श्रद्धा में जीना सीखो || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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श्रद्धा में जीना सीखो || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्नकर्ता: कुछ नया आता है तो उसको देख करके डर उठता है। ऐसा कैसे हो पाये कि नये को देख करके डर की जगह उत्सुकता जगे?

आचार्य प्रशांत: तुम एक घर में हो, तुम एक घर में हो आयुष (प्रश्नकर्ता) और तुम्हें अच्छे से पता है कि ये जो घर है, ये तुम्हारे किसी शुभेक्षु का है, वेल-विशर का। लेट्स से इट्स योर फादर्स हाउस (मान लो ये तुम्हारे पिताजी का घर है)। ये पिता का ही घर है। घर बहुत बड़ा है, बहुत-बहुत बड़ा है।

घर. . . बहुत बड़ा है। तुमने नहीं देखा, उसमें सैकड़ों कमरे हैं। पर तुम अपने पिता को जानते हो और जानते हो कि वो बहुत अच्छे आदमी हैं। तुम उस घर में पहुँचते हो, तुमने कमरे नहीं देखे हैं, उन कमरों में जो कुछ भी है तुम्हारे लिए नया है। तुम उन कमरों में कैसे जाते हो? क्या डर-डर के जाओगे?

तुम उन कमरों को नहीं जानते पर तुम ये जानते हो कि ये घर मेरा है और इस घर को जो चला रहा है वो बहुत अच्छा आदमी है। तुम्हें उन कमरों में घुसते हुए क्या डर लगेगा?

अब दूसरी स्थिति ले लो — तुम एक ऐसे घर में हो जहाँ पर तुमको ज़बरदस्ती बंधक बनाया गया है, जो बुरे लोगों का है और तुम वहाँ पर सिर्फ़ सज़ा काटने के लिए डाल दिये गये हो। वहाँ पर तुम सिर्फ़ सज़ा काटने के लिए डाल दिये गये हो। ऐसे घर में क्या तुम मुक्त हो करके चारों तरफ़ घूम पाओगे? और जब भी कोई नई आवाज़ आएगी, तुम्हें क्या लगेगा?

श्रोतागण: भूत।

आचार्य: कोई डरावनी चीज़ होगी! कहीं कोई रिवाल्वर तो नहीं बोल्ट कर रहा! कहीं कोई जानवर तो नहीं है! कहीं कोई मेरे लिए नया ख़तरा तो नहीं आ गया! तुम्हें एक कमरा दिखाई देगा जो बंद है, तुम्हारी हिम्मत नहीं पड़ेगी उसमें जाने की। कोई कहेगा भी कि इसमें चले जाओ तो तुम्हें यही लगेगा कि इसके अंदर कुछ खौफ़नाक होगा।

याद रखना जो पहला घर था उसमें भी तुम जानते नहीं कि कमरे के भीतर क्या है, जो दूसरा घर है उसमें भी तुम जानते नहीं कि कमरे के भीतर क्या है। पर पहले घर में तुम्हारे मन में उत्सुकता जगती है। तुम फोर्थकमिंग (आगामी) हो, तुम जानना चाहते हो। दूसरे घर में तुम्हारे मन में सिर्फ़ डर उठता है, गहरा डर।

वजह क्या है? दोनों ही घरों को तुम जानते नहीं, दोनों ही कमरों को तुम जानते नहीं। पर एक जगह उत्सुकता उठती है, क्यूरियोसिटी और दूसरी जगह तुम्हें डर उठता है। क्यों? क्योंकि पहले घर में तुमको गहरा विश्वास है कि जो भी होगा अच्छा ही होगा। दूसरे घर में तुम्हारी मान्यता है कि मैं बुरी जगह फँस गया हूँ।

ये जो घर है न, ये हमारी दुनिया है। हममें से ज़्यादातर लोग इसी भाव से जीते हैं कि मैं किसी बुरी तरह फँस गया हूँ। और ये भाव हमारे मन में जगाया जाता है बचपन से ही।

‘बेटा, बाहर मत निकलना, बाहर बच्चा पकड़ने वाले घूम रहे हैं, बोरे में भर के ले जाएँगे।’ आज भी — ‘रात के इतने बजे के बाद बाहर मत जाना। हत्यारे घूम रहे हैं, बलात्कारी घूम रहे हैं।’

तुम्हारे मन में लगातार ये भाव जगाया जाता है कि तुम एक बुरे घर में हो।‌ जब तुम ये मान ही लेते हो कि मैं एक बुरी जगह हूँ तो वहाँ पर जो कुछ भी तुम्हें नया मिलेगा आयुष, तुम्हें उससे डर लगेगा। क्योंकि मूलभूत रूप से तुम्हारी धारणा यही है कि जो भी अनजाना है, वो डरावना है; जो भी अनजाना है, वो डरावना है।

दूसरी ओर, अगर पालन-पोषण उचित तरीक़े से किया जाये तो बच्चा मन में एक गहरी श्रद्धा लेकर के बड़ा होता है। वो कहता है कि ये दुनिया इसलिए नहीं है कि मुझे कष्ट दे। मैं इसलिए नहीं पैदा हुआ हूँ कि कोई मुझे सज़ा देना चाहता था। ये एक टॉर्चर (यातना) की लंबी यात्रा नहीं है, आदमी का जीवन आनंद है। अब वो डरेगा नहीं। उसके सामने जब भी कुछ नया आएगा, वो कहेगा कि कुछ अच्छा ही होगा। उसे पता नहीं है कि अच्छा है कि नहीं पर उसका जो विश्वास होगा वो यही होगा कि अच्छा होगा। इस गहरे विश्वास को श्रद्धा कहते हैं। वो हमारे भीतर नहीं है।

और याद रखना श्रद्धा का भी कोई कारण नहीं होता। श्रद्धा बस ये कहती है कि जो होगा अच्छा ही होगा; बुरा कुछ होता नहीं। और मुझे करने की विशेष ज़रूरत नहीं है। मेरे लिए भी जो कुछ ज़रूरी है वो मेरे बिना करे ही मुझे मिल रहा है।

मेरा दिल मुझसे पूछ कर नहीं धड़क रहा, सांसें मुझसे पूछ के नहीं चल रहीं, हवा में अठहत्तर पर्सेंट – अस्सी पर्सेंट नाइट्रोजन है। यही बढ़ जाए और पंचानवे परसेंट हो जाए तो बचोगे? और तुमने नहीं तय किया कि हवा में कम-से-कम इतनी ऑक्सीजन होनी ही चाहिए। वो है, अपनेआप है।

जो श्रद्धालु आदमी होता है वो इस बात को देखता है कि अरे! मेरे मेरे बिना करे ही तो देखो सब ठीक है न! मैंने थोड़े ही कहा था कि हवा ऐसी हो और टेंपरेचर (तापमान) ऐसा हो। आज दुनिया का जो औसत टेंपरेचर है वो बस पाँच डिग्री बढ़ जाए तो हमारी हालत ख़राब हो जाएगी। ग्लोबल वार्मिंग (भूमंडलीय ऊष्मीकरण) का सारा ख़तरा यही है कि दो डिग्री, चार डिग्री या पाँच डिग्री टेंपरेचर बढ़ जाएगा और हम नष्ट हो जाएँगे। ये तुमने तय करा कि दिन का तापमान पैंतालीस से ज़्यादा न हो? ये अपनेआप सब है न?

जो श्रद्धालु आदमी होता है उसको ये सब बातें साफ़-साफ़ दिखाई देती हैं कि जैसे पैदा हो गया बिना ख़ुद कुछ करे, जैसे सांसें चल रही हैं बिना ख़ुद कुछ करे, जैसे खाना पच जाता है अपनेआप मेरे बिना कुछ करे, वैसे ही मुझे डरने की क्या ज़रूरत है।

वो ग्रेस (अनुकम्पा) में जीता है। ग्रेस जानते हो? ग्रेस वो जो तुमको मिली ही हुई है बिना तुम्हारी पात्रता के; जो तुमने अर्जित नहीं करी, जो तुम्हें मिली ही हुई है।

वो कहता है, ‘जिस देने वाले ने इतना कुछ दिया है, उसकी दुनिया मेरे लिए ख़तरनाक कैसे हो सकती है? जिस पिता ने बिना माँगे इतना कुछ दे दिया, जीवन ही दे दिया, उसी पिता की दुनिया मेरे लिए ख़तरनाक हो, ये सोचना ही पागलपन है। जो है, अच्छा है।’

जो संदेही आदमी होता है जिसके बचपन से मन में संदेह-ही-संदेह भर दिये जाते हैं, वो एक उल्टी धारणा ले करके चलता है। वो कहता है, ‘दुनिया ख़तरनाक है। दुनिया धोखा है, बचो! अपने लिए दीवारें बनाओ। छोटे-छोटे कमरे बनाओ, उनमें अपनेआप को क़ैद कर लो। कुछ भी करने से पहले दस बार सोचो। प्रेम मत कर लेना, वहाँ बड़े धोखे मिलते हैं। जाँच-पड़ताल करो, ख़ुफ़िया एजेंसी लगाओ।’

वो सिर्फ़ संदेह में जीता है। उसका जीवन बड़ा मिट्टी हो जाता है, नर्क। क्योंकि अपने संदेह में वो हमेशा ख़ुद ही जलता रहता है। वो जो सर्किल था, अगर संदेह में जलता ही रह जाता तो कभी उसके लिए संभव नहीं था उड़ पाना; कभी भी नहीं। वो पड़ा रहता वैसे ही ज़मीन पर जैसे पड़ा हुआ था।

ये जीवन जीने के दो तरीक़े हैं — इनको ठीक-ठीक समझ लेना — एक श्रद्धा का, दूसरा संदेह का। संदेह का तरीक़ा तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ता। और मैं तुमको आश्वस्त करता हूँ हमसब महासंदेही हैं।

संदेह हमारे भीतर बहुत गहराई से बैठ गया है। और तुम्हारे भीतर बैठाया जाता है, बचपन से ही। हमारी शिक्षा भी यही करती है।

असल में सांइस (विज्ञान) तो हम ख़ूब पढ़ते हैं, और सांइस का काम ही यही है कि संदेह करे। हम ये नहीं समझते हैं कि बाहर जो भी दिखता है, वहाँ पर संदेह का तरीक़ा ठीक है, पर भीतर संदेह का तरीक़ा काम नहीं करता। वहाँ श्रद्धा का तरीक़ा चाहिए‌। अगर भीतर भी तुम संदेह करने लग गये तो जी नहीं पाओगे। बिलकुल जी नहीं पाओगे। किस-किस बात पर शक करते रहोगे! तुम कोई निर्णय ही नहीं कर पाओगे।

करो शक कि ये कुर्सी अभी टूट सकती है, बैठ नहीं पाओगे। करो शक कि ये पंखा अभी तुम्हारे सिर पर गिर सकता है, सुनना मुश्किल हो जाएगा। करो शक कि अभी एक भूकंप आ सकता है — और आ सकता है, क्यों नहीं आ सकता — साँस लेना दूभर हो जाएगा। करो शक कि शायद पड़ोसी को कोई ख़तरनाक संक्रामक बीमारी हो, उसके बगल में बैठना मुश्किल हो जाएगा।

जो ये शक्की आदमी है, ये जी नहीं पाएगा। ये डर में रहेगा और डरने का मतलब ही है घुट-घुटकर मरना। न सिर्फ़ मरना, घुट-घुट के मरना। थोड़ा श्रद्धा में जीना सीखो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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