आचार्य प्रशांत: कोई किसी का शोषण कर नहीं सकता उसकी सहमति के बिना। इतने व्यापक तौर पर तो बिल्कुल भी नहीं, इतने लम्बे समय तक तो बिल्कुल भी नहीं। तो स्त्री के सामने अब ये विकल्प है कि या तो सारा दोष उठाकर के पुरुष के सर रख दे कि हमारी बर्बादी के ज़िम्मेदार तुम्हीं हो। तुम्हीं ने ये सारी गन्दी प्रथाएँ बनाई, शोषक रीति-रिवाज़ बनाए, हमें वस्तु की तरह देखा, हमें पराया-धन समझा, इत्यादि-इत्यादि। तो ये करा जा सकता है और अगर स्त्री ऐसा करती है तो वो गलत भी नहीं कर रही, क्योंकि ऐसा हुआ भी है। पुरुष ने स्त्री का शोषण भी किया है, उसको चीज़ की तरह भी देखा है, दबा के भी रखा है, जितनी बातें तुमने कहीं हैं वो आज की नहीं हैं वो होती ही आई हैं। तो तुम चाहो तो शिकायत कर सकती हो, पर ये शिकायत वाली बात मुझे कभी बहुत जचती नहीं, क्योंकि शिकायत की शुरुआत में ही कमज़ोरी का भाव है।
तो दूसरी दृष्टि ये है कि तुम देखो कि ये सबकुछ जो हुआ है, उसमे स्वयं नारी का कितना योगदान है? नारी के शोषण में नारी की ही क्या भूमिका रही है? मैं चाहूँगा कि तुम ऐसे देखो- क्योंकि अगर तुम न चाहो तो कोई तुम पर राज कर नहीं सकता है। अगर स्त्री की ही सहमति और मर्ज़ी न हो तो पुरुष इतने समय तक और इतनी आसानी से उसको दबा के नहीं रख पाएगा।
ज्ञान नहीं होता है, तो 'प्रकृति' हावी रहती है। ज्ञान तो हो सकता है हो या न हो, देह तो होती ही है। ऐसा तो नहीं है कि ज्ञान नहीं है तो देह भी नहीं होगी और ज्ञान के अभाव में 'देही मनुष्य' पशु जैसा होता है क्योंकि देह तो पशुओं के भी होती है। तो हो सकता है कि तुम्हें बोध हो, हो सकता है बोध न हो, पर ये तो पक्का ही है कि जिस्म तो होगा और जिस्म माने प्रकृति और प्रकृति ने स्त्री को बड़ा महत्वपूर्ण काम दे रखा है। महत्वपूर्ण काम प्रकृति की दृष्टि से, बोध की दृष्टि से देखो तो उस काम का कोई विशेष महत्व नहीं है, पर प्रकृति की दृष्टि से देखो तो उस काम का ही सर्वाधिक महत्व है। कौन सा काम दे रखा है प्रकृति ने स्त्री को? प्रजनन, भरण-पोषण और प्रकृति के चक्र को लगातार आगे बढ़ाते रहने की ज़िम्मेदारी और ये ज़िम्मेदारी अन्य प्रजातियों की मादाओं को भी दे रखी है। अब अगर ये ज़रूरी है कि स्त्री बच्चे पैदा भी करे और उन्हें बड़ा भी करे, तो उसके लिए फ़िर आवश्यक है कि उसका देह से बड़ा सम्बन्ध रहे, क्योंकि वो जो छोटा बच्चा है वो और क्या है? वो देह ही तो है। तो प्रकृति ने ही स्त्री को ऐसा बना दिया है कि उसका देह से बड़ा सरोकार रहता है और उसमे आसक्ति, मोह और ममता पुरुष से कहीं ज़्यादा प्रबलता से मौजूद रहते है और प्रकृति ने स्त्री के भीतर क्यों आसक्ति और मोह भरे हैं? क्योंकि आसक्ति और मोह नहीं रहेंगे, ममता की भावना नहीं रहेगी, तो वो बच्चे की देखभाल नहीं करेगी।
अभी लखनऊ गया, तो एक सज्जन ने बुलावा भेजा, उनके घर गया तो छह दिन पहले उनके दो जुड़वाँ बच्चियाँ पैदा हुईं थीं। तो उन्होंने ला कर मेरी गोद में रख दी, बोले इन्हे आशीर्वाद दीजिए, मैंने उनको देखा, मैंने कहा-"अरे बाप रे बाप! ये तो इतनी छोटी हैं। इतनी छोटी माने इतनी छोटी, इतनी छोटी, इतना बड़ा उनका मुँह था और मेरे नाख़ून बराबर उनकी उँगलियाँ कुल, इतनी-इतनी उँगलियाँ, अजूबा। अब बताओ इतनी छोटी चीज़ को कितनी देखभाल चाहिए? कितनी देखभाल चाहिए? तो स्त्री को चौबीस घंटे फ़िर क्या करना पड़ेगा? अरे! हटाओ बुद्धत्व, हटाओ उपनिषद, हटाओ मुक्ति की सारी बातें, बताओ छौना कहाँ है और वो छौना अगर 'कूँ' ऐसे बोल दे, तो स्त्री की बिल्कुल धड़कन वहीं थम जाए, अरे 'कूँ' बोला, क्या हुआ? क्या हुआ? जिस दिन मैं पहुँचा, उस दिन उन बच्चियों को पहली बार नहलाया गया था, जन्म के हफ्ते भर बाद, कि अभी-अभी आज इनको पहली बार नहलाया गया है, और वो बड़ा एक अवसर था, कि अभी ये नहायी हैं आज। यही बहुत बड़ी बात है; कोई नहा रहा है। पर स्त्री को प्रकृति चाहती है कि यही बातें घेरे रहे, तो उसकी जो पूरी व्यवस्था बना दी है, वो व्यवस्था मुक्ति की दिशा को बढ़ना ही नहीं चाहती या ऐसा कह लो कि उसमे मुक्ति के प्रति कम आकांक्षा होती है, बनिस्पत पुरुष के, ख़ासतौर पर अगर ज्ञान का अभाव हो।
और ये स्थिति तब और भी बुरी हो जाती है। जब स्त्री को समाज भी संस्कारित कर देता है कि तुम्हारा तो गहना लज्जा और ममता ही हैं। हार है तुम्हारा ममता और कंगन है लज्जा। अब एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा। एक तो वो वैसे ही प्रकृति के द्वारा, अपने शरीर के द्वारा, अपने हॉर्मोन के द्वारा, भावना प्रधान है, ममता प्रधान है, देह प्रधान है, दूसरे समाज ने भी उसको यही पट्टी पढ़ा दी कि तुम तो शील, मर्यादा, ममता और लज्जा इन्हीं का ख़्याल रखना। अब कहानी ही ख़त्म। और फ़िर वो दिन रात करती भी यही रह जाती है, कभी अपने शरीर का ख़्याल रख रही है, कभी पति के शरीर का ख़्याल रख रही है, पूरे परिवार के शरीर का ख़्याल रख रही है और नए-नए शरीरों को जन्म देती जा रही है और उनका वो पोषण करती जा रही है। शरीर! शरीर! शरीर! शरीर! और जो भी जीव शरीर के तल पर ही जियेगा, चाहे स्त्री हो चाहे पुरुष हो, वो तो फ़िर बंधन में ही रहेगा न। तो स्त्रियाँ इसलिए बंधन में रही आई हैं और बंधन में रहे आने के सारे तरीके उन्होंने आत्मसात कर लिए हैं। अब बहुत ज़रुरत नहीं है कि कोई उनको बंधन में डाले, अब वो बंधनों का चुनाव ख़ुद कर लेती हैं। ये चीज़ उनके भीतर घुस गई है।
'सौंदर्य' शब्द पर मैंने बड़ा मनन किया, बड़ा ध्यान किया। मैंने समझना चाहा कि ये सुंदरता चीज़ क्या होती है? क्योंकि स्त्रियों को लेकर के इस शब्द का प्रयोग बहुत किया जाता है कि सुन्दर है कि नहीं है, कि फलानी बहुत सुन्दर थी, इत्यादि। मैंने कहा-सुंदरता चीज़ क्या होती है? और मुझे तो नहीं समझ में आया सुंदरता चीज़ क्या होती है। आप एक ख़ास प्रकार के चेहरे को देखने के लिए जैविक रूप से और सामाजिक रूप से संस्कारित कर दिए जाते हो, यही सुंदरता है। नहीं तो आध्यात्मिक तल पर तो सुंदरता की परिभाषा यही है कि 'सत्यम शिवम् सुंदरम', सत्य सुन्दर और शिव सुन्दर, उसमे ये कहाँ से आ गया? कि स्त्री सुन्दर या पुरुष सुन्दर। पर वो पट्टी हमको कुछ तो हमारा शरीर पढ़ा देता है कि कोई थोड़ा स्वस्थ हो, हट्टा-कट्टा हो तो वो अच्छा लगेगा, वो हमें शरीर ने पढ़ाया है और कुछ समाज ने पढ़ा दिया है कि कोई गोरा हो, किसी की आँखों का रंग ऐसा हो, किसी ने बाल इस तरीके से, इस स्टाइल में बना रखे हो तो वो सुन्दर है। स्त्रियों के लिए देह-सम्बंधित बहुत चीज़े महत्वपूर्ण हो जाती है, तो देह-सम्बंधित सुंदरता भी महत्वपूर्ण हो जाती है और फ़िर देह-सम्बंधित बंधन भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
मैंने जानना चाहा कि ऐसा क्यों है कि लगभग पूरे ही विश्व में स्त्रियाँ बाल लम्बे रखती हैं? और कोई वाजिब वजह नज़र नहीं आई, क्योंकि बाल अगर आपके लम्बे हैं, तो एक तो आप शारीरिक दृष्टि से वैसे ही कमज़ोर हो, दूसरे लम्बे बाल करके अब आपने ये बिल्कुल पक्का कर दिया है कि कभी किसी से आप लड़ोगे तो वो आपको बाल ही पकड़-पकड़ के मारेगा। आपके बाल किस तरीके से आपकी सहायता कर रहें हैं? मैं समझना चाहता हूँ। पर दुनियाभर की सारी स्त्रियाँ बाल लम्बे करेंगी, तुमने भी(प्रश्नकर्ता) बड़ा ज़बरदस्त सवाल उठाया, पर बाल खोल के और लम्बे बाल खोल के। ये तो बता रही हो कि पिताजी मेरा कन्यादान क्यों करे? स्रियों पर ही सारी बंदिशे क्यों? और ये सवाल तुम उठाना ही नहीं चाहती कि बाल लम्बे रखना क्यों ज़रूरी है? कभी किसी पुरुष को होंठ रंगते देखा है, तुम होंठ काहे को रंग के घूम रही हो? और ये आँखों में काजल क्यों लगाया है तुमने? नहीं, बताओ, ये नाखून में ये क्या तुमने हरा-पीला किया है? तो अब ज़रुरत ही नहीं है कि पुरुष आकर स्त्री को बंधक बनाए, स्त्री ख़ुद अपनी गुलामी को, अपने भीतर स्थान दे चुकी है, बड़ा पक्का स्थान और जब तक तुम हीं अपने आपको देह मानती रहोगी, तो कौन तुम्हें मुक्ति देगा?
प्रकृति ने तुम्हें देह बनाया है, देह तुम्हारी स्त्री कि है, आत्मा का तो कोई लिंग नहीं होता न, या तुम्हारी आत्मा भी स्त्री की ही है? आत्मा तो एक होती है न? पर बहुत कम स्त्रियाँ होती हैं जिनको आत्मा से कुछ लेना देना हो, क्यों? क्योंकि बच्चे को पालने के लिए थोड़ा भोलापन चाहिए, दूसरे संगति का भी असर पड़ता है, स्त्रियाँ बच्चो की संगति में इतना समय बिताती हैं कि बच्चों का कुछ भोलापन स्त्रियों में भी आ जाता है। आमतौर पर स्त्रियाँ उतनी कपटी-कुटिल नहीं होती जितना पुरुष हो जाते हैं, बहुत ज़्यादा उनको गणित समझ में ही नहीं आता, कि ये हिसाब ऐसे कर दें, वैसे कर दें। चालें चलती हैं, ठीक है, मंथरा होती हैं, इतिहास में भी कपटी स्त्रियाँ रही हैं बहुत, लेकिन फ़िर भी उनका कपट छोटा ही मोटा रहा है। बहुत बड़ा कपट स्त्री कर ही नहीं पाती। उसका कपट उतना ही होता है- "मेरे बेटे को राज्य दे दो", या किसी के जा के कान भर दिए, कि देखो तुम्हारा पति न वो दूसरी स्त्री को ज़्यादा चाहता है, और उसी के बेटे को दिए दे रहा है सिंहासन, इसी हद का कपट कर पाती हैं, इससे ज़्यादा तो कपट भी नहीं होता।
तो बच्चों के साथ रहने के कारण भोलापन आ गया और वो भोलापन वैसे भी चाहिए है, क्योंकि भोलापन न हो और स्त्री ने ज़रा-सा दिमाग लगा कर सवाल पूछना शुरू कर दिया कि इस पिद्दी के लिए मैं काहे अपनी ज़िन्दगी खराब कर रही हूँ? तो बच्चों का फ़िर जीना मुश्किल हो जाएगा। तो स्त्री बच्चा पालती रहे और एक के बाद एक पैदा करती रहे, इसके लिए आवश्यक है कि उसका दिमाग थोड़ा ठप्प रहे, ये व्यवस्था प्रकृति ने ही कर दी है। बात को समझो, कोई भी जागृत स्त्री ये सवाल तो करेगी न कि मेरा जन्म इसलिए थोड़ी हुआ है कि मैं बच्चे पालती रहूँ। अगर पुरष के जीवन का उद्देश्य है मुक्ति तो मेरे भी जीवन का उद्देश्य मुक्ति ही तो है और ये कौन सी मुक्ति है? कि एक के बाद एक छौने हाथ में लेकर घूम रही हूँ और ये भी नहीं कि एक बार पैदा हो गया तो मुक्ति मिल गई, उसके बाद उसको सालों तक पालते-पोसते रहो, साल भी नहीं दशकों तक पालते-पोसते रहो। स्त्री के ज़हन में ये सवाल कौंधता ही नहीं कि मैं ये कर क्या रही हूँ? क्यों कर रही हूँ? प्रकृति ने ख़ुद ही ये व्यवस्था कर दी है कि उसके दिमाग में ये प्रश्न उठे ही नहीं, उठेगा ही नहीं, उठना तो छोड़ दो, वो सामने बैठी हो बच्चा लेकर के, तुम उसको बार-बार ये जताओ कि देख तू ये सवाल सोच, तो भी वो न सोचे और ज़्यादा जाताओगे तो तुम्हें ही एक लगा के कहेगी कि "भक्क! ये दुश्मन है मेरी और मेरे बच्चे की; इससे मेरा मातृत्व का सुख देखा नहीं जाता।" बात समझ रहे हो?
तो अब उसमें एक भोलापन भी है, प्रकृति की चाल भी है और पुरुष ने उसका मान भी खूब इसी आधार पर चढ़ा दिया कि उसका देह कितना आकर्षक, कितना सुन्दर, तो फ़िर वो ख़ुद ही कोशिश करती रहती है कि मैं आभूषित हो के घूमती रहूँ। लो, शिकार करने की क्या ज़रुरत है? यहाँ तो शिकार ख़ुद ही आया है आपके दरवाजे, वो भी नेलपॉलिश लगा के। जंगल के पशु को भी दौड़ा करके पकड़ने की ज़रुरत होती है, यहाँ तो दौड़ाने की कोई ज़रुरत नहीं है, वो ख़ुद ही घूम रही हैं, ऐसे दिखाते, ये देखो। तुम किसलिए हो? तुम होंठ रंगने के लिए हो? तो तुम किसलिए हो? तुम ठीक उसी लिए हो जिस लिए एक बुद्ध थे, पर तुम्हें ये बात नहीं समझ में आती और तुम बड़ी नारीवादी बन के ये इल्ज़ाम लगा रही हो कि मेरे पापा ने ये कर दिया और दुनिया ने ये कर दिया। तुम्हें ये बात समझ में आती है? क्या समझ में आता है?
प्रश्नकर्ता: शरीर को ज़्यादा महत्व नहीं देना चाहिए।
आचार्य: जी। और आपका शरीर हो या किसी पुरुष का शरीर हो, शरीर तो शरीर है न? शरीर लेकर जाओगी, अर्थी के पार। पुरुष का जिस्म भी जलेगा तो क्या हो जाएगा? राख और तुम्हारा भी जिस्म जलेगा तो क्या हो जाएगा? राख, तो जितनी चीज़े तुम्हें अपने शरीर में सुन्दर लगती हैं कि ज़ुल्फ़ें, कि आँखें, नाक, कान, होंठ, सबकुछ, ये सब क्या होना है? राख।
पर ये बात सुननी ही नहीं है, समझनी ही नहीं है। पूरे तरीके से 'देह-केंद्रित' जीवन बिताना है। और फ़िर उस देह-केंद्रित जीवन जीने के कारण, जिसकी शुरुआत प्रकृति ने की थी, उस देह-केंद्रित जीवन जीने के कारण तमाम तरीके की चरित्रगत दुर्बलताएँ आ जाती हैं स्त्री में। क्योंकि जो देह को लेकर के जियेगा, उसमे सदा हीनता रहेगी, पूछो क्यों? क्योंकि तुम्हें अच्छे से पता है कि तुम्हारी देह कितनी भी ऊँची हो, कितनी भी सुन्दर हो, उससे बेहतर किसी न किसी की देह तो है ही। चलो आज किसी की देह नहीं है, समय तो है न, कल तुम्हारी यही देह क्या होगी? वृद्ध होगी, झड़ेगी। तो अब तुम्हारा बड़ा ध्यान इसी में रहेगा, किसी तरीके से मैं युवा बनी रहूँ।
अध्यात्म सारा है ही इसीलिए कि तुम्हें पदार्थ के पार ले जाए, लेकिन जो अपने आपको देह ही समझने लगे, उसकी बताओ आध्यात्मिक यात्रा शुरू होगी कैसे?