सर, आपके जीवन में आपकी माताजी का क्या योगदान रहा? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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सर, आपके जीवन में आपकी माताजी का क्या योगदान रहा? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अभी कुछ दिनों पहले शहीद दिवस था, तब आपसे एक प्रश्न पूछा था जो कि कायरता और वीरता के ऊपर था। तब आपने वहाँ उत्तर देते हुए कहा था कि यह एक माँ पर निर्भर करता है कि उसका जो सपूत है वो कायर निकलेगा या वीर निकलेगा। अब उस वक़्त मेरे पास एक प्रश्न था जो मैं पूछ नहीं पाया था, पर आज मैं अपनेआप को रोक नहीं पा रहा हूँ। आपकी माता जी भी यहाँ पर हैं, तो मैं यह जानना चाहता था कि आपको बनाने में उनका क्या योगदान था।

आचार्य प्रशांत: कमज़ोरियों को प्रश्रय नहीं दिया, इतना निश्चित रूप से है। वो जो साधारण माँओं वाली ममता या सहानुभूति होती है, उसकी ख़ुराक मुझे नहीं मिली, तो वो अच्छी चीज़ थी। आज मैं आपसे एकदम विश्वास के साथ अगर कह पाता हूँ, कि चोट लगे, दर्द हो, जो भी हो भिड़ जाओ, तो उसमें इनका योगदान था काफ़ी।

मुझे अपने बचपन में ऐसा कुछ भी स्मरण नहीं आता जहाँ मैं ग़लतियाँ कर रहा हूँ या कमज़ोरियाँ दिखा रहा हूँ और उसके एवज़ में मुझे सांत्वना मिल रही हो; दुलार मिलना तो दूर की बात है, सांत्वना भी नहीं। तो यह भाव कि आपकी दुर्बलताओं और दुर्गुणों को घर में छाँव नहीं मिलेगी, ये मुझमें स्थापित किया गया था बचपन से।

एक घटना बताता हूँ। आठवीं में था और फ़ाइनल एग्ज़ाम (अंतिम परीक्षा) था। अप्रैल का महीना था लखनऊ में, तो गर्मी काफ़ी हो जाती है। पढ़ाई में एकदम अच्छा रहना है, इस पर बहुत ज़ोर था बचपन से, और इस बात में किसी तरीक़े की किसी रियायत या समझौते की कोई गुंजाइश रहती नहीं थी। मैं ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकता था कि मैं ठीक से पढ़ूँगा-लिखूँगा नहीं, या स्कूल से भद्दे अंक या भद्दा रिपोर्ट कार्ड लेकर आऊँगा तो घर पर मेरा स्वागत होगा; स्वागत होता था फिर दूसरे तरीक़े से।

मेरा एक फटा हुआ रिपोर्ट कार्ड अभी भी घर में रखा है क्योंकि कक्षा में पहला स्थान नहीं आया था उसमें। अब इस घटना के कई पहलू हो सकते हैं, जो मेरे लिए सार्थक है मैं वो बता रहा हूँ। बुखार वग़ैरह जो भी रहता है वो तो रहता ही था थोड़ा-बहुत, और फिर मैं अप्रैल की धूप में साइकिल चलाता हुआ स्कूल जाता था, परीक्षा देता था, वापस आता था। ऐसा करके मैंने दो हफ़्ते एग्ज़ाम के निकाल दिये, और बात वही थी कि मैं रैंक वन चल रहा था हाफ़ इयरली (अर्धवार्षिक) तक और फ़ाइनल में भी आ ही जाती।

जिस दिन आख़िरी एग्ज़ाम था, उस दिन अब दो हफ़्ते बीतते-बीतते धूप और बढ़ गयी थी। तो मैं असेंबली (सभा) में खड़ा हुआ था, धूप ज़्यादा तेज़ थी तो पसीना आ गया बहुत। तो टीचर थीं, उन्होंने देख लिया, उन्होंने पकड़ लिया कि कुछ है। तो मैं काफ़ी रोया-चिल्लाया कि एग्ज़ाम देने दो; उन्होंने नहीं देने दिया। तो इस तरह से सारे पेपर लिखने के बाद बस एक बच गया था, उसकी वजह से रिपोर्ट कार्ड में धब्बा लगा।

तो फिर मैं वापस आया, घर आया, और घर का माहौल कुछ इस तरह था कि इस बात को लेकर के कोई अफ़सोस या ग़म नहीं था, कि बीमार होते हुए भी पेपर देने क्यों गए। घर में भी जो मायूसी आयी वो इस बात को लेकर के आयी कि बस आख़िरी दिन रह गया, यह भी निकल गया होता वरना।

अब उसके कारण मेरे शरीर पर क्या असर पड़ रहा है, एग्ज़ाम की तैयारी ने, साइकिलिंग ने, धूप ने, तनाव ने, बुखार ने, इन्होंने मेरे शरीर के साथ क्या किया होगा, इस बात को बहुत महत्व नहीं दिया गया। दिया गया होगा, खान-पान पर मेरे ध्यान रखा गया होगा, कुछ दवाइयाँ दी गयी होंगी, लेकिन उस बात को सर्वोपरि नहीं रखा गया कि बड़ा लड़का है, इसकी सेहत अच्छी रहनी चाहिए, एग्ज़ाम बाद में दे लेगा। ‘क्या हो गया अगर एग्ज़ाम नहीं दे पाया तो, जान है तो जहान है,’ — ऐसी कोई बात घर में नहीं हुई।

तो उससे बड़ा एक प्रबल संदेश गया; उस बात से ही नहीं, मतलब ये तो एक उदाहरण उठा रहा हूँ, और भी इस तरह के बहुत हैं। एक वैल्यू सिस्टम (मूल्य व्यवस्था), एक मूल्य स्थापित हुआ कि आपको क्या अच्छा लगता है, क्या बुरा लगता है, आपका शरीर कैसा अनुभव कर रहा है, आप स्वस्थ हो, आप बीमार हो, इन बातों का कोई महत्व नहीं है; बिलकुल कोई महत्व नहीं है आपके शारीरिक स्वास्थ्य का, जो असली चीज़ है वो असली चीज़ है।

उस समय असली चीज़ ये नहीं था कि अध्यात्म है, उस समय असली चीज़ ये था कि असली चीज़ पढ़ाई है, और पढ़ाई का महत्व तुम्हारी देह से कहीं ज़्यादा है। ‘तुम्हें बुखार आ रहा है, तुम्हें चोट लग रही है, तुम्हें जो भी हो रहा है, पढ़ाई पर आँच नहीं आनी चाहिए, और उसमें अगर कुछ गड़बड़ करोगे तो कोई समझौता नहीं होगा।‘ तो इस तरह चलता था।

मुझे और भी ऐसे ही याद है। मैं कई मौकों पर बीमार रहा हूँ और उसकी वजह से कोई सहानुभूति वग़ैरह मिलने की कोई संभावना नहीं थी, कि लड़का बीमार है तो आज नहीं जाएगा स्कूल। हाँ, साथ-ही-साथ जहाँ तक सेहत की बात है, उसका भरपूर ख़याल रखा जाता था, कि ये खा लो, ये पी लो। हर तरीक़े से जो भी शारीरिक काम होते हैं, रगड़म-रगड़ाई, वो सब चलता रहता था, कि ऐसे नहाना है, ये करना है, ऐसे, वैसे। जिस दिशा में पैंपरिंग (लाड़-प्यार) होनी चाहिए, वहाँ हुई थी।

अब बोलते हुए मुझे अजीब सा लगता है, थोड़ी लाज सी भी आती है। मैं दसवीं-ग्यारहवीं तक में था तो जैसे मैंने बोला, एकदम कड़ाई है, कठोरता है, इस तरह की कोई रियायत नहीं मिलेगी कि आप पीछे क्यों हो गये, पीछे कैसे हो गये; एकदम नहीं! लेकिन अगर मुझे सही याद है तो ग्यारहवीं में भी मैं बैठा होता था, स्कूल जाने के लिए तैयार हूँ — ग्यारहवीं में आप सोलह साल के हो चुके होते हो, आप लगभग जवान हो चुके होते हो — और ये दूध का गिलास लेकर खड़ी होती थीं।

तब वीगन वग़ैरह तो दूर की बात थी। ये दूध का गिलास लेकर खड़ी हैं, उसमें अपना घोल रखा है पता नहीं क्या-क्या सब, बोर्नविटा और ये-वो, और पिताजी यहाँ बैठे हैं, वे जूते का फीता बाँध रहे होते थे मेरे, उस उम्र तक भी। नहीं होना चाहिए था, पर आशय ये है कि जैसे सैनिक को तैयार किया जाता है न, ‘तुम्हारी तैयारी पूरी कर देंगे, पूरी-पूरी तुम्हारी तैयारी कर देंगे अच्छे से। बोलो क्या-क्या चाहिए, सब मिलेगा तुमको, लेकिन उसके बाद बेटा हारकर वापस मत आना।' तो वो भाव था, मैं अनुगृहीत हूँ कि वो भाव था।

वो सब जो आम भाव-प्रदर्शन होता है, कि गले लगा लिया और दुलार, लाड़, वैसा कोई माहौल नहीं था। चाँटे ख़ूब खाए हैं मैंने, ग्यारहवीं में भी खाया है। वो जो रिपोर्ट कार्ड फटा था, वो ग्यारहवीं का ही था, ग्यारहवीं तक चाँटे खाए हैं।

मैं दिखा रहा था किसी को, शुभांकर (स्वयंसेवी) को या किसी को, कि मेरे दो रिपोर्ट कार्ड्स हैं जिसमें एक बड़ी ज़बरदस्त बात है। मैंने अपनी ज़िन्दगी का जो पहला एग्ज़ाम दिया था, उसमें फ़ेल (अनुत्तीर्ण) हुआ था, मैं नर्सरी में ही फ़ेल हो गया था। रिपोर्ट कार्ड में ऐसे कॉलम्स (स्तंभ) होते हैं, तो पहले एग्ज़ाम का एक कॉलम होता है, नीचे लिखा होता है, तो उसमें लिखा हुआ है। लेकिन फ़ेल होने के बाद जो अगला एग्ज़ाम होता था, उसमें बिलकुल अलग तरह के नंबर होते थे; बिलकुल ही अलग, मतलब नीचे से एकदम ऊपर।

वैसे ही तीसरी कक्षा में रुद्रपुर से बाँदा गये थे, वहाँ सेंट मैरी में गये थे, वो काफ़ी अच्छा कॉन्वेंट स्कूल था। और रुद्रपुर तब बहुत ही छोटा कस्बा था, तो वहाँ से सीधे आप एक बहुत रिगरस (कठिन) कॉन्वेंट में जाओ तो शुरू के दो महीने एडजस्ट (समायोजित करना) करने में दिक्क़त हुई थी। तो उसमें अंग्रेज़ी में बीस में से आठ नंबर पासिंग (उत्तीर्ण अंक) होते थे, चालीस प्रतिशत; मेरे सात आए थे, मैं फ़ेल हो गया क्वार्टरली (त्रैमासिक) में।

फ़ेल होने के बाद घर पर हुआ धूम-धड़ाका। और वो देते थे ग्रेड (श्रेणी), तो जो मेरी पहली ग्रेड है उसमें वो 'ई' या 'ऐफ़' लगी हुई है, और ए ग्रेड कक्षा में बस जो शुरू के दो या तीन होते थे उनको आती थी। हाफ़ ईयरली में मेरा 'ए' लगा हुआ है, तो ये देखकर मुझे आज भी बड़ी प्रेरणा मिलती है कि ये तब कर लिया था मैंने, फिर करके दिखाऊँगा। कोई भी 'ई' आख़िरी नहीं होता, 'ई' को 'ए' में बहुत जल्दी बदला जा सकता है; अब तो ख़ुद बदलता हूँ, पहले इन्होंने बदलवाया, कि बेटा ये 'ए' होना चाहिए सीधे।

मैं समझता हूँ कि लाड़-दुलार, ममता, भाव-प्रदर्शन, ये जितने सूक्ष्म रहें उतना अच्छा है। प्रेम इसमें नहीं है कि बच्चा है और उसको सुविधाएँ ही दिए जा रहे हो, दिए जा रहे हो, दिए जा रहे हो। प्रेम इसमें है कि जितना उसको सहारा चाहिए है दो, पर उसको सही रास्ते पर रखो, अभिभावकों का प्रेम इसमें है। कठोरता आवश्यक होती है, कठोरता प्रकट होनी चाहिए और प्रेम सूक्ष्म होना चाहिए।

"अंदर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट।" भीतर-भीतर, जहाँ पता न चल रहा हो वहाँ सहारा दें अभिभावक, लेकिन बाहर-बाहर तो चोट पड़नी चाहिए। ये जो अभी प्रचलन हो गया है बच्चों की पैंपरिग का, ये अति घातक है। कुछ बातें हैं जो मन पर छपनी चाहिए न।

अब याद आ रहा है, दूसरी में था, वहीं रुद्रपुर में, तो वहाँ पर सिखाया गया था कि बहुवचन कैसे लिखते हैं हिंदी में। तो ‘लड़की’ का लिखना होता है ‘लड़कियाँ’। अब उसमें ‘लड़की’ में 'की' का 'कि' बन जाना है और ‘बकरी’ में 'री' का 'रि' बन जाना है; ‘बकरीयाँ’ नहीं हो सकता, ‘बकरियाँ’ होगा। हम गये भूल और वहाँ लिख आये 'बकरीयाँ' और 'लड़कीयाँ', तो बीस में आये अठारह नंबर, एकदम छपा हुआ है दिमाग में। और हिम्मत नहीं हो रही थी कि वो लाकर घर में दिखा दें, तो उसको बाहर ही गमले में छुपा दिया।

लेकिन कम-से-कम भाषा में अशुद्धि नहीं होनी चाहिए, ऐसा माहौल तो एकदम था घर में। हिंदी हो, अंग्रेज़ी हो, तुम्हें भाषा लिखनी नहीं आती, तुम्हें हिंदी लिखनी नहीं आती, कैसे हो सकता है? और अच्छा है, यही वजह है फिर कि आई.सी.एस.ई. में मेरे हिंदी, अंग्रेज़ी दोनों में हाइएस्ट (उच्चतम) आये थे। बोर्ड के सेक्रेटरी (सचिव) थे, उन्होंने कहा था कि बहुत लोग टॉप करते हैं, हर साल होता है कि कोई टॉपर निकलता है, लेकिन ऐसा यदा-कदा ही होता है कि एक ही छात्र के हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों में हाइएस्ट हों।

तो उसकी वजह थी, कड़ाई ज़रूरी होती है। और वैसा नहीं रिश्ता था जैसा आजकल चलता है, कि माँ-बाप तो फ़्रेंड्स (दोस्त) हैं बच्चे के; काहे के फ़्रेंड्स ! अब ज़रूर हो गयी है फ़्रेंडलीनेस (मित्रता)।

आप लोग भी ये मत कर दीजिएगा कि अपने बच्चों के फ़्रेंड्स बन जाएँ। आप बच्चों के फ़्रेंड्स बन जाएँगे तो उनके फ़्रेंड्स उनके माँ-बाप बन जाएँगे, क्योंकि बच्चे को तो माँ-बाप चाहिए, आप नहीं बनोगे तो कोई और उनका बाप बन जाएगा। तो ये सब मत किया करिए, कि जैसा विज्ञापनों में आता है कि आजकल बच्चे को पार्टनर (साथी) बोला जा रहा है। मैं कल्पना नहीं कर सकता कि मुझे पार्टनर बोलेगा कोई घर में, और बोल देता तो..।

और ऐसा भी नहीं कि मेरे ही साथ कड़ाई करनी थी, उन्होंने अपने साथ भी पूरी कड़ाई करी। वैसे एक बात निश्चित थी, कि ज्ञान से ऊपर कुछ नहीं होता, पढ़ना तो तुम्हें है ही। मेरा यू.पी.एस.सी. (संघ लोक सेवा आयोग) का इंटरव्यू (साक्षात्कार) था। ये लोग जा रहे थे, इलाहाबाद के आगे इनका एक्सीडेंट (दुर्घटना) हो गया। घातक एक्सीडेंट था, गाड़ी में आग लगी थी, ड्राइवर (चालक) की टाँग काटनी पड़ी थी। आज तक भी ये लोग उससे पूरी तरह उबर नहीं पाये हैं।

पिताजी का पूरा चेहरा ही विकृत हो गया था, उनका हाथ पूरा इंजर्ड हो गया था, नर्व्स (नसें) वग़ैरह टूट गईं थीं। इन्होंने मुझे दस दिन तक पता ही नहीं लगने दिया। जब मैं इंटरव्यू वग़ैरह दे आया, उसके एक-दो दिन बाद ये लोग आते हैं हॉस्पिटल (अस्पताल) से डिस्चार्ज (रिहा) होकर। बारह दिन रहे होंगे ये लोग अस्पताल में — जाने बारह दिन, आठ दिन, जितने भी दिन, बहुत दिनों तक रहे हॉस्पिटल में — उसके बाद आते हैं, तब देख रहा हूँ, कि ये क्या है! तो कड़ाई ये सिर्फ़ मेरे साथ ही नहीं कर रहे थे, अपने साथ भी कर रहे थे, अपने साथ शायद ज़्यादा कर रहे होंगे।

मुझे नहीं मालूम इस तरह का लालन-पालन आदर्श है या नहीं, आप इसमें खोट निकाल सकते हो। जो बातें मैंने बोलीं, आप उसमें बहुत तरीक़े से आपत्तियाँ कर सकते हो, लेकिन आपने पूछा कि मेरा कैसा था, तो मैंने बता दिया। और आप मुझसे पूछेंगे कि क्या किसी अलग तरह का चाहिए, तो मैं कहूँगा, 'नहीं, यही बिलकुल ठीक था।'

प्र२: प्रणाम आचार्य जी। आपकी माताजी को भी प्रणाम, जिन्होंने इतनी अच्छी आपकी परवरिश करी — आपने जैसे बताया कि आप बीमार थे, उस समय भी आप साइकिल से परीक्षा देने जाते थे। तो काफ़ी कुछ तो नहीं पता, लेकिन थोड़ा-बहुत भी जो पढ़ा हूँ आपकी क़िताबों के शुरू में आपके जीवन-परिचय के बारे में, तो उसमें है कि आपके पिताजी एक प्रशासनिक अधिकारी थे।

तो आज के समाज में जैसे देखा जाता है, कि बच्चा स्कूल भी जाता है तो बड़ी गाड़ी में जाएगा, ए.सी. होनी चाहिए, तो आपके पिताजी का क्या रुख़ था? क्योंकि जैसे कि मैंने पढ़ा उसमें, कि आपका उपनिषदों से परिचय आपके पिताजी ने कराया, आपके घर में एक पुस्तकालय भी था। और फिर आपने ही अभी आज ही बोला, कि आपने ऋण लेकर अपनी पढ़ाई करी, इसीलिए आपने नौकरी जारी रखी कुछ साल ताकि उसको आप भर सकें, पूरा कर सकें। तो उनका क्या रुख़ था, कि आध्यात्मिक क्षेत्र में क्या कुछ चर्चाएँ होती थीं या बस परिचय ही कराया था?

आचार्य: मैं जितना पूछता था, उतना बता दिया जाता था। कोई बात थोपने का प्रयास कभी नहीं किया गया। ‘क़िताबें उपलब्ध करा दी गयी हैं, पढ़ो, उसके बाद कुछ पूछना चाहते हो तो आकर पूछ लो। न तो हम ये कहेंगे कि इसमें से ये वाली पहले पढ़ो, न हम ये कहेंगे कि ये वाली चीज़ मत पढ़ना। हाँ, पूछने आओगे तो खुलकर, बढ़िया से बता देंगे।‘

और मेरे जीवन के भी जो निर्णय रहे, उसमें लगभग यही रवैया रहा है दोनों लोगों का। मैंने जो निर्णय लिए हैं अपने जीवन में, ख़ासतौर पर युवावस्था में, उनको आमतौर पर सामान्य भारतीय परिवार में स्वीकार नहीं किया जाता; मुझसे कुछ कहा ही नहीं गया। ‘जो करना है करो, तुम्हारी ज़िन्दगी है। पढ़ लिए हो, लिख लिए हो, अब जैसे जीना है तुम जानो।‘ तो उन चीज़ों को लेकर के कोई दबाव बनाने वाली कोई बात नहीं थी।

इसीलिए जब पहले दिन आप लोग बार-बार कह रहे थे, 'अरे, माँ-बाप, माँ-बाप,' वो बात मुझे समझ में ही नहीं आती। मैंने तो जो कुछ भी करा है वो नियम-क़ायदों के विरुद्ध ही जाता है लगभग, सारे ही निर्णय ऐसे रहे हैं जो किसी के घर में होने लगें तो घर में भूचाल आ जाए। ऐसा तो कभी कुछ कहा नहीं गया कि क्या है, क्या नहीं।

प्र२: तो क्या आपके पिताजी पढ़ते थे उपनिषद् वग़ैरह को?

आचार्य: और काहे को घर में रखेंगे?

(श्रोतागण हँसते हैं)

प्र२: जैसे कि ज़्यादातर जगह ये देखा जाता है कि कोई अच्छे पद पर है, चाहे निजी हो या सरकारी हो, कहीं भी, या व्यवसाय में ही हो, तो वो लोग कहते हैं कि हमारे पास तो समय ही नहीं है बिलकुल इन सब चीज़ों के लिए।

आचार्य: नहीं, ये पढ़ते थे, पढ़ते थे।

प्र२: क्योंकि अंक लाने के लिए तो कहा जाता है बच्चों को, कि अंक लाओ, लेकिन जैसा हम देखते हैं कि परिवारों में कोई एक भी पढ़ता ही नहीं है, और फिर उसको देखकर बच्चे भी नहीं पढ़ते हैं फिर।

आचार्य: पढ़ते थे, पढ़ते थे, पढ़ाई का माहौल था घर में। यही नहीं कि सिर्फ़ स्कूली पढ़ाई, और भी जितनी क़िताबें हो सकती हैं उनको भी पढ़ने का माहौल था घर में।

प्र२: धन्यवाद आचार्य जी।

आचार्य: रही बात साइकिल की, तो ठीक है प्रशासनिक अधिकारी वग़ैरह थे, पर इतना ज़्यादा पैसा नहीं था कि बच्चा दसवीं-ग्यारहवीं से ही बाइक पर जाएगा स्कूल। तो पता नहीं ‘प्रशासनिक अधिकारी' से क्या छवि आती है, पर मेरे स्कूल के दिनों में घर में बहुत पैसा होता नहीं था। बढ़िया था, ठीक-ठाक था, मज़े में जी रहे थे लेकिन ऐसा नहीं था कि — ये हम सन् इक्यानवे-बानवे की बात कर रहे हैं — कि उन दिनों में भी बच्चा स्कूटर या कुछ और लेकर के घूम रहा है। कुछ नहीं, साइकिल है, साइकिल से जाओ। साइकिल ठीक थी।

साइकिल मुझे दे दी थी; उत्तर प्रदेश के गवर्नर (राज्यपाल) थे मोतीलाल वोहरा, उन्होंने तीन-तीन दे दी थीं, और वो वाली थी एटलस की, जो काली साइकिलें होती हैं। तो तीन-तीन साइकिलें आ गयी हैं तो और क्या चाहिए! बल्कि एक बार तो वो साइकिल लेकर के मुझको अलीगंज से कहाँ तक गए थे?

आचार्य जी की माता जी: अमीनाबाद।

आचार्य: हाँ, अमीनाबाद, कि बेटा तुम्हारे पास साइकिलें ज़्यादा हो गयी हैं तो ये साइकिल लेकर के चलो अलीगंज से अमीनाबाद। ये लोग आगे-आगे चले टेंपो में, ये और मेरी बहन जी, और मुझे मेरी ही साइकिल लेकर के पीछे लगाया, कि तुम चलो अब इसको चलाते हुए। अमीनाबाद लेकर गये, वहाँ वो साइकिल लेकर के गये, उसकी अदला-बदली हुई, एक्सचेंज हुआ, बहन जी के लिए साइकिल ली गयी।

और फिर वो साइकिल, लेडीज़ साइकिल मुझे दी गयी, कि अब तुम इसको लेकर चलो वापस घर तक। इसके बाद ये लोग बैठ गये टेंपो में, और टेंपो हो गया फुर्र। रात के दस बज रहे थे, सड़कें खाली थीं, तेज़ी से आ गया। मैं इतना ज़्यादा कभी घर से निकला नहीं था और जी.पी.एस. तब था नहीं, और मैं साइकिल लिए हुए हूँ और वो भी लेडीज़ साइकिल, और मुझे रास्ता पता नहीं है, और फिर मैं ऐसे ही पूछता-पाछता किसी तरह घर पहुँचा।

तो ऐसे ही था। आप लोग माँ-बाप होने के नाते पता नहीं क्या करना चाहते हैं, रूई पर बिलकुल पालना चाहते हैं बच्चों को, कि इन्हें कहीं कोई कष्ट न हो जाए। 'कष्ट न हो जाए' क्या होता है?

प्र२: लिबरल फ़िलोसफ़ी (उदारवादी दर्शन)।

आचार्य: दिनकर की हैं पंक्तियाँ, "महलों के कनकाभ शिखर होते कबूतरों के ही घर।" कनकाभ माने जिसमें कनक की आभा हो, सोने के चमकते हुए शिखर; उनमें कबूतर ही मिलेंगे फिर। "महलों के कनकाभ शिखर होते कबूतरों के ही घर। महलों में गरुड़ न होता है, सोने पर कभी न सोता है। बसता वह कहीं पहाड़ों में, शैलों की फटी दरारों में।"

तो शैलों की दरारें चाहिए, शैल माने पहाड़। शैलों की फटी दरार चाहिए, वहाँ से गरुड़ पैदा होता है; नहीं तो आपके घरों से कबूतर निकलेंगे बस, गुटर-गूँ। अच्छे लगेंगे देखने में, चूज़े, क्यूटी (प्यारा), उनको ऐसे कर दो तो बिखर जाते हैं। ऐसे ही बहुत सारे आजकल घूम रहे होते हैं, उनको देखो तो हैरी पॉटर याद आता है, कोई किरदार, इतना बड़ा चश्मा होगा; चार साल का होगा, इतना बड़ा उसका चश्मा लगा होगा। एकदम झक गोरा, एकदम स्पष्ट होगा कि इसको धूप नहीं लगने दी गयी आज तक।

थोड़ा कड़ा जीवन जीना सीखिए। सुख-सुविधाओं के मोहताज होकर के आप अपनी ग़ुलामी तैयार करते हैं, चाहे वो आपकी नौकरी का चयन हो, चाहे आपके जीवन के निर्णय हों, चाहे बच्चों की परवरिश का मामला हो। ये सुख-सुविधा, सब आरामदेह रहे, बढ़िया रहे, तमाम तरह की विलासिताएँ, ये कोई बहुत अच्छी बात नहीं है।

मैं नहीं कह रहा कि उसको आधा पेट रखो, उसको बिलकुल निर्दयता से रखो, उसको जीने मत दो, उसको फटे कपड़े दो; ये सब नहीं बात कर रहा हूँ मैं, मैं विलासिता की बात कर रहा हूँ। ज़रूरत विलासिता कब बन जाती है, नेसेसिटी (ज़रूरत) और लग्ज़री (विलासिता) का अंतर करना भी विवेक है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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