प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी! पिछले एक वर्ष से मैं आपको सुन रहा हूँ, सर। और छोटा-सा अतीत है कि एक आम आदमी की तरह जीवन जिया। पढ़ने में ठीक-ठाक था तो समय पर सरकारी नौकरी लग गयी और फिर चलता रहा।
उसके बाद किसी पुस्तक के ज़रिए किसी बाबाजी, गुरुजी के सम्पर्क में आया और देखा कि वो भी जीवन के मुद्दों पर प्रश्नों का समाधान करते हैं, प्रश्न-उत्तर संवाद या शिविर वगैरह। गया तो नहीं पर बहुत सुना यूट्यूब पर। और उनकी बतायी जो शिक्षाएँ हैं उसके हिसाब से अपनी ज़िन्दगी को थोड़ा चलाने भी लगा। प्रेरित भी रहता था तो एक ऊँचे स्तर की सरकारी नौकरी भी लग गयी।
वो भी बोलते थे कि सार्थक कर्म करना है, जीवन ख़राब नहीं जाने देना है। लगता था कि कुछ करना है, कुछ ऐसा करके जाना है जिससे याद रहे लोगों को कि कुछ जीवन ढ़ंग से जिया है। ऐसे सब विचार चलते थे। और फिर समय बीतता गया और फिर शादी कर ली, बच्चा कर लिया।
और फिर मुझे अच्छे से याद है ३० नवंबर २०२० को मैंने आपके एक-दो वीडियो देखे थे— यूपीएससी इंटरव्यू वाला और ‘ब्रह्मचर्य का असली मतलब'। उस दिन मुझे ऐसा लगा जैसे अंदर बहुत भयंकर दुर्घटना हो गयी है, कि ये चल क्या रहा था मेरे दिमाग में पिछले पाँच-छ: सालों से! और एकदम गुमसुम-सा रहने लगा। और रोज़-रोज़, एक-दो महीने, दस-पंद्रह घंटे आपको ही सुनता रहा।
पहले भी नोट्स बनाये, डायरी बनायी। वो सब बंद कर दिये। और आपको ही सुनते जा रहा हूँ, पीछे वाला एकदम बंद कर दिया; सुनता गया, सुनता गया। दो-तीन महीनों में कुछ बातें साफ़ हुईं कि कैसे मैं स्वार्थ के केंद्र से चल रहा हूँ, कि कैसे मैं किसी निर्णय लेने से डर रहा हूँ तो उसके पीछे मेरा स्वार्थ है। इतना ही समझ में आया, ज़्यादा समझ नहीं आया कि कैसे वो कर्म में परिणीत हो।
फिर पाँच-छ: महीनों बाद मन के अंदर एक संशय पैदा हुआ। उस संशय ने मुझे बहुत परेशान कर दिया, सर! न तो संशय छूट रहा है और न मैं आपको सुनना छोड़ पा रहा हूँ। सुनता भी जा रहा हूँ लेकिन वो संशय साथ चलता जा रहा है। पहली बार मैं शिविर में उसी संशय की वजह से आया हूँ।
सर, एक वाक्य है, ‘रोको मत, जाने दो’; अगर इसको ‘रोको, मत जाने दो’ ऐसे बोला जाए और ‘रोको मत, जाने दो’ ऐसे बोला जाए तो पूरा भाव बदल जाता है।
तो संशय मेरा ये है, मैं अपने हर शब्द में माफ़ी के साथ आपसे ये पूछना चाहता हूँ कि बाहरी समस्याओं को जो मन, शरीर के बाहर की समस्याएँ हैं, उन मुद्दों को अगर एक बार छोड़ दें क्योंकि उनके आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं।
मन की जो भीतरी समस्याएँ हैं उनसे सम्बंधित जब हममें से कोई आपसे प्रश्न पूछता है और आप एक उत्तर देते हैं काफ़ी बड़ा; एक तो ये और दूसरा, जो एक श्लोक है जिसका दो-तीन पंक्ति का अर्थ होता है, आप उसकी घंटों-घंटों व्याख्याएँ करते हैं, जैसे अन्य लेखकों ने भी अपनी पुस्तकों में की हैं। तो इन दोनों की प्रामाणिकता क्या है? मैं कौनसी युक्ति से ये जानूँ कि जो आप बोल रहे हैं वो सही ही है।
मैं इस संशय के साथ जी रहा हूँ; कुछ कर भी नहीं पा रहा और सुनना भी नहीं छोड़ पा रहा। कल भजन संध्या में पहली बार जब ये पंक्ति मेरे ऊपर पड़ी कि, “गुरु सों कर ले मेल गँवारा, का सोचत बारम्बारा" मुझे अपनी स्थिति पर बहुत तरस आया, सर!
तो कृपया मेरा मार्गदर्शन करें कि मैं क्या करूँ। और इसी में छोटी-सी धृष्टता ये भी जोड़ूँगा कि कल मैं एकाएक पूछना चाहता था, मैंने पहले बताया नहीं था तो मैं पूछ नहीं पाया। जब मैंने स्वयंसेवियों से चर्चा की तो उन्होंने कहा कि ठीक है, कल आप पूछ लीजिएगा। तो मेरे दिमाग में ये भी आया कि अब जब मैंने बता दिया है कि मैं ये पूछूँगा तो शायद आप तक ये बात पहुँच जाएगी और आप कह देंगे कि इसको सम्भाल लेना।
सर, माफ़ी चाहता हूँ। मेरा मार्गदर्शन कीजिए।
आचार्य प्रशांत: मुझ तक कोई बात नहीं पहुँचती (हँसते हुए)। प्रामाणिकता क्या है? आप ही प्रमाण हैं। आपको लाभ हो रहा है तो यही प्रमाण है। इसके अलावा कोई प्रमाण नहीं होता। इस प्रमाण को आप बहुत प्रकट, प्रत्यक्ष भी मान सकते है या ये प्रमाण आपको और संदेह में भी डाल सकता है। क्योंकि अब प्रमाण आपकी ज़िम्मेदारी है। आपको तय करना है कि आपको प्रमाण मिला है या नहीं मिला है कि मैं जो बात कह रहा हूँ वो बात सही है या उपयोगी है, इसका निर्धारण तो आपको ही करना है।
सुनी-सुनायी आपको बातें मिल सकती हैं, दूसरे लोग गवाही दे सकते हैं, कोई आकर ये कह सकता है कि मैं सबूत के तौर पर खड़ा हूँ, मुझे लाभ हुआ है। लेकिन उससे आपको क्या मिलेगा? आपके लिए तो प्रामाणिकता सिर्फ़ तब है जब आपको लाभ हो।
आपको लाभ हुआ या नहीं हुआ है, ये कोई दूर की चीज़ तो है नहीं। आप अपनेआप से ही पूछ लीजिए, अपने जीवन को देख लीजिए। डर कुछ कम हुआ है? पुराने भ्रम मिटे हैं? दृष्टि साफ़ हुई है? जो चीज़ें पहले आपस में जुड़ी हुई नहीं दिखाई देती थीं उनके अंतर-सम्बन्ध अब दिखते हैं? जिनसे कोई लाभ नहीं हो सकता, उनके प्रति भी कुछ दया, करुणा आगे बढ़ी है? बेवजह किसी को कुछ दे पाते हैं? थोड़ी सहायता कर पाते हैं? ये सब लक्षण होते हैं आध्यात्मिक, आंतरिक उन्नति के।
चित्त में एक सरलता आयी है। अकड़, हठ कुछ कम हुए हैं। थोड़ी विनम्रता बढ़ी है और साथ-ही-साथ, जहाँ नहीं झुकना चाहिए उनके सामने कुछ रीढ़ तनी है? इनके अलावा और क्या सबूत हो सकते हैं? कुछ नहीं।
तो आपको ये अपनेआप से पूछना होगा, मैं इसमें प्रमाण नहीं दे सकता। मैं अधिक-से-अधिक ये बता सकता हूँ कि मैं इनके साथ रहा हूँ तो मुझे क्या लाभ हुआ है। लेकिन मुझे जो लाभ हुआ है वो आपको भी लाभ के रूप में तब्दील हो जाए, वो आवश्यक नहीं। तो आपको स्वयं से पूछना पड़ेगा – ‘कुछ मिल रहा है क्या? कुछ मिल रहा है?'
उसमें दिक्क़त कहाँ आती है ये भी बता देता हूँ। हमारी संस्कृति कुछ इस तरह की है कि हम जब जाते हैं किसी बाबा, गुरु वगैरह के पास तो वहाँ पर नापना, जाँचना, प्रश्न करना, खोज करना, ये सब लगभग धृष्टता माने जाते हैं, एक प्रकार की आध्यात्मिक बत्तमीज़ी। जबकि ये बहुत आवश्यक हैं, क्योंकि वहाँ आपको जो चीज़ आपको मिल रही है वो स्थूल नहीं है, टेंजिबल नहीं है।
कोई आपको स्थूल चीज़ दे रहा हो, मान लीजिए, कोई कह रहा हो—‘मैं आपको एक लीटर पानी दे रहा हूँ’, वो तो वैसे ही नप जाएगा कि एक लीटर पानी है कि नहीं। और पानी कितना शुद्ध है वो भी आप नाप सकते है किसी यंत्र से।
लेकिन जब आपको कोई ऐसी चीज़ मिल रही है जो सूक्ष्म है, तो फिर तो पूरी तरीक़े से दायित्व आपका होता है न, कि आप अपनेआप से, स्वयं से पूछकर नापें कि मुझे क्या मिला है। और ये करने की लगभग मनाही है हमारी संस्कृति में।
हमें ये बोल दिया गया है कि सामने कोई बड़ा बैठा है, ऊँचा बैठा है, सम्माननीय बैठा है, बस झुक जाओ। ज़्यादा बातचीत मत करो, ज़्यादा सवाल-ज़वाब नहीं। और अगर भीतर तुमने कोई संदेह रख लिया तो ये तुमने अपराध कर दिया। ये तुम्हारी कृतघ्नता है, नासमझी है। ऐसे नहीं करते हैं।
बस बाबा जी आसन मारकर बैठे हैं बिलकुल; जाओ, हाथ जोड़ो और दंडवत लेट जाओ उनके सामने। तो उसके कारण ये होता है कि हम ये जाँचना, नापना भूल ही जाते हैं। नापने की जैसे हमारी शक्ति ही खो जाती है कि कुछ हमें मिल भी रहा है या नहीं मिल रहा है। ये प्रश्न – ‘मुझे क्या मिला?' ये प्रश्न ही मिट-सा जाता है, एकदम धुँधला हो जाता है।
अब जब ये प्रश्न नहीं है तो आपको कैसे पता चलेगा कि आपको क्या मिला? जब ये प्रश्न ही आपके लिए प्रासंगिक नहीं रह गया कि ‘मुझे मिल क्या रहा है इसमें?’ तो आपको पता भी कैसे चलेगा कि आपको क्या मिल रहा है।
ये प्रश्न न पूछ करके आप बताने वाले के साथ भी अन्याय कर देते हैं। क्योंकि जब आपको पता ही नहीं होता कि आपको क्या लाभ हुआ तो वास्तव में आपके भीतर से कोई अनुग्रह फिर उठेगा भी नहीं। क्योंकि आप जानना भी नहीं चाह रहे। और जब आपको ये पता नहीं कि अभी आपको लाभ नहीं हुआ, तो आप और ज़्यादा प्रयास करके, जिज्ञासा करके लाभ लेने की कोशिश भी नहीं करेंगे।
आप बस बैठे रहेंगे। आप कहेंगे, ‘ये अच्छी, सुन्दर, पवित्र, पावन जगह है; यहाँ पर अपना चुप-चाप बैठ लो। सामने वाला आ करके मुँह में निवाला दे रहा है, हम उसे गुटकेंगे तक नहीं। हमारा काम है बैठे रहना।' ऐसे नहीं होता। इस प्रक्रिया में आपको बराबर का भागीदार होना होता है।
बोलना मेरी ओर से जितने ध्यान से होता हो उतने ही ध्यान से आपको सुनना भी पड़ेगा। ऊपर-ऊपर से देखेंगे तो लगेगा कि एक पक्ष बोल रहा है और एक पक्ष सुन रहा है लेकिन थोड़ा नीचे जाएँगे तो ये दिखना चाहिए कि दोनों पक्षों के ध्यान की गहराई बराबर की है। क्योंकि जिस तल से मैं कोई चीज़ कह रहा हूँ अगर आप आंतरिक रूप से उस तल पर नहीं हैं तो मेरी बात आप तक पहुँचेगी ही नहीं। दोनों को एक ही तल पर आना पड़ेगा न, तब खेल हो पाएगा।
फुटबॉल का मैदान होता है, उसके दो हॉफ (आधा) होते हैं। होते हैं न? अगर एक हॉफ दूसरे हॉफ से सौ मीटर ऊपर का हो; एक इस तल पर है और एक इस तल पर है (हाथ से संकेत करते हुए)। खेल हो सकता है? हो सकता है क्या? कोई जीते, कोई हारे; लेकिन एक बात तय है कि खेल तभी हो पायेगा जब दोनों हॉफ समान तल पर हों।
जैसे मुझमें जिज्ञासा रहती है कि मैं प्रश्नकर्ता से भी पाँच बार प्रश्न करता हूँ, आपने ग़ौर किया होगा। अब नाम से तो प्रश्नकर्ता उधर बैठे हैं (श्रोताओं की तरफ़ संकेत करके) लेकिन प्रश्नकर्ता जितने प्रश्न करते हैं कई बार उनसे ज़्यादा प्रश्न मैं उनसे कर लेता हूँ। जैसे मैं जिज्ञासा दिखाता हूँ आपको भी तो जिज्ञासा दिखानी होगी न!
आपको पूछना होगा कि अभी भीतर क्या बचा है। कितना मिला, कितना नहीं मिला? नहीं तो दोनों बातें हो सकती हैं – आपको हीरे-मोती मिले तो आपको समझ में ही नहीं आएगा कि आपको हीरे-मोती मिले हैं क्योंकि आप परख ही नहीं रहे आपको क्या मिल रहा है। और ये भी हो सकता है कि आपको कंकड़-पत्थर मिलें और आप उससे भी संतुष्ट हो जाएँ क्योंकि आप परख ही नहीं रहे।
और विशेषकर अगर आप मेरे साथ हैं तब तो आपको आंतरिक रूप से बहुत सजग होना पड़ेगा क्योंकि बहुत सारी बातें जो मैं बोलता हूँ, वो आजतक बोली गयी बातों के बहुत विरुद्ध है। तो मेरी बात का कोई प्रमाण आपको इधर-उधर से मिलेगा ही नहीं। बल्कि जो मैं बोल रहा हूँ उसके विरुद्ध, उसके विपरीत आपको बहुत प्रमाण मिल जाएँगे।
मैं बात सही कह रहा हूँ उसका एकमात्र प्रमाण यही हो सकता है कि वो आपको समझ में आ गयी और आपको लाभ हो गया। और मेरी हालत बहुत लाचारगी की हो जाएगी अगर आप ही उसको समझ नहीं रहे।
आप मेरी स्थिति समझिए। मैं जो बोल रहा हूँ वो बहुत बड़े-बड़े नामों के विपरीत जाती है बात। सारी बातें नहीं, पर कई मूल बातें, केंद्रीय बातें। तो उधर से तो कोई आ नहीं रहा मुझे प्रमाणित करने के लिए कि ये ठीक बोल रहें हैं, बल्कि उधर से यही बात आएगी कि ये ग़लत बोल रहे हैं। उधर से तो प्रमाण अगर आएगा भी तो मुझे दोषी ठहराता हुआ ही आएगा कि आजतक बड़े-बड़े भाष्यकारों ने जो बोल दिया और गुरुओं ने बोल दिया, दार्शनिकों-ज्ञानियों ने बोल दिया, उससे यहाँ कुछ अलग बात बोली जा रही है। तो उधर से तो प्रमाण आयेगा भी तो यही कहेगा प्रमाण कि प्रमाणित किया जाता है कि ये व्यक्ति ग़लत बोल रहा है।
तो अब बताइए मुझे, मुझे कौन सही प्रमाणित कर सकता है? कौन है वो? वो सिर्फ़ आप हैं। आपके अलावा कोई नहीं है जो मेरे प्रमाण के तौर पर खड़ा हो सके। आपको ही एक दिन ऐसा आएगा कि खड़े होकर कहना पड़ेगा कि ये व्यक्ति ग़लत नहीं बोल रहा। हम जानते हैं कि ये ग़लत नहीं बोल रहा क्योंकि हम समझ गये हैं कि ये क्या बोल रहा है। ये बात उसकी नहीं, ये बात हमारी है। हम भी जानते हैं कि बात सही है, हमने उसको जीवन में आज़माया है, उतारा है और सही पाया है।
तो होना तो ये चाहिए कि आप मेरा प्रमाण बनें। उसकी जगह अगर ये नौबत आ गयी कि आप मुझसे ही प्रमाण माँग रहे हैं कि ‘आचार्य जी, बताइए कि हम कैसे मान लें कि आपकी बात ठीक है?’ तो फिर मैं बहुत लाचार हो जाता हूँ।
मेरे पास ख़ुद अपनी बात का कोई प्रमाण नहीं है, मैं क्या प्रमाण बताऊँ। कहाँ से लाऊँ प्रमाण? कहीं और लिखी होती वो बात तो मैं कह देता, ‘देखो, जो बात मैं बोल रहा हूँ वो फ़लानी जगह पर, फ़लाने पेज पर लिखी है तो ये रहा प्रमाण।
कुछ बातें वैसी हैं भी, मैं कुछ बोलूँ, उसके समर्थन में मैं उपनिषदों से कोई श्लोक उद्धृत कर सकता हूँ। ठीक है? पर बहुत सारी ऐसी भी बातें हैं जिनके समर्थन में मैं कहीं से कोई श्लोक नहीं ला पाऊँगा। उसका प्रमाण मैं स्वयं हूँ। और उसका प्रमाण आपको स्वयं बनना पड़ेगा। मुझे पता है क्योंकि मुझे पता है, मैंने जिया है उसको। आपको भी तभी पता चलेगा यदि आप जिएँगे उसको।
पता भी दोनों दिशाओं में चल सकता है, ये भी प्रमाण मिल सकता है आपको कि जो बात थी वो पूरी तरह ग़लत थी। लेकिन वो बात ग़लत है ये भी आपको तभी पता चलेगा जब आप उसे प्रयोग करेंगे। आप उसे प्रयोग कर ही नहीं रहे अगर, आप उसे, ऐसे अगर बैठ गये हैं (हाथ जोड़कर), और लिए जा रहे हैं तो न ही सही का पता चलेगा, न ग़लत का पता चलेगा। बस संशय रहेगा।
संशय मिटाइए और बात को बिलकुल वैज्ञानिक दृष्टि से आज़माइए। जब आप ऐसा करते हैं तभी फिर आपके प्रश्नों में भी गम्भीरता आती है, गहराई आती है। फिर मुझे भी मज़ा आता है। कहता हूँ अब आया न कोई सवाल!
प्र२: प्रणाम, आचार्य जी! कृष्ण हो आप, हम अर्जुनों को तलाशते हैं। दहकते, दहाड़ते योद्धा की माँग करते हैं। कौरव की भाँति हम संग्रामी सारे, निस्तेज सभी, विकारी कुरे। न कोई हथियार, न ही होशियार। रंगीनता में खोये, हर पल अहंकार बरसाये।
आप कृपया योद्धा की पहचान कराएँ।
आचार्य: देखिए, हर क्षण युद्ध है। बस आप ये देख लीजिए कि दो पक्ष कौनसे होते हैं; एकदम साधारण, ज़मीनी तरीक़े से। बैठिए (प्रश्नकर्ता को बैठने के लिए कहते हुए)।
एक पक्ष होता है हमारे अतीत का, हमारी स्मृतियों का, देह का। इनको आप गिनती करके भी देख सकते हैं: १. देह २. अतीत के अनुभव ३. आज तक की शिक्षा।
एक पक्ष ये है। और दूसरा पक्ष आपकी चेतना का है जिसको जो चीज़ चाहिए वो इन तीनों से मिलती नहीं है। तो वो फिर कुछ ऊँचा, कुछ नया तलाशना चाहती है आगे बढ़ करके; इन तीनों से आगे बढ़ करके।
ये तीन उसको आगे जाने देना नहीं चाहते। यही युद्ध है। हम सबके भीतर ये लड़ाई चलती रहती है। ‘मैं' बनाम ‘मैं’। अपनी लड़ाई अपने ही आप से। इसलिए ‘मैं’ का सवाल आध्यात्म में केंद्रीय होता है। तुम किसको ‘मैं’ मानते हो?
देह से जो भावना उठ रही है उसको कह दोगे – ‘ये मैं हूँ’। सालों के शिक्षण-प्रशिक्षण से जो विचार उठ रहे हैं उसको कह दोगे – ‘ये मैं हूँ’। या जीवन में बहुत सारी सुख-सुविधाओं के होते हुए भी जो एक बैचैन लालसा रहती है आगे उड़ जाने की उसको कह दोगे कि ये मैं हूँ।
ये दोनों ‘मैं’ प्रतिस्पर्धा करते हैं आपस में। उधर वाला बोलता है असली ‘मैं’ इधर रहा और इधर वाला बोलता है असली ‘मैं’ इधर रहा। और मैं बार-बार कहता हूँ आप कौन हो? जिसके पास चुनाव का अधिकार है। यही करना है।
जैसे गीता की शुरुआत होती है न, अर्जुन को चुनना है – लड़ना है या नहीं लड़ना है। तो वो चुनाव हमें लगातार करना होगा। चुनाव में एक पक्ष हमेशा सुविधाएँ देता है, आराम देता है, सुरक्षा देता है। दूसरा पक्ष डराता है, अज्ञात की ओर खींचता है। वहाँ अनिश्चिता है। तो ज़ाहिर सी बात है कि संग्राम में ज़्यादातर किसका पलड़ा भारी रहता है। देह ही अक्सर जीतती है।
मन पर जो सामाजिक और शैक्षणिक प्रभाव पड़े हैं वो ही अक्सर जीतते हैं। सौ में कोई एक बार, हज़ार में एक बार या हज़ार में कोई एक व्यक्ति ऐसा होता है जो दूसरे पक्ष को जीता पाता है।
यही कुल-मिलाकर महाभारत है। यही अध्यात्म है।