शोषक समाज से मुक्ति कैसे? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

Acharya Prashant

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शोषक समाज से मुक्ति कैसे? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

प्रश्न : सर, मैं पूँछना चाहता हूँ कि जब समाज अपनेआप में एक अभिशाप है तो हमें समाज की ज़रूरत क्यों पड़ती है?

वक्ता: कुछ भी अभिशाप नहीं होता।

एक मात्र अभिशाप है ,‘न जानना’।

एक मात्र अभिशाप है ‘अज्ञान’ और ‘अज्ञान’ का वास कहाँ होता है? समाज में या व्यक्ति में? कहाँ होता है ‘अज्ञान’? अज्ञानी कौन होता है? समाज की कोई सामूहिक अज्ञानता तो होती नहीं है? अज्ञानता जो होती है, वो तो व्यक्ति के भीतर होती है न?

अज्ञानी व्यक्तियों का एक समूह एक अज्ञानी समाज ही बनाएगा। सही? आप समझ पा रहे हैं? एक अज्ञानी व्यक्ति को अगर तथाकथित सबसे अच्छी परिस्थितियाँ या सबसे प्रबुद्ध समाज भी दे दिया जाए, तो भी उसे लगेगा कि वो अशांत है उसका शोषण किया जा रहा है। फिर वो यही कहेगा कि’सब अभिशाप है’, ’सब अभिशाप है’।

समाज आपको कोई हानि नहीं पहुँचा सकता अगर आप जागरूक हैं और अगर आप जागरूक नहीं हैं तो वो लोग जो आपके आस-पास हैं, भले ही उनके इरादे अच्छे हों आपकी बहुत ज़्यादा मदद नहीं कर पाएँगे। आपको अंत में हानि ही पहुँचेगी। आपको क्यूँ लगता है कि समाज एक अभिशाप है? आप में से कितने लोगों को समाज के बारे में कुछ समस्यात्मक लगता है? आप में से कितनों को कभी-कभी समाज के खिलाफ़ बगावत करने का मन करता है?

(कुछ श्रोता हाथ उठाते हैं)

हाँ, और ऐसा नहीं है कि इस बात में कुछ ख़ास है। हर व्यक्ति को अपने जीवन में किसी न किसी समय पर सभी नियम तोड़ कर अपने-आप को आज़ाद करने का मन करता ही है। ‘मुझे कोई सामाजिक बंधन, रूढ़ियाँ, धारणाएँ, मान्यताएँ नहीं माननी। मैं मुक्त हूँ, ये समाज मेरा शोषण करता है और ये बात मुझे पसंद नहीं है।’ लगता है न कभी-कभी ऐसा? आपको भी लगता होगा और आपने अपने चारों ओर भी देखा होगा; औरों को भी ऐसा लगता है। इसमें एक बात समझने जैसी है कि कोई आपका शोषण आपकी इच्छा के बिना कर नहीं सकता।

आपकी सहमति के बिना आपके साथ कुछ बुरा हो नहीं सकता। आपका शोषण आपकी सहमति के बिना नहीं हो सकता।आप पर कोई अभिशाप नहीं आ सकता जब तक आप उसको ख़ुद आमंत्रित नहीं करते।

ये एक छोटी सी कहानी बताते मैं कभी थकता नहीं।

मैं एक बार एक लम्बी दूरी की यात्रा कर रहा था रेल गाड़ी से। वो दिल्ली से चलती थी शाम में, फिर अगले पूरे दिन चलने के बाद तीसरी दिन की सुबह अपनी मंजिल पर पहुँचती थी। तो मैं अपनी सीट पर बैठा था। एक महिला आतीं हैं और मेरे सामने वाली सीट पर बैठ जाती हैं। काफ़ी उदास लग रहीं थी।.तो मैंने देखा पर मैंने कहा ठीक है, होता है। लम्बी यात्रा पर जो लोग जाते हैं, होती है किसी बात पर उदासी। मैंने उस पर बहुत ध्यान नहीं दिया।

फिर शाम ढली, रात हो गयी, अब मैंने उनका चेहरा देखा तो चेहरा रुआसा हो गया था। मुँह लगा रखा है खिड़की से, अब लम्बी दूरी की ट्रेन हैं, तो स्टेशन आ रहे हैं, जा रहैं हैं। एक-एक स्टेशन को देख रहीं हैं और जितने स्टेशन को देख रहीं हैं, उतना ही ज़्यादा चेहरा रुआसा होता जाता है। तो मैंने सोचा हो सकता है कि किसी प्रिय व्यक्ति को दिल्ली में छोड़ा होगा तो इसीलिए, उदासी बहुत ज्यादा है, दुःख हो रहा होगा। फिर मैं सोने चला गया। जब मैं सुबह उठा तो मैंने देखा कि वो रो रहीं हैं, लम्बी-लम्बी आँसुओं की कतारें। ये तो कुछ मामला गड़बड़ है, ये तो रो ही रहीं हैं। सोचा पूछा जाए कि क्या बात है। हो सकता है कि कुछ निजी समस्या हो। शोभा नहीं देता न ऐसे किसी से पूछना कि क्या हो गया, क्यूँ रो रहे हो? कहा ठीक है जो भी है। खैर ठीक है, जो भी है। अब वही, स्टेशन आ रहे हैं जा रहे हैं और हर स्टेशन को देख रही हैं और हर बीतते स्टेशन के साथ रोना बढ़ता जाता है, दोपहर आते-आते हिचकियाँ लेकर रोना शुरू कर दिया। अब मैं परेशान, मैंने सोचा अब तो पूछना पड़ेगा, तो पूछा कि क्या बात है? तबियत थोड़ा ख़राब है? कुछ खा-पी लीजिए, चाय लीजिए, दोपहर हो गयी है, लंच करिए, क्या हो गया?कुछ बताएँ हीं न, बस रो रहीं हैं। मैंने भी सोचा, बताना चाहती नहीं।

शाम आते-आते हिचकियाँ दहाड़ में बदल गयीं। तो जितना वो स्टेशन देखें, उतनी ही दहाड़ मार-मार कर रोएँ, रो रहीं हैं, मैंने फिर पूछा, मैंने कहा बता दीजिये क्या है? आपकी आवाज़ तो पूरे डब्बे में गूँज रही है, क्या हो गया है? बताएँगी कुछ नहीं। बड़ी मुश्किल से रात में मैं सो पाया। कमरे में हुडदंग मचा हुआ है, कोई सो सकता है? अब सुबह उठता हूँ, तो नज़ारा विभत्स हो उठा है।अब तो न सिर्फ रोया जा रहा है, चिल्लाया जा रहा है, बल्कि पाँव पटके जा रहे हैं, सीट पे हाथ मारा जा रहा है, ये किया जा रहा है, वो किया जा रहा है और मैंने पकड़ लिया, मैं कहा, अपना तो ठीक है, मेरा सामान भी तोड़ रही हो। मैंने कहा ’बैठो, बताओ, क्या बात है?’ किस बात पर इतना अफ़सोस मनाया जा रहा है? इतना गुस्सा किस बात पर है कि तोड़-फोड़ भी मचा दिया है।

तो महोदया उत्तर देती हैं कि इतना गुस्सा इस बात का है कि मैं 3 दिन से गलत ट्रेन में बैठी हुई हूँ और एक-एक स्टेशन जो बीत रहा है, वो मुझे याद दिला रहा है कि मैं गलत ट्रेन में हूँ। हँसी आई न? अगर जानते ही हो कि गलत ट्रेन में हो, तो उतर क्यों नहीं जाते। अगर जानते ही हो कि गलत समाज में हो, तो अब तक तुम उतर गए होते। तुम रहना भी इसी समाज में चाहते हो, तुम सब सुख-सुविधाएँ, मान्यताएँ भी इसी से लेना चाहते हो और तुम विद्रोही भी कहलाना चाहते हो कि देखिए, ये थोड़ा अलग टाइप के हैं, बड़े बगावती हैं, तो या तो ये साम्यवादी हैं या ये रोबिन हुड टाइप हैं, पर कुछ हैं इनमें, जो अलग है। इनमें ताकत है, क्रांति कर देने की।

जिन्हें क्रांति करनी होती है वो पूछने नहीं जाते, वो कर डालते हैं। ये भी ज़िंदगी से हमारा पलायन करने का एक तरीका है । बहुत लोग आप को मिलेंगे, यार, मैं इन धारणाओं से न तंग आ गया, इन घरवालों से मैं तंग आ गया, मैं घर छोड़ के जा रहा हूँ। उनको बोलो नहीं तुम चले ही जाओ, अब रुकना नहीं। आज तुम 250वीं बार बोल रहे हो कि घर छोड़ कर जा रहा हूँ, अब चले ही जाओ, रुकना नहीं। कहेंगे, क्या पागलों वाली बात कर रहे हैं, घर छोड़ के कोई जाता है? अगर तुम इतने ही परेशान होते, तो कब के चले गए होते।

एक सज्जन थे ऐसे ही, वो भी समाज से, दीन से, दुनिया से, घर से बहुत परेशान थे। तो अक्सर आत्महत्या करने निकलते थे और आत्महत्या करने निकलते थे, छाता लेकर के, ये छाता लेकर क्यों जाते हो? बोले बारिश हो गयी तो और धूप बहुत है।

(सब हँसते हैं)

उसके बाद जाएँ, एक छोटा-सा क़स्बा था, 6-6 घंटे के अंतराल में ट्रेन आती थी। जाएँ, लेट जाएँ, टिफ़िन साथ में रखा हुआ है खाने-पीने का, बढ़िया खाना-वाना खाएँ। मौसम अच्छा हो, उसी दिन ये सब करते थे और जब ट्रेन आने का टाइम हो तो उसके 1 घंटे पहले बड़ी, भारतीय रेलवे की हालत ख़राब है, हमेशा लेट रहती है, कभी और मरेंगे। बढ़िया, टिफिन-विफिन उठा कर के, डकार मार के, वापस आ जाएँ।

भई! अगर, इतना भी बुरा लग रहा होता। तो हम वहाँ होते नहीं, पर हमारा जीवन ऐसा ही है। हम जहाँ पर होते हैं, हमें वहीँ बुरा लग रहा होता है और जो ही हमें उपलब्ध नहीं होता, वो हमें बहुत अच्छा लग रहा होता है। वर्तमान आपको उपलब्ध है, वो आपको अच्छा नहीं लगता। भविष्य जो आपको उपलब्ध नहीं है, उसकी ओर मन हमेशा भागता है, आशाएँ, अपेक्षाएँ, उम्मीदें।

कॉलेज उपलब्ध है, वो कभी अच्छा नहीं लगता। मैं उपलब्ध हूँ, मैं अच्छा नहीं लग रहा हूँ, खिड़की के बाहर झाँक रहे हैं। मन का काम ही यही है कि जो है उससे दूर भागो और जो नहीं है, उसकी कल्पना में खोए रहो और जो नहीं है आज, कल को वो यदि हो गया, तो मन उससे भी दूर भागेगा। ये मत सोच लेना कि तुम्हें अगर वैकल्पिक समाज दे दिया जाए तो तुम बहुत खुश हो जाओगे। तुम्हें कोई भी समाज दिया जायेगा, तुम इतने ही दुखी, इतने ही रुखडे रहोगे क्योंकि दिक्कत समाज में है ही नहीं, दिक्कत हममें हैं।

समाज हमारा बिगाड़ क्या लेगा? और समाज हमें दे क्या सकता है? समाज, एक व्यवस्था का नाम है जो आदमी-आदमी के बीच रची है, एक व्यवस्था किसी का क्या बिगाड़ सकती है? क्या दे सकती है? और उस व्यवस्था में रहना कोई अनिवार्यता भी नहीं है आपके लिए। छोड़ दो, क्या रोक रहा है तुम्हें? कई लोगों ने किया है , तुम भी कर दो। समाज को छोड़ दो, छोड़ दो इस प्रणाली को, छोड़ दो इस संस्था को, छोड़ दो और निकल आओ बाहर। किस चीज़ की ज़रूरत है?कि अगर तुम छोड़ आए तो शिकायत करने के लिए बचेगा क्या? अभी हमारे पास कम से कम शिकायत करने के लिए मसाला रहता है। अभी आप के पास एक बहाना मौजूद है, ये दुनिया मेरा बड़ा शोषण करती है। घुँगरू की तरह बजता ही रहा हूँ मैं, कभी इस पल में कभी उस पल में, कभी ये आकर मेरे को परेशान कर देता है, कभी वो मेरे को परेशान करता है।

मैं तो एक शिकार हूँ, तो अगर तुम से ये शिकार भाव छीन लिया गया तो तुम्हारे अहंकार को न बदलने के लिए जितना सहारा मिल रहा था वो भी छिन जाएगा। तुम उसको कभी छिनने दोगे नहीं। चला गया तो शिकायत किसकी करोगे? शिकायत नहीं करोगे तो अहंकार को पुष्टि कैसे मिलेगी। है कि नहीं? मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि जिस समाज में हम रहते हैं वो आदर्श समाज है। मैं इस समाज का प्रवक्ता नहीं हूँ। मैं बस इतना कह रहा हूँ कि तुम किसी भी सामाजिक व्यवस्था से कई ज़्यादा ताकतवर हो। तुम्हें कोई शिकायत करने की ज़रूरत नहीं है।

तुम्हें कोई हानि नहीं पहुँचा सकता अगर तुम ये निश्चित कर लो कि तुम्हें ख़ुद को हानि नहीं पहुँचने देनी है। अपने और आस-पास के सभी चीज़ों की समझ रखो तब तुम हँसो या कुछ भी करो समाज पर, कोई फ़र्क नहीं पड़ता। ये तुम्हारी उम्र नहीं है। तुम्हारी उम्र नहीं है शिकायत करने की। अगर तुम्हें समाज में कुछ सड़ा, गला दिख रहा है तो स्पष्टता से देखो, तब तुम उससे अछूते रहोगे, सुरक्षित रहोगे।.

आपने जिस चीज़ का नकलीपना जान लिया, आपने जिस चीज का छंद होना जान लिया, अब वो चीज आपको कभी नुकसान नहीं पहुँचा सकती। एक बार जान जाओ कि ये जो दूध रखा है सामने, ये फटा हुआ है, तो क्या अब वो दूध तुमको नुकसान पहुँचा सकता है? नहीं, पहुँचा सकता न? नहीं पियोगे। तो जान लो सब कुछ स्पष्ट तरीके से। जानो और खुश रहो, अब शिकायत करने की कोई बात नहीं है कि सर, फटा हुआ दूध..

अरे! फटा है तो ठीक है मत पियो। कोई बाध्यता नहीं है।

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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