प्रश्नकर्ता: सर, जैसे कि मम्मी हमसे कहती हैं कि तुम्हारे कारण हम अपनी इच्छाएँ नहीं पूरी कर पाये। तो सर, उनकी इच्छा तो यही थी न कि हम भी कॉलेज में जाएँ। तो सर, वो ऐसा क्यों कहती हैं कि हम तुम्हारे कारण अपनी इच्छाएँ नहीं पूरी कर पाये?
आचार्य प्रशांत: बेटा, इच्छाएँ किसी की पूरी नहीं होती हैं। लेकिन हम इतने समझदार भी नहीं होते और इतने ईमानदार भी नहीं होते कि इस सार्वभौम सत्य को देख पाएँ कि इच्छाएँ आज तक किसी की पूरी नहीं हुईं। हमें लगता है हमारी इच्छाएँ पूरी हो सकती थीं, किसी कारणवश पूरी नहीं हो पायीं। कुछ संयोग लग गया, कोई भाँजी मार गया, किसी ने अड़ंगा लगा दिया, नहीं तो मेरी इच्छाएँ पूरी हो ही जातीं। वो तो मुझे राजकुमार मिल ही जाता, पिताजी ने तुम्हारे साथ फँसा दिया।
हमें फिर कोई चाहिए होता है जिसके सिर पर हम अपना सारा कचरा डाल दें, किसी-न-किसी पर तो आरोप लगाना है न। ये कैसे मानें कि इच्छाओं का तो स्वभाव ही अपूर्णता है। इच्छा पूरी कब किसकी होती है? इच्छा में फँसना ही पहली बेवकूफ़ी है, इच्छा में फँसना मतलब दुख को न्यौता। अब फिर जब दुख होता है तो उस दुख का ठीकरा हम किसी और के सिर फोड़ते हैं। बात एक व्यक्ति की नहीं है, ये पूरी दुनिया में ऐसा ही होता है, बेटा।
बच्चे पैदा ही क्यों होते हैं? माँ-बाप की कामना से। और फिर माँ-बाप कहते हैं, ‘तुम्हारे कारण हमारी कामना नहीं पूरी हुई।’ तुम्हारी कामना न पूरी हो रही होती तो हम आते कहाँ से? (श्रोतागण हँसते हैं) आसमान से टपके! तुम्हारी कामना का साक्षात् प्रमाण तो हम हैं और फिर तुम कह रहे हो, ‘हमारे कारण तुम्हारी कामना नहीं पूरी हुई।’
पहले तो हमें जवाब दो, ‘हमें लेकर क्यों आये, हमसे पूछा था? कामनाएँ तुम्हारी, अब अस्सी साल तक ढोना हमको है।’ और ये काम अभिभावक अपने बच्चे के साथ करते हैं, बच्चा अपने बच्चों के साथ करता है, श्रृंखला चलती रहती है। सब अपनी अधूरी इच्छाएँ अपनी अगली पीढ़ी पर लाद देते हैं। जैसे कि बच्चे ने ठेका लिया हो तुम्हारी इच्छाएँ पूरी करने का। वो जब पैदा हुआ था तो तुमने उससे कॉन्ट्रैक्ट (अनुबन्ध) किया था कि हम तुझे जन्म दे रहे हैं, अब तुझे ये-ये करना पड़ेगा हमारे लिए?
पर ‘मैं क्लर्क रह गया, बेटा कलेक्टर बने। मैंने पाँच बार कोशिश करी, मैं फ़लानी परीक्षा पास नहीं कर पाया; अब बेटा पास करे।’ होता है कि नहीं होता है? ‘हमारी सारी अधूरी ख्वाहिशें बेटा पूरी करेगा।’
क्यों भाई, कुछ समझा तो दो कि ये क्या कह रहे हो? ‘और फिर हमारी अधूरी ख्वाहिशें कौन पूरी करेगा, तुम?’ ‘नहीं, उसके लिए तुम तीन और पैदा करना, वो हैं।’ तो चक्र चलता रहे इसीलिए तो पैदा किये जाते हैं।
‘बेटा, हमारे तो कभी पचास परसेंट से ज़्यादा आये नहीं, पर तेरे अट्ठानवे से नीचे नहीं आने चाहिए।’ भाई, तुम्हें लाने थे तो तुम ले आ लेते, तुम्हें अट्ठानवे से इतना प्यार है तो खुद ले आ लिये होते। हमें नहीं प्यार है अट्ठानवे से, हमारे सिर क्यों बोझ रख रहे हो?
‘बेटा सरकारी नौकरी सबसे अच्छी होती है, हमें नहीं मिली।’ अरे, आपको अच्छी लगती थी, हमें नहीं अच्छी लगती। अपनी अतृप्त वासनाएँ हमारे ऊपर क्यों आरोपित कर रहे हैं? अपनी अपूर्ण इच्छाएँ हमारे ऊपर क्यों थोप रहे हैं? और आप देख नहीं पा रहे हैं कि यही तो फिर संसार का चक्र बन जाना है ― आपकी इच्छाएँ हमारे ऊपर, हमारी इच्छाएँ अगली पीढ़ी के ऊपर और आगे-आगे-आगे चल रहा है खेल।
असली अभिभावक हो पाना, असली माँ-बाप हो पाना उतना ही मुश्किल है जितना असली औलाद हो पाना। बहुत कम बेटे-बेटियाँ होते हैं जो असली बेटे-बेटियाँ होते हैं। और बहुत कम माँ-बाप होते हैं जो असली माँ-बाप होते हैं।
श्रोता: जैसे असली कौन?
आचार्य: बेटा, असली का मतलब ये हुआ कि शरीर से जन्म तो कोई भी माँ-बाप दे देता है और शरीर से तो कोई भी बेटा-बेटी उत्पन्न हो जाता है। उतना भर काफ़ी नहीं होता, उससे आगे जाना होता है असली कहलाने के लिए। असली का अर्थ होता है कि तुमने सिर्फ़ एक शरीर को ही जन्म नहीं दिया है, तुमने एक स्वस्थ मन को जन्म दिया है। पर अभिभावकों का पूरा खयाल शरीर तक ही सीमित रह जाता है।
तुम देखना ― आज ही था, हम सुबह-सुबह जब जा रहे थें घाट की तरफ़ — तो माँएँ सुबह-सुबह की धूप में छोटे बच्चों को लिटाकर के उनको तेल मल रही थीं। अच्छी बात है, शरीर भी स्वस्थ होना चाहिए; वो पहली बात है। लेकिन माँएँ शरीर तक रुक जाती हैं, उनके लिए इतना काफ़ी है कि बच्चा हृष्ट-पुष्ट है — खा लिया? हाँ। कोई बीमारी तो नहीं है? नहीं है। वज़न बढ़िया है? वज़न बढ़िया है। नहा लिया? हाँ। कपड़े ठीक पहने हैं? हाँ।
शरीर से सम्बन्धित जितने काम हैं वहाँ तक जाकर के माँएँ रुक जाती हैं। मन और आत्मा की कोई खबर ही नहीं लेतीं, क्योंकि उन्हें खुद ही नहीं पता। असली माँ वो है जो शरीर पर रुक न जाए, जो ये भी देखे कि बच्चा मानसिक रूप से पूर्णतया आत्मनिर्भर और स्वस्थ है या नहीं है। फिर वो माँ-बाप मात्र माँ-बाप नहीं रह जाते, वो फिर गुरु भी हो जाते हैं। उनको मैं कहता हूँ असली माँ-बाप।
इसी तरीके से असली बेटा-बेटी कौन हुए? असली बेटा-बेटी वो हुए जो जीवन भर बेटा-बेटी ही न रह जाएँ। स्वस्थ मन को लेकर के, जल्दी परिपक्व होकर के माँ-बाप के दोस्त बन जाएँ। ये नहीं कि तुम चालीस साल के हो गये हो, लेकिन अभी भी बच्चे ही बने हुए हो। और पिताजी से डाँट खा रहे हो और छोटी-छोटी बातों के लिए अभी भी पिताजी पर निर्भर हो।
असली बेटा वो जो चौदह का, कि सोलह का, कि अट्ठारह का होते-होते बाप का दोस्त बन जाए। कहावत भी है, “जब बाप का जूता बेटे को आने लगे तो दोस्त हो जाने चाहिए।” पर दोस्त हो नहीं पाते, वो सम्बन्ध हमेशा शरीर मात्र का रह जाता है; मन से मन का, आत्मा से आत्मा का नहीं हो पाता। बात समझ रहे हो न?
अब एक असली माँ होने के लिए पहले तुम्हें एक असली इंसान होना पड़ेगा। समझ रहे हो? जब तुम्हें ज़िन्दगी में कुछ नहीं पता तो तुम्हें यही कैसे पता होगा कि बच्चे का पालन-पोषण कैसे करना है? तुम ज़िन्दगी में, हर क्षेत्र में सर्वथा अज्ञानी हो, तो मातृत्व के क्षेत्र में ही तुम कैसे बड़ी बोधपूर्ण हो जाओगी? जब तुमने जीवन में कुछ नहीं जाना तो तुम मन और आत्मा के बारे में भी क्या जानोगी। तुम्हारे लिए बच्चा सिर्फ़ माँस रहेगा, शरीर। इतना खयाल कर लोगी कि खा लिया है न? हाँ, खा लिया है, ठीक। वज़न ठीक है? हाँ, वज़न ठीक है। उसके मन में बीमारियाँ आती रहेंगी, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा।
श्रोता १: लेकिन सर, बचपन में कैसे पता चलेगा कि मन कैसा है?
आचार्य: बेटा, जैसे किसी भी इंसान का पता चलता है वैसे ही बच्चे का भी पता चलेगा। छोटा सा बच्चा है, बात-बात में झूठ बोलता है, बात-बात में लड़ाई करता है। उस छोटे बच्चे का कोई और रिश्ते में समकक्ष बच्चा आता है, उसे उससे ईर्ष्या हो जाती है। बच्चा है छोटा, वो दिन-रात घर में बैठकर टीवी देखता है। बच्चा है छोटा, उसे कोई चीज़ बाँटने को कह दो तो बाँट नहीं पाता है। बच्चा है छोटा, वो जानवरों के प्रति हिंसक रहता है। ये सब स्पष्ट प्रमाण हैं कि मन बीमार है।
पर ये तो छोड़ ही दो कि इन बीमारियों को अभिभावक दूर कर पायें, अक्सर ये होता है कि ये बीमारियाँ आती ही अभिभावकों से है। बच्चा ये सारी बीमारियाँ ग्रहण ही घर से करता है; बाहर से भी करता है, स्कूल से भी करता है, मोहल्ले से भी करता है, पर अक्सर घर से करता है।
वो सब चुटकुले तो तुम जानते ही हो न कि शर्मा जी, वर्मा जी के यहाँ आते हैं। वर्मा जी को छुपना है तो छोटे से कहते हैं कि जाकर के कह देना कि पापा घर पर नहीं हैं। तो वो जाकर के बोल आता है, ‘पापा ने कहा है कि पापा घर पर नहीं हैं।’ (श्रोतागण हँसते हैं) और फिर पिटता है। ये सब यही तो है।
अब माँ दिन-रात घर पर बैठकर घटिया टीवी सीरियल देख रही है। बच्चे पर क्या प्रभाव पड़ रहा है? बच्चे के कान में भी तो आवाज़ जा ही रही है न। माँ दिन-रात बैठकर के पड़ोसियों की और रिश्तेदारों की लगायी-बुझायी करती है, ‘इसने ये कर दिया, उसने वो कर दिया, इसका ऐसा है, उसका वैसा है।’ और बच्चा सुन नहीं रहा है? बच्चे के मन पर क्या प्रभाव जा रहा है?
माँ-बाप की दिन-रात खटपट होती है कि तुमने कहा था कि इस बार तो दिवाली पर दिला दोगे, इस बार भी नहीं दिलाया। वो कह रहा है, ‘दिला तो दिया।’ कह रही है, ‘ये तो बहुत हल्का है, भारी वाला लेकर आते, कुन्दन का चाहिए।’ और बच्चा सुन नहीं रहा है ये सब?
अस्वस्थ अभिभावकों से स्वस्थ बच्चा कैसे आएगा? मैं तुमसे फिर कह रहा हूँ ― असली माँ-बाप वो जो शारीरिक रूप से जन्म दें और उसके बाद मानसिक रूप से भी जन्म दे पाएँ, तब असली माँ-बाप हुए। वो कम होते हैं।
श्रोता ३: सर, जैसा आपने बोला कि असली बेटा-बेटी वही है जो अपने मम्मी-पापा का एक दोस्त बनकर रहे। लेकिन हमें ऐसा माहौल दिया ही कहाँ जाता है, एक लिमिट (सीमा) में रख दिया जाता है कि आप मेरी बेटी हो। तो कैसे हम दोस्त बनें?
आचार्य: बेटा, तुम किसी ऐसे व्यक्ति के भी तो दोस्त हो सकते हो न जो तुम्हारी दोस्ती की कद्र न करता हो?
श्रोता ३: जी।
आचार्य: बस। उनकी नज़रों में तुम अभी छोटे हो, और नासमझ हो और किसी काबिल नहीं हो। पर अपनी नज़रों में तो तुम उनके दोस्त हो सकते हो न? भले वो तुम्हारी दोस्ती की कद्र न करें। तुम्हें तो प्रेम हो सकता है न, कि नहीं हो सकता? या तुम ये कहोगे कि जब तक तू मुझे प्यार नहीं करेगा तब तक मैं भी तुझे नहीं कर सकती।
असली प्रेम तो हमेशा एकतरफ़ा होता है। वो नहीं देख पा रहें अगर कुछ बातें, तो भी तुम्हें किसने रोका है उन बातों को समझने से? और अगर तुम समझते हो, तो धीरे-धीरे उनको भी समझाओगे। प्रेम का तो यही अर्थ होता है न कि हमने जाना है तो तुम तक भी लाएँगे। प्रेम का ये अर्थ तो नहीं होता कि तुम अन्धेरे में पड़े हो और हम तुमको अन्धेरे में पड़ा रहने देंगे।
ये तो नहीं अर्थ होता प्रेम का कि अरे, कहीं तुम्हारी भावनाएँ न आहत हो जाएँ, पापा से ऐसा बोल दिया तो पापा बुरा मान जाएँगे, तो हम बोलेंगे ही नहीं। अरे भाई, अगर बात सच्ची है और ज़रूरी है तो उसे कहा जाना चाहिए, ज़रूर कहिए। हाँ, चोट पहुँचाकर मत कहिए, हिंसात्मक तरीके से मत कहिए; उचित तरीके से कहिए, मीठी वाणी से कहिए, पर कहिए ज़रूर। सच छुपाने के लिए नहीं होता।
श्रोता ३: सर, कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि बात बहुत देर तक समझायी जा रही है, बहुत बेटा और मम्मी बनकर बात नहीं कर रहे हैं, बिलकुल एक ही स्तर पर दोनों लोग बात कर रहे हैं। तो कभी-कभी इस तरह हो जाता है कि नहीं, जो हम कह रहे हैं वही सही है, चलो ज़्यादा होशियार मत बनो, इसलिए पढ़ाया-लिखाया था। इस तरह सिखाया जाए तो वहाँ क्या करें?
आचार्य: तो अगर तुम्हें प्यार है तो तुम क्या करोगी? माँ से बात कर रही हो और ये स्थिति आ जाती है और माँ से प्यार है, तो क्या करोगी?
श्रोता ३: हम चुपचाप चले जाएँगे।
आचार्य: और फिर आओगी लौटकर, और फिर आओगी लौटकर; तो आती रहो। तब तक आओ जब तक समझ न जाएँ।
श्रोता ३: यही दोहराव हो रहा है।
आचार्य: हाँ, बार-बार होगा। देखो बेटा, चलते-चलते तो पत्थर पर भी निशान पड़ जाते हैं। माँ का दिल पत्थर से ज़्यादा सख्त थोड़े ही हो सकता है। कि हो सकता है?
जब दिखाई देगा कि बेटी बार-बार आ रही है, कोई बात कहना चाहती है, समझाना चाहती है, तो एक दिन ध्यान देंगी। कहेंगी, ‘कुछ होगा ज़रूर, नहीं तो मैं इसे बार-बार भगाती हूँ, ये बार-बार, पलट-पलटकर क्यों आती है? मैं अपमान भी कर देती हूँ; अपमान सह-सहकर भी वापस क्यों आती है? कुछ बात तो ज़रूर होगी।’
इसमें माँ को जो बात समझ में आती है सो आती है, तुम्हारा अपना विकास बहुत हो जाएगा।
श्रोता २: लेकिन सर, वो बार-बार गुस्सा करते हैं।
आचार्य: तरीके हैं जाने के। और माँ गुस्सा हो जाए और तुम्हें प्रेम है तो तुम क्या करोगे?
श्रोता २: मना लेंगे।
आचार्य: मना लो। गुस्सा ही तो हुई है, मार थोड़े ही डाला तुमको! या हमला कर देती है हथियार लेकर कि आज तो कत्ल है? ऐसा तो नहीं करती माँ, कि ऐसा करती है? माँ गुस्सा हो गयी, तुम मना लो। जब मान जाए तो फिर गुस्सा कर दो। फिर मना लो, एक दिन पूरी ही तरह से मान जाएँगी।
और जब वो दिन आएगा न, तब तक तुम खुद और परिपक्व हो जाओगे। समझो बात को। माँ को मनाने में, इस पूरी प्रक्रिया में, तुम्हारा अपना विकास बहुत हो जाएगा। माँ का हो-न-हो, तुम्हारा होना पक्का है। इतना संयम आ जाएगा तुममें, इतनी ताकत आ जाएगी कि देखना।
श्रोता ४: अच्छा सर, इस तरह कभी-कभी डराते हैं, थोड़े मज़ाकिया लगते हैं। मतलब समझ मुझे भी नही आता है कि क्यों? जैसे बहुत निर्भरता थी अपने माँ-बाप के ऊपर, तो धीरे-धीरे बड़े होने लगे, चीज़ें खुद से करने के लिए अब ये उनको नहीं करने देना है, खुद से करना है।
अब उन्हें लगता है, ‘अरे! ये अपनेआप करने लग गयी, ज़रूर कुछ गड़बड़ है!’ उनको खुद ही अच्छा नहीं लगता है। और उनको बताओ कि अब परिपक्व हो गये हैं।
आचार्य: बेटा, जब तुम ये सब बातें उनके बारे में बोल रही हो तो ये याद रखना कि इतना बेतुका तो कोई नहीं होता। अगर उन्हें तुम्हारे ऊपर यकीन नहीं होता है कि तुम कोई भी ढंग का काम कर सकते हो, तो इसकी वजहें तुमने ही उनको दी होंगी।
ज़रा अपने अतीत को याद करो। तुमने आज तक कोई भी ढंग का काम करा है? तुम जो भी करते हो वही उल्टा-पुल्टा, यही हुआ है कि नहीं, ध्यान दो। छोटे-से-छोटा काम तुम करने निकलते थे तो बिगाड़ देते थे और फिर चिल्लाते थे कि पापा मदद करो, पापा मदद करो। अब उनको अचानक कैसे विश्वास हो जाए कि तुम बड़े काबिल हो गये हो, जल्दी बताओ?
श्रोता ४: सर, लेकिन यही प्रक्रिया काफ़ी सालों से चली आ रहा है और उनको परिणाम अच्छे मिल रहे हैं।
आचार्य: तो मान जाएँगे। मान जाएँगे। भाई, कोई बाप ये थोड़े ही चाहेगा कि उसकी बेटी हमेशा उस पर ही निर्भर बनी रहे। या बाप को अच्छा लगेगा कि नहीं, इसका बोझ हमेशा मेरे ऊपर ही रहे, ये चल तो सकती नहीं है, आ बैठ जा मेरे कँधे पर। कोई नहीं चाहता भाई!
अन्ततः वो भी यही चाहते हैं कि तुम अपने हिसाब-किताब से जियो अपनी ज़िन्दगी, हमें मुक्त करो। सुना है कई बार माँ-बाप को ऐसे बोलते हुए न, कि दो लड़के थे वो इधर लग गये, दो लड़कियाँ थीं वो उधर लग गयीं, अब हम मुक्त हो गये हैं।
तो माँ-बाप भी यही चाहते हैं कि तुम अपने हिसाब से अपना जीवन देखने लगो। पर पहले उनको ये यकीन तो आना चाहिए कि तुम इस काबिल हो कि अपने हिसाब से देख पाओगे।
और यकीन आए इसके लिए उन्हें प्रमाण देना पड़ेगा, तुमने कोई प्रमाण दिया है आज तक? तुमने उल्टे प्रमाण ज़रूर दिये हैं, कि आप हमें दस रुपये दीजिए कि जाकर के धनिया खरीद लाओ और हम उसकी सिगरेट फूँककर आ जाएँगे। ये किया है कि नहीं, बोलो? इससे मिलते-जुलते काम हुए हैं कि नहीं?
अब जब तुम ये काम करते हो तो वो तुमको हज़ार रूपये कैसे दे दें? दस रुपये का तो तुम सिगरेट फूँक देते हो और चाहते हो कि माँ-बाप हम पर यकीन नहीं करते, हज़ार रुपये माँगे दिये नहीं। दस की सिगरेट आयी थी, हज़ार की कोकीन पियोगे, माँ-बाप पागल हुए हैं कि तुम्हें पैसे दें, बोलो?
अभी अंशुमन जी — कल शाम को चर्चा हो रही थी, बता रहे थे — बोले, ‘समाज कल्याण के जो पैसे आते हैं — जाने मायनॉरिटी फंड के, किसी के — बोले, ‘वो सीधे जो स्टूडेंट होता है उसके खाते में आते हैं, बैंक में सीधे उसी के खाते में आते हैं।’ ऐसा होता है सीधे? तो बोले, ‘अभी-अभी केस हुआ है’ ― एटीएम कार्ड बैंक का स्टूडेंट्स के पास, प्लस ये लोग नेट बैंकिंग में रजिस्टर्ड रहते हैं। तो बैंक में, जहाँ एक रुपया भी आया तो बैंक से एसएमएस आ जाता है कि इतना पैसा आपके अकाउंट में आ गया है। बोले, ‘वहाँ सरकार ने इनके अकाउंट में पैसा डलवाया और वो पैसा डलवाया कि जाकर के कॉलेज की फ़ीस जमा कराओ।
साहब गये, फटाफट वो सारा पैसा निकालकर जेब में डाल लिया। अब कुछ दिनों बाद लिस्ट तैयार हुई कि इतने लोगों का आ गया है, पैसा कॉलेज आया कि नहीं आया। तो देखा इनका नहीं आया है। तो माँ-बाप से पूछताछ हुई।’ माँ-बाप ने कहा, ‘ये पैसा तो आया ही नहीं, बैंक में है नहीं और घर पर आया नहीं।’ ये निकाल ले रहे थे पैसा, उसमें से कुछ खर्च भी कर डाला था। अब ऐसों पर कौन यकीन करेगा, बताओ?
और फिर ये कहें कि अब्बू हम पर यकीन नहीं करते। कैसे करें? कैसे करें? और एक नहीं, दो-तीन। और हिबा (वरिष्ठ स्वयंसेवक से कहते हुए), तुम्हें ताज़्जुब होगा जिनके नाम लिये वो सब वो थे, जो कैम्प में जा चुके हैं। उनके कान उमेठे गये तो फिर लाकर के पैसे दे दिये, ‘हाँ, हमारे ही पास था, लो।’ अब बताओ।
तुम एक बात पक्की समझ लो, तुममें अगर मैच्योरिटी आएगी और तुम अगर काबिलियत दिखाओगे, तो आज नहीं तो कल, माँ-बाप को क्या पूरी दुनिया को मानना पड़ेगा कि अब तुम्हें आज़ादी दी जानी चाहिए। माँ-बाप भी मानेंगे, पूरी दुनिया भी मानेगी; शर्त ये है कि पहले तुममें वो मैच्योरिटी आए तो सही। तुममें है क्या मैच्योरिटी वो? पहले सवाल ये किया करो। ये मत शिकायत किया करो कि माँ बुरी और बाप बुरे हैं। तुम्हें वो शिकायत करने का हक है नहीं। पहले उँगली अपनी ओर, ‘हम किस काबिल हैं?’
मैंने तुमसे दो बातें बोली थीं ― असली माँ-बाप और असली बेटा-बेटी। असली माँ-बाप की बात छोड़ो वो पीछे आती है, तुम पहले ये देखो कि तुम असली बेटा-बेटी होने लायक हो? वो ज़्यादा ज़रूरी सवाल है।
श्रोता ५: सर, जैसे मम्मी कहती हैं, ‘ये करो’, मैं कहता हूँ, ‘हमें नहीं करना, अच्छा नहीं लगता हमें।’ तो वो कहती हैं कि तुम ये कर ही नहीं पाओगे, इससे क्या पता?
आचार्य: क्या पता सही ही कह रही हों!
श्रोता ५: सर, जो चीज़ हम कर लेते हैं, जैसे वो कहेंगी कि जाकर के ये कर लो, गैस सिलेंडर बुक करा दो। हमने पहले बुक कराया है, अब मेरी इच्छा नहीं है कराने की।
आचार्य: रोटी घर पर खाते हो, गैस पर बनती है, सिलेंडर कौन बुक कराएगा?
श्रोता ५: सर, और भी लोग हैं घर में करने वाले। और वो हम ही से कहती हैं कि जाकर करो।
आचार्य: और लोग और काम करते हैं कि नहीं?
श्रोता ५: सर, सब लोग खाली बैठे रहते हैं। भाई बैठा है, कुछ करता नहीं है। तो सर, वो कहते हैं कि तुम पढ़ रहे हो उसके साथ ये भी काम करो।
आचार्य: बेटा, मेरे पास दो गाड़ियाँ हैं। एक का पता है कि चलाऊँगा तो दस किलोमीटर के अन्दर-अन्दर कुछ-न-कुछ इसका बोल ज़रूर जाएगा। दूसरी मुझे पता है कि चलती है, बढ़िया है। तो मैं किसका इस्तेमाल ज़्यादा करता होऊँगा?
श्रोता ५: बढ़िया वाली।
आचार्य: तुम बढ़िया वाली गाड़ी हो माँ की, अच्छी बात है। ये छोटी बातें हैं बेटा, इस पर नहीं ध्यान देते हैं।
श्रोता ५: छोटी बात नहीं सर, वो एक प्रश्न होता है कि वो बिलकुल छूकर निकल जाता है। और एक होता है दिमाग में बैठ जाता है सर।
आचार्य: अच्छा चलो, फिर एक काम करना, अगर इस बात को इतनी गम्भीरता से ले रहे हो न, तो इस बार जब घर जाना ― रोज़ घर जाते हो या छुट्टियों में?
श्रोता ५: रोज़।
आचार्य: रोज़ घर जाते हो। तो अभी किसी दिन मौका देखकर, जब ज़रा शान्ति हो घर में, माँ को बैठाना और यही बात उनको कहना; पर प्रेम से, शान्ति से कहना।
श्रोता ५: और सर, भाई मेरा असफल बैठा है, वो कुछ कर नही रहा है। वो भी हमसे कहता है, ‘तुम ये चीज़ कर नहीं पा रहे हो।’
आचार्य: क्या करे मारे भाई को? ले आओ पीटते हैं मिलकर।
श्रोता ५: वो कहता है कि तुम्हें बीटेक करना चाहिए था, तुम डिप्लोमा कर रहे हो।
आचार्य: बेटा, तुम्हारा भाई कौनसा पचास साल का हो गया; इक्कीस-बाइस साल का लड़का तो होगा, बीटेक ही तो करा है और क्या करा है?
श्रोता ५: नहीं सर, बहुत साल से खाली बैठा है, पाँच-सात साल से।
आचार्य: तो तुम्हें उसके साथ संवेदना नहीं है? बजाय ये कहने के कि भाई की स्थिति ऐसी करुणाजनक है; तुम उसकी शिकायत कर रहे हो! सात साल से अगर कोई बेरोज़गार है तो तुम उसकी त्रासदी समझते हो क्या होती है?
श्रोता ५: रोज़गार के तरीके बताये जाते हैं तो वो करता नहीं है, छोड़ देता है।
आचार्य: उसे मज़े आते हैं बेरोज़गारी में?
श्रोता ५: सर, वो खुद सफल तो नहीं है, हमको कहता है, ‘तुम असफल हो।’
आचार्य: देखो, दो बातें हैं, ध्यान रखना ― जिसको अपने ऊपर यकीन होता है न, उसे दूसरों पर बहुत गुस्सा नहीं आता क्योंकि उस पर दूसरों की बातों का प्रभाव नहीं पड़ता। जिसे अपने ऊपर यकीन है ― तुम मुझसे बार-बार बोलो, ‘सर, आपमें इतना दम ही नहीं है कि आप ये मोबाइल फ़ोन भी उठा सकें।’ वहाँ से चिल्लाते रहो, ‘अजी, आपमें क्या दम है, दम हो तो उठाकर दिखाइए?’ हम उठा दें। फिर कहो, ‘दम है तो दोबारा उठाकर दिखाइए।’ और तुम बार-बार कह रहे हो, ‘नहीं, दम हो तो दिखाइए।’ और न उठाएँ तो बोलो, ‘दम नहीं है।’ तो मुझे तुम पर गुस्सा आएगा क्या? गुस्सा आएगा?
श्रोता ५: गुस्सा आएगा।
आचार्य: क्यों आएगा, भाई?
श्रोता ५: वो बेइज़्ज़ती होगी।
आचार्य: अब ये मुझे ज़बरदस्ती सिद्ध करना चाहता है कि आपको आएगा। मुझे पता है न कि मैं उठा सकता हूँ, मुझे अपने ऊपर यकीन है। जब अपने ऊपर यकीन होता है तो दूसरे पर गुस्सा नहीं आता। तुम कहते हो, ‘यूँही बोल रहा है, बोलने दो।’ क्या फ़र्क पड़ता है, मुझे पता है न, मैं जानता हूँ अपनी काबिलियत, अपना सामर्थ्य। तो अब ये बोले कुछ भी, क्या फ़र्क पड़ता है! बल्कि अगर ये बार-बार ऐसा बोल रहा है तो ज़रूर तनाव में है, ज़रूर परेशान है, ज़रूर दुखी है।
तो फिर उसके पास जाकर ― ‘भाई, तू बहुत परेशान है, मुझे पता है।’ जो कोई ऐसा कर रहा हो, वो परेशान ही होगा, तभी तो ऐसा कर रहा है न?
तुम्हें दिक्कत इसलिए होती है क्योंकि तुम्हें अपने ऊपर यकीन ही नहीं है। जब वो तुम से बोलता है न कि तुम अनसक्सेसफुल रह जाओगे, तो तुम्हें शक पैदा हो जाता है; ईमानदारी की बात ये है। तुम डर जाते हो कि कहीं सही ही न बोल रहा हो, क्या पता ठीक ही बोल रहा हो, कही मैं सही में असफल न रह जाऊँ; यही होता है न?
श्रोता ५: हाँ।
आचार्य: हाँ, तो तुम्हें गुस्सा इसलिए आता है। तुम अपने भीतर यकीन रखो कि जो होगा देखा जाएगा। हमें नहीं मालूम हम सफल होंगे कि असफल होंगे, पर जैसे भी होंगे ठीक हैं। जो बोले, ‘असफल रह जाओगे’, तो तुम बोलो, ‘हो सकता है।’ वो तुमसे बोले, ‘बेरोज़गार रह जाओगे।’ तुम कहो, ‘हो सकता है, हो सकता है रह ही जाएँ बेरोज़गार। पर रह भी गये बेरोज़गार, देखा जाएगा, ठीक है।’ जब तुम्हें अपने ऊपर यकीन होगा न कि ठीक है, इट्स ऑल राइट , कोई फ़र्क नहीं पड़ना है। तो फिर भाई के ऊपर गुस्सा नहीं आएगा। अपने भीतर यकीन रखो।
श्रोता ५: कई बार लगता है कि क्या पता सही कह रहा हो।
आचार्य: हाँ, तुम मान लो कि सही कह रहा है। तुम मान लो कि देखो, गारंटी तो ज़िन्दगी में किसी चीज़ की नहीं होती न। बिलकुल हो सकता है कि तुम बेरोज़गार रह जाओ, तुम कहो, ‘हो सकता है बेरोज़गार रह जाएँ, पर कोई बात नहीं, देखा जाएगा। दुनिया में इतने लोग बेरोज़गार हैं, वो कुछ-न-कुछ तरीके निकालते हैं। हम भी कुछ-न-कुछ निकाल ही लेंगे, देखा जाएगा।’