प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हम शाकाहारी क्यों हैं?
आचार्य प्रशांत: देखो, वहाँ तार के ऊपर एक चिड़िया बैठी है, दिख रही है? काहे को खाना उसे?
प्रश्नकर्ता: पेड़-पौधों में भी तो जान होती है, वो भी महसूस करते हैं।
आचार्य प्रशांत: अगर कहती हो कि पेड़ में जान है इसलिए चिड़िया खाऊँगी, तो यह भी कहना पड़ेगा कि क्योंकि चिड़िया में जान है तो इंसान भी खाऊंगी। अगर एक की वजह से दो जायज़ है तो दो की वजह से तीन भी जायज़ हो जाएगा। हो जाएगा न?
प्रश्नकर्ता: हम बचपन में फूड वेब पढ़ते हैं, उसमें था कि जो शेर है वो हिरण को खाता है।
आचार्य प्रशांत: वह लागू होता है प्रकृति पर — तुम प्रकृति से आगे भी कुछ हो! प्रकृति में तो ऐसा भी होता है कि एक प्रजाति अपनी ही प्रजाति का माँस खा जाती है। होता है न? इंसान का सौभाग्य-दुर्भाग्य दोनों यही है कि वह प्रकृति के आगे भी कुछ है, वो चैतन्य है। तो जो कुछ प्रकृति करती है, वह करने को तुम विवश नहीं हो। प्रकृति तो अन्यथा नहीं चाहती कि तुम जिज्ञासा करो। प्रकृति तो यही चाहती है कि तुम जियो और संतान पैदा करो। प्रकृति में तुमने कुछ और होते देखा है?
इस पौधे का पूरा जीवन क्या है? कि खुद बचे रहो शारीरिक रूप से और अपनी मृत्यु से पहले कई अपने जैसे और पैदा कर जाओ। तो प्रकृति तो फिर यही चाहेगी, तो फिर तुम अभी जो जिज्ञासा कर रही हो, जो जानना चाहती हो, जो समझना चाहती हो — गुरुओं की बातें, ग्रंथों की बातें, बुद्धत्व — उसका क्या काम? क्योंकि प्रकृति नहीं चाहती कि तुम बुद्ध बनो। प्रकृति को बुद्धत्व से कोई लेना-देना नहीं। तो सिर्फ इसलिए कि कोई काम प्रक्रति में हो रहा है, वह तुम्हारे लिए ठीक नहीं है! तुमने कहा पेड़ पौधे, वहाँ भी जितना हो सके उतनी कम हिंसा करना चाहिए।
जो कर्म तुम्हारे होने की अपरिहार्यता हैं, उसको हिंसा नहीं कह सकते।
अपरिहार्य! तुम्हारे पेट में बहुत सारे छोटे-छोटे जंतु रहते हैं, बैक्टीरिया, ये, वो, वह बनते-मिटते रहते हैं न? तुम उसके ज़िम्मेदार नहीं। यदि शरीर है तो भीतर कोई जन्म भी ले रहा है, कोई मर भी रहा है — फंगस भी है, बैक्टीरिया भी है, सब है भीतर। वो तो शरीर के होने की अपरिहार्यता हैं। उसमें तुम्हारा कोई चैतन्य निर्णय है ही नहीं। शरीर में तो भीतर कुछ जन्मेगा भी, कुछ मरेगा भी।
शरीर है तो कुछ तो खाना पड़ेगा ही, पर क्या खाना है? इसमें तुम्हें निर्णय करना पड़ेगा। वह खाऊँ जिसमें कम- से-कम हिंसा हो। कुछ हिंसा तो होगी ही क्योंकि कुछ हद तक तो तुम प्रकृति हो ही। जब तक देह है, तब तक तुम अपने प्रकृतिगत अंश को पूर्णतया मिटा नहीं सकतीं, नकार नहीं सकतीं, तो कुछ हिंसा तो होगी ही।
तुम्हें कोशिश क्या करनी है?
कम-से-कम हो और अगर तुम यह कहोगी कि पेड़-पौधों में भी तो जान है तो मैं मुर्गा खाऊंगी, तो उसी तर्क को आगे बढ़ाकर तुम्हें क्या कहना होगा? कि मुर्गे को अगर खा रहे हो तो इंसान को भी खा लो। एक से दो जायज़, तो दो से तीन भी जायज़। और फिर हिंसा के ऐसे ढलान पर उतर जाओगी जिसमें तुम रुक नहीं सकतीं, इसीलिए कम-से-कम पर रुक जाओ। अन्यथा हिंसा का कोई अंत नहीं है। जो माँसाहार करते हैं, वह भी तो रुक ही रहे हैं न? कहाँ पर रुक रहे हैं? वह कह रहे हैं कि जानवर खाएंगे पर इंसान नहीं खाएंगे। इतना तो वह भी वर्जित कर ही रहे हैं कि जानवर खाऊंगा, इंसान नहीं खाऊंगा।
तुम वर्जना थोड़ी और करुणामय करो। वह क्या वर्जित कर रहे हैं खाना?
इंसान।
तुम अपनी वर्जना में थोड़ा और प्रेम लाओ, थोड़ी और करुणा लाओ। तुम कहो कि मैं जानवर भी नहीं खाऊंगी। जब तक घाँस-फूँस से काम चल रहा है, फल से काम चल रहा है, मैं क्यों किसी पशु की जान लूँ? और बात जान लेने भर की ही नहीं है, पीड़ा ही क्यों दूँ?
चार दिन यहाँ शिविर में रहीं, सब्ज़ी में यहाँ पनीर नहीं था, और चाय में दूध नहीं था, दही भी नहीं मिला, यह कोई संयोग नहीं था, यह जीने का एक तरीका था। बड़ी अजीब बात हो जाती न कि यहाँ दो छोटे-छोटे कुत्ते घूम रहे हैं, उनको तो तुम दुलारो-सहलाओ, और नीचे गाय को जंजीर से बांधकर खड़ा कर दो। और क्यों खड़ा कर दिया है उसे रस्सी से बांधकर? ताकि शाम को तुम उसको दूह सको, उसका शोषण कर सको। अजीब हो जाता है — कुत्ते के साथ खेल रहे हो और गाय पर अत्याचार कर रहे हो!
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ‘झटका’ एक तरीका होता है मारने का। एक क्षण में मार देते हैं। तो अगर हम उसी लॉजिक से जाएँ तो हम फार्मिंग करते हैं, हम पेड़-पौधे अलग से उगाते हैं जिनको हम एक झटके में मार देते हैं, इसी तरह से हम पॉल्ट्री करते हैं, हम मुर्ग़ों को उगाते हैं और उनको एक झटके में मार देते हैं।
आचार्य प्रशांत: अंतर इसका नहीं है कि तुमने किस तरीके से मारा — तुम झटके से मारो चाहे तुम हलाल से मारो, तुमने एक चैतन्य जीव की जान ले ली। दुनिया में अगर ऊंचे-से-ऊंचा कुछ है तो वह है — चेतना। इसीलिए तो इंसान कीमती हैं और इंसानों में भी ‘बुद्ध’ कीमती हैं। आम इंसान और बुद्ध में क्या अंतर है? बुद्ध की चेतना बड़ी विराट है, बड़ी गहरी है। तो तुम बुद्ध की थोड़े ही इज़्ज़त करते हो, तुम किसकी इज़्ज़त करते हो? चेतना की। घास-फूंस की अपेक्षा जानवर में चेतना ज़्यादा है और जानवर की अपेक्षा इंसान में चेतना ज़्यादा है, तो इसीलिए जब भी चुनाव करना पड़ेगा तो तुम जान बचाना चाहोगे। जहाँ तक संगठित खेती, व्यवस्थित कृषि की बात है, तो वह भी कोई बड़ी सुंदर चीज़ नहीं है। वास्तव में तुम्हें खाने के लिए अलग से अन्न उत्पादित करने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए और यह हिंसा की ही बात है कि तुम किसी पौधे को रोप ही इसीलिए रहे हो कि एक दिन इसको हलाल कर दूँगा। यह हिंसा है और इस हिंसा के बिना जिया जा सकता है। पेड़, प्रकृति बहुत कुछ ऐसा देते हैं जिसमें हिंसा नहीं हैं, पर वैसे जीने के लिए संसार दूसरा चाहिए, जीवन-शैली दूसरी चाहिए। तुम शुरुआत कर सकती हो। तुम बिलकुल यह कह सकती हो कि बाजार में जो अन्न मिलता है वो मुझे नहीं चाहिए। जो भी कोई सब्जी ऐसी है जिसको खाने में पौधे की हत्या होती हो, वह सब्जी मुझे नहीं चाहिए। तमाम तरह के पत्ते आते हैं, और पेड़ से पत्ता ले लो, पत्ता दोबारा आ जाता है। पत्ता तुम्हारी उंगली की तरह नहीं है कि एक बार गया तो आएगा नहीं। पेड़ से तुम सीमित मात्रा में पत्ते लेते रहो, पेड़ को आपत्ति नहीं है। रही बात फल की तो पेड़ स्वयं ही चाहता है कि तुम उन्हें खाओ, क्योंकि तुम जब फल खाओगे तो तुम्हारे माध्यम से बीज चारों तरफ फैलेगा। तो बिलकुल शून्य हिंसा के साथ भी जिया जा सकता है। वह बिलकुल शून्य नहीं होगी, थोड़ी-बहुत तब भी बचेगी, पर वो जितनी बचेगी, उसके लिए माफ़ी मांग लो। कह दो कि अब शरीर है तो इतनी तो रहेगी, मैं क्या करूँ?
तुम सो रही हो, तुम्हारे हाथ पर मच्छर बैठा है, तुमने करवट ली, मच्छर मर गया। इसके लिए तुम कुछ कर नहीं सकती। इसके लिए तो सिर्फ प्रार्थना करना कि अब शरीर दिया है तो इतनी हिंसा तो होगी, मैं क्या करूँ? तुम सांस ले रही हो, तुम्हारी सांस के साथ कोई बहुत छोटा जीव, सूक्ष्मजीव भीतर जा सकता है, मर सकता है। तुम क्या करोगी? तुम्हें पता भी नहीं चला। तुम्हारा निर्णय तो नहीं था। जहाँ पर तुमने मारने का निर्णय नहीं किया, वहाँ तुम्हारा पाप बहुत कम हो गया। जहाँ तुम मारने का निर्णय कर ही नहीं सकते थे, वहाँ तुम्हारा पाप शून्य हो गया।
निर्णय करके, जानते-बूझते जब तुम किसी को पीड़ा देते हो, तब अपने लिए कष्ट आमंत्रित करते हो। तब कर्मफल लगेगा क्योंकि तुम उस पीड़ा को रोक सकते थे। तुम्हारे हाथ में था कि तुम यह कष्ट ना दो, पर तुमने चुनाव गलत किया। फलों पर ज़्यादा-से-ज़्यादा जिओ। जितना ज़्यादा तुम फलों पर जिओगी, उतना ज़्यादा तुम पशुओं की जान बचा रही हो, तुम उतने ही ज़्यादा पौधों की भी जान बचा रही हो। क्योंकि फलों के ख़ातिर पौधों को मारने की कोई ज़रूरत नहीं। फल तो खुद ही पौधे से टपक जाता है और जो फलों पर जिएगा, वह मेरी तरह मोटा भी नहीं हो जाएगा। यह सीख सबको देता रहता हूँ और फलों को खुद ही नहीं उतार पा रहा ज़िंदगी में। कोई दो महीने फलों पर जी ले, यूँ ही वजन कम हो जाएगा। वजन भी कम हो जाए और चेहरा भी खिल जाए। और एक बार तुम तय कर लो कि पौधों को मारे बिना भी मुझे स्वस्थ जीवन जीना है तो परमात्मा ने तुम्हें बुद्धि दी है न, तुम तरीके निकाल लोगे और बड़े खूबसूरत तरीके निकाल लोगे। बहुत अच्छे तरीके निकाल लोगे कि बिना पौधों को मारे भी जी सकते हैं, और तुम जो तरीके निकालोगी उससे सिर्फ तुम्हारा नहीं, पूरी दुनिया का हित होगा। तुम्हें देखकर के दसों को प्रेरणा मिलेगी।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, गाय का दूध, भैंस का दूध हम तो बचपन से पीते आ रहे हैं, हमारे तो घर पर ही है।
आचार्य प्रशांत: मेरे भी घर थी। बहुत कुछ है जो अतीत में हो रहा था। मध्यकालीन बर्बरता से परिचित हो ही तुम। वह सब कुछ हम अब थोड़े ही करते हैं? पहले यह साधारण बात होती थी कि बेटा बाप को मारकर राज्य हथिया ले। या दो राज्यों में लड़ाई हुई है तो जो विजेता सेना है वो विजित राज्य में तबाही मचा दे, कत्लेआम कर दे, औरतों को उठा ले जाए। यह बात बड़ी साधारण और स्वीकार्य थी। आज थोड़े ही ऐसा होता है। तो जो कुछ अतीत में होता आया है उसमें निहित हिंसा को गौर से देखो तो सही। हमारे अतीत में बहुत कुछ स्वर्णिम है और बहुत कुछ रक्तिम भी है। जो कुछ हमारे अतीत में रक्तिम है, उसे आगे बढ़ाने की क्या ज़रूरत?
प्रश्नकर्ता: मैं अभी खुद ही सोच रहा था डेयरी करने की, मैंने जॉब छोड़ दी है। दाल रोटी का तो कुछ करना ही पड़ेगा।
आचार्य प्रशांत: करिये! कुछ करिये! यह दुनिया बहुत परेशान है। इसका खाना गलत है, इसका पीना गलत, हवा गलत है, पानी गलत है। आपको धंधा-पानी देखना ही है तो,उन सब जगहों पर लोगों की मदद करिए।
पहला लक्ष्य यह रखिए कि मदद करनी है। धंधा-पानी अपनेआप चल जाएगा। इंसान को कितना चाहिए? लोगों को क्या सिर्फ दूध चाहिए और भी तो चीजें हैं जो लोगों को चाहिए न? कुछ ऐसा देखिए जो लोगों को चाहिए भी और लोगों के लिए अच्छा भी है, और वह लोगों तक पहुँचाइए। सुंदर जीवन बीतेगा और जीविका भी चल जाएगी। अब थोड़ा उस पर विचार करना पड़ेगा, ध्यान करना पड़ेगा। दुनिया मांग रही है कि ऐसे लोग मिलें जो उसकी मदद कर सकें और ऐसे लोग अगर सामने आएंगे तो उनको पुरस्कार मिलेगा। आप सामने आओ, आप अगर नौकरी छोड़ना चाहते हो तो दुनिया आपको हाथों हाथ ले लेगी। कुछ अच्छा सोचो कि क्या है जो सबकी भलाई के काम आ सकता है। कुछ अच्छा सोचो और फिर उसको कार्यान्वित कर दो। डेरी से ज़्यादा मुनाफा होगा? — डेरियाँ चलाने वाले तो बहुत हैं! हमारी गहरी-से-गहरी उम्मीद है — चेतना। हमें क्या बचाएगा? चैतन्य। हमें किसकी इज़्ज़त करनी है? चेतना की।
अभी हमने कहा न कि बुद्ध इज़्ज़त के काबिल इसीलिए हैं क्योंकि उनकी चेतना बहुत-बहुत गहरी है। तो तुम्हें मुक्ति किससे मिलेगी? चेतना से। पर तुम्हें चेतना के माध्यम से मुक्ति तभी मिलेगी न जब तुम्हारे मन में चेतना के लिए सम्मान हो। जिससे तुम्हें मुक्ति मिलनी है, अगर तुम्हारे मन में उसके प्रति सम्मान नहीं होगा तो तुम्हें मुक्ति मिलेगी? बोलो? जब तुम किसी चैतन्य जीव की हत्या करते हो तो तुम क्या दिखा रहे हो? यही कि तुम्हारे मन में चेतना के लिए सम्मान नहीं है। और अगर तुम्हारे मन में चेतना के लिए सम्मान नहीं है तो तुम्हारे मन में ‘बुद्धत्व’ के लिए भी सम्मान नहीं है। क्योंकि बुद्धत्व माने ‘प्रगाढ़ चेतना’। जिसके मन में चेतना के लिए सम्मान होगा वह चेतना की अनाप-शनाप हत्या कैसे कर देगा? जब तुम पेट के लिए चेतना की हत्या करते हो, तब तुम कह रहे हो कि पेट बड़ा है और चेतना छोटी है। और अगर पेट बड़ा है और जितना छोटी है तो तुम पेट के साथ ही रह जाओ, फिर मुक्ति क्यों मांग रहे हो? पेट के साथ रह जाना माने देह-भाव के साथ रह जाना। चेतना का असम्मान करके तुम अपनी ही मुक्ति को और मुश्किल बना रहे हो।
जब तुम किसी चीज की हत्या करते हो पेट की ख़ातिर, तब तुम कह रहे हो कि भोजन मुक्ति से ज़्यादा आवश्यक है। और तुम्हें मुक्ति किससे मिलनी है? चेतना से। और तुमने चुनाव किसका कर लिया? पेट का। तो तुम्हें अब क्या मिलेगा? पेट! तो अब पेट बजाकर घूमो। जो लोग पेट के ख़ातिर चेतना की हत्या करते हैं, उनको यही फल मिलेगा कि वह पेट बजाते घूमेंगे जीवन भर। देह पैदा हुए थे और देह ही मरेंगे क्योंकि उन्होंने चुनाव ही यही किया — “मैं तो देह हूँ”। और देह के ख़ातिर मैं चेतना की हत्या भी कर सकता हूँ। इतनी बड़ी बात!
भोजन के ख़ातिर जीवों को मारकर के तुम अपनी ही मुक्ति को असंभव बना रहे हो। और मुक्ति की तुम्हारी इच्छा है तो तुम अपनी ही इच्छा को असंभव बना रहे हो। यानि कि तुम अपने ही खिलाफ जा रहे हो — तुम आत्माघाती हो रहे हो। यानि कि जब तुम किसी जीव को मार रहे हो तो तुम किसी जीव का घात नहीं कर रहे, तुम आत्मघात कर रहे हो। अब बताओ मारना है जीव को? तुमने जीव का घात नहीं किया, तुमने आत्मघात किया। मत मारो! अपने लिए मत मारो। दूसरों पर करुणा स्वयं पर करुणा है!
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, दूध निकालने से मारने का क्या संबंध है?
आचार्य प्रशांत: हमने इतना दूध पिया है कि हमें इसमें कुछ अचरज ही नहीं लगता कि हम किसी दूसरे का दूध पी रहे हैं या छीन रहे हैं। जितने भी मैमल्स होते हैं, स्तनधारी, लगभग सभी को दूध आता है, मादाओं को। कितना दूध आता है? जितना बच्चे को चाहिए, बस उतना ही तो आता है। उससे पाँच-दस प्रतिशत कम-ज़्यादा हो सकता है, बस पाँच या दस प्रतिशत। स्त्रियों में देखिए न, जब उनको बच्चा होता है तो बच्चे के अनुसार ही उनको दूध आ जाता है। फिर कुछ दिनों बाद जब बच्चा बड़ा हो जाता है तो दूध आना भी बंद हो जाता है। यह तो प्रकृतिगत व्यवस्था है। दूध इसलिए थोड़े ही आता है किसी स्त्री को कि दूध में नहाए; दूध तो इसलिए आता है न क्योंकि प्रकृति चाहती है कि बच्चे को आहार मिले। अगर बच्चे के आहार के लिए दूध आएगा, तो कितना दूध आएगा? जितना बच्चे को चाहिए। उसमें उन्नीस-बीस हो सकता है, पर ऐसा थोड़े ही है न कि बच्चे को एक छटाक चाहिए और दूध आया है सौ-लीटर! ऐसा होगा क्या? ऐसा हो गया तो बीमारी है। गाय को, भैंस को, बकरी को, घोड़े को, ऊँट को, हाथी को, छोटे से खरगोश को, इन सबको दूध आता है। कितना दूध आता है? उतना ही जितना उन सब के बच्चों को चाहिए। आप जब उनका दूध लेते हैं तो क्या कर रहे होते हैं? जैसे कोई स्त्री हो और जो दूध उसके बच्चे के हिस्से का हो, वो आप पी जाओ। फिर मुझे बताना कि हाथी का दूध, ऊंट का दूध, बकरी का दूध और याक का दूध, सब एक से होते हैं?
प्रश्नकर्ता: अलग-अलग होते हैं।
आचार्य प्रशांत: क्यों अलग-अलग होते हैं? कभी सोचा है? क्योंकि हाथी को जो चाहिए वह भैंस को नहीं चाहिए। और सिंह के बच्चे को जो चाहिए, वह बकरी के बच्चे को नहीं चाहिए। शेरनी का दूध बकरी के बच्चे को सुहाएगा? और आप शेर के बच्चे को बकरी के दूध पर बड़ा करें तो क्या होगा उसका? गड़बड़ है न? आप भैंस का दूध पियो तो क्या हो जाएगा? भैंस का दूध भैंसे के लिए है, आपके लिए थोड़े ही है! उसमें वह तत्व ही नहीं है जो इंसान को चाहिए। यह बातें मैं जो कह रहा हूँ, इतनी साधारण हैं, इतनी स्पष्ट हैं, इतनी सही हैं कि अगर ज़ाहिर हो गयीं तो यह पूरा दूध-उद्योग बंद हो जाएगा। मैंने पहली बात कही कि हिंसा है और मैंने दूसरी बात कही कि भैंस के दूध में वह तत्व है जो भैंस को चाहिए, वह थोड़े ही है जो आपको चाहिए। आप भैंस का दूध पिओगे तो आपके दिमाग में कुछ-कुछ भैंस जैसे गुण आ जाएंगे। और तीसरी बात — किसी भी प्रजाति के बच्चे को कितने दिन दूध चाहिए? कितने दिनों तक? कुछ हफ्ते या तो कुछ महीने। आदमी में ऐसी क्या कमज़ोरी है कि उसको अस्सी की उम्र तक दूध पीना है? बोलिए। आपने कभी सोचा नहीं? छोटा घोड़ा कितने दिन दूध पीता है? छोटा बकरा कितने दिन दूध पीता है? छोटा हाथी कितने दिन दूध पीता है? उससे आगे दूध की ज़रूरत ही नहीं है, बल्कि दूध ठीक से पच भी नहीं सकता। जानते हो? आप जो दूध पीते हो, आप उसे ठीक से पचा भी नहीं पाते हो। बस बच्चा पचा सकता है। और हम दूध अपने भीतर उड़ेले जा रहे हैं, उड़ेले जा रहे हैं। हर चीज़ में दूध घुस गया है।
दूध के बिना कुछ बनता ही नहीं। अगर प्रकृति यह चाहती होती कि आप अस्सी की उम्र तक दूध पियो, तो आपकी माता को अस्सी साल तक दूध आता। क्या यह बात सीधी नहीं है? या प्रकृति ने यह कहा था कि छः महीने तक माता का दूध पियो और फिर बाज़ार का दूध पियो? प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था करी है कि छः महीने तक गाय का दूध मिलेगा और बाद में गाय का या भैंस का? ऐसा तो नहीं है। यदि आपको युवावस्था में भी, प्रौढ़ होते हुए भी, दूध की ज़रूरत होती, तो वह दूध आपको आपकी माता से उपलब्ध होता न। पर माताओं को तो दूध कुछ महीनों के बाद नहीं आता। उसी से ज़ाहिर हो जाना चाहिए कि उसके बाद आपको दूध की कोई आवश्यकता नहीं है। आप ज़बरदस्ती दूध अपने शरीर में प्रविष्ट करा रहे हो। अब वह विष है। कितनी ही बीमारियाँ शरीर में है क्योंकि आप दूध पीते हैं। आप दूध पीना छोड़ें, देखिए कितनी बीमारियाँ अपनेआप चली जाएंगी।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं तुलना नहीं कर रही, लेकिन कृष्ण भी तो कितना मक्खन खाते थे। हम इतना सुनते आए हैं बचपन से।
आचार्य प्रशांत: तुम यह पक्का मत रखो कि कृष्ण मक्खन खाते ही थे। तुम कृष्ण से सरोकार गीता जितना रखो, और गीता नहीं कहती कि तुम मक्खन खाओ। गीता कहती है कि होश में जियो। और फिर तुम कभी यह नहीं कहते मैं सोलह हज़ार पति करूँगी। यही क्यों कह रही हो कि कृष्ण ने मक्खन खाया तो मैं भी खाऊंगी? कृष्ण ने सोलह हज़ार रानियाँ करी थीं। तुम सोलह हज़ार पति करने की बात क्यों नहीं करतीं? क्योंकि वह तुमको जचता नहीं है। है न? वहाँ तो तुमने अपना चुनाव लगा दिया, पर दूध के मामले में तुम्हें चुनाव नहीं लगाना — “वहाँ तो मैं कृष्ण की अनुयायी हूँ, उन्होंने दूध पिया तो मैं भी पियूंगी”। वह तो यह भी करते थे कि स्त्रियाँ नहा रही हैं तो उनके कपड़े उठा लाए। यहाँ सामने गंगा है, तुम भी जाओ और जो पुरुष नहा रहे हों, उनके कपड़े लेकर भागो। फिर चुनाव क्यों कर रहे हो? वह सब कुछ करो जो कृष्ण ने करा, करो!
अरे भाई! कृष्ण का अपना समय था, अपना परिवेश था, उस परिवेश में कुछ काम हो जाते हैं। वह मुकुट पहनते थे, तुम भी पहनोगी? मुकुट पहनकर कॉलेज जाना। मोर पंख लगाकर, मुकुट पहनकर कॉलेज जाना। कुछ बातें समय सापेक्ष होती हैं। कुछ बातें बस उस समय की होती हैं, उसके आगे शोभा नहीं देती। अब यादव कुल, ग्वालों का कुनबा, अब उसमें दूध नहीं पिएंगे तो क्या करेंगे? इसमें उनका क्या ज़ोर चलना था? जहाँ दूध दही की नदियां बह रही हों, वहाँ एक बच्चा आया हो छोटा सा, तो वह क्या करेगा? दूध ना पिएगा? पिएगा ही। ग्वालों में पैदा ही हो रहा है तो पिएगा न? जीज़स ने माँस खाया। लास्ट सपर में भी जीज़स ने माँस खाया मेमने का, तो तुम इसी बात पर उनका अनुसरण करोगी? अरे भाई! वक्त-वक्त की बात होती है। कबीर साहब कहते हैं — “सार-सार को गही रहे थोथा देइ उड़ाए"। संतों से वो लो जो काल निरपेक्ष हो, जो कालातीत हो। जो समय के साथ बदलेगा नहीं। जो बातें समय के साथ बदल जाती हैं उनका अनुपालन मत कर लेना। कुछ बातें समय के साथ बदल जाती हैं।
कृष्ण संस्कृत बोलते थे। गीता किसमें है? संस्कृत में। अब बोलूँ संस्कृत? करते हैं फिर पालन। और जीज़स की भाषा तो मृत हो चुकी है। उसमें बोल दिया तो कौन समझेगा? और महावीर नंगे पांव चलते थे, और बुद्ध के पास मोबाइल फोन नहीं था। मोबाइल फोन खरीदते वक्त तो नहीं कहते हो कि गुरुओं के पास नहीं था तो मैं क्यों इस्तेमाल करूँ? पर अपनी सहूलियत के लिए यह याद रहा कि उन्होंने दूध पिया, उन्होंने माँस खाया तो मैं भी खाऊंगी। ऐसे नहीं करते।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, डेरी प्रोडक्ट को भारत बढ़ावा या मार्केटिंग इसलिए भी दे रहा है क्योंकि इनका बीफ़ एक्सपोर्ट बहुत है।
आचार्य प्रशांत: यह सब मिले हुए हैं। असल में दूध को लेकर अगली बात यह है, जिस गाय का तुम दूध पीते हो, तुम्हें क्या लगता है, जब वह दूध नहीं दे पाती, फिर उसका क्या होता है? तुमने सिर्फ गाय का दूध नहीं पिया, तुमने गाय का माँस खा लिया क्योंकि जिस गाय को एक बार पकड़ लिया गया शोषण के लिए, तो पूरा शोषण होगा। पहले उसका दूध लिया जाएगा, बाद में उसका माँस लिया जाएगा। तो दूध पीकर तुम गौ हत्या को भी बढ़ावा दे रहे हो।
प्रश्नकर्ता: हाल में ही एक आर्टिकल आया था कि अमेरिका में ज़्यादातर लोग शाकाहारी बन रहे हैं या वीगन बन रहे हैं। पर भारत में ऐसा नहीं है।
आचार्य प्रशांत: गाय का बड़ा नुकसान हुआ है, भारत ने उसे पूज्यनीय बना लिया। बेचारी अन्य पशुओं की तरह जंगल में रहती मौज में, आनंद मनाती, आज़ादी मनाती, तुमने उसकी पूजा करके उसे कहीं का नहीं छोड़ा। पूजा करते हो उसकी, दूध ले लेते हो उसका, उसके बछड़े को कैद करते हो, उसके बछड़े का बंध्याकरण कर देते हो। जानते हो कितनी अशोभनीय, अमानवीय बात है? सांड तुम्हारे काम आएगा नहीं, तो सांड को तुम क्या बनाते हो? बैल। तुम सांड का बंध्याकरण करते हो और जब वह बच्चा होता है, तभी उसके टेस्टिकल्स, अंडकोष, काट देते हो ताकि अब वह तुम्हारे काबू में आ सके। सांड थोड़े ही जुतेगा, लेकिन बैल जुत जाता है। तो गाय के पूरे कुल के साथ अत्याचार होता है — गाय के साथ, बछिया के साथ, बछड़े के साथ, बैल के साथ और सांड को तुम बाजारों में डंडा मारते हो, तो सांड के साथ भी। तो भला होता कि अन्य पशुओं की तरह गाय जंगल में रमण करती; आदमी ने उसे छूकर कहीं का नहीं छोड़ा। और अब तुम्हें लत लग गई है खीर की, खोए की, घी की, अब तुम्हारे लिए बड़ा मुश्किल है कि तुम गाय को बख्श दो और अपने स्वार्थ के लिए तुम तरह-तरह के तर्क निकालोगे। तुम कहोगे दूध तो अमृत होता है और पता नहीं क्या-क्या और वह सब बस इसलिए क्योंकि तुम्हारी ज़ुबान पर घी का और खोए का और छेने का स्वाद चढ़ गया है और तुम स्वीकार नहीं करोगे कि बात बस ज़बान के स्वाद की है। उपभोक्ता की ज़बान पर स्वाद चढ़ गया है और विक्रेता के मन को पैसे की लत लग गई है। वह दूध बेचता है, उसे पैसे मिलते हैं; वह माँस, बीफ़ बेचता है, उसे पैसे मिलते हैं; तुम खीर, दूध, घी, पनीर, चीज़ खाते हो तो तुम्हें स्वाद मिलता है। सबको कुछ-न-कुछ मिल रहा है और इस पूरी प्रक्रिया में शोषण और कत्ल किसका हो रहा है? बेचारी गाय का। जानवरों में सबसे अभागा कोई जानवर है तो वह गाय है। क्योंकि आदमी ने उसको पूजनीय बना दिया और उसके पीछे-पीछे बेचारी भैंस भी फंस गयी।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, सबसे ज़्यादा आइसक्रीम ने बर्बाद करके रखा है, सबसे ज़्यादा दूध उसी में इस्तेमाल होता है। इतने सारे मिष्ठान भंडार हैं, इतनी सारी मार्केटिंग है, इनकी मिठाई से बचा तो आइसक्रीम है, चॉकलेट है।
आचार्य प्रशांत: अभी तो स्थिति यह है कि जो छोड़ना चाहे, उसके लिए मुश्किल है क्योंकि छोड़ दें तो खाएँ क्या? हर चीज़ में पनीर डाल देते हैं, और पनीर नहीं डाला तो पीछे से घी तो डाल हीं देंगे, पता ही नहीं चलेगा कि घी डाल दिया है। भारत में दुनिया के सबसे ज़्यादा मधुमेह और हृदय आघात के रोगी हैं। भारत को ‘कैंसर, डायबिटीज़ एंड हार्टअटैक कैपिटल ऑफ द वर्ल्ड’ कहते हैं। कुछ तो हमने गड़बड़ कर रखी है न अपने खाने-पीने में। एक तरफ तो हम यह भी कहते हैं कि गरीबी है और दूसरी तरफ लोगों को इतना मधुमेह हो रहा है, दिल की बीमारी हो रही है। कैसे?
देखिए, यह सारी चीजें एक ही जड़ से निकल रही हैं, और वह जड़ है ‘आदमी की अपूर्णता’। आप ‘अपूर्ण’ महसूस करते हो इसलिए आपको भोगना बहुत है। आप भीतर से जितना खोखला महसूस करोगे, आप उतना अधिक भोगने की ओर प्रेरित रहोगे, उपभोग की तरफ। उतना ज़्यादा आप कहोगे कि मुझे और चाहिए, मुझे और चाहिए। आप जितना ज़्यादा अपूर्ण महसूस करोगे, आप उतनी ज़्यादा औलादें पैदा करोगे। आपके जीवन में आपको जितनी ज़्यादा रिक्तता रहेगी, उसे आप या तो परिवार के माध्यम से, संख्या के माध्यम से, या सेक्स को मनोरंजन की तरह इस्तेमाल करके पूरा करना चाहोगे — इससे आबादी बढ़ेगी।
अब उपभोग भी बढ़ रहा है और आबादी भी बढ़ रही है, मतलब उपभोग करने वाले लोग भी बढ़ रहे हैं — तो यह दूना प्रहार है। और उपभोग आप किसका करोगे? जो सामने आएगा उसी का करोगे। तुम पहाड़ों को काट दोगे, पशुओं को काट दोगे, इंसानों को काट दोगे। जो भी कोई आपको निर्बल मिलेगा, उसको काट दोगे। आपकी बस एक ही ख्वाहिश रहेगी — “मैं ज़्यादा से ज़्यादा निचोड़ लूँ, चूस लूँ”, और तरक्की का हम मतलब क्या जानते हैं? जो जितना ज़्यादा निचोड़ सके, चूस सके, कंज़्यूम कर सके, उसको हम कहते हैं वह उतना ज़्यादा डेवलप्ड है, विकसित है। जब तक आध्यात्मिकता के माध्यम से आदमी के भीतर बैठी केंद्रीय अपूर्णता को नहीं हटाया जाएगा तब तक महाविनाश ही है।
प्रश्नकर्ता: अंत में पृथ्वी अपनेआप को झाड़ देगी।
आचार्य प्रशांत: वह तो होना ही है। अभी यह जो पर्वत के साथ कर रहे हैं यहाँ पर, आपको क्या लगता है कि पर्वत इसे माफ़ कर देगा? पाँच साल पहले जो हुआ है, आपको क्या लग रहा है, वह दोबारा नहीं होगा? इस बेवकूफी को माफ़ी मिलेगी क्या? बिलकुल नहीं मिलेगी। हम ऐसे पगले हैं कि हम कहते हैं — “पृथ्वी खतरे में हैं”। अरे, पृथ्वी क्या खतरे में है? पृथ्वी को तो बस एक बार थोड़ा हिलना-डुलना है और पृथ्वी ठीक! कितनी बेवकूफी की बात है न? ‘सेव द अर्थ’! अरे! पृथ्वी को कोई
ख़तरा नहीं है। पृथ्वी बस एक दिन ऐसे अंगड़ाई लेगी और सब ठीक। पृथ्वी को क्या समस्या है? पूरे विश्व की समस्या सिर्फ इंसान है। इंसान हटा दो — पृथ्वी ठीक है, जानवर ठीक है, पेड़-पौधे ठीक हैं। और इंसान में भी क्या?
यही तरक्की की लालसा, उपभोग की लालसा, जिसको बढ़ाया जा रहा है व्यापार के माध्यम से, विज्ञापन के माध्यम से, शिक्षा के माध्यम से।