प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैं राजस्थान से हूँ और यहाँ बेंगलुरु में पढ़ाई करता हूँ। अभी एमबीबीएस की पढ़ाई चल रही है। दरअसल मेरे पिताजी का देहान्त लगभग दो साल पहले हो गया था। तो अभी उनका पहला श्राद्ध होने वाला है।
लगभग आठ-नौ महीने पहले मैं वीगन (विशुद्ध शाकाहारी) बन गया था। और चूँकि श्राद्ध की प्रक्रिया में आहुति के लिए घी प्रयुक्त होता है, तो मैंने बोला कि मैं ये सब नहीं करूँगा अब। वैसे भी इनका कोई अर्थ भी नहीं है, जैसा आपसे समझा है। तो मेरे घर से यह आया कि अगर ये सब नहीं करेगा तो घर आने की ज़रूरत नहीं है फिर। तो एक तो मैं यह जानना चाहता हूंँ कि मुझे क्या करना चाहिए, और दूसरा यह कि श्राद्ध का असली महत्व क्या है।
आचार्य प्रशांत: देखो, तुम्हें क्या करना चाहिए, यह तुम तय करो। जवान आदमी हो, मेरे मुँह से मत कहलवाओ। ठीक है? अपनी ज़िम्मेदारी पर करो न। क्या करना चाहिए, मैं तो बता ही चुका हूँ। तो अब दोबारा मुझसे दोहरवाने का क्या फ़ायदा?
‘श्राद्ध क्या है?’ कुछ नहीं! जो चले गये हैं, उनकी जो सम्भावना नहीं साकार हो पायी, उसे तुम स्वयं साकार कर दो, यही श्रद्धांजलि है। बाक़ी तुम हर साल कोई रस्म निभा रहे हो, इसमें कुछ विशेष रखा नहीं है। हाँ, उस रस्म के माध्यम से अगर तुम्हें स्वयं अपने लिए जीवन बेहतर व्यतीत करने का स्मरण उठता है, तो श्राद्ध-आदि रस्मों का कुछ महत्व है फिर। लेकिन बस तुम वहाँ पर ऐसे ही कुछ बँधी-बँधाई प्रक्रियाएँ कर दो, एकदम कुछ नहीं होना उससे, एकदम कुछ नहीं होना।
देखो, हम सब जिनको चाहते हैं या तो वह हमसे पहले चले जाते हैं या हम उनसे पहले चले जाते हैं। ठीक? दो मनुष्यों के मध्य जब भी सम्बन्ध होता है तो इन्हीं दोनों में से एक घटना घटती है। कोई एक पहले चला जाता है; है न? तो यह जो विदाई होती है, यह अपनेआप में जैसे जाने वाले की अन्तिम इच्छा की अभिव्यक्ति होती है — अन्तिम और उच्चतम। वह जाकर के आपको बता रहा है कि जो कुछ भी तुम चाहोगे, वह इसी तरह एक दिन विदा हो जाएगा। कुछ ऐसा चाह लो जो विदा न हो सकता हो।
तुमने एक व्यक्ति को चाहा, या तो वह व्यक्ति विदा होगा या तुम विदा होगे। इस विदाई में उसने तुमको एक सन्देश दिया है। भई, आपस में सम्बन्ध था न? तो वह जाते-जाते भी जैसे तुमको एक तोहफ़ा दे गया है। क्या तोहफ़ा दे गया है? कि जैसे तुमने मुझे चाहा लेकिन पाया कि मैं खो गया, वैसे ही तुम जो कुछ भी चाह रहे हो, वो सब खो जाना है, नष्ट हो जाना है, हाथ से फिसल जाना है। तो मैं जाकर के अपनी मृत्यु के द्वारा तुमको एक सन्देश, एक सीख दे रहा हूँ। क्या है वह सीख? कुछ ऐसा चाह लो जिसको मौत भी तुमसे न छीन सके। श्राद्ध अगर तुमको यह सिखा पाता हो, तब तो सार्थक है श्राद्ध। नहीं तो बस ऐसे ही है, रस्मों-रवायत, उसमें से कुछ हासिल नहीं होता।
पंडित-पुरोहितों की कुछ आमदनी हो जाती है और आपको मन का सन्तोष हो जाता है कि मैंने कुछ कर दिया। और कुछ ऊल-जलूल अंधविश्वास हैं, वो और जड़ पकड़कर गहरे हो जाते हैं। कुल इतना ही निकलता है कि कहीं कोई जीवात्मा भटक रही है और मैं जो कुछ भी अर्पण-तर्पण कर रहा हूँ वो उस तक पहुँच रहा होगा, प्यास बुझ रही है उनकी, इत्यादि-इत्यादि; बहुत तरह की कहानियाँ हैं।
तो आप अपनेआप को फिर समझा-बहला लेते हो कि मैंने गये हुओं को कुछ दे दिया, उनके मैं किसी काम आ गया। लेकिन जो गये हैं, आप उनके काम वास्तव में अगर आना चाहते हो तो उसका जो तरीक़ा है, वो मैंने बता दिया। जो गये हैं, वो आपसे कह रहे हैं कि हमारा जीवन पूर्ण नहीं हो पाया और हमारे लिए श्रद्धांजलि यही है कि तुम अपना जीवन पूर्ण करके दिखाओ। मौत हमें उठा ले गयी, श्राद्ध यह है कि तुम स्वयं अमर हो जाओ।
नहीं तो फिर तुम क्या नाटक कर रहे हो, जैसे कि हम चले गये हैं, तुम यहाँ पर हो। फिर तो तुम्हारा भी वही हश्र होने वाला है जो हमारा हुआ। फिर तुममें और हममें अलग क्या है, जो तुम हमारे लिए इतनी रस्में कर रहे हो? तुम कह रहे हो कि हम चले गये; अरे, अगर हम चले गये तो तुम भी तो पीछे से चले आ रहे हो। पाँच-दस साल का फेर है बस। अन्तर तो हममें और तुममें तब होगा न, जब हम यदि चले गये हैं तो तुम अचल हो जाओ, हम अगर मर गये हैं तो तुम अमर हो जाओ। यह हुआ श्राद्ध।
बात कुछ आ रही है समझ में?
देखिए, कर्मकांड का भी जो मूल उद्देश्य था, वह वही था जो मनुष्य के समस्त कर्मों और समस्त इच्छाओं का होता है — हम चाहते हैं बेहतर होना, हम चाहते हैं कुछ ऊँचा मिल जाए। ठीक है? हर कामना यही चाहती है न कि कुछ अच्छा मिल जाए, हमारे साथ कुछ भला हो जाए, यही चाहती है न हर कामना?
उद्देश्य कर्मकांड का भी यही था। बस नासमझी में, कर्मकांड ने सोचा कि इन सबसे हमारा कल्याण हो जाएगा, क्योंकि उस समय पर जब इस तरह की बातें करी गयीं, उस समय तक मानव चेतना इतना ही सोच पायी कि इस-इस तरीक़े से करो, फ़लाने देवताओं को आहुति दे दो तो उससे हमारा कल्याण हो जाएगा।
आप ये मत देखिए कि प्रथा क्या निर्धारित है, आप ये देखिए कि उस प्रथा के मध्य में कामना क्या है। उस प्रथा के मध्य में कामना यह है कि कुछ अच्छा हो जाए। सब प्रथाएँ इसीलिए है न कि प्रथाओं का पालन करने वाले के साथ कुछ अच्छा हो जाए? तो आप सीधे उस पर ही जाइए न जो प्रथा का मूल है, जो प्रथा का केन्द्र है, जो प्रथा का औचित्य और लक्ष्य है। प्रथा का लक्ष्य क्या है? आपकी बेहतरी। तो सीधे-सीधे वह करिए जिसमें आपकी बेहतरी हो। घी जलाने से और बाक़ी चीज़ें करने से बेहतरी तो होने वाली है नहीं, ये आप भी समझते हो भली-भाँति।
समझ रहे हो?
आदमी और आदमी का रिश्ता मनुष्यों के परस्पर सम्बन्ध, बड़ी नाज़ुक बात होते हैं। उनको इतना स्थूल नहीं बनाना चाहिए कि अब कोई मर गया है तो उसके पीछे से तुम गाय, घोड़े का दान कर रहे हो और तमाम तरह की कल्पनाएँ कर रहे हो कि फ़लाने लोक में, फ़लाने तालाब में, फ़लाने पेड़ पर उसकी आत्मा लटकी हुई है। यह तुम क्या कर रहे हो? उस व्यक्ति की गरिमा का थोड़ा तो ख़याल करो!
जो चला गया है, उसका अपमान क्यों कर रहे हो इस तरह से उसकी बातें करके? मैं मर जाऊँ, फिर तुम बोलो कि फ़लाने लोक में आचार्य जी की आत्मा एक पीपल के पेड़ पर उल्टी टँगी हुई है। यह तुम मेरा सम्मान करोगे? तो यह बात तो गत व्यक्ति की गरिमा के भी विरुद्ध है कि इस तरह की कहानियों को तुम आगे बढ़ाओ।
वो जब ज़िन्दा थे, तब तुमने उनसे ऐसे बोला होता कि आप जब मरोगे तो आपका भूत वहाँ जाकर लटक जाएगा, तो उन्हें कैसा लगा होता? प्यास अगर बुझानी ही है पितरों की, तो जब वो जी रहे हैं तब बुझा दो। और अगर वो नहीं जी रहे हैं, तो उनकी प्यास बुझाने का एक ही तरीक़ा है कि अपनी प्यास बुझाओ; क्योंकि वो तुम्हारे रूप में अब जीवित हैं। जो कुछ वो नहीं पा पाए, उसको तुम अर्जित करके दिखाओ। उन्हीं का तो शारीरिक अंश हो न? तो वो चले थोड़ी गये हैं, अभी तो वो ज़िन्दा हैं, तुम्हारे रूप में जीवित हैं। तुम सही ज़िन्दगी जियो, यह वास्तविक श्रद्धांजलि है।
तुम तो एमबीबीएस के खिलाड़ी हो, तुम्हें मैं क्या बताऊँ एनाटॉमी (शरीर रचना विज्ञान) के बारे में, तुम नहीं जानते क्या? पूरे शरीर में कहीं कुछ होता है ऐसा जो फुर्र से उड़ जाता हो? गैस निकलती है। और उसको तुम अगर चीज़ें अर्पण कर रहे हो तो तुम ही जानो, बड़ा दुर्गन्धपूर्ण प्रयास है!
प्र: नहीं, मेरी तरफ़ से ऐसा कुछ नहीं है।
आचार्य: अब नहीं है तो फिर थोड़ी हिम्मत रखो। एक बार जो व्यक्ति जान जाए सच्चाई और जानकर भी सच्चाई को जिए न, तो उसके बारे में क्या कहें?
रस्में अधिकांशतः अच्छी हो सकती हैं। यह भी कोई आवश्यक नहीं होता कि आप सब प्रथाओं, परम्पराओं से पल्ला ही झाड़ लें। लेकिन कोई भी परम्परा अगर अर्थहीन है तो मूल्यहीन है। उसका पालन करने से पहले पूछो, ‘कुछ अर्थ है इसमें निहित?’ अगर है और तुम्हें साफ़ दिख रहा है कि अर्थ है तो ठीक है, पालन कर लो।
और न सिर्फ़ परम्परा के लिए इसलिए चलते रहो कि भाई, हमारे पूर्वजों ने करा है तो हम भी करेंगे। अगर वो सबकुछ जो पूर्वज कर रहे थे, ठीक ही होता, तो शब्दकोश में कुप्रथा जैसा कोई शब्द क्यों होता? और कुरीति जैसा कोई शब्द क्यों होता? कुप्रथा माने? हो तो रहा है पहले से, पर ठीक नहीं है। कुरीति माने? वही (कुप्रथा वाली) बात है।
तो इसलिए कि कोई चीज़ अतीत में हो रही थी, वह ठीक नहीं हो जाती। वह आज भी ठीक नहीं है, अतीत में भी वह ठीक नहीं थी। उसे होना अतीत में भी नहीं चाहिए था। ग़लत बात है कि वह अतीत में भी होती रही।
कुछ लोग आते हैं, वो कहते हैं, ‘जो कुछ भी होता आ रहा है वह ठीक है, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि होता आ रहा है।’ अपनी बहन को सती करना चाहोगे क्या? वह भी तो होता आ रहा था बहुत समय तक। तो फिर क्यों कहते हो कि जो कुछ भी अतीत में होता आ रहा है, वो सब ठीक ही है?
जिन परम्पराओं में पाओ कि ठोस अर्थ हैं और वो अर्थ आज भी प्रासंगिक हैं, आज भी काम आएँगे, उन प्रथाओं, परम्पराओं का अवश्य ही पालन करो उनका अर्थ जानकर के। तब वो परम्पराएँ जीवित रहने योग्य हैं। नहीं तो, अंधानुकरण किसी काम का नहीं होता।