जनमानस में तो शिव और शंकर एक ही हैं, जिनके सहस्रों नाम हैं। सब नाम सुंदर हैं। पर अध्यात्म की सूक्ष्मताओं में जाकर अगर हम इन नामों का अभिप्राय समझें तो उनका सौंदर्य और बढ़ जाएगा। ‘शिव’ अर्थात आत्मा, सत्य मात्र। आप कहते हैं ‘शिवोहम्’, ठीक जैसे उपनिषद कहते हैं, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ या ‘पूर्णोहम्’। आप सामान्यतया ‘शंकरोहम्’ नहीं कहेंगे।
इसी तरह,*नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय*तस्मै नकाराय नम: शिवाय।
और
*नमामीशमीशान निर्वाणरूपंविभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम्। निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं*चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम्।
स्पष्ट ही है कि जब परम सत्य को निर्गुण-नित्य-निराकार-निर्विशेष जाना जाता है, तो ‘शिव’ नाम से संबोधित किया जाता है। अतः शिव का सत्यतः न तो कोई रूप हो सकता है, न देह, न निवासस्थान, न लिंग, न परिवार, न गुण। क्यों? क्योंकि मनुष्य के दुख के सब कारण इस स्वरूप, साकार, सगुण संसार में निहित हैं।
यह सब जो इन्द्रियों की पकड़ में आता है, मन की सामग्री बनता है, यही तो जीव को भ्रम में रखता है। अतः आवश्यक है कि परम सत्य को रूप, रंग, आकार आदि से मुक्त ही देखा जाए। अगर सत्य को भी हमने सांसारिक रूप रंग का चरित्र चोला पहना दिया, तो फिर मनुष्य की मुक्ति की क्या संभावना बची? सो शिव अरूप हैं।
अब आते हैं आम व्यक्ति की सीमाओं की ओर। निर्गुण और निराकार साधारण मन के लिए मात्र शब्द हैं। जन्मपर्यंत हमारा सारा अनुभव आकारों, रूपों, देहों का ही है। अतः व्यवहारिक रूप से अधिकांश लोग निर्गुण साधना के अधिकारी नहीं होते, न ही निराकार-निर्विचार से संबंध बैठा पाते हैं। ज़्यादातर लोगों के लिए सत्य की सगुण परिकल्पना अपरिहार्य हो जाती है।
अब शंकर का आगमन होता है।
शिव ब्रह्मसत्य हैं, तो शंकर भगवान (ईश्वर)। ब्रह्म और ईश्वर बहुत अलग-अलग हैं, पर पूजा तो अधिकतर ईश्वर की ही होती है। सर्वसाधारण अपने लिए ज़्यादा उपयोगी भी ईश्वर को ही मानता है। शिव कोई चरित्र नहीं, पर शंकर का चरित्र है। शिव का कोई परिवार नहीं, पर शंकर का परिवार, पत्नी, बच्चे सब हैं। शंकर किसी पुराण के, किसी गाथा के पात्र हो सकते हैं, शिव नहीं। यहाँ तक कि जिसे हम शिवपुराण के नाम से जानते हैं वो भी वास्तव में शंकर की ही कहानी है।
शिव सत्य हैं, ब्रह्म हैं, अनादि अनंत बिंदु हैं जिसके कारण हम हैं, और जो हम हैं। शिव अकथ्य हैं, ‘शिव’ कहना भी शिव को सीमित करना है। आपको अगर वास्तव में ‘शिव’ कहना है गहरे मौन में विलुप्त होना होगा। जिनके बारे में कुछ भी कह पाने में शब्द असमर्थ हों, वो ‘शिव’ हैं।
शंकर के बारे में आपको जितना कहना हो कह सकते हैं।
कल्पना जितना ऊँचा जा सकती है, जितना बड़ा महल खड़ा कर सकती है, और अपने लिए जो प्रबलतम आदर्श स्थापित कर सकती है, वो शंकर हैं। शंकर उच्चतम शिखर हैं। मन जिस अधिकतम ऊँचाई पर उड़ सकता है वो शंकर हैं, और शिव हैं मन का आकाश में विलीन हो जाना। मन को अगर पक्षी मानें तो जितनी ऊँचाई तक वो उड़ा वो शंकर, और जब वो आकाश में ही विलुप्त हो गया तो वो विलुप्ति ‘शिवत्व’ है।
तो शिव क्या हैं ?– खुला आकाश – चिदाकाशमाकाशवासं। शंकर क्या हैं? वो मन-पक्षी की ऊँची से ऊँची उड़ान हैं। विचार का सूक्ष्मतम बिंदु हुए शंकर, और निर्विचार हुए शिव।
शिव और शंकर में एकत्व होते हुए भी वही अंतर है जो संत कबीर आदि मनीषियों के ‘राम’ में, और दशरथपुत्र राम में। जब संतजन बार-बार ‘राम’ कहते हैं तो शिव की बात कर रहे हैं, और रामायण के राम शंकर हैं।
शंकर आदमी के चित्त की उदात्त उड़ान हुए, और शिव मुक्त आकाश। दोनों महत्वपूर्ण हैं, दोनों आवश्यक हैं। शिव का पूजन कठिन है। शिव को जानने के लिये शिव ही होना पड़ता है, और शिव ही हो गए तो कौन किसे पूजे? पर हमारे अहंकार के झुकने के लिए पूजा आवश्यक है। पूजा करनी है तो शंकर भी आवश्यक होंगे।
शिव अचिन्त्य हैं – जो शब्दों में आ न सकें, विचार में समा न सकें, चित्रों-मूर्तियों में जिन्हें दर्शा न सकें। शंकर सरूप सगुण हैं, मन के निकट और बुद्धिग्राह्य हैं।
अब शक्ति। शिव में निहित योगमाया शक्ति हैं। शिव की शक्ति ही समस्त सगुण संसार हैं, त्रिगुणात्मक प्रकृति हैं। शिव ही शक्ति के रूप में विश्वमात्र हैं।
शक्ति माने ये समूची व्यवस्था, ये अस्तित्व, ये खेल, ये आना-जाना, ये ऊर्जा का प्रवाह। जो कुछ हम जान सकते हैं, सब शक्ति है। अस्तित्व में शक्ति ही हैं, शिव तो अदृश्य हैं। मात्र शक्ति को ही प्रतिबिम्बित किया जा सकता है, शिव का कोई निरूपण हो नहीं सकता।
बहुधा शिव-शक्ति को अर्धनारीश्वर के रूप में आधा-आधा चित्रित कर दिया जाता है। ऐसा चित्रण उचित नहीं। शिव को यदि प्रदर्शित करना ही है तो शक्ति के हृदय में एक बिंदु रूप में शिव को दिखा दें। शक्ति अगर पूरा विस्तार है तो उस विस्तार के मध्य में जो बिंदु बैठा हुआ है, वो शिव हैं। दो चित्रों को आधा-आधा जोड़ देना अर्धनारीश्वर की सुंदर अवधारणा को विकृत करता है।
शक्ति समूचा शरीर हैं; उस शरीर का केंद्र, हृदय, प्राण हैं शिव।
शक्ति ही अस्तित्व हैं। यदि पहुँचना है शिव तक, तो क्या साधन है? शक्ति की ही उपासना करनी होगी। अन्यथा शिव को पाएँगे कहाँ? शक्ति के हृदय में हैं अद्वैत शिव, शक्ति के आँचल में हैं शिव। और शक्ति माने संसार, शक्ति माने संसार के सारे पहलू, सारे द्वैत, सब धूप-छाँव। इनके अलावा शिव कहाँ मिलने वाले हैं?
शिव की आराधना बिना शक्ति के हो नहीं सकती। वास्तव में आराधना तो शक्ति की ही हो सकती है। जिसने शक्ति की आराधना कर ली उसने शिव को पा लिया। जो शक्ति की उपेक्षा कर शिव की ओर जाना चाहे वो भटकता ही रहेगा।
आध्यात्मिक खोज की शुरुआत प्रकृति-शक्ति-जीवन से करें। अपने जीवन को साफ़ देखिए, आत्म-जिज्ञासा कीजिए, यदि सच जानना हो। शिव तक पहुँचना है तो शुरुआत शक्ति से करिए।
जीवन नहीं जाना तो जीवन से मुक्ति कैसे?
शक्ति को नहीं जाना वो शिव की प्राप्ति कैसे! शक्ति मार्ग हैं, शंकर मंज़िल की छवि हैं, शिव मंज़िल हैं।
यह लेख ‘जनसत्ता’ नामक अख़बार में दिनाँक २१ फ़रवरी, २०२० को प्रकाशित हुआ