
प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। मेरा नाम रेनुका है। मैं आर.एम.एल. में ऐज़ अ डॉक्टर कार्यरत हूँ। मैं चैप्टर 53 कोट करना चाहूँगी। उसमें हेडिंग है, इमर्स्ड ऑर लॉस्ट।
तो बहुत बार हमारे साथ ऐसा होता है कि हमारी ऐट-स्ट्रेच कंटिन्यूएशन में 24 आवर, 36 आवर, 72 आवर्स ड्यूटीज़ होती हैं। और जब ड्यूटीज़ ख़त्म होती हैं, उसके बाद बहुत बार प्रैक्टिकल एग्ज़ाम्स भी होते हैं।
तो इस बीच चीज़ें छूट जाती हैं, जैसे खाने-पीने का, या नहाने का, या घर पर बात करने का। वो टाइम नहीं निकल पाता। तो ये क्वेश्चन बहुत बार घरवालों की तरफ़ से आता है। या कभी वो फेस से, जब हम बाहर आते हैं, तो हमारी तरफ़ से ये क्वेश्चन आता है। और घरवालों की तरफ़ से स्पेशली आता है, आर यू लॉस्ट? तो मैं इसमें और जानना चाहूँगी, “इमर्स्ड ऑर लॉस्ट।”
आचार्य प्रशांत: देखिए, अगर आप साफ़-साफ़, ठीक-ठीक जानते हैं कि आप क्या कर रहे हैं और उसकी वजह से आपको ज़िंदगी की दूसरी चीज़ों के लिए वक़्त नहीं मिल रहा है, तो आपसे बेहतर हालत फिर किसी और की नहीं।
क्या करोगे आप बहुत स्क्रॉलिंग करके, या टीवी, या एक-एक घंटा नहाकर, या दो-दो घंटा खाकर? लग सकता है, आपके पास वक़्त बहुत होता है तो आप ब्रेकफ़ास्ट टेबल पर भी दो घंटे लगा सकते हो, आराम से लोग लगा देते हैं। कुछ नहीं है, बैठे हुए हैं ऐसे ही, ऐसे ही। “हाँ भाई, दो चाय और ले आओ।”
वो सब कोई दूर से देखे तो उसको खुशनसीबी या प्रिविलेज कह सकता है। पर वो वास्तव में जीवन का कोई बड़ा सदुपयोग है नहीं। उससे कहीं बेहतर है कि आपको कुछ ऐसा मिल गया है, जो आपको पूरी तरह से सोख ले रहा है, इतना कि उसके बाद आप थक कर जाते हो, तो आपके पास कपड़े बदलने का भी न तो समय होता है, न ऊर्जा।
दिनभर काम में डूबे रहे, वापस गए, बस चित्त पड़ गए। अब ये कोई दूर से देख रहा है, तो वो समझेगा नहीं। उसको लगेगा कि ये तो बेचारे ने अपना ही शोषण कर रखा है, या इसकी ज़िंदगी में मेहनत बहुत है, देखो आराम भी नहीं मिल रहा है। वो इसको टफ़ लाइफ़ कहेंगे। ये टफ़ लाइफ़ नहीं है, इससे ज़्यादा प्यार भरी ज़िंदगी दूसरी नहीं हो सकती, इसी को मैंने वास्तव में इमर्शन कहा है।
अपने लिए सही काम खोजना। और सही काम कोई एक चीज़ नहीं होती, सही काम जो अभी है, वो हो सकता है छह महीने बाद न हो। और होने को यह भी हो सकता है कि आज जो सही काम है, कल न हो। तो वो भी बहुत डायनैमिक बात होती है, अपने लिए सही काम खोजना और उसको पूरी तरह अपने ऊपर छा जाने देना। पूरी तरह अपने आप को उसके सुपुर्द कर देना। इसी को आप एक तरह से सरेंडर या समर्पण भी बोल सकते हैं स्पिरिचुअल टर्म्स में।
जो सही है उसको जाना और फिर कोई कोताही, कोई चोरी नहीं करी।
जब पता चल गया है कि क्या सही है, तब अपने आप को उसको सौंपना पड़ेगा न शत-प्रतिशत। ये इमर्शन है।
इसमें समय का नहीं पता लगता और दूसरी ओर है बीइंग लॉस्ट, उसमें भी समय का नहीं पता लगता, वो वैसा ही होता है जैसा कि जेन ज़ी क़ाफ़ी करती है। उनका आता है न, कि रात में 12:00 बजे लेटे थे (फ़ोन स्क्रॉलिंग करने का इशारा करते हुए) और कितनी बार सोचा कि ये रील आख़िरी होगी, बस यहीं पर रुक जाना है, और 3:00 बज गए रात के, और 4:00 बज गए। इसमें भी समय का नहीं पता चलता, पर ये है बीइंग लॉस्ट।
दोनों में ही एक चीज़ साझी है। आपको पता नहीं चलेगा क्या हो रहा है। लेकिन अगर आपको पता नहीं चल रहा कि क्या हो रहा है, तो 99% संभावना है कि कुछ बहुत गड़बड़ हो रहा है। क्योंकि इमर्शन इतनी सस्ती चीज़ नहीं होती कि सबको मिल जाए।
जो इमर्स्ड है ज़िंदगी में, वो भी खोया-खोया-सा रहता है। ज़िंदगी की बहुत सारी चीज़ों के प्रति वो आपको एब्सेंट लगेगा। आप उसे एब्सेंट माइण्डेड भी बोल सकते हो। ठीक है न? ये आर्किमिडीज़ जैसी हालत है कि कपड़े पहनना भूल गए। ठीक है?
या जैसे बहुत सारे सेंट पोएट्स हुए हैं उन्होंने गाया है न, कि मैं तो भूल गई। अपना पुराना व्यक्तित्व, अपना नाम, पहचान, पर्सनैलिटी, आइडेंटिटी सब भूल गई। तो उसमें भी आदमी को समय का नहीं पता चलता, दुनिया-जहान का नहीं पता चलता।
पर वो चूँकि चीज़ एक कीमत माँगती है, तो वो 1% लोगों को ही मिलती है। बाक़ी अगर 99% लोग हैं जो गुम से दिखाई दे रहे हैं, तो इसका मतलब ये नहीं है कि उनकी ज़िंदगी बहुत सार्थक जा रही है। इसकी संभावना यही है कि वो पूरी तरह ही बेहोश हैं।
एक होती है बेहोशी कि जैसे बाबा बुल्ले शाह की क़ाफ़ी है, “अब हम गुम हुए गुम हुए प्रेमनगर की सैर।” एक वो होती है और दूसरे जो आम आदमी हैं, जिसको आप सड़क पर देखोगे, जो गुमशुदा जीवन जी रहे हैं, जिसको अपना कुछ पता ही नहीं है। जैसे पेड़ से टूटा पत्ता, कि किधर को भी बह रहा है। या लू में उड़ती धूल, इधर को बह गई, कहीं पर गिर गई, फिर हवा कहीं और को चली तो उधर को चल दी। ज़्यादातर लोगों के लिए गुम होने का वो मतलब होता है।
तो कुल मिलाकर संदेश ये है कि अगर आप बहुत गुम-गुम जी रहे हैं, तो इसको डिफ़ॉल्ट अच्छी बात मत मानिए।
जो वास्तविक बेहोशी होती है, उसको पाना श्रम माँगता है, हिम्मत माँगता है, कीमत और साधना माँगता है।
अगर आसानी से आपको ऐसी ज़िंदगी मिल गई है, जिसमें आपको समय का नहीं पता चलता, दुनिया-जहान का नहीं पता चलता, अपना होश नहीं है तो ये बात ख़तरनाक होने की ज़्यादा संभावना है। तो ऐसी बेहोशी से होश बेहतर है, साधारण होश बेहतर है। और फिर वही साधारण होश जब बढ़ता जाता है, तो आप अपने लिए सही काम ढूँढ़ पाते हो उसी होश के कारण और अपने आप को उस काम में झोंक पाते हो। फिर वो एक दूसरे किस्म की बेहोशी मिलती है। समझ रहे हो?
आपको अगर उस दूसरे किस्म की मिली हुई है, तो किसी की बात मत सुनिए, क्योंकि दूसरे समझ भी नहीं पाएँगे। ये चीज़ दूर से किसी को देख कर समझी नहीं जा सकती। ये तो जो डूबा होता है उसका दिल जानता है।
और कोई बाहर से देखेगा, तो वो तो बेचारा अफ़सोस मनाएगा। हाँ, अफ़सोस मनाएगा और वो आपको सांत्वना जैसा कुछ देगा। कहेगा, “अरे-अरे-अरे, बेचारे की क्या हालत हो गई। देखो, ठीक से खा-पी नहीं रही है।” इसकी उम्र के जो बाक़ी लोग हैं, वो घूमते हैं, फिरते हैं, मौज करते हैं और इसकी ज़िंदगी में तो काम के अलावा कुछ है ही नहीं। ग़ुलाम-सी ज़िंदगी चल रही है।”
हाँ, ग़ुलामी है पर किस चीज़ की ग़ुलामी है, उससे सब फ़र्क़ पड़ जाता है। एक ग़ुलामी होती है बेहोशी की और एक ग़ुलामी होती है गहरे होश की। तो ग़ुलामी तो करनी ही है पर किसकी? सही ग़ुलामी कर लो और छोड़ दो अपने आप को कि हाँ, 24 घंटे तुम्हारे ही हुक्म का पालन होगा। वो बढ़िया बात है।