सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि । प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ।।३.३३।।
ज्ञानवान व्यक्ति भी अपनी प्रकृति के अनुसार काम करता है, जीव अपने स्वभाव (अर्थात् प्रकृति) का ही अनुसरण करता है। ऐसी स्थिति में उपदेश या शासन-वाक्य (अर्थात् निग्रह), वो भी क्या काम आएगा तुम्हारे?
~ श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय ३, श्लोक ३३)
आचार्य प्रशांत: तो क्या काम आ सकता है? बस यही – ‘युध्यस्व’।
‘सुनने से कुछ नहीं होगा, जानने से कुछ नहीं होगा; जो होगा अर्जुन, अब प्रत्यंचा से और तीर से होगा। वही जीवन है और वही तुम्हारी कृष्ण-निष्ठा का प्रमाण है। बाकी तुमने क्या सुन लिया, क्या जान लिया, उसका दो कौड़ी का मूल्य नहीं है! मुझे तो टंकार सुनाओ, वो है तो सबकुछ है, वो नहीं है तो कुछ नहीं है। तुमने क्या जाना? बहुत तुम ज्ञान से भर गए, पूरी गीता का उपदेश तुमने सोख लिया, लेकिन उसके बाद युद्ध कहाँ है? युद्ध है तो सब है, अन्यथा तुम भी प्रकृति की धारा में वैसे ही बह रहे हो जैसे सब अन्य जीव-जंतु बह रहे हैं।‘
ज्ञान भी अगर बस मस्तिष्क ने ही सोखा है, तो वो भी बस एक शारीरिक चीज़ ही हो गया न? स्मृति बन गया, और क्या हुआ? जीवन तो बना नहीं, क्या बन गया? स्मृति बन गया। अगर स्मृति बन गया तो शरीर का हिस्सा बन गया, तो अब प्रकृति-मात्र है फिर। ज्ञान भी प्राकृतिक हो गया, ज्ञान भी फिर आपको प्रकृति से मुक्ति नहीं दिला रहा, प्रकृति का हिस्सा बन गया है। हाँ, अगर अपने ममत्व के खिलाफ़ गांडीव पर तीर चढ़ा सकते हो तो अब सिद्ध होता है कि प्रकृति के पार गए। ये बात प्रकृति की नहीं है, प्रकृति ने ये तुम्हें नहीं सिखाया होता। अपने ही ममत्व पर तीर चलाना प्रकृति नहीं सिखाती, ये ज़रा तुम आगे निकले। वरना तो बाकी सब ऐसे ही है – ज्ञान के नाम पर मन बहलाव।
स्पष्ट हो रही है बात?