प्रश्नकर्ता: वायरस की आपने बात कही तो ये ऑमिक्रॉन (कोरोना वायरस का एक वेरिएंट) और एक के बाद एक आते जा रहे हैं। मैं जानती हूँ आप बहुत बार इस पर भी बात कर चुके हैं, पर यह क्या एक ब्लैक होल है जो खुल चुका है और अब ऑमिक्रॉन फिर पता नहीं क्या-क्या?
आचार्य प्रशांत: अब ये तो वायरोलॉजिस्ट्स (विषाणु विज्ञानी) ही बताऍंगे। ऑमिक्रॉन भी कोई एक चीज़ नहीं है, जितना मैं पढ़ पाया हूँ ये वेरिएंट्स (रूपान्तर) के भी वेरिएंट्स हैं। तो मैं इसके बहुत ब्यौरे में तो नहीं जा पाऊॅंगा, वह काम विशेषज्ञों का है। लेकिन इतना पता है कि हम जिस तरह का रिश्ता रख रहे हैं प्रकृति के साथ तो एक के बाद एक आपदाएँ हम पर आनी ही हैं।
ये काम ऐसा है जिसकी सज़ा तो मिलनी-ही-मिलनी है। हम जंगलों में घुसे जा रहे हैं, हम जीवों की रोज़ करोड़ों-अरबों में हत्या कर रहे हैं। यही नहीं कि सिर्फ़ खाने के लिए, उनका घर नष्ट कर दिया है, उनकी पूरी प्रजातियाँ विलुप्त हुई जा रही हैं। रोज़ दर्जनों प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं।
प्र: आप विश्वास नहीं करेंगे, मैं गॉंव गई थी और वहाँ अभी भी लोग शिकार पर जा रहे हैं, युवा लड़के। वो कुछ (तथाकथित) राजा हैं, उनकी राजगद्दी छिन गयी सेवेंटीज़ (सत्तर के दशक) में, पर अपने सबटाइटल्स (उपशीर्षकों) से इतना ज़्यादा सेंस आफ़ बिलॉन्गिंग (तादात्म्य का भाव) है।
आचार्य: इनके सिर पर काल नाच रहा है। ये तो नहीं ही बचेंगे, ये अपने साथ न जाने कितनों को डुबोऍंगे। मुझे भी कोविड हुआ था, उसका असर अभी तक बाक़ी है। ये कोई ऐसा नहीं है कि संयोगवश, अनायास एक दुर्घटना हो गयी है कि वायरस दुनिया में रिलीज़ हो गया। ये पूरे तरीक़े से हमारे कुकर्मों का अंजाम है। और हम चेत अभी भी नहीं रहे हैं। तो आने वाला समय अच्छा नहीं है। हम अपनी ओर से जो कोशिश कर सकते हैं, दुनिया को बताने की, जगाने की, वो कर रहे हैं। बाक़ी राम जानें!
प्र: आप कोविड की बात कर रहे हैं। मुझे और मेरे पिता को भी हो गया था, दो-तीन महीने उसमें गये। आपको भी हो गया था, आपने अभी कहा। मैं जानना चाहती हूँ कि आपके फ़ीअर्स (डर) और आपकी इनसिक्योरिटीज़ (असुरक्षाऍं) क्या हैं?
आचार्य: मुझे तो यही था कि ये मुझे अभी उठाकर ले जाऍंगे और कहीं वेंटीलेटर वगैरह की नौबत आ गयी तो उससे पहले सब निश्चित कर दूँ कि संस्था का काम कैसे चलेगा, क्या होगा। तो जिस दिन मेरी ऑक्सीजन गिरने लगी थी, उस दिन मैंने कोशिश भी करी कि आओ पूरा लिखवा दूँ कि कौनसी चीज़ कैसे चलानी है, अगर मैं मर गया तो। तो मैंने तो यही करा था और तो मेरे पास कुछ है नहीं, यही काम है मेरे पास। तो इसीलिए मैं तो चिन्तित हुआ भी था, इसमें कोई शक नहीं।
मैं, देखिए, कोई इनलाइटेंड (प्रबुद्ध) आदमी तो हूँ नहीं कि मुझे चिन्ता वगैरह न हो। तो मुझे तो चिन्ता भी होती है, तनाव भी होता है, क्रोध भी आता है। इसी दिशा में थे सबकुछ, चिन्ता-तनाव वगैरह। बात यह है कि मेरे न रहने पर मैं जिनको ज़िम्मेदारी सौंप सकता हूँ, वह भी कोविड ग्रस्त थे मेरे साथ। हाँ, उनका थोड़ा माइल्ड केस (हल्का मामला) था और उनके फेफड़ों में नहीं पहुँचा था। तो उनको मैंने ज़िम्मेदारी वगैरह सौंप दी थी।
जो कुछ भी किया जा सकता है, डेलिगेशन (प्रत्यायोजन), यह अकाउंट (खाता), यह डेप्लॉयमेंट (परिनियोजन), पासवर्ड वगैरह जो भी होते हैं सब उनको दे दिये थे। (याद करते हुए) और क्या किया था? यह कर दिया था कि अगर मैं मर-मरा जाऊँ तो भी संस्था के सब लोगों को कम-से-कम छः महीने तक तनख़्वाह जाती रहेगी, जब तक कि वो कहीं और कुछ नहीं देख लेते। और क्या किया था? डेटा! डेटा! ये कि जितनी बातें बोली हैं, ये सारा डेटा इकट्ठा कर लेना, डेटा नहीं खोना चाहिए। तो रिकॉर्डिंग्स और किताबें, यही दो चीज़ें हैं। तो उसका कुछ इंतज़ाम किया था कि डेटा कैसे रहेगा, कहाँ रहेगा। तो यही था और तो कुछ नहीं था।
प्र: तो जिस तरीक़े से लोग नियर-डेथ एक्सपीरिएंस (मौत का क़रीब से अनुभव) को फिनोमेना (घटना) बनाते हैं। आपकी ज़िन्दगी में, मेरे तो खै़र था ही, मेरे पिताजी को मैंने देखा क़रीब से, क्योंकि वह हैं भी कहीं-न-कहीं उस उम्र में, सीनियर सिटीज़न (वरिष्ठ नागरिक) हैं। तो आप भी कहीं-न-कहीं बहुत रू-ब-रू हो गये कि मृत्यु समीप ही है। तो बिलकुल आप जाने के लिए तैयार थे कि ‘कर चले हम फिदा’ वाली स्थिति थी?
आचार्य: मेरे लिए उसमें कोई मिस्टिसिज़म (रहस्यवाद) नहीं है। नियर-डेथ एक्सपीरिएंस , कि मैं लेटा हुआ हूँ और मेरी जीवात्मा निकलकर के पंखे पर बैठ गयी है।
प्र: नहीं, मेरा मतलब है कि लोग कहते हैं नियर-डेथ एक्सपीरिएंस तो आपका तो सच में था।
आचार्य: मेरे लिए मौत एक तथ्य है, वह तो पता है न, यह तथ्य है। कभी भी कोई भी मर सकता है, आप भी मर सकती हैं, मैं भी मर सकता हूँ। तो वह तो एक तथ्य है। और अब आपकी ऐसी मेडिकल कंडीशन (चिकित्सीय स्थिति) हो गयी है जहाँ आपको पता है कि कुछ भी हो सकता है।
प्र: जब घटा आपके साथ वह।
आचार्य: हाँ, जब ऑक्सीजन गिर रहा है, आपके फेफड़े इनफेक्ट (संक्रमित) हो चुके हैं और अब दो हफ़्ते बीत चुके हैं, आप ठीक नहीं हो रहे हो। तो वह तो पता है कि कुछ भी हो सकता है। मेरा छोटा भाई था, वह अट्ठारह दिन तक वेंटिलेटर पर रहा। तो मौत कितनी दूर होती है? अब ओमीक्रॉन आ रहा है, हमने यह बातचीत कर ली है। हो सकता है आगे देखने को हो जाए कि ‘देखो साहब, एक दिन ये बातें कर रहे थे और उसके एक महीने बाद ही क्या हो गया।’
प्र: आप तैयार थे जाने के लिए?
आचार्य: मेरी तैयारी की बात ही नहीं है, मुझसे पूछकर थोड़ी ले जाएगा वह मुझको (हँसते हैं)।
प्र: नहीं, आप आन्तरिक रूप से तैयार थे? तैयारी तो आप सारी कर रहे थे भौतिक रूप से, पर आन्तरिक रूप से क्या आप तैयार थे?
आचार्य: आन्तरिक रूप से मौत मेरे लिए एक तथ्य है। उसको न झुठलाया जा सकता है, न उसके बिना जीवन जैसी कोई बात है। मौत चूॅंकि है, इसीलिए हम ये सबकुछ कर रहे हैं। यह सारा काम ही इसीलिए है क्योंकि मृत्यु है। तो उसमें मेरे लिए यह प्रश्न ही अप्रासंगिक है कि मैं तैयार था या नहीं था। वह है! अब वह कब है, कैसे है, क्यों है, उस पर मेरा कोई अधिकार नहीं। जिस पर हमारा कोई अधिकार नहीं, उसके सामने हम चूॅं-चपड़ नहीं कर सकते।
अधिकार सिर्फ़ उसका है कि वह निश्चित करेगी कि हमने कब लेकर जाएगी। सिर्फ़ उसका अधिकार है तो वह जब भी लेने आये, हमें जाना पड़ेगा। हम यही कर सकते हैं कि जब तक वो लेने नहीं आ रही तब तक हम अपने जीवन का सही-से-सही, अच्छे-से-अच्छा, ऊॅंचे-से-ऊॅंचा सदुपयोग कर लें। तो वो करने की कोशिश करते हैं। बाक़ी, दोस्त है अपना भैंसे वाला, लेने तो कभी भी आ सकता है। आ ही गया था लगभग।
प्र: काफ़ी सीवियर (गम्भीर) हो गया था।
आचार्य: मैं हॉस्पिटलाइज़ (अस्पताल में भर्ती) नहीं हुआ। तो मैं यह नहीं कह सकता कि बहुत सीवियर हो गया था लेकिन लम्बा काफ़ी खिंच गया था और फेफड़ों में घुस गया था, थोड़ा ज़्यादा बढ़ रहा था। लेकिन और लोगों को जितना कष्ट झेलना पड़ा और जिस तरीक़े से वो बहुत-बहुत दिनों तक अस्पताल में रहे और वेंटिलेटर पर गये, उसकी तुलना में तो मुझे कुछ भी नहीं हुआ।
प्र: आचार्य जी, मुझे पता चला कि कुछ समय पूर्व आपका एक्सीडेंट (दुर्घटना) हुआ था। तो उस अनुभव के बारे में हमें बताइए, प्लीज़।
आचार्य: वह कोविड से कई महीने पहले, फरवरी में हुआ था।
प्र: आप क्या हॉस्पिटलाइज़्ड हो गये थे तब?
आचार्य: (हँसते हुए) हॉस्पिटलाइज़ तो मैं कभी भी नहीं होता।
प्र: ईश्वर की अनुकम्पा है।
आचार्य: लेकर गये थे ये अस्पताल।
प्र: तो क्या स्किड हो गयी थी (फिसल गयी थी) आपकी बाइक, ऐसा कुछ?
आचार्य: मैं बाइक पर नहीं था, मैं पैदल था सड़क पर। सड़क पार कर रहा था। और कुछ सोच रहा था अपनी धुन में। जिसने मुझे मारा, उसकी ग़लती नहीं थी, मेरी ही ग़लती थी। वो जगह भी ऐसी है कि उसमें दिखता नहीं है दोनों तरफ़ ठीक से। यहीं पर है वो जो हाईवे है न रामझूला के पास में, वहॉं एक मोड़ है, उधर दिखता नहीं है कि दूसरी ओर से क्या आ रहा है। और मैं किसी विचार-चिन्तन में था, मैं ऐसे ही बढ़ने लग गया। तो सिर में लग गयी थी, गिरा तो। और कुछ घंटों के लिए मेमोरी (याददाश्त) उल्टी-पुल्टी हो गयी थी, बल्कि ग़ायब ही हो गयी थी।
प्र: अरे!
आचार्य: तो फिर लेकर गये थे ये लोग एम्स वगैरह, लेकिन एडमिट (भर्ती) तो तब भी नहीं हुआ था। हाँ, उसको कह सकते हैं नियर डेथ एक्सपीरिएंस (हँसते हुए)!
प्र: एडमिट तब भी क्यों नहीं हुए?
आचार्य: क्योंकि ऐसा कुछ था नहीं कि एडमिट होना पड़े। क्योंकि बाहर कोई घाव ऐसा था नहीं। सिर में यहाँ थोड़ा खून था, इससे ज़्यादा कुछ भी नहीं था। बाक़ी मैं एमआरआई वगैरह से ज़रा घबराता हूँ तो मुझे यह भी था कि अगर इन्होंने मुझे एडमिट कर लिया तो ये मुझे मशीन में डाल देंगे, उसमें मैं जाना नहीं चाहता। तो फिर वहाँ गये, इंतज़ार करते रहे और नम्बर आया। फिर डॉक्टर ने कहा कि स्कैन करा कर लाइए। तो मैं स्कैन कराने के बहाने भाग आया वहाँ से।
प्र: उस समय मेमोरी इंटैक्ट (ठीक) थी आपकी तब तक? या थोड़ी धुॅंधली थी पर आप आ गये फिर भी?
आचार्य: बेहतर होने लग गया था। लेकिन वो कुछ घंटे भयावह से थे, क्योंकि बिना स्मृति के, जिसे हम साधारण चेतना कहते हैं, वह काम नहीं कर सकती। मेरी स्मृति पहले दो-तीन घंटे तक ग़ायब हो रही थी। चीज़ें जो मुझे पता होनी चाहिए, वो मुझे कोशिश करने पर भी याद नहीं आ रही थीं। तो वह था मृत्युतुल्य ही।
प्र: तो यह कैसा अनुभव था कि आप कहीं-न-कहीं बीच में थे। न ठीक तरीक़े से याद आ पा रहा है, न ही भुला पा रहे हैं।
आचार्य: मैं बीच में नहीं था, मैं युद्ध में था। और मेरा हथियार छिन रहा था तो मुझे बड़ी तकलीफ़ हो रही थी।
प्र: चेतना इतनी थी कि आप जान पा रहे थे कहीं-न-कहीं कि यह हो रहा है।
आचार्य: मैं जान रहा हूँ कि मैं भूल रहा हूँ।
प्र: ब्यूटीफ़ुल (सुन्दर)! फ़िल्म बन सकती है इस पर।
आचार्य: और इस बात से बड़ी तकलीफ़ हो रही थी कि मुझे जिस चीज़ की अभी बहुत ज़रूरत है अपना काम करने के लिए, वह चीज़ छिन रही है और मैं असहाय हूँ, उसको रोक नहीं पा रहा हूँ। तो उस समय पर वह कुछ घंटे काफ़ी पीड़ा के थे।
मुझे ये सब नहीं था कि मेरा क्या होगा। उस वक़्त भी यही था कि मैं जो काम कर रहा हूँ उसमें अगर मुझे कुछ याद ही नहीं रह गया, मेरे आसपास जो लोग हैं, मैं उनके चेहरे भूल रहा हूँ, नाम भूल रहा हूँ, कल मैंने क्या किया, वह भूल रहा हूँ। तो मेरे लिए बहुत, अब क्या शब्द है पता नहीं! इन्होंने मेरे सामने उपनिषद् रख दिया, मैं उपनिषद् भूल रहा हूँ। तो यह बात मेरे लिए बहुत पीड़ा की थी।
हालॉंकि, उपनिषद् का सम्बन्ध सत्य से है, स्मृति से नहीं है। लेकिन मैं जो मिशन चला रहा हूँ उसके लिए तो स्मृति चाहिए न। बिना स्मृति के मैं लोगों से क्या बात करूॅंगा? मुझे श्लोक ही भूल गया तो मैं किसी से क्या बोलूॅंगा, क्या लिखूॅंगा? और वह लगातार हो रहा था और बढ़ता जा रहा था। फिर ठीक हो गया धीरे-धीरे। हालॉंकि उसका असर कई महीनों तक रहा। मुझे लगता था कि कुछ धुॅंधला सा है अभी दिमाग में।
लेकिन उस दुर्घटना ने और उसके बाद कोविड ने, इन दोनों ने मुझे और, क्या बोलूॅं मैं, खूॅंखार कर दिया। क्योंकि भैंसेवाला दो बार बहुत निकट आकर के चेतावनी दे गया। बचपन का खाया-पिया है, मैं मज़बूत हूँ, नहीं तो चोट बहुत ज़ोर की लगी थी। अजीब बात यह है कि कोई हड्डी नहीं टूटी, सिर भी यहाँ से फटा था, खून भी आया था लेकिन फिर भी ब्रेन में शायद कुछ हुआ नहीं। आगे हो तो हो, अभी तो कुछ नहीं हुआ।
उसमें यह समझ में आ गया कि काॅम्प्लेसेंसी (आत्मतुष्टि) नहीं चलेगी। आप एक क्षण भी बर्बाद नहीं कर सकते और आप भविष्य पर निर्भर नहीं रह सकते। जो करना है, जितनी जल्दी करना है, कर लो। बीमारी का, दुर्घटना का, जीवन-मृत्यु संयोग का कुछ पता नहीं, कुछ भी कभी भी हो सकता है। तो मैं और ज़्यादा डटकर, और ज़्यादा रुथलेसली (निर्मम होकर) काम कर पाया हूँ उसके बाद। तो यह संयोग भी अच्छे ही रहे मेरे लिए, इन्होंने मुझे और व्याकुल कर दिया, और ज़्यादा प्यास बढ़ा दी और धार बढ़ा दी।
प्र: जीवन की क्षणभंगुरता से भी तो आप आमने-सामने रू-ब-रू हो गये। तो वैराग्य भी फिर आ गया होगा?
आचार्य: नहीं, मुझमें वैराग्य नहीं आया। वैराग्य पहले से है, मुझमें तो और ज़्यादा डिटरमिनेशन (दृढ़ निश्चय) आया है कि समय कम है, जल्दी कर लो! वैराग्य क्या? राग होता तो यह काम थोड़ी कर रहे होते। राग वगैरह तो पहले भी बहुत नहीं था। लेकिन एक अर्जेंसी (तात्कालिकता) आ गयी है। और बहुत शार्प (प्रखर) अर्जेंसी कि जो करना है जल्दी करना है, तेज़ी से और ज़ोर से करना है। और ज़्यादा ख़तरे उठाने हैं। और कुछ बचाने का फ़ायदा नहीं है क्योंकि सबकुछ कभी भी नष्ट हो सकता है। तो जो कुछ है, उसे सही तरीक़े से जल्दी-से-जल्दी ख़र्च करना है। तो मैं इन घटनाओं के बाद से अपनेआप को और ज़्यादा तेज़ी से ख़र्च कर रहा हूँ। बचाकर रखकर क्या होगा? तो जल्दी-से-जल्दी अपनेआप को उड़ाओ, पूरा ख़र्च करो और काम आगे बढ़ाओ।
प्र: आचार्य जी, आप की शिक्षाओं का लक्ष्य है चेतना का उत्थान। तो हाल ही में पता चला कि आपका यह एक्सीडेंट हुआ था और नियर-डेथ एक्सपीरिएंस जैसा आपके साथ जो घटित हुआ था। तो उस समय आपको क्या खल रहा था? कि चेतना का उत्थान नहीं हुआ या फिर यह जो आपकी टीचिंग्स (शिक्षाऍं) हैं उसका कल्मिनेशन (परिणति) नहीं हो पाया?
आचार्य: मेरी अपनी चेतना की बात नहीं है। मेरे भीतर अपनेआप को लेकर कोई असन्तुष्टि नहीं है। और यह बात मैं दूसरों को सुनाने वगैरह के लिए नहीं बोल रहा, यह बिलकुल बहुत सीधी बात है कि मैं अपनेआप को लेकर बहुत सन्तुष्ट हूँ। अभी से नहीं, काफ़ी समय हो गया है। कई साल, शायद एक-दो दशक हो गये, मुझे कहीं आना-जाना या पहुँचना नहीं है।
मुझे ऐसा नहीं लग रहा है कि मुझे अभी यह हासिल करना है, मेरा यह बचा रह गया है काम। वैसा कुछ नहीं है। तो अगर मुझे लग रहा है कि समय कम है, तो इसलिए नहीं कि मुझे अपने कोई काम बाक़ी हैं। मिशन (उद्देश्य) बाक़ी है, इसलिए। मेरे पास ऐसा अभी कुछ नहीं है जो मुझे करना है। मेरी ज़िन्दगी जानते हो, मेरे पास क्या है करने के लिए कि अभी कर लूॅंगा? न मुझे अभी बच्चे पैदा करने हैं, न महल खड़ा करना है, न मुझे मार्स (मंगल ग्रह) पर जाकर सेटल होना (बसना) है। मैं अपने लिए ऐसा कुछ नहीं चाहता हूँ। एक तरह से मेरा रिटायरमेंट तो शायद दस-पन्द्रह साल पहले हो चुका है।
लेकिन यह जो काम है, यह अभी भी बिलकुल शैशव में है, अपनी इन्फैंसी (बचपन) में है। तो इस काम को बचाना है। यह काम भी अगर इतना आगे बढ़ गया होता कि मेरे बिना अपनेआप आगे चल लेता, कोई और इसे सम्भाल लेता तो भी मुझे तकलीफ़ नहीं होती। मैं फिर मज़े में चुटकुले मारते हुए विदाई ले लेता। लेकिन अभी मैं हक़ीक़त जानता हूँ न। अभी अगर मेरी विदाई हो गयी तो यह काम मेरे साथ ही मर जाएगा, इसलिए बुरा लग रहा था मरना।
लोगों को पता नहीं क्या अनुभव होते हैं जब उन्हें चोट-वोट लग जाती है। अंशु है यहाँ पर? पर मेरा तो यह था कि वह दो-तीन घंटे मैं रोया खूब था।
प्र: रोये थे?
आचार्य: खूब।
प्र: सिर में जब लगी थी?
आचार्य: पागल हो गया था, इसलिए नहीं। ऐसा नहीं है कि दिमाग में चोट लग गयी है, अब भेजा फिर गया है, इसलिए रो रहे हैं। यही साथ था (अंशु)। और मैं रोये ही जा रहा था, रोये ही जा रहा था और इसको समझाता जा रहा था कि मैं नहीं रहूँगा तो ऐसे कर लेना फिर यह कर लेना, फिर वह कर लेना। रो इसीलिए रहा था कि यह बच्चा मर जाएगा। कौनसा बच्चा?
प्र: मिशन।
आचार्य: हाँ, जिसको मिशन बोलते हैं। मैं नहीं रहूँगा तो ये बच्चा मर जाएगा। बस यही था, और कुछ नहीं। वह शब्द जो मैं इस्तेमाल कर रहा था ‘फ़्रैजाइल’ (नाज़ुक), यह सब कुछ अभी इतना नाज़ुक है कि मैं नहीं रहूँगा तो तुरन्त टूट जाएगा। एकाध-दो मेरी अभी व्यक्तिगत ज़िम्मेदारियाँ हैं, उनके लिए मैंने इसको कुछ निर्देश दे दिये थे कि मैं नहीं भी रहूँगा तो ये एक-दो काम हैं वो चलते रहने चाहिए। व्यक्तिगत तल पर उतना ही था। (स्वयंसेवक से कहते हैं) और भी कुछ था? पर्सनल (निजी) तो क्या ही, एक ही चीज़ बोली थी तुमको, उसके अलावा तो और कुछ बोला भी नहीं था। बाक़ी तो सब यही था कि क्या चलेगा, कैसे चलेगा।
लेकिन वह अच्छा हुआ कि हुआ। उससे मुझे भी बिलकुल झंझोड़ देने वाला साफ़ एहसास हुआ कि मामला कितना नाज़ुक है। और अभी हम कितने छोटे और कितने कमज़ोर हैं। तो इन घटनाओं के बाद से भीतर आग और बढ़ गयी है कि काम करो और तेज़ी से करो और पूरा कर लो। अगली दुर्घटना कब हो जाए, क्या पता! तो उससे पहले काम बढ़ा लो तेज़ी से।
प्र: मेरा सवाल यही था कि आपको प्रेरणा क्या देता है? तो प्रेरणा आपका फिर यही हुआ?
आचार्य: अब आप बैठी हैं, आप कह रही हैं कि आपको स्पिरिचुअल एक्सपीरिएंसेज़ (आध्यात्मिक अनुभव) हुए। यही प्रेरणा है मेरी। जब तक आप लोग ऐसे वहम में, भ्रम में और डर में और दुख में रहोगे, मैं मरूँ कैसे (हँसते हुए)? आप लोग सब ठीक-ठाक हो जाओ तो मैं चैन से मर लूँ। यहाँ पर अच्छी-अच्छी इतनी किताबें रखी हुई हैं और उनको छोड़कर के आप कौनसा कूड़ा उठा लायीं, आप वह पढ़ रही थीं। बताइए कितना सारा काम अभी बाक़ी है न।
और यह मैं कोई फ़िल्मी माहौल पैदा करने के लिए या नाटकीयता बढ़ाने के लिए नहीं कह रहा हूँ। वाक़ई यही बात है। मैं सड़क पर चलता हूँ, अपने चारों ओर दुर्दशा देखता हूँ। मैं जंगल की ओर निकल जाता हूँ तो वहाँ भी दुर्दशा देखता हूँ। यही तो मिशन है न। लोग बर्बाद हो रहे हैं, गंगा बर्बाद हो रही हैं। जानवर, इंसान इत्यादि सब की दुर्गति हुई पड़ी है। बहुत सारा काम बाक़ी है न।
जो बेचारे कुछ लोग हैं, जो समझते हैं, जानते हैं, वह कमज़ोर हैं, दुर्बल हैं। वह चुपचाप कहीं किसी कोने में पड़े हैं। और जो विनाश की ताक़तें हैं, झूठ की ताक़तें हैं, अधर्म की ताक़तें हैं, वो बड़े-बड़े मंचों पर चढ़ी हुई हैं। उनके हाथ में माइक है, उनके हाथ में सत्ता है। ये हालात बदलने ज़रूरी हैं न? तो यही करना है।