प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, अभी मैं इस शिविर में एक वालंटियर (स्वयंसेवक) के तौर पर काम कर रहा हूँ। तो मैं ये देख पा रहा हूँ कि जितनी ऊर्जा और उत्साह के साथ मैं यहाँ काम कर पा रहा हूँ, उतनी ऊर्जा और उत्साह के साथ मैं अपने साधारण कामों को नहीं कर पाता, मतलब यदि मुझे यहाँ पूरी नींद भी नहीं मिल पा रही, तो मुझे फ़र्क नहीं पड़ रहा, लेकिन जब वही ऊर्जा मैं दूसरे कामों में लगाना चाहता हूँ, तो मैं बहुत जल्दी थक जाता हूँ और इतना तल्लीन होकर काम नहीं कर पाता, इसका क्या कारण है? कृपया स्पष्ट करें।
आचार्य प्रशांत: देखो, ऊर्जा हम सबके पास बहुत सारी होती है, लेकिन हमें वो उपलब्ध उतनी ही होती है जितनी उसकी ज़रूरत होती है, समझ रहे हो?
घरों में चार बर्नर वाले चूल्हे होते हैं न आजकल, होते हैं कि नहीं? तो चारों होते हैं उपलब्ध और आपको करना कुल इतना है कि थोड़ा सा पानी उबालना है, थोड़ा सा। ठंड बहुत है, तो आपको लग रहा है कि पीने से पहले पानी थोड़ा सा गरम कर लें, तो कितने बर्नर जला देते हो? तो ऐसे ही समझ लो जैसे भीतर चार इंजन हों, लेकिन उनमें से फ़ायर उतने ही करेंगे जितनों की ज़रूरत होती है।
जितना बड़ा काम उठाओगे न, भीतर ऊर्जा उतनी ही खुलेगी। जब काम बड़ा उठाया ही नहीं जीवन में तो छोटी-मोटी कम ऊर्जा भी रहती है तो चल जाता है।
उसमें नुक़सान नहीं है कि छोटे काम के लिए कम ऊर्जा से काम चल गया, नुक़सान ये होता है कि लगातार छोटे ही काम करते जाओ और लगातार कम ऊर्जा से ही काम चलाते जाओ, तो एक बिन्दु के बाद ख़ुद को ही ऐसा लगने लगता है जैसे हमारे पास तो बस इतनी ही ऊर्जा है।
हमें भरोसा आ जाता है कि हम इससे बड़ा कुछ कर ही नहीं सकते क्योंकि इससे ज़्यादा हमारे पास ऊर्जा है ही नहीं। इतना ही नहीं, फिर कोई अगर बड़ा काम हमारे सामने आ भी जाता है तो हम उसे मना कर देते हैं, ये कहकर कि इतनी तो हमारी सामर्थ्य ही नहीं है। और इसी उदाहरण को और आगे बढ़ा लो तो ऐसा भी हो सकता है कि एक ही बर्नर जलाया है अगर दो साल से, बाक़ी तीन कभी जले ही नहीं, तो जो बाक़ी तीन हैं वो क्या हो जाएँगें? वो जाम हो जाएँगे।
फिर अगर कभी अकस्मात् ज़रूरत आ गयी और तुम चाहोगे इनको झट से जला दें, तो जलेंगे भी नहीं। और जब जलेंगे नहीं तो हमें भरोसा और पक्का हो जाएगा कि मेरे पास तो एक ही बर्नर है और मैं ज़िन्दगी में छोटा ही काम कर सकता हूँ।
इसीलिए अपनेआप को चुनौतियाँ देना ज़रूरी होता है। अपनेआप को चुनौतियाँ दोगे, तो ही भीतर ऊर्जा के जो बन्द डब्बे पड़े हुए हैं, वो खुलेंगे। जैसे भीतर कई कमरे हों और उनके दरवाज़े बन्द हैं, और उन कमरों के भीतर क्या है? बहुत सारी ऊर्जा है और बहुत सारी सम्भावना है। पर वो दरवाज़े खुलते इसी शर्त पर हैं कि पहले दिखाओ कि क्या वाक़ई ज़रूरत है। ज़रूरत होती है तो वो दरवाज़े खुलते हैं।
मैं जो ये बार-बार बोलता रहता हूँ कि जीवन में ऊँचा और बड़ा लक्ष्य उठाओ। वो इसलिए नहीं बोलता हूँ कि बाहर कोई बहुत ज़रूरी और बड़ा काम है और उसको करना आवश्यक है, तो करके दिखाओ नहीं तो काम अधूरा रह जाएगा। मैं बाहर के बड़े लक्ष्य की बात इसीलिए करता हूँ क्योंकि बाहर का बड़ा लक्ष्य उठाओगे तो भीतर से बड़े हो जाओगे।
जो बाहर चुनौती उठाता है, वो भीतर से कुछ बन जाता है।
नहीं तो बाहर की दुनिया तो कौनसा बहुत महत्व रखती है, जीना तो हमें अपने साथ है न? आप जाते हो कसरत करने, आप लोहा उठाते हो, आपको लोहे से कोई दुश्मनी है? आप कुछ लोहे के साथ नया निर्माण कर देते हो? आप लोहे को पचास बार उठाते हो, पचास बार नीचे रखते हो, यही तो करते हो कसरत के नाम पर; उठाया, रखा। तो लोहा बदल गया उससे? जिम में कोई नवनिर्माण हो जाता है?
अभी तुमने कसरत करी है, लोहे का आकार बदल जाता है, लोहा सोना हो जाता है कुछ भी हो जाता है? लोहे के साथ तो कुछ भी नहीं किया, पर लोहे के साथ जो किया उससे अपने साथ बहुत कुछ कर लिया। लोहा नहीं बदला, आप बदल गये।
लोहा बदलता है? लोहा नहीं बदला लेकिन लोहे के साथ जो कुश्ती करी उसने आपको बदल दिया। तो ये तर्क मत देना अपनेआप को कि अभी ढूँढ रहे हैं कौनसा काम करना है, ये है, वो है, या कि फ़लाना काम कर लिया तो मुझे क्या हासिल होगा, या ये काम तो जो बाहर वाला है, उससे मैं बहुत उलझ भी लूँ तो भी बहुत आगे जा नहीं सकते क्योंकि बहुत बड़ा काम है।
काम की बात नहीं है, आपकी बात है। और वेदान्त में मूल प्रश्न क्या होता है? “मैं कौन हूँ, मेरी समस्याओं का अन्त कैसे होगा?” रोज़ एक पहाड़ पर कुछ दूर चढ़ो, कुछ दूर उतरो, दौड़ो, ऊपर जाओ थोड़ा, फिर थोड़ा नीचे आ जाओ, उससे उस पहाड़ का कुछ बन जाएगा या बिगड़ जाएगा? पहाड़ जैसा है वैसा रहेगा।
तो ये तर्क मत दे देना कि अरे, इतने बड़े पहाड़ के सामने मैं तो बहुत छोटा हूँ! इतना बड़ा पहाड़ है मैं तो बहुत छोटा हूँ, मैं कभी भी इसके शिखर तक पहुँच ही नहीं सकता! बात पहाड़ के शिखर पर पहुँचने की है ही नहीं। इसीलिए मैं बार-बार कहता हूँ कि काम वो उठाओ जो ज़िन्दगी भर पूरा न हो, अनन्त होना चाहिए काम।
बात ये नहीं है कि पहाड़ के शिखर पर पहुँच गये और काम पूरा कर लिया, बात ये है कि शिखर तक पहुँचने की चेष्टा में तुम क्या बन गये, तुम क्या बन गये?
अँग्रेज़ी की कविता है एक, ‘इथाका’; उस पर बोला भी है मैंने अँग्रेजी में ही। बड़ी सुन्दर कविता है! जिसमें जवान लोगों को सम्बोधित करके कवि कहता है कि इथाका नाम का एक द्वीप है, या इथाका नाम की बहुत दूर की एक नगरी है, और कहते हैं कि वहाँ बड़ी सम्पदा है, बड़ा सौन्दर्य है, ऐसा है, वैसा है।
और इथाका को लेकर बड़ी कहानियाँ प्रचलित हैं कि जब तुम इथाका की ओर जाओगे तो तुमको रास्ते में फ़लाने तरह के दैत्य मिलेंगे और जानवर मिलेंगे और तुम्हें उनका मुकाबला करना है, वही जैसे मिथक होते हैं न। कि एक बड़ी सुन्दर नगरी है जिसमें स्वर्ण का अकूत भंडार है और वहाँ एक राजकुमारी भी है और इस तरह की बातें – और अगर तुम्हें वहाँ तक पहुँचना है तो तुम्हें बहुत सारी आपदाओं को पार करना पड़ेगा। इस तरह कहानियाँ पढ़ी हैं न बचपन में? तो ऐसे ही ‘इथाका’ है एक।
और कविता में कहा जा रहा है सब जवान लोगों से कि इथाका की ओर ज़रूर बढ़ो, ज़रूर बढ़ो, ज़रूर बढ़ो! बढ़ो इथाका की ओर! और कविता के अन्त तक आते-आते कहा जाता है कि अगर खूब मेहनत कर लो इथाका तक पहुँचने में और इथाका तक पहुँच ना पाओ, या इथाका जाकर पता चले कि यहाँ तो वैसा कुछ भी नहीं है जिसकी बात की गयी थी और जिसके गीत गाये गये थे, तो ये मत समझना कि तुम्हें धोखा हो गया। तुम्हें धोखा नहीं हो गया, इथाका में भले ही तुम्हें कुछ नहीं मिला, लेकिन इथाका तक पहुँचने के प्रयत्न ने तुम्हें इंसान बना दिया और यही इथाका का उद्देश्य है।
इथाका ने तुम्हें धोखा नहीं दिया, इथाका ने तुम्हें निराश नहीं किया। इथाका झूठ नहीं है, भले ही उसके बारे में तुमने जो कुछ भी सुना हो वो अन्ततः झूठ निकले, लेकिन फिर भी इथाका झूठ नहीं है क्योंकि बात ये नहीं है कि तुम इथाका तक पहुँचे या नहीं, बात ये है कि उस संघर्ष ने तुम्हें क्या बना दिया। वो संघर्ष ज़रूरी है। क्योंकि बात बाहर कुछ प्राप्त करने की नहीं है, बात भीतर कुछ बन जाने की है, समझ रहे हैं?
प्र: आचार्य जी, इसी के सन्दर्भ में अगर पूछूँ कि जैसे सत्य की तरफ़ हम अग्रसर होते हैं, या बड़े लक्ष्य की तरफ़ अग्रसर होते हैं, तो एक डर सा रहता है जैसे कि ख़त्म हो जाएँगें, या हस्ती मिट जाएगी, तो वो क्या अहंकार या माया की ही चाल है?
आचार्य: हम अपनी चापलूसी कर रहे हैं अपनेआप को ये बोलकर कि हम मिट जाऍंगे। मिटना बड़भागियों का काम होता है, मिटना सूरमाओं का काम होता है। हमने अभी ऐसा करा क्या है कि हम मिट जाएँगे? मिटना तो ऊँचे-से-ऊँचा सम्मान होता है। मिटना ऐसे होता है जैसे आपको भारत रत्न मिल गया हो, या परमवीर चक्र मिल गया हो। मैं कहूँ, ‘आज मुझे न रात में सपना आया था और मुझे बड़ा डर लग रहा है कि मुझे परमवीर चक्र मिलने वाला है।’
भाई तुमने ऐसा करा क्या है कि तुम्हें परमवीर चक्र मिलने वाला है? तुम तो ख़ुद को फ्लैटर (चापलूसी) कर रहे हो बस ये बोलकर कि अरे, कहीं मुझे परमवीर चक्र न मिल जाए! तुम्हें क्यों मिल जाएगा? एक उपनिषद् पढ़ लिया तो मिट जाओगे, इतना आसान है मिट जाना? इतना आसान है?
इतना आसान होता मिट जाना तो मैं तो पाँच-सौ दफ़े मिट चुका होता। हम ऐसे कह रहे हैं जैसे मुक्ति बिलकुल प्यासी बैठी है हमारे लिए। हम मुक्ति के प्यासे हों न हों, मुक्ति हमारे लिए प्यासी है। कुछ डायन टाइप (की तरह) है और वो डंडा लेकर हमारा पीछा कर रही है और कभी भी हमें पकड़ सकती है।
‘अरे, कहीं मुक्ति न मिल जाए! सतर्क रहना कहीं मुक्ति आकर तुम्हें मिटा न दे!’ ऐसे नहीं मिल जाती, जब पूरी ज़िन्दगी भी दे देते हो तो भी नहीं मिलती। आपको क्यों लग रहा है आप मिट जाओगे? मिटने के लिए अथक प्रयत्न कर ले व्यक्ति तो भी नहीं मिटता, आप मिट कैसे जाओगे? हँसी खेल है कि मिट जाओगे?
पर ये अहंकार की चाल है अपनेआप को बताने के लिए कि मैं तो कुछ हूँ, मैं तो कुछ हूँ। जैसे कोई भिखारी अपने दरवाज़े पर इतना मोटा ताला (दोनों हाथों को फैलाकर इशारा करते हुए) देता हो। ‘कहीं लुट न जाऊँ!’ और ये तब है जब दरवाज़े में एक ही पल्ला है और खिड़कियाँ नदारद हैं। पर उसको भयानक डर लगता है, पसीने-पसीने हो जाता है, टाँगें काँपने लगती हैं। मनोचिकित्सक के चक्कर लगाता है भीख माँगकर! ‘मुझे बहुत डर है, कहीं कोई आकर के मेरी सारी सम्पदा लूट न ले!’
तुम्हारे पास है क्या अभी? क्या है? लेकिन यदि इस डर को प्रश्रय देते रहे कि कहीं मैं मिट न जाऊँ, तो मिटने की वास्तविक दिशा में एक क़दम भी नहीं बढ़ाओगे, एक क़दम भी नहीं।
हमने अपनेआप को बता दिया है कि हम कुछ हैं और मुक्ति के निशाने पर हैं हम। ये स्वयं को बहुत सम्मान दे देने वाली बात है न? ‘मैं इतनी बड़ी चीज़ हूँ कि मुक्ति की रेड लिस्ट में मेरा नाम आ गया है, हिट लिस्ट में मैं तीसरे नम्बर पर हूँ, ऊपर से तीसरा स्थान है मेरा और जल्दी ही वो मुझे मिटाने के लिए आ जाएगी।’ (आचार्य जी व्यंग्य करते हुए)
हम कहीं नहीं हैं, हमारा नम्बर कहीं नहीं लगता, वी डोंट काउंट (हम गिनती में नहीं हैं), ये बात हमें नहीं समझ में आती। कोई नहीं आतुर है आपको मिटाने के लिए, संसार बना है आपको बनाये रखने के लिए।
मैंने कहा मिटना बड़भागियों का काम है, बड़ा भारी सौभाग्य चाहिए, बड़ी ऊर्जा चाहिए, बहुत श्रम चाहिए और ये सब कर लो तो उसके बाद भी अज्ञात की बड़ी अनुकम्पा चाहिए, तब जाकर के मिटने का काम थोड़ा-बहुत होता है। और बहुत ज़ोर देकर आपसे इसीलिए कह रहा हूँ क्योंकि ये बात आपकी नहीं है, यहाँ बैठे बहुत लोगों की है।
कइयों के इस तरह के अनुभव हुए हैं कि ये सब हम जाते हैं तो ऐसा सा लगता है जैसे कुछ छिना जा रहा है। वही दरवाज़े का एक पल्ला है नहीं और कुछ छिना जा रहा है। क्या छिन रहा है? क्या लिए हो कि छिनेगा?
मार्क्स ने दुनिया भर के किसानों, मजदूरों को सम्बोधित कर के कहा था, ‘यू हैव नथिंग टू लूज़ बट योर चेन्स’ (आपके पास खोने के लिए कुछ नहीं बस बेड़ियाँ हैं)। वो अध्यात्म की बात नहीं थी पर अध्यात्म पर भी पूरी तरह लागू होती है।
आपके पास अपनी बेड़ियों के अतिरिक्त खोने के लिए है क्या? पर यहाँ बहुतों को ये डर है, ‘कहीं कुछ खो न जाए, कहीं कोई हमें लूट न ले! साजिश! ज़रूर कहीं कोई साजिश कर रहा है। ये आचार्य शंकर आदमी ठीक था क्या? कोई माफ़िया टाइप तो नहीं था? कहीं लम्बा-चौड़ा कार्यक्रम चलाया हो हम लोगों को लूटने के लिये। विवेकचूड़ामणि! दया (भारत का एक प्रसिद्ध दूरदर्शन कलाकार जिसका चरित्र एक जासूस का था) ज़रा पता लगाओ! मामला क्या है। ज़रूर कोई खुफ़िया राज़ है, मैं हूँ बादशाह आदमी और ये जो पूरी किताब लिखी गयी है, वो मुझे ही लूटने के लिए लिखी गयी है।’
हमें नहीं पता न हम कितने पानी में हैं? हमने कहा था, हमें दो चीज़ें पता होनी चाहिए अपने बारे में। क्या, क्या? अपनी?
श्रोतागण: औक़ात।
आचार्य: और अपनी?
श्रोतागण: सम्भावना।
आचार्य: इनमें भी पहले क्या आता है?
श्रोतागण: औक़ात।
आचार्य: कुछ नहीं पता, एकदम नहीं पता। ऋषि लोग हम पर अनुग्रह करते हैं कि हमें कुछ बताते हैं, तो हमें लगता है कि षड्यंत्र किया जा रहा है, हमें भ्रमित किया जा रहा है, ‘ये मिसलीड (गुमराह) तो नहीं कर रहे हमको, बरगला तो नहीं रहे कहीं? मुझे लग रहा है हमारी जायदाद पर नज़र है इनकी।’
वैसे कइयों का रवैया रहता है, ‘हाँ, हम सोचेंगे, सोचेंगे! हाँ, उन्होंने कह दिया, कुछ हम देखेंगे। जैसे आप न्यायाधीश हों और सामने आकर वकीलों ने और गवाहों ने आपके सामने कुछ दलीलें रखी हों और आप बड़ी शान से कह रहे हों, ‘हाँ, विचार करेंगे, अभी दो महीने बाद की तारीख़ दे रहे हैं तब तक।’
जैसे कि वो अपने स्वार्थ के लिए आपसे ये (निर्वाण षटकम्) बोलते हों, और आप कह रहे हों, ‘ठीक है रख दो, हम देखेंगे कि हमें तुम्हें राहत देनी है या नहीं। हम देखेंगे कि तुम्हें ज़मानत देनी है या नहीं। हम कुछ हैं!’
(आचार्य जी निर्वाण षटकम् की प्रति दिखाते हुए) ये उपहार है, ये भेंट है, ये कृपा के फूल हैं। हम किस ताव में खड़े हैं?
जो एक शब्द है न प्रेम, उसकी बड़ी कमी है। प्रेम हमारे लिए भावना मात्र है। कोई भावुक कर दे किसी तरीक़े से, शारीरिक, मानसिक तरीक़े से तो उसको हम प्रेम मान लेते हैं। हमें नहीं समझ में आता कि प्रेम इसको (निर्वाण षटकम्) कहते हैं। ये जब सामने आता है तो हमारा चेहरा पत्थर की तरह रहता है बिलकुल कठोर, संवेदना शून्य।
इतना सा भी हमें आभास नहीं होता कि कोई क्यों इतनी मेहनत करेगा तुम्हारे लिए, न तुम्हें जानता न पहचानता, तुमसे शताब्दियों दूर का कोई। प्रेम हमारे लिए तब है जब कोई हमें चाय बनाकर दे दे, गले लग जाए, हमारे साथ बैठकर के यूँही गॉसिप (गपशप) करे, ये सब हमारे लिए, ये अच्छी चीज़ें हैं, बढ़िया है। ये (निर्वाण षटकम्) हमें नहीं दिखाई देता कि प्रेम है।