सोचिये खूब, पर श्रद्धा में || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

9 min
102 reads
सोचिये खूब, पर श्रद्धा में || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्न: अभी हम लोग कार में आ रहे थे तो उसमें ओशो के वचन चल रहे थे। उसमें उन्होंने कहा कि जब आप कभी ज़्यादा सोचते हो, तो आप कहीं नहीं पहुँच पाते। आप जब भी किसी चीज़ को बहुत ज़्यादा सोचोगे, तो आप किसी भी दिशा में आगे कहीं जा नहीं पाओगे। ऐसा कैसे?

वक्ता: देखो सोचने-सोचने में अंतर है। एक सोचना ये है कि, समझना है यहाँ पर इस बात को। हम यहाँ बैठे हैं, कोई आफत आ गई। मुझे पक्का है कि मेरा कुछ बिगड़ नहीं सकता, लेकिन अब आफत आयी है तो सोचना पड़ेगा कि इसका करना क्या है। पाँच विकल्प हो सकते हैं, थोड़ी जानकारी चाहिये होगी, किसी से बात करनी पड़ सकती है, दो-चार फ़ोन घुमाने पड़ सकते हैं। पर इस पूरी प्रक्रिया में मेरे भीतर ये श्रद्धा पूरी है कि कुछ बिगड़ नहीं सकता। मैं कर तो रहा हूँ, मैं सोच भी रहा हूँ कि अब अगला कर्म क्या होना चाहिए, मैं ये सब कर तो रहा हूँ, लेकिन ये सब करते हुए भी मुझे पता है कि मेरी जीत निश्चित है। एक ये सोचना है। यहाँ आपको ये गहरा से गहरा विश्वास है कि मैं सुरक्षित हूँ, मेरा कुछ बिगड़ नहीं सकता है। एक दूसरा सोचना है। आफ़त आई और मैं पूरा हिल गया। और अब मैं सोच रहा हूँ कि मेरा क्या होगा, कि मुझे कौन बचायेगा।

सोचने-सोचने में अंतर है। केंद्र पर स्थित रहकर सोचा जाता है, वो एक सोचना है। उस सोचने में कोई तनाव नहीं है। तुम श्रद्धा में बैठे हो, फिर सोच रहे हो। आश्वस्ति पूरी है, पहले से ही है। दूसरा सोचना श्रद्धाहीन सोचना है ।

श्रोता १: फ़िक्र है।

वक्ता: नहीं ‘फ़िक्र’ तो बहुत अच्छा शब्द है। ‘फ़िक्र’ तो सूफ़ी शब्द है।

श्रोता २: जैसे आम बोलचाल में लोग जिसको इस्तेमाल करते हैं।

श्रोता ३: चिंता।

वक्ता: वैसे तो चिंता भी नहीं। ‘चिन्तन’ भी अच्छा ही शब्द है। दोनों के लिए शब्द एक ही है। अब चिंतन वैसे तो बहुत अच्छा शब्द है लेकिन जब वो आम बोलचाल में चिंता के रूप में इस्तेमाल होता है तो बहुत गड़बड़ हो जाता है। फिर उसी को कबीर बोलते हैं चिंता, चिता में सिर्फ बिंदु का भेद है, चिंता-चिता एक हैं। सोचने में कोई बुराई नहीं है पर कौन सा मन सोच रहा है, यह महत्वपूर्ण है। असल में दिक्कत वही आती है न कि अभी जैसे किसी ने बोला न कि भक्ति, ज्ञान की माता है। माँ से शुरू करना पड़ेगा ना बच्चे तक जाने के लिए। कोई भी पढ़ाई, कोई भी शिक्षा जब तक श्रद्धा से शुरू नहीं होगी, तो वो गलत प्रभाव दिखाएगी ही दिखाएगी। हमारी जो आमतौर की शिक्षा व्यवस्था है, वो तो ये करती ही करती है कि उसमें श्रद्धा के लिए कोई जगह ही नहीं है । श्रद्धा को ऐसा मान लिया जाता है कि ये तो अन्धविश्वास है। अगर तुम बड़े बुद्धिमान बुद्ध पुरुषों को भी देखो तो उन्होंने ये किया है। वो बार-बार विचार की बात करेंगे कि विचार में ये बुराई है, वो बुराई है। विचार में क्या बुराई है? मन होने का एक अनिवार्य गुण है, विचार। मन की शक्ति है विचार। उसमें कोई बुराई नहीं है। पर लोग उसको कहेंगे कि विचार तुम्हारा शत्रु है, विचार एक समस्या है।

‘विचार’ कोई समस्या नहीं हैं। ‘श्रद्धाहीन विचार’ समस्या हैं।

बात को समझिये अभी, जहाँ जा रही है उधर देखिये। फिर जब ये पढ़ लिया जाता है ना कि विचार समस्या है, फिर छात्र इस तरह के सवाल उठाता है कि सर निर्विचार कैसे हो जाएँ, निर्विचार तो हो नहीं सकते। और फिर बड़ी दिक्कत आती है इनका जवाब देने में। तुमसे कह कौन रहा है कि तुम निर्विचार हो जाओ? विचार-शून्यता। क्यों हो जाएं विचार-शून्य? ये पक्का है कि जो मन श्रद्धावान है, उसे विचार की कम से कम आवश्यकता पड़ेगी। उसमें विचार उठेगा और उठ कर विलीन हो जायेगा। और जो श्रद्धाहीन मन होगा वो विचार में चक्कर काटता रहेगा। पर ये सब बातें कि विचार तुम्हारा शत्रु है, और इस तरह की बातें, ये बेहूदा बातें हैं, बेकार की बातें हैं। ये भी विचार ही है कि विचार तुम्हारा शत्रु है,ये बेकार की बातें हैं। आप बेशक सोचिये, सोचना कर्म है। हम बार-बार बोलते हैं ना आचरण नहीं अंतस। सोचना आचरण है, सोचना भी एक कर्म है। अंतस पर ध्यान दीजिये। अंतस का अर्थ हुआ- कौन सा मन है जो सोच रहा है? सोचने-सोचने में ज़मीन आसमान का अंतर है। कौन-सा मन है जो सोच रहा है? कौन-सा मन है जो सोच रहा है? वो जो आसन पर आरूढ़ है या वो जो लहरों पर ऐसे ही न इधर का है और न उधर का है, कहीं का नहीं है। जिसका कोई ठौर ठिकाना, जिसका कोई केंद्र नहीं है। कौन सा मन है? जिस मन का केंद्र होगा, वो मन सोचेगा तो शुभ ही सोचेगा। उसको कोई दिक्कत नहीं है। कोई बुराई नहीं है उसमें।

श्रोता २: सर ज्ञानी मन की बात हो रही है इसमें ?

वक्ता: मैं ‘ज्ञानी’ नहीं कहना चाहता। मैं उसको श्रद्धालु ही कह रहा हूँ। मैं जोर देकर कह रहा हूँ, ‘श्रद्धावान’ ।’ज्ञान’ शब्द भी शुरू करने के लिए ठीक है, आगे बहुत अच्छा नहीं है। ज्ञान में कहीं से भी समर्पण की बात नहीं आती है। तो वो शुरू करने के लिए ठीक है, लेकिन आगे के लिए बहुत अच्छा नहीं है। ये बहुत बढ़िया निकाला है, “भक्ति, ज्ञान की माता है”। फिर से कह रहा हूँ, पहला पाठ जो किसी को भी पढ़ाया जाना चाहिये, वो है श्रद्धा। तुम्हें अभी ज्ञान मिल रहा है। पर क्या तुम्हें ज्ञान मिल सकता है यदि तुम्हारी मुझमें श्रद्धा ही ना हो। पहले क्या आया है?

श्रोता(सभी एक स्वर में): श्रद्धा।

वक्ता: पहले तुम्हारा मुझ पर, अभी श्रद्धा नहीं कहूँगा उसे मैं, उसे सिर्फ विश्वास कह रहा हूँ। पर पहले क्या आया है? एक विश्वास तो तुम्हारा है ही मेरे ऊपर, और अगर मुझ पर तुम उतना विश्वास नहीं कर रहे तो तुम्हें क्या ज्ञान मिल सकता है? तो पहले क्या होना चाहिये? मुझे अगर तुम्हें कुछ देना है, तो मैं सीधे ज्ञान दे दूँ या पहले मैं तुम्हारा अपने में विश्वास जगाऊँ?

श्रोता(एक स्वर में): विश्वास।

वक्ता: और अगर मैंने कुछ ऐसा किया ही नहीं है कि तुम मुझ में विश्वास कर सको और मैं तुम्हें ज्ञान बाँटना शुरू कर दूँ तो उस ज्ञान का क्या हश्र होगा? कुछ भी हो सकता है न। अब इसमें आपके लिए शिक्षक होने के नाते क्या सीख है?

श्रोता( एक स्वर में): अंतस को बदलना पड़ेगा।

वक्ता: आप जब अपने छात्रों से मिल रहे हो, और आप देखना चाहते हो कि बात कहाँ तक आगे बढ़ रही है, तो ये मत देखो कि आपका छात्र आपसे बौद्धिक स्तर पर कितना मेल खाता है। और कई बार यह बात बड़ा भ्रमित कर देती है कि आप जो-जो बोलते हो, उसको अच्छा लगता है और वो भी आपकी भाषा बोलने लग गया है। नहीं वो नहीं। भक्ति ज्ञान की माता है। ये देखो कि क्या वो तुम पर विश्वास करता है? अगर विश्वास करता है, तो ज्ञान सहज हो जायेगा। यदि विश्वास करता है तो ज्ञान फिर बहुत दूर नहीं है। बात आ रही है समझ में ?

याद रखना विश्वास हो, चाहे श्रद्धा हो, चाहे प्रेम हो, चाहे भक्ति हो, सब एक हैं। इन सब में बात प्रेम की है। बात प्रेम की है। छात्र अगर तुमसे नफ़रत ही करने लग गया तो तुम्हारा दिया कोई ज्ञान उस तक नहीं पहुँचेगा। ये स्थिति मत आने दो कि वो तुम से चिढ़े, तुम से नफ़रत करे। एक बार उसको नफ़रत हो गई, अब तुम देते रहो ज्ञान उस तक पहुँचेगा ही नहीं। भक्ति ज्ञान की माता है। पहले भक्ति आनी चाहिए। भक्ति से मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि तुम्हारे पांव दबाने लगे। मैं कह रहा हूँ एक छोटा-मोटा विश्वास तो आये उसमें।

हम ये दिक्कत कर देते हैं ना। हम कहते हैं कि तू चाहे जो सोच रहा हो मेरे बारे में। और ये दिक्कत अब क्या कहूँ जे.कृष्णमूर्ती ने भी बहुत बार की है। उनसे पूछा गया कि आप बोलते रहते हो, क्याआप ये देखते हो कि श्रोताओं पर क्या असर हो रहा है। बोलते हैं कि मैं फूल ले कर आता हूँ और मैं फूल दे देता हूँ अपने श्रोताओं को। मैं तो फूल बाँट रहा हूँ, अब ये तुम्हारे ऊपर है कि तुम उस फूल को तोड़ देते हो, मरोड़ देते हो, पांव के नीचे दबा देते हो कि क्या कर देते हो। उन्होंने ये बात जहाँ से कही है, ये वही जानते हैं लेकिन हम जब इस बात को पढ़ते हैं तो ये हमारे लिए बड़ी घातक हो जाती है। हम कहते हैं, ‘मैंने जा कर छात्रों से सच बयान कर दिया, अब वो सुनें, ना सुनें उनकी मर्ज़ी। ये तरीका नहीं चलेगा। श्रद्धा के बिना कुछ नहीं होगा|

-‘ज्ञान सेशन’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories