे। लोकतंत्र के चारों स्तंभ एक समान बलशाली रहें और एक-दूसरे का बोझ बाँटते हुए काम करें। ये नहीं होना चाहिए कि न्याय व्यवस्था डरी हुई है लेजिसलेचर से और एग्ज़ीक्यूटिव इतना भारी है कि उसने प्रेस को बिल्कुल दबा दिया हैं। ये नहीं होना चाहिए।

तो ये सब जब हो जाएगा तब हमें ये नहीं करना पड़ेगा कि अरे, नहीं बैन कर दो, बैन कर दो। बैन की कोशिश भूलिएगा नहीं हम पहले भी कर चुके हैं उदाहरण के लिए कि बच्चों को मोबाइल फ़ोन नहीं देना है। क्या होता है उससे? आप मत दीजिए मोबाइल फ़ोन, वो दूसरे तरीके से निकाल लेता है। स्कूलों में हो जाता है काम। उसके पास नहीं है उसके दोस्त के पास है। और मन चीज़ ऐसी होती है कि आप उसको बहुत ज़्यादा अगर किसी चीज़ से वंचित कर दोगे तो फिर वो विद्रोह करके उस चीज़ की माँग और ज़्यादा शुरू कर देता है। तो रेगुलेट करिए, प्रोहिबिट मत करिए।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, इस पर मेरा एक फॉलोअप क्वेश्चन है और मैं आपकी बात से बिल्कुल सहमत हूँ कि जो आपने बताया कि बैन नहीं करना है, रेगुलेट करना है और इसमें एक चीज़ और भी है कि जो प्रश्न था कि बच्चों पर ऐसा बैन लगाया जा रहा है। लेकिन सबसे पहले क्योंकि मैं काफ़ी समय से टीचिंग प्रोफेशन से कनेक्टेड थी तो जहाँ पर बच्चों की काउंसलिंग होती थी, जो बच्चे बहुत अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते थे स्कूल्स में या कॉलेजिस में और उनकी बातें अपनी उम्र से काफ़ी बड़े लोगों जैसी होती थी।

वो उस तरह की भाषा का इस्तेमाल करते थे। और सोशल मीडिया पर कमेंट्स करते थे। और वो ऐसी भाषाओं का इस्तेमाल करके करते थे। तो इसमें जो दोषी पाए जाते थे वो अक्सर पेरेंट्स ही होते थे। तो इसमें जो सोशल, मैं देखती हूँ कि महिलाएँ, पुरुष भी हैं वो इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करते हैं अपने कमेंट सेक्शन में या फिर सोशल मीडिया पर अपनी अभिव्यक्ति जताते हैं। उनकी भाषा बहुत ही खराब होती है। और वो सोशल मीडिया को इतना गंदा कर देते हैं कि अगर कुछ ऐसे लोग भी सोशल मीडिया पर आना चाहते हैं जो कुछ अच्छा देखना चाहते हैं, उनका मन भी पूरे तरीके से खराब हो चुका होता है।

आचार्य प्रशांत: अच्छा चलिए हम मार्क ज़ुकरबर्ग के पास चलते हैं, ठीक है, उनकी कंपनी में बड़े-बड़े लोगों ने, इन्वेस्टर्स ने, पैसा लगाया हुआ है। पैसा क्यों लगाया है? ताकि पैसा बढ़े। उन्हें आरओआई (रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट यानि निवेश पर रिटर्न) चाहिए ठीक है न। वो पैसा अगर वो सारा निकाल लें तो कंपनी गिर जाएगी, कंपनी गिर जाएगी। इतना ही नहीं, वो पैसा निकाल लेंगे तो स्टॉक गिरेगा, तो स्टॉक गिरेगा तो मार्क ज़ुकरबर्ग की जो अपनी नेटवर्थ है वो भी गिर गई।

तो बहुत ज़रूरी है कि जो इन्वेस्टर है उसको रिटर्न मिलता रहे और रिटर्न इयर का ये मतलब नहीं होता कि इस साल जो प्रॉफिट था अगले साल भी उतना ही रहे। इसका मतबल है इस साल जितना था, उससे ज़्यादा होना चाहिए। उससे कम होगा तो वो इन्वेस्टर वहाँ से पैसा निकालकर कहीं और लगा देगा। फेसबुक से निकालकर वो अमेज़न में, गूगल में कहीं लगा देगा, ठीक है न। अब पैसा कहाँ से आएगा फेसबुक के पास अगर इन्वेस्टर को रिटर्न देना है तो फेसबुक के पैसा कहाँ से आएगा?

प्रश्नकर्ता: इन्हीं लोगों से।

आचार्य प्रशांत: पैसा आना है जो विज्ञापन देता है उससे। अब जो विज्ञापन देता है इसीलिए देता है न कि विज्ञापन देखा जाए, तभी तो उसका माल बिकेगा। तो वो विज्ञापन कब देखा जाएगा? जब कोई पहले फेसबुक पर टाइम बिता रहा होगा। तभी तो विज्ञापन देखेगा, फेसबुक या इन्स्टाग्राम या जो भी उनकी और प्रॉपर्टीज हैं। तभी तो वो विज्ञापन देखेगा। अब आप कैसे हो? मैं कैसा हूँ? पूरी दुनिया कैसी है? हम किस चीज़ पर सबसे ज़्यादा समय बिताते हैं? गंदगी पर। न जाने कितने होंगे अभी बारह बजने के आसपास हो रहा होगा तो झूम-झूमकर गिर रहे होंगे। अभी कहीं पर नाचने-गाने की जगह गए होते तो झूमकर थोड़े ही गिर रहे होते नींद में!

अभी ये होता कि अभी तो डांस चल रहा है उसके बाद अभी ज़बरदस्त तरीके का डिनर होगा भोकाली! तो थोड़े ही सो रहे होते। गंदगी पर हम सबसे ज़्यादा समय बिताते हैं न? हमारा चित्त ही ऐसा है भाई! जंगली लोग हैं। जैसे हम कहते हैं अभी-अभी तो जंगल से निकले हैं। तो गंदगी चाटने में सबसे आगे रहते हैं। तो विज्ञापन दाता ये चाहता है कि और ज़्यादा गंदगी पोस्ट हो तो सारे एल्गोरिदम फिर होते ही ऐसे हैं जो गंदगी को ही फेवर करते हैं। और इसमें कोई एक मार्क ज़ुकरबर्ग या कोई भी आप और ले लीजिए वो आदमी ज़िम्मेदार नहीं है। इसमें सब ज़िम्मेदार हैं क्योंकि कॉर्पोरेट पैराडाइम ही यही है कि भाई!

कंपनी बनाई इसीलिए है कि इन्वेस्टर को पैसा मिलना चाहिए, आरओआई मिलना चाहिए, है न? तो फिर जो एल्गोरिदम्स होते हैं इनके, ये खुद गंदगी को बढ़ावा देते हैं। आप क्या सोच रहे हो वो इनफ्लुएंसर है, उसके इतने मिलियन हो गए हैं वो ऐसे ही हो गए हैं? नहीं! उसको बढ़ावा दिया गया है, वो कुछ नहीं होता वरना। वो जो हो गया है दस-बीस जितने भी मिलियन हो गया है। वो अपने कंटेंट की पैदाइश नहीं है वो एल्गोरिदम की पैदाइश है और एल्गोरिद्म लिखा ही गया है गंदगी को बढ़ाने के लिए। आप सोचते हो कितना बढ़िया आदमी है इसको इतने लोग फॉलो करते हैं। हमसे पूछो न कि सच्चाई को फॉलो करवाना कितना मुश्किल होता है। और गंदगी को फॉलो करवाना कितना आसान होता है वो भी हम रोज़ देखते हैं।

समझ में आ रही हैं बात?

तो ऐसा नहीं है कि हमारे पास टूल्स-टेकनीक्स नहीं हैं या टेक्नोलॉजी नहीं है, मेथड नहीं है कि हम यूज़र को आइडेंटिफ़ाई कर सकें, या गंदगी को रोक सकें। हम उसे रोकना चाहते ही नहीं हैं। क्योंकि अगर रोक दिया तो आरओआई कहाँ से आएगा। कहाँ से आएगा? अगर गंदगी हैं तो आप विडियो पूरा देखोगे, विडियो पुरा देखोगे तो पाँच बार ऐड देखोगे, पाँच बार ऐड देखोगे तो जो ऐडवरटाईज़र है वो आपको और ऐड्स देगा तो आपकी रेवेन्यू बढ़ेगी, रेवेन्यू बढ़ेगी तो आपका जो स्टेक होल्डर है उसको आरओआई मिलेगा।

अब यही बिल्कुल एकदम सात्विक बातें होने लग जाएँ, आध्यात्मिक बातें होने लग जाएँ, और ऐसी बातें होने लग जाएँ जो अहंकार पर चोट करती हैं वो तो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ही खत्म हो जाएगा।

समझ में आ रही है बात ये?

इस पर भी रेगुलेशन चाहिए हमको, और जो सोशल मीडिया कंपनी ये रेगुलेशन न करे उस पर फिर कार्यवाही होनी चाहिए। पर ये सब कैसे होगा? ये सब तब होगा जब पॉलिटिकल विल होगी ये सब करने की। और पॉलिटिकल विल कब होगी? जब वो पॉलिटिशियन ऐसा इलेक्ट हुआ है जो ये सब करना चाहे। ऐसे पॉलिटिशियन को इलेक्ट कौन करेगा? आप और हम। तो पहले सुधार किसमें चाहिए? आपमें और हम में चाहिए। जब हम सही होंगे तो हमको पता होगा कि हमको वोट किसको देना है, फिर वो जो व्यक्ति आएगा सत्ता में वो फिर सारे नए सही तरीके की नीतियाँ बनाएगा। अभी तो सब चोर-चोर मौसेरे भाई हैं। सबका इसी में हित है कि सब एक-दूसरे को बेवकूफ़ बनाते रहें।

कुछ भी संयोगवश नहीं हो रहा है, अगर गंदगी फैल रही है, टॉक्सिसिटी फैल रही है, बच्चे बर्बाद हो रहे हैं, मिस इंफॉर्मेशन फैल रही है, जनता का मानसिक स्तर गिर रहा है, लोग बेवकूफ़ होते जा रहे हैं और ज़्यादा, वो सबकुछ एक तरह की प्लांड कॉन्सपिरेसी (सुनियोजित षड्यंत्र) है। उसको तोड़ा कहाँ पर जा सकता है? उसको तोड़ा सिर्फ़ ग्रासरूट पर जा सकता है। वही काम आपकी संस्था करने की कोशिश कर रही है कि आम आदमी को जागृत करो, सिर्फ़ उसी तरीके से काम बन सकता है। पर आम आदमी को जागृत कैसे करें आम आदमी तो और सो रहा है अभी? लेकिन ठीक है, अपनी भी ज़िंदगी सार्थक रहेगी। तुम्हें जगाने की कोशिश करते-करते एक दिन हम सो जाएँगे। अपनी ज़िंदगी बढ़िया कट गई।

ऐसा मत सोचा करो कि कोई भी समस्या आइसोलेटेड होती है। हर चीज़ के पीछे कारण आध्यात्मिक ही है। जब आदमी की ज़िदगी में कुछ नहीं होता तो आदमी को प्रॉफिट्स चाहिए होते हैं। यही कैपिटलिज़्म है। जो कामना होती है न व्यक्तिगत स्तर पर, वही एग्रीगेट स्तर पर कैपिटलिज़्म कहलाता है। और वही कैपिटलिज़्म फिर इस तरह के एल्गोरिदम्स बनाता है जिससे बहुत नालायक किस्म के इनफ्लुएंसर लोग हीरो बन जाते हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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