प्रश्नकर्ता: सर, प्रश्न मेरा ऐसा है कि आपका जब मार्गदर्शन मुझे मिला था तो मैंने जो प्रयोग अपने जीवन में शुरू किया उसमें से सूची में एक मेरा था कि मैं शिक्षण करूँ; वैसे एमबीए किया हुआ है पर मैंने अभी शिक्षण में प्रयास किया।
तो अभी जब बच्चों को पढ़ा रही थी तो समझ आता है कि उनको जो भौतिक ज्ञान भी मिल रहा है वो भी कहीं से सही नहीं है। उदाहरण के लिए, उनको बताया जा रहा है कि जीव-जन्तु आपका भोजन होते हैं या फिर कबीर दास जी के बारे में अगर उनको कुछ बताया जा रहा है तो खाली ऐसे लिखा हुआ है, ‘कबीर’।
तो ये सब चीज़ें जब मैंने देखीं और आपसे भी समझती हूँ तो ये फिर वापस से मन बेचैन हो गया कि अब क्या करूँ, इन बच्चों को कैसे बताऊँ कि ये सब क्या है और मैं क्या कर सकती हूँ?
आचार्य प्रशांत: तो उसमें ये याद रखना होगा न कि आप एक क्लास (कक्षा) के तीस-चालीस बच्चों के अज्ञान से नहीं मुक़ाबला कर रही हैं, आप पूरी मानवता के हज़ारों साल के इतिहास का मुक़ाबला कर रही हैं। फिर थोड़ी ऊर्जा रहेगी, फिर पता रहेगा चुनौती कितनी बड़ी है। और जब चुनौती इतनी बड़ी होती है तब छोटी सी जीत भी बहुत मायने रखती है न!
ये अकारण ही थोड़े ही हो गया है कि हमें नहीं पता कि ज्ञानियों को संबोधित कैसे करना है; हम नहीं जानते। हम न उनकी कही बातों का अर्थ जानते हैं, न उनके होने का अर्थ जानते हैं। और अनायास नहीं हुआ, ये बड़ी लम्बी एक प्रक्रिया रही है जिसका परिणाम आज आपके सामने है। तो इस बात को समझिए और उसमें अगर आप थोड़ा-बहुत भी कुछ कर पाती हैं, परिवर्तन ला पाती हैं तो वो ऐसा सा है जैसे आपने एक बहुत बड़े राक्षस को एक घाव दे दिया हो। राक्षस बहुत बड़ा है, आप उसे छोटी ही चोट दे पायी हैं, पर आप अपनी सामर्थ्यहीनता के बावजूद चोट दे पायीं, यही अपनेआप में सराहनीय है।
आप जो कर रही हैं उसके परिणाम दूरगामी होते हैं। एक बच्चे को भी अगर आप वाक़ई सुधार दें तो वो आगे क्या कर सकता है इसकी कोई सीमा नहीं। विवेकानंद यही कहते रहे कि मुझे मुट्ठीभर नौजवान मिल जाएँ, मैं भारत को, दुनिया को बदल के दिखा दूँगा। उनको मिले नहीं। वो सौ कहते थे, ‘सौ मिल जाएँ तो उतना पर्याप्त होगा। भारत बदल देंगे। सौ मिल जाएँ तो।’ सौ नहीं मिले।
तो आपको भी करोड़ों बच्चों को नहीं बदलना है। क्या आप विवेकानंद के लिए सौ नौजवान तैयार कर सकती हैं? सिर्फ़ सौ। इतना तो हो सकता है न, एक स्कूल टीचर होते हुए? कि सौ तैयार कर दिये। आपने अगर सौ तैयार कर दिये तो आपने हिन्दुस्तान बदल दिया। सौ तो तैयार कर दीजिए। और आसान नहीं है सौ तैयार करना। दस कर दीजिए तैयार, बाबा! दस का मतलब हो जाएगा अनंत।
मौसम बहुत-बहुत ख़राब हो, तगड़ी धूप, कहीं वर्षा नहीं; उतने में अगर आप दस फूल खिला लें तो मतलब ये है कि आपको अनंत फूल खिलाने का सूत्र उपाय पता चल गया है, नहीं तो दस भी कैसे खिल जाते! दस भी कहाँ से आ जाते? ये जो दस हैं अब ये अनंत बन जाएँगे।
ठीक है?
परस्पेक्टिव , परिप्रेक्ष, जो घटना घट रही है एक सीमित, लोकल जगह पर, उसको पूरी तरह देख पाना ऊपर से, अलग होकर, थोड़ा अनासक्ति के साथ, जिसको कहते हैं द बर्ड्स आई व्यू। कि मैक्रो परस्पेक्टिव क्या है? विहंगम दृष्टि; यहाँ से देख पाना ऊपर (ऊपर की ओर इशारा करते हुए)। फिर अपने काम में सार्थकता पता चलती है, फिर पता चलता है कि जो काम कर रहे हो छोटा-मोटा नहीं है, ये तो बहुत दूरगामी, फ़ार-रीचिंग है।
प्र: सर, अभी तक मेरा बच्चों से जितना संवाद हुआ है, इतना समझ आ रहा है गड़बड़ है बहुत ज़्यादा। जब मैं ख़ुद भी विद्यार्थी थी तब भी मुझे कुछ ख़ास उसमें संतुष्टि नहीं मिलती थी। पर अब फ़िलहाल मैं स्कूल में नहीं, एक ट्यूशन सेंटर में पढ़ा रही हूँ। आपसे समझा है कि कोचिंग इंडस्ट्री कैसे चलती है। अभी बच्चे इतने छोटे से, मासूम से हैं, कुछ नहीं जानते। जैसे आप समझाते भी हो, उनपर अभिभावकों का भी दबाव है, शिक्षक का भी है और ट्यूशन टीचर का भी है। ट्यूशन टीचर का ये मानना है कि हमें तो अभिभावकों को जवाब देना है और पाठ्यक्रम खींचो बस।
तो यहाँ संघर्ष शुरू हो जाता है कि ये तो मुझे मंज़ूर नहीं है। उन बच्चों को मैं देख पा रही हूँ कि गलत पढ़ाया जा रहा है तो जितना मुझे समझ आता है, मैं वहाँ पर उसको सही कर दूँगी। जैसे एक बच्चे को मैंने बोला कि ये जानवर हमारा भोजन नहीं होता है तो एकदम से उसने प्रतिक्रिया दी कि मेरा तो अब ये पाठ पढ़ने का भी मन नहीं कर रहा। और वो पहली-दूसरी कक्षा की बच्ची है। तो इसी तरह से आगे बढूँ?
आचार्य: नहीं। देखिए, ये बात बिलकुल ठीक है कि आप कोई ढंग का काम करोगे तो उसमें चुनौतियाँ ही ज़्यादा दिखेंगी। आप पहाड़ों पर गये होंगे कभी। मान लीजिए, सामने आपके एक बहुत लम्बी-चौड़ी पहाड़ी-श्रृंखला ही है। आप कहीं बैठे हुए हैं और आपके सामने एकदम पहाड़-पहाड़ हैं और साँझ ढ़ल गयी है। और उनपर कई बार बीच-बीच में छोटे-मोटे घर होते हैं दूर-दूर, और उसमें लोगों ने अपनी लालटेन जला दी है या कुछ रोशनी कर दी है।
वो जो पूरा दृश्य है, उसमें आपकी नज़र कहाँ जाकर टिकती है? वो जो ज़रा-ज़रा सी रोशनियाँ होती हैं वहाँ जाकर टिकती है न! और उस पूरे क्षेत्र में अंधेरा कितना प्रतिशत है और उजाला कितना? अंधेरा कितना है? उजाला कितना है? अंधेरा निन्यानवे दशमलव नौ प्रतिशत है, उजाला शून्य दशमलव एक प्रतिशत, ज़रा-ज़रा सा कहीं पर बिंदु समान। लेकिन आँख फिर भी किसको खोज लेती है?
प्र: रोशनी पर।
आचार्य: तो उजाले को बहुमत में नहीं होना होता भाई! प्रकाश के साथ होने का यही तो फ़ायदा है। आप कम भी हो तो भी पर्याप्त हो। देखो कितनी अपमानजनक हार मिली है अंधेरे को! इतना सारा अंधेरा लेकिन आँख फिर भी जाकर टिक गयी वो ज़रा सा कोई दीया होगा कि लालटेन या बल्ब होगा, उसपर जाकर आँख टिक गयी। ये अंधेरे का अपमान नहीं है? भारी अंधेरा लेकिन जीत रहा है एक वो बीस वॉट का बल्ब।
बल्कि अंधेरा जितना घना होगा, वो छोटे से प्रकाश बिंदु का महत्व उतना बढ़ता जाएगा। तो अब बताइए, अंधेरे का घना होना अनिवार्यत: कोई बुरी बात है क्या? घना होगा अंधेरा, आप अपना काम करिए न! जितनी प्रतिकूल परिस्थितियाँ हों उनमें आपका काम उतना ज़्यादा महत्वपूर्ण और अर्थपूर्ण होता जाता है। कहीं रोशनी-ही-रोशनी हो, जैसे कोई सजा हुआ बाज़ार बिलकुल, उसमें आपकी आँख रोशनी पर टिकती है क्या? और जहाँ अंधेरा-ही-अंधेरा हो वहाँ पर देखिए रोशनी की महिमा!
समझ में आ रही है बात?
तो ये बिलकुल ठीक है। इसमें चुनौतियाँ गिनाने की कोई बात ही नहीं कि हाँ, चाहे पेरेंट्स (अभिभावक) हों कि टीचर्स (शिक्षक) हों या पूरा जो करिकुलम (पाठ्यचर्या) ही हो, वो सब अंदरूनी दिशा की ओर तो भेजता ही नहीं है छात्रों को। बिलकुल सही बात है। और जो छात्र है वो सिर्फ़ छात्र नहीं है, वो बाज़ार का ग्राहक भी है, घर का बेटा या बेटी भी है और अपने दोस्तों का दोस्त भी है। तो उसपर सौ दिशा से प्रभाव आ रहे हैं।
ठीक है!
तो ये हम जानते हैं कि चुनौतियाँ बहुत हैं, तभी तो फिर अच्छा काम करने में और मज़ा है न!
प्र: सर, एक और मेरे निजी जीवन में ही चुनौती है। अगर मैं बच्चों को ये भी बताऊँ कि जानवरों को दोस्त बनाना होता है तो वो चीज़ मैं अपने ऊपर तो अभी अमल कर ही नहीं पायी हूँ। मुझमें डर है और झिझक है। जैसे स्पर्श करना कुत्ते को या गाय को या किसी भी जानवर को। वो मेरे अन्दर बहुत ज़्यादा झिझक है। कीटों से अभी मैं कर पाती हूँ, उनसे डर नहीं लगता अब मुझे।
आचार्य: अरे, भई! ये कोई आपके व्यक्तिगत उत्थान की प्रयोगशाला थोड़े ही हैं। उन्हें नहीं पसंद है कि कोई उन्हें छुए। ज़्यादातर जीव-जन्तु बिलकुल नहीं पसंद करते कि इंसान उनको स्पर्श भी करे। आप अपनी ओर से बहुत मैत्री दिखा रही होंगी, उनको तनाव हो जाता है।
तो पशुओं से दोस्ती का मतलब ये नहीं होता कि उन्हें छुओ, गले लगा लो या चूमने लगो; जैसे हम फ़िल्मों में, कहानियों वग़ैरा में देखते हैं। उनसे मैत्री का अर्थ होता है उन्हें जीने दो। लेट देम बी। हस्तक्षेप मत करो।
उनसे दोस्ती का मतलब ये भी नहीं होता कि उन्हें अपने घर ले आओ, पालतू बना लो। बिलकुल नहीं पसंद करते कि आप उन्हें अपने घर ले आइए। उनका अपना घर है, वो वहीं पर प्रसन्न रहते हैं। दोस्ती माने बिलकुल नहीं है कि आप चिड़िया को अपनी हथेली पर बैठा लें और ऐसे मुँह बनाएँ कि अरे! अरे! अरे! चिड़िया को नहीं पसंद है आपकी हथेली पर बैठना। गिलहरी को नहीं पसंद है आपके पास आना। उसका अपना खेल है, वो चलता रहता है।
हाँ, संयोग की बात है किसी मनुष्य से किसी गिलहरी की दोस्ती ही हो जाए। वो लाखों में कभी एक बार होता है और वो संयोग से ही होता है अधिकतर। तो वो अलग चीज़ है। लेकिन ये हमें प्रयास नहीं करना है, पशुओं के पास जाकर के दोस्ती का प्रयास भी एक तरह की फिर क्रूरता हो सकती है, ठीक वैसे, जैसे सब मनुष्यों से हम ये नहीं करते न।
हम उनको फिर क्या बोलते हैं? आपके पास कोई आये और बार-बार बोले, ‘मेरी दोस्त बनो।’ बोलते हैं अनसोलिसिटेड एडवांसेज़ (अवांछित प्रस्ताव)। हमने तुम्हें बोला था, हमारे पास बार-बार आकर के बोल रहे हो, ‘दोस्त बनो, दोस्त। अरे! तुम अपना काम करो, हमें. . .’
प्र: अपना काम करने दो।
आचार्य: हाँ। तो पक्षियों को, पशुओं को उनका काम करने दो, बहुत उनको छूने की, छेड़ने की ज़रूरत नहीं है। संयोग से कभी किसी से दोस्ती हो जाए वो अलग चीज़ है।
प्र: और अगर कोई अपनी इच्छा से हमारी तरफ़ आये और हम उसको नहीं नियंत्रण कर पायें तो?
आचार्य: तो नहीं कर पाये तो पीछे हट जाओ। जैसे पशु के पास अधिकार है कि वो आपकी दोस्ती अस्वीकार कर दे, वैसे ही आपको भी अधिकार है कि कोई पशु आपकी ओर आ रहा है, आप उसकी दोस्ती अस्वीकार कर दो।
आप ये कर सकते हो कि भाई, तुम मेरी ओर आ रहे हो, हम तुमको कोई हानि नहीं पहुँचाना चाहते लेकिन तुमसे मैत्री, वो भी फ़िल्मों वाली मैत्री करने का अभी हमारा कोई मन नहीं है। तो तुम अपना काम करो, हम अपना काम करेंगे। हाँ, तुम्हें कोई ज़रूरत हो तो बता दो। पानी चाहिए, कुछ दाल-रोटी चाहिए वो हम तुमको दे सकते हैं। लेकिन तुम ये करोगे कि हमारे ऊपर चढ़ जाओ तो अभी हमारा मन नहीं है।
अब मतलब मैं तो इतना आप लोगों को बोलता हूँ पशुप्रेम, पर मेरे सिर पर कोई छिपकली बैठी हो, मैं तो नहीं पसंद करूँगा भाई! और न पशुप्रेम में ऐसी कोई अनिवार्यता है कि सिर पर छिपकली रखकर बैठो। मेरे कमरे में रहती हैं दो-तीन, वो दीवार से मुझे देखती रहती हैं, मैं उनको देखता रहता हूँ। (श्रोतागण हँसते हैं)
वो अपनी जगह हैं, मैं अपनी जगह हूँ। अब मैं ये तो नहीं चाहूँगा कि मैं दीवार पर चिपक जाऊँ, वो मेरे बिस्तर पर सो जाएँ। मैत्री इसमें भी तो है न — तुम अपनी जगह, हम अपनी जगह। अपनी-अपनी मर्यादा का पालन कर रहे हैं दोनों, बस ख़त्म।
प्र: नहीं, वास्तव में, पंचतंत्र में पढ़ा था न, तब से वो मन में आ रहा है।
आचार्य: वो कहानी है। वहाँ पर हम उनका मनुष्यीकरण करते हैं। नहीं तो करटक-दमनक आपस में बात थोड़े ही करेंगे। सियार उसमें तो सब बात करे रहे हैं एक-दूसरे से। ऐसे नहीं।
ठीक है?
उनको अपना काम करने दीजिए। हाँ, कोई बीमार हो गया हो, चोट लग गयी हो, उसकी सहायता कर दीजिए। बाक़ी बहुत छेड़खानी उन्हें अच्छी लगती भी नहीं है। उनकी अपनी दुनिया है, वो नहीं चाहते कि इंसान उनके सामने आये।
प्र: जी, धन्यवाद!