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शरीर मरणधर्मा है, तो मृत्यु से डर कैसा? || आचार्य प्रशांत (2017)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हमारा नाम शैलेन्द्र है, हम आपकी वीडियोज़ देखते हैं, आज फ़ेसबुक डाउनलोड करके सत्संग से जुड़े हैं। हम बत्तीस साल के हैं और हमको मधुमेह हो गया है, क्या ये डरने की बात है? डर से सम्बन्धित आपके सभी वीडियोज़ देख लिए हैं, बहुत फ़ायदा हुआ है, पर डर फिर भी आ ही जाता है, पूरा ही दूर कर दें।

आचार्य प्रशांत: तुम्हें जिस बात का डर है वो बात तो होकर रहेगी, तो तुम शंका से पूरी तरह मुक्त हो जाओ; निशंक होने का इससे बढ़िया तरीका और मौका नहीं है।

अगर तुम्हें ये शंका है कि ये रोग तुम्हें ले जाएगा, तो इसमें शंका की कोई बात ही नहीं, ये तो होना है, पक्का! मौत आ रही है, और उसको पूरी तरह स्वीकार कर लो। ये रोग यूँही थोड़े ही आया है, ये तुम्हें ले ही जाने के लिए आया है; मधुमेह कभी किसी का ठीक होता सुना है? ये उठाके ही ले जाएगा, बात ख़त्म, डर किस बात का है?

डर में तो सदा ये सम्भावना होती है, ये ख़याल होता है कि कुछ बुरा घटित हो सकता है भविष्य में। भविष्य में क्या घटित होगा बुरा, जो होना था वो तो उसी क्षण घटित हो गया जिस क्षण तुम गर्भ से पैदा हुए थे। मृत्युधर्मा हो तुम, मतलब समझते हो मृत्युधर्मा होने का? मृत्युधर्मा होने का अर्थ होता है कि इस शरीर की एक ही दिशा है, ये मृत्योन्मुखी है, और इस जीवन का भी एक ही सार्थक उपयोग है कि ये सदा मृत्यु की ओर अग्रसर रहे।

शरीर की मृत्यु के लिए तुम्हें कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ेगा, शरीर की मृत्यु तो उसी क्षण से होनी शुरू हो जाती है जिस क्षण जन्म होता है। और मृत्युधर्मा होने का अर्थ होता है कि तुम शरीर के अलावा जो कुछ हो, उसको मृत्यु देने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहो, यही धर्म है तुम्हारा। मौत के अलावा इंसान का कोई धर्म नहीं।

मरना तुम्हें है ही; पूरे मरो, यही धर्म है।

इसीलिए भूलोक को कहा गया मृत्युलोक और जीव को कहा गया मरणधर्मा। हो सकता है पाँच बरस जियो, हो सकता है पचास बरस जियो, इतना तो पक्का है न, कि मरोगे? मृत्यु से डर क्या रहे हो, वो तो तुम्हारी निश्चित साझीदार है। और कुछ हो न हो, परम निश्चितता मृत्यु में ही निहित है।

मधुमेह नहीं होता तो बच जाते क्या तुम? कह तो ऐसे रहे हो, कि बत्तीस साल का हूँ, डायबिटीज़ (मधुमेह) हो गयी। डायबिटीज़ न होती तो कुछ और होता, मरने के पाँच हज़ार तरीक़े हैं। कोई नाक टूटने से भी मर सकता है, कोई नाखून काटता है, उसे टिटनस हो सकता है, उड़ता हवाई जहाज़ तुम्हारी मुंडी पर गिरेगा, मर जाओगे।

अभी बम्बई में ही लोग गये थे, बेचारे हँस-खेल रहे थे, उन्हें पता भी नहीं चला कब आग लगी, कब मौत आ गयी। और उससे पहले कुछ छात्र थे, वो गये थे नदी में, फ़ोटो (तस्वीर) खींच रहे थे। उन्हें पता ही नहीं चला, पीछे से पानी छोड़ दिया गया, और फ़ोटो खींचते-खींचते पानी आया, ले गया।

मौत का क्या है, कहीं से भी आ जाती है, कैसे भी आ जाती है। और किसी विशिष्ट घटना से नहीं आयी अगर मौत, तो तुम्हारे शरीर की हर कोशिका में वो पहले से बैठी हुई है, ज़रूरत क्या है उसे कि बाहर से आये? बाहर से नहीं आयी तो भीतर से आ जाएगी। मौत का कोई बाहरी कारण नहीं हुआ तो भीतरी कारण तो होता ही है न; क्या? बुढ़ापा। कोई बीमारी नहीं लगी, फिर भी मर गये, क्यों? बूढ़े हो गये थे तो मर गये, बीमारी की क्या ज़रूरत?

मृत्यु को सदा याद रखो, क्योंकि वो लगातार घटित हो रही है, सामने है तुम्हारे; तुम्हें कैसे नहीं याद आती, दिखायी कैसे नहीं देती? वास्तव में याद करना भी ज़रा दूर की बात है, याद तो उस चीज़ को करो जो थोड़ी तो अनुपस्थित हो गयी हो। मृत्यु सदा उपस्थित है, उसको भूल कैसे सकते हो! और जो सामने ही है, उसका डर कैसा?

जीवन अवसर मात्र है, झाँकी मात्र है, कि जैसे एक खिड़की खुली हो, उसमें से कुछ देख सकते हो तो देख लो। जैसे थोड़ी देर को पर्दे खुले हों, कपाट, द्वार खुल गए हों, बंद हो जाने हैं; उतने में जितनी धूप ले सकते हो, जितना मौज, जितना सौंदर्य, जितना आनंद, चख लो। क्यों भूलते हो कि जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं है? स्थायी ऐसा नहीं कि दो साल-पाँच साल के लिए नहीं है, पल भर के लिए भी स्थायी नहीं है, सबकुछ लगातार बदल ही रहा है।

जो भी रोग आया है तुम्हें, उसको देखो और जानो कि हाँ, वही हो रहा है तुम्हारे साथ जो सदियों से, सहस्र कालों से प्रत्येक जीव के साथ हुआ है, तुम मौत की तरफ़ अग्रसर हो रहे हो। अब देख लो कि इन चंद घड़ियों का क्या करना है, अब देख लो कि जीवन को सार्थक कैसे करना है, अब देख लो कि कैसे जीना है कि मौत का डर पीछे छूट जाए।

जीने का एक ही उद्देश्य है - शरीर मरे, इससे पहले मरने का डर मर जाए।

भला है तुम्हारे लिए कि जवानी में ही तुम्हें अंत के संकेत आने लगे। ‘अंत’ शब्द बड़ा मार्मिक है, इसके दो अर्थ होते हैं। अंत का एक अर्थ होता है ख़त्म हो जाना, और अंत का दूसरा अर्थ होता है शिखर पर विराज जाना, चरम को प्राप्त हो जाना; दोनों ही हो सकते हैं, तुम देख लो तुम्हारे साथ क्या होना है।

या तो तुम अपने शरीर को देख-देखकर मृत्यु से डरे-डरे जीते रहो, या फिर इस रोग को अपना मित्र बना लो और कहो, ‘भला हुआ तू आया, तेरे आने से अब कोई बात है जो लगातार याद रहती है। तू मौत का दूत बनकर आया, और तेरे आने से हम जीना सीख गये।‘ ऐसा रिश्ता भी रख सकते हो तुम अपने रोग से, क्या रिश्ता तुम रखते हो ये तुम जानो।

बहुत भाग्यशाली हो तुम कि तुम्हें ये रोग हुआ है। अधिकांश लोग तो जवानी यूँ गुज़ारते हैं जैसे अमर हों, और इसीलिए उनकी उच्चतम सम्भावना के वर्ष, उनकी अग्रणी ऊर्जा के वर्ष व्यर्थ ही चले जाते हैं। जब तक उन्हें समझ में आता है कि कमज़ोर हुए, दुर्बल हुए, ऐसे दुर्बल हुए कि अब मुक्ति का प्रयत्न करने की भी ऊर्जा नहीं बची, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।

जीवन के कुछ वर्ष तुम निश्चित रूप से इस रोग की वजह से खोओगे, हो सकता है दो-चार साल, हो सकता है बीस साल-चालीस साल। जितना भी जियो, पूरा जियो, वर्षों की लंबाई मायने नहीं रखती। भगत सिंह - इक्कीस साल। जीज़स, शंकराचार्य, विवेकानंद, चंद्रशेखर आज़ाद, राजगुरु, जॉन ऑफ़ आर्क - कौन इनमें से लंबा जिया था? और ये पागल तो थे नहीं, कि इन्होंने कहा कि जीवन के बाक़ी वर्ष बचाने में कोई फ़ायदा नहीं। तुम भगत सिंह को अविवेकी तो कहोगे नहीं, कि उन्होंने इक्कीस-बाईस की उम्र में ही जानते-बूझते पूर्णविराम को आ जाने दिया।

जीवन ज़रा सच्चा हो तो ये समझ में आ जाता है कि वर्षों की लंबाई बहुत ज़रूरी नहीं है, जीवन में गहराई हो तब बात बनती है। गहराई की क़ीमत है, उस पर लंबाई को आसानी से क़ुर्बान किया जा सकता है। और लंबाई तो क़ुर्बान होने लायक चीज़ है ही, क्योंकि सीमित है। तुम कितना लंबा कर लोगे जीवन को, पाँच सौ साल तो जियोगे नहीं!

जिस चीज़ को ख़त्म ही हो जाना है, उसको बहुत मूल्य क्या देना! कुछ ऐसा मिलता हो जो ख़त्म न होने वाला हो, उस पर क़ुर्बान कर दो न उसको, जो ख़त्म हो ही जाना है! आज़ादी के लिए, मुक्ति के लिए, अनंतता के लिए, आनंद के लिए अगर किसी सीमित वस्तु को या सीमित वर्षों को त्यागना पड़े, तो सौदा मुनाफ़े का है, कर डालो!

बेख़ौफ़ रहो! डरना ही है तो इस बात से मत डरो कि मर जाएँगे, इस बात से डरो कि क्या पता कहीं मरके भी पूरे न मरें - ये है डरावनी बात। इस बात से मत डरना कि मर जाएँगे, डरना इस बात से कि कहीं न मरे तो..। और मैं बता रहा हूँ कि ज़्यादातर लोग पूरे नहीं मरते। जीवन मिला था पूरा मरने के लिए, मृत्युधर्मा हैं हम, पर हम पूरा नहीं मरते। इस बात से डरो कि कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि मैं बच जाऊँगा।

बचने से डरो, मरने से नहीं; ख़ौफ़नाक बात है बच जाना, मर जाना तो अमृत है।

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