शिक्षक (टीचर) और प्रशिक्षक (ट्रेनर) को गुरु नहीं बोलते || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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शिक्षक (टीचर) और प्रशिक्षक (ट्रेनर) को गुरु नहीं बोलते || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: जो भीतर के अंधेरे को हटा सके, उसके लिए नाम दिया गया—गुरु। अब उस शब्द का जनमानस दुरुपयोग कर ले तो वो अलग बात है। ध्यान दीजिएगा, भीतर का अंधेरा। और भीतर के अंधेरे का ही नाम होता है, 'मैं' भाव। मैं, मेरा संसार, मेरे इरादे, मेरी इच्छाएँ, मेरी उम्मीदें, मेरे हर्ष-विषाद। जो इन पर प्रकाश डाल सके उसका नाम गुरु है। जो बता सके कि आपके परेशान संसार के मध्य जो मूल परेशानी बैठी हुई है उसका नाम 'मैं' है उसी का नाम गुरु है।

'मैं’ कौन? जो शरीर से सम्बन्ध रखता है। 'मैं' कौन? जो दुनिया भर की सूचना और ज्ञान रखता है। 'मैं' कौन? जिसके सब रिश्ते-नाते, सम्बन्ध वगैरह हैं। अब 'मैं' का शरीर से रिश्ता है, ठीक। गुरु का काम है, 'मैं' की बात करना।

शरीर तो वो वस्तु भर है, विषय भर है। जिससे 'मैं' जुड़ा बैठा है। शरीर की देखभाल अपनेआप में एक वाजिब, एक वैध विषय है। लेकिन अगर आप शरीर की ही देखभाल की बात कर रहे हैं तो आप चिकित्सक तो कहला सकते हैं शरीर के, गुरु आपको कहना बात गड़बड़ हो जाएगी। और चिकित्सक का काम महत्वपूर्ण है। चिकित्सक के काम को सम्मान मिलना चाहिए पर फिर चिकित्सक, चिकित्सक होता है। और उसके पास फिर चिकित्सा की समझ-बूझ, और ज्ञान होना चाहिए। वैज्ञानिक दृष्टि होनी चाहिए, अनुसंधान का प्रयोग का, उसका रुख, उसका नज़रिया होना चाहिए। वो विज्ञान का क्षेत्र फिर आ गया कि शरीर को समझो, शरीर की देखभाल करो।

तो अगर शरीर की ही उन्नति में हमारी रुचि है तो जो व्यक्ति शरीर की बेहतरी की बात करे और शरीर की बेहतरी के सूत्र बताए वो फिर चिकित्सक कहलाए गुरु नहीं। इसी तरीक़े से 'मैं' सम्बन्ध बना लेता है धन-दौलत से। और जो जीव संसार में रह रहा है उसके लिए धन-दौलत उपयोगी है, यहाँ तक कि उसकी मुक्ति के मार्ग में भी धन-दौलत की उपयोगिता हो सकती है। तो 'मैं' है जो सम्बन्ध बनता है शरीर से, 'मैं' है जो सम्बन्ध बनाता है सम्पदा से।

हमने कहा शरीर की बात करना ठीक है पर जो शरीर की बात करे वो गुरू तो नहीं है। वो एक उपयोगी काम कर रहा है समाज में पर गुरू नहीं है। इसी तरीक़े से अगर कोई है जो आपको पैसा कमाने का हुनर सिखा रहा है। तो वो कोई ग़लत काम नहीं कर रहा है। काम उसका उपयोगी है लेकिन अपनेआप को अगर वो गुरु कहने लग गया तो ये उस शब्द की मर्यादा के साथ खिलवाड़ है। आप कह दें स्टॉक मार्केट (शेयर बाज़ार) गुरु तो ये ग़लत हो गया। इसका अर्थ ये कतई नहीं है कि वो व्यक्ति जो काम कर रहा है वो निम्न कोटि का है, हेय है। नहीं, ये नहीं कहा जा रहा, बस ये कहा जा रहा है कि वो जो काम कर रहा है वो गुरु का काम नहीं है। वो ठीक है, वो कुछ शिक्षण आदि कर रहा है, वो ठीक है, कह दीजिए।

इसी तरीक़े से दुनिया में अन्य कई विषय होते हैं जिन्हें 'मैं' पकड़ लेता है। गुरु का काम उन विषयों की बातचीत करना नहीं है। गुरु का काम ये नहीं है कि उन विषयों को लेकर 'मैं' को और पारंगत कर दें ताकि 'मैं' उन विषयों का और ज़्यादा दोहन कर सके। ये बिलकुल गुरु का काम नहीं है। गुरु का काम ये नहीं है कि आप जुड़े हुए हैं; मान लीजिए पैसे से, तो उसने आपको और ज्ञान दे दिया कि पैसा और ज़्यादा कैसे बनाना है। और इस ज्ञान का फिर 'मैं' क्या उपयोग करेगा? वो और ज़्यादा उस विषय से जुड़ जाएगा। 'मैं' इस ज्ञान का यही उपयोग करेगा न कि वो और ज़्यादा उस विषय से जुड़ जाएगा क्योंकि अब तो पारंगत हो गये भाई पैसा बनाने में तथाकथित गुरुजी ने ज्ञान दिया था। वो और जुड़ जाएगा पैसे से। ये तो अंधेर हो गया न?

गुरु का काम है 'मैं' को स्वच्छ कर देना, उसकी पूर्णता, उसके कैवल्य में स्थापित कर देना कि 'मैं’ को अब किसी सहारे की ज़रूरत पड़े नहीं। लेकिन उसकी जगह आपने उसको पैसा बनाने का और ज्ञान दे दिया तो वो तो और जुड़ गया। इसी तरीक़े से 'मैं' का पहला तादात्म्य होता है शरीर के साथ तो मन में लगातार शरीर तो घूमता ही रहता है। गुरु का काम है 'मैं' को शरीर के महत्व की धारणा से मुक्ति दिलाना। ये जो 'मैं' है इसकी दृष्टि में शरीर बहुत महत्वपूर्ण होता है। ये 'मैं’ किसी से भी जुड़े सबसे पहले किससे जुड़ता है? अपने शरीर से। जिससे भी जुड़ता है शरीर के माध्यम से ही जुड़ता है न? और किसी व्यक्ति से भी जुड़ेगा तो पहले अपने शरीर से जुड़ा होगा, उसके माध्यम से उस व्यक्ति से जुड़ेगा। तो 'मैं’ की पहली आसक्ति होती है, अपना ही शरीर। 'मैं’ को निरंतर विचार किसका चलता रहता है? 'मैं’ लगातार महत्त्वपूर्ण किसको मानता रहता है? (शरीर को)

अब अगर गुरुजी ऐसे हैं जो बार-बार शरीर की ही बात कर रहे हैं कि ये खाओ तो ये हो जाएगा। ऐसे चलो, ऐसे पिओ, इतने बजे उठो तो वो तो 'मैं’ की नज़र में शरीर का महत्व और बढ़ाए दे रहे हैं या घटा रहे हैं? (बढ़ा दे रहे हैं) तो अर्थ का अनर्थ हो गया न। ये तो बीमारी को और बढ़ाने का काम हो गया।

शिक्षण तक ठीक है, शिक्षक कहा जा सकता है फिर गुरु नहीं। गुरु शब्द ज़रा टेढ़ा है। ऐसा नहीं कि कोई भी उसे पकड़ लेगा। शिक्षक ठीक है। शरीर की शिक्षा दे दी, धन-दौलत की शिक्षा दे दी, दुनिया के तमाम विषय हैं उनकी सूचना दे दी। शिक्षण तक ठीक है, गुरु नहीं। गुरु तो बस वही जिसकी नज़र सिर्फ़ एक इकाई पर रहे। किस इकाई पर? 'मैं’ पर। और वो प्रयासरत रहे 'मैं’ की मुक्ति के लिए। और किससे मुक्ति चाहिए 'मैं’ को? उन सब विषयों से जिनको 'मैं’ पकड़ करके रखता है। उन विषयों की जो बात करे, उसका नाम हुआ शिक्षक। उन विषयों की जो बात करे, उसका नाम हुआ शिक्षक। और उन विषयों की बात करना भी मैं कह रहा हूँ महत्वपूर्ण निश्चित रूप से है। लेकिन उन विषयों की जो बात करे उसे गुरु नहीं कहा जा सकता।

गुरु वही है जो 'मैं’ को उन विषयों से आजादी दिला दे। जो 'मैं’ को इस थोथी, झूठी, और कष्टकारी भावना से मुक्त कर दे कि बिना विषयों को महत्व दिए चला ही नहीं जा सकता। और ये भाव हम सब में बड़े प्रगाढ़ रूप से बैठा होता है न? कि जिससे हम जुड़े हैं उसको महत्व नहीं दिया तो न जाने क्या नुकसान हो जाएगा हमारा। और ये भाव ही हमें जीने नहीं देता। ये भाव ही सब दुखों का कारण है कि जुड़े बिना, निर्भर हुए बिना गुज़ारा नहीं है। गुरु वो जो इस भाव से मुक्ति दिला दे। जो 'मैं’ की अपूर्णता को झूठा साबित कर दे।

समझ रहे हैं?

लेकिन आदमी के खेल बड़े निराले हैं। गुरुता से कोई सरोकार न रखना पड़े, इसके लिए आदमी ने फिर शिक्षक को ही गुरु का नाम दे दिया। नहीं तो बड़ी तकलीफ़ होती है ये स्वीकारने में कि जीवन में गुरु कोई है नहीं। तो फिर किसी को भी कह दिया गुरु है। ये जो गुरु शब्द के साथ व्यभिचार किया हमने वो इसीलिए किया ताकि असली गुरु से बच सकें। और कोई आ जाए ऐसा जो वास्तव में असली गुरु के संपर्क में हो तो उसके सामने हम भी शान से खड़े होकर कह सकें, 'हम भी जानते हैं कुछ गुरुओं को, हमारे जीवन में कोई कमी थोड़ी है। हमारे पास भी गुरु हैं।'

असली से किसी तरह कन्नी काट सकें इसके लिए हमने नकली का निर्माण कर दिया और नकली को नाम दे दिया, असली का। नकली को असली का नाम नहीं दोगे तो नकली को क्या नकली कह के स्वीकार करोगे? बड़ी दिक्क़त हो जाएगी न। नकली भी चल सके इसके लिए उसका नाम क्या होना चाहिए? असली।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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