शरीर का खेल, आप क्यों शामिल?

Acharya Prashant

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शरीर का खेल, आप क्यों शामिल?
शरीर को शरीर का काम करने दो, तुम नियम काहे को बाँध रहे हो बाबा! हर छोटी चीज़ में ये जो तथाकथित धार्मिक आदमी है, धार्मिक माने अहंकारी। हम जैसे धर्म पर चलते हैं वो अहंकार का सबसे बड़ा रूप है। हर छोटी चीज़ में धार्मिक आदमी अपने शरीर पर चढ़ बैठता है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: जब पचपन किलो के शरीर को लेकर चलना पड़ता है, ढ़ोना पड़ता है, जब शरीर मुँह फाड़कर के कहता है कि मैं हूँ, तो शरीर को कैसे किनारे करके मैं मानू कि मैं बोध हूँ?

आचार्य प्रशांत: शरीर क्या करता है, ये तो बोला। शरीर किससे करता है और किससे कहता है, ये तो बताइए? शरीर ने ज़ोर से बोला, ‘मैं हूँ।’ किससे बोला? शरीर से ही बोला। आपसे थोड़े ही बोला? आप क्यों घुसे हुए हो? ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना।’

शरीर ने शरीर को बोला, आपको नहीं बोला। क्यों समझा रहे थे आचार्य शंकर कि जिनसे बोला जा रहा है, वो भी मैं नहीं हूँ। आँखों ने देखा कि सामने कुछ रखा है। चित्त ने याद किया कि ये चीज़ जो ऐसे रखी होती है, ये अतीत में बहुत पोषक थी शरीर के लिए। बुद्धि ने बताया क्या रास्ता है वहाँ तक जाने का। पेट को भूख लगी थी, स्मृति और बुद्धि की सहायता से, हाथ की सहायता से और पाँव की सहायता से पेट की भूख मिटा दी गई।

पचपन किलो का शरीर था, शरीर में पेट था, पेट को भूख लगी थी, पेट ने कहा भूख लगी है। भूख मिटाने में आपकी क्या ज़रूरत थी? आप काहे को बीच में आईं? शरीर को भूख लगी थी। शरीर की भूख मिटाने के लिए शरीर के ही सब अवयव, हिस्से, उपकरण पर्याप्त थे न।

पेट को भूख लगी, आँखो ने देखा, स्मृति ने याद किया, बुद्धि ने रास्ता बताया, पाँव रास्ते पर चले, हाथों ने भोजन उठाया, पेट में डाल दिया, पेट की भूख मिट गई। हमने अभी जिन-जिन का नाम लिया, वो सब शरीर हैं। पेट भी शरीर है, हाथ भी शरीर है, पाँव भी शरीर है, बुद्धि भी शरीर है, स्मृति भी शरीर है, आँखें भी शरीर है, नाक ने भोजन को सूँघा, नाक भी शरीर है। शरीर को भूख लगी, शरीर ने भूख मिटा दी। आप क्यों बीच में आईं? जो करना था शरीर ने किया, आपकी इसमें ज़रूरत कहाँ थी? आप क्यों बीच में घुस रहे हो?

इसीलिए तो हम कहते हैं न अहंकार मिथ्या है। उसकी कहीं कोई ज़रूरत नहीं, पर वो ज़बरदस्ती घुस आता है, अनइन्वाइटेड गेस्ट। द गेट क्रशर इन द पार्टी, हू नीड्स टू बी थ्रोन आउट।

(बिन बुलाए मेहमान, पार्टी में गेट क्रशर, जिसे बाहर करने की ज़रूरत है।)

शरीर की पार्टी चल रही है, उसमें सब लोग मौजूद हैं। छोटे-मोटे तो अपने भाई लोग बैक्टीरिया ही न जाने कितने करोड़ पार्टी में अपना मस्त नाच रहे हैं। और वो सब आपस में अपना समन्वय, समायोजन जानते हैं, सबको पता है क्या करना है। आँख बंद होती है, तो आपका हार्ट रेट जो है वो बदल जाता है। आँख और दिल का कुछ रिश्ता है। दोनों अपना रिश्ता निभाना जानते हैं। आप काहे को बीच में आए हो?

आँख कुछ देखती है, तत्काल शरीर प्रतिक्रिया करना जानता है। आप क्यों बीच में आए? आपकी क्या ज़रूरत है? बोलो न। आप कहते हो, “मैंने सोचा।’ आपने नहीं सोचा, ये मस्तिष्क ने सोचा, मस्तिष्क सोचना जानता है। आप क्यों बीच में आए? आप कहते हो, ‘मैंने फ़ैसला लिया।’ आपने नहीं फ़ैसला लिया, स्मृति ने और बुद्धि ने मिलकर फ़ैसला लिया। आप क्यों बीच में आए?

जो कुछ भी हो रहा है आपके साथ, उसमें बताओ आपकी ज़रूरत कहाँ है? आप हो ही नहीं, तो आपकी ज़रूरत क्या होगी? आप एक फैंटम गेस्ट (काल्पनिक अतिथि) हो, जो है ही नहीं। पार्टी में भूत डोल रहा है, जो है ही नहीं। शरीर की पार्टी चल रही है, उसमें एक भूत डोल रहा है जिसका क्या नाम है? अहंकार। जो है भी और नहीं भी है। जिसकी कोई ज़रूरत नहीं है। जो बस आकर के पार्टी में मज़ा खराब कर सकता है।

अहंकार वो है जो शरीर की पार्टी खराब करता है। अहंकार क्या है? प्रातिभासिक। शरीर क्या है? व्यवहारिक।

अहंकार = प्रातिभासिक शरीर = व्यवहारिक

शरीर प्रकृति है। शरीर अहंकार से ऊपर के तल का है बाबा! शरीर अहंकार से ऊपर के तल का है, शरीर अपना काम जानता है। आप जानते हो आपको जब चोट लग जाती है, अहंकार है तो प्रकृति का ही छोकरा, बहुत उछल रहा होता है; जब आपको चोट लग जाती है, तो प्रकृति अहंकार को ज़बरदस्ती चुप करा देती है।

आपको चोट लगती है, तो आपको क्या होता है? क्या होता है? आपकी टांग उछलकर कहीं और नहीं चली जाती। आपका और कुछ बदले न बदले, आपकी एक चीज़ तुरंत बदलती है। क्या? होश। आपको बेहोश कर देती है प्रकृति। कभी आपने सोचा आपको चोट लगती है, तो आपको बेहोश क्यों कर देती है प्रकृति? या आपको बहुत दर्द होता है, तो भी आपको बेहोश कर देती है प्रकृति। क्यों कर देती है? ताकि शरीर अपना काम कर सके। आपको बेहोश जानबूझकर करती है प्रकृति। प्रकृति ठीक उसी कारण से आपको बेहोश करती है जिस कारण से ऑपरेशन से पहले सर्जन आपको बेहोश करता है। आप अगर जगे रहोगे, तो न प्रकृति अपना काम कर पाएगी न सर्जन।

आपके सिर पर चोट लगेगी, प्रकृति आपको तुरंत बेहोश कर देगी। ये ऐसा नहीं है कि आप धोखे से बेहोश हो गए, ये प्रकृति का फ़ैसला है। चोट लगी है इसको बेहोश करो। अब आप बेहोश हो करके गिर जाओगे, तो प्रकृति धीरे-धीरे आपका उपचार करेगी, और कुछ घंटों में जब वो आपका उपचार कर लेगी, तो आपको होश आ जाएगा।

अगर आपको बेहोश नहीं किया गया होता, तो आप क्या करते? आप वही करते जो आप करते हो — ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’, आपने टाँग अड़ाई होती। प्रकृति ने अगर आपको बेहोश नहीं किया होता, तो प्रकृति आपका उपचार भी नहीं कर पाती क्योंकि आप खुद निकल पड़ते अपना उपचार करने। या आप इतने बावले हो जाते कि कुछ उल्टा-पुल्टा करके दीवार में सिर मारते, कुछ तो करते। जिसको चोट लगी है, वो कुछ तो करेगा ही अपने लिए। तो प्रकृति कहती है तुम एक काम करो, तुम बेहोश हो जाओ। जो करना होगा मैं करूँगी। उसको भी पता है आप बेवकूफ़ हो। आपकी कोई ज़रूरत ही नहीं है आपकी ज़िंदगी में।

क्या बात है! आपकी ज़िंदगी में आपकी कोई ज़रूरत नहीं है। जिस दिन आप अपनी ज़िंदगी से रुखसत हो जाते हैं, ज़िंदगी में चार चाँद लग जाते हैं। आपको क्या चाहिए? आपकी विदाई। विदा हो जाओ, इसी में तुम्हारी भलाई है।

समझ में आ रही है बात ये?

तो इसीलिए जो जीवनमुक्त होता है, उसको हम विदा भी कहते हैं, वो चला गया।

बुद्ध के मार्ग में कहते हैं “गते गते पारगते पारसंगते बोधि स्वाहा।” गया-गया पूरी तरह गया, और स्वाहा माने अब उसके वापस आने के बीज भी जल गए, अब वापस कभी नहीं आएगा। “गते गते पारगते पारसंगते बोधि स्वाहा।” तुम जाओ न, तुम क्या कर रहे हो यहाँ पर?

अपने आईने पर ऊपर ऐसे छपवा दीजिए — ‘तुम जाओ न, तुम क्या कर रहे हो?’ जब भी अपनी शक्ल देखें उसमें ये भी पढ़ने को मिले। ‘तुम जाओ न, तुम कर क्या रहे हो यहाँ पर? तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं है।’ शरीर बिल्कुल मज़े में काम कर लेगा, जी लेगा और फिर मर लेगा आपके बिना भी। आप अवांछित हैं अनवांटेड हैं। जाओ। लेकिन अपने आप को वांछित दिखाने के लिए, ज़रूरी दिखाने के लिए, उपयोगी ही नहीं, अपने आप को इंडिस्पेंसिबल (अपरिहार्य) दिखाने के लिए हम क्या करते हैं। हम कहते हैं, ‘मैंने सोचा, मैंने हाथ बढ़ाया। हम कहते हैं चलो शरीर तो बाहरी चीज़ है न। शरीर के भीतर जो है, वो मैं हूँ।’

और ये कहकर हम शरीर का अपमान करते हैं। शरीर के भीतर मैं हूँ। मैं कौन हूँ? मैं सोल (आत्मा) हूँ, मैं जीवात्मा हूँ। शरीर तो बस बाहरी चीज़ है ऐसे उठाने-उठाने के काम आता है। भीतर जो स्वामी बैठा है जो फ़ैसले करता है, वो मैं हूँ।

ये आप शरीर का अपमान कर रहे हो। जो कर रहा है शरीर ही कर रहा है, कोई स्वामी नहीं है शरीर का जो भीतर बैठा है, शरीर स्वयं अपना स्वामी है, और शरीर की स्वामिनी है बड़ी माँ ‘प्रकृति।’ लेकिन देख रहे हो हमारी धूर्तता। हम कहते हैं, ‘बाहर शरीर है, भीतर मैं हूँ।’ सबके भीतर यही रहता है न भाव?

बाहर शरीर है, भीतर मैं हूँ। और जो भीतर मैं हूँ, उसका क्या नाम है? सोल (आत्मा) या जीवात्मा, वो मैं हूँ। भीतर कोई सोल नहीं है, कोई जीवात्मा नहीं है। बाहर भी शरीर है, भीतर भी शरीर है। और शरीर अपना काम स्वयं करना जानता है, और शरीर अपना काम स्वयं करता भी है। अहंकार तो बस ज़बरदस्ती घुसे पड़े हैं।

वो फ़ोटो होती हैं कई। जिसमें एक फ्रेम सेट है कि जिसमें जिन लोगों को खड़ा होना होगा, होगा। और कोने में एक होगा जो ऐसे करके (तिरछे होकर के समझाते हुए) एक खंभे के पीछे से घुसने की कोशिश कर रहा होगा, वो अहंकार है। देखी हैं ऐसी फ़ोटो?

फ़ोटो में चार लोग खड़े किए गए थे कि इनकी फ़ोटो खिचेंगी, और एक है जो पीछे से पूरी घुसने की कोशिश कर रहा है, वो घुस भी नहीं पा रहा है, वो अहंकार है। तेरी कोई ज़रूरत नहीं है उस फ्रेम में बाबा! तू बस एक काम कर सकता है फ़ोटो बॉम्बिंग (किसी की तस्वीर में जानबूझकर घुसना)।

अहंकार का यही काम है, उसने ज़िंदगी के सारे चित्र बॉम्ब कर दिए हैं। एक-से-एक खूबसूरत चीज़ होगी, जैसे ही उसमें अहंकार आ जाता है, फ़ोटो बॉम्ब हो गई न। बहुत बढ़िया फ़ोटो थी, और पीछे एक आ गया हँ-हँ। अब फ़ोटो कैसी हो गई? अहंकार बस यही है। ये फ़ालतू की चीज़ जो आपकी हर फ़ोटो में घुसी हुई है। अपनी कोई फ़ोटो दिखा दो जिसमें अहंकार न हो। और वही है जो आपकी हर फ़ोटो को बिल्कुल कचरा, भद्दा, कुरूप बना देता है।

अहंकारी आदमी में शरीर के प्रति बड़ा असम्मान होता है। वो शरीर को तो शरीर की इज़्ज़त देता ही नहीं। वो कहता है शरीर तो मेरा सेवक है, मैं इस शरीर को चलाता हूँ। इसीलिए अहंकारी अपने शरीर को खराब भी खूब करता है।

तुम कुछ और नहीं हो, तुम शरीर मात्र हो। अपनी इज़्ज़त करने का अर्थ ही यही है कि शरीर शरीर की ही इज़्ज़त करे। पर अहंकारी कहता है कि मेरा शरीर खराब हो रहा है, तो क्या हो गया, मैं तो स्वस्थ हूँ न। मैं तो भीतर, मैं निर्मल आत्मा हूँ, मैं स्वस्थ हूँ। शरीर स्वस्थ है, तो तुम स्वस्थ हो। तुम जो भी हो, तुम शरीर ही हो।

समझ में आ रही है बात?

ये गजब हो गया, ये क्या हो गया — हँ! मैं शरीर ही हूँ। अभी कल तो अष्टावक्र ऋषि आकर के बोले थे: “न मे देहो, नाहं देहो।”

“नाहं देहो न मे देहो बोधोअहमिति निश्चयी। कैलयमिवसंप्राप्तो न स्मरत्यकृतं कृतम्।।”

ये क्या हो गया! तुम तो आत्मा हो न, तो शरीर तो शरीर है। तुम्हारा दोनों का आपस में कोई रिश्ता? नहीं है। घुसो मत। शरीर को शरीर का काम करने दो। “न मे देहो।” शरीर तुम्हारा नहीं है। शरीर को शरीर का काम करने दो, बिल्कुल घुसो मत।

अहंकारी की तुमको पहचान बताता हूँ। घुसा रहेगा शरीर में, उसकी छोटी-से-छोटी चीज़ को नियमित और नियंत्रित करने की कोशिश करेगा। नियमित माने नियमबद्ध। शरीर पर ज़बरदस्ती के हुकुम चलाएगा। चल ये खा, चल वो। शरीर जानता है क्या खाना है। बकरी को किसी ने सिखाया क्या खाना है? तुम बकरी को मांस खिलाकर दिखा दो, तुम शेर को घास खिलाकर दिखा दो। उन्हें किसी ने बताया?

पर अहंकारी कहेगा — मैं अभी साँस लेने का अभ्यास कर रहा हूँ। दुनिया का छोटे-से-छोटा बेचारा गरीब कीट-पतंगा भी जानता है साँस कैसे लेनी है। मनुष्य अकेला होता है जो साँस लेने का भी अभ्यास करता है। उससे पूछो फ़लानी जगह क्यों जा रहे हो? ऋषिकेश में मैं पूछता हूँ, वो आते थे — आइ हैव कम टू इंडिया टू लर्न ब्रीदिंग। (मैं साँस लेना सीखने के लिए भारत आया हूँ।)

भई! तुझे साँस लेना नहीं आता? वो बाहर बिल्ली-कुत्ते हैं उनको भी साँस लेना आता है, तुझे ही साँस लेना नहीं आता। घुसे पड़े हैं शरीर में। घुसे पड़े हैं।

और बात सही है इंसान को साँस लेना सचमुच नहीं आता, तो फिर इंसान को प्राणायाम सीखना पड़ता है। क्योंकि इंसान अकेला है जिसके पास अहंकार है, अहंकार तुम्हारी साँसो की लय को भी तोड़ देता है, तो फिर सीखना पड़ता है, प्राणायाम करना पड़ता है।

अपने आप को अपने से आज़ाद कर दो। मत घुसो शरीर की हर छोटी-छोटी गतिविधि में। मैं इतने बजे उठूँगा, मैं इतने बजे खाऊँगा। कभी देखा है कि पूरी सृष्टि में कोई और जीव अपने लिए ऐसे नियम बना रहा हो? और सब स्वस्थ जीते हैं, सब स्वस्थ जीते हैं।

पेड़ कब झूमता है? उसने नियम नहीं बनाया है। कहता है जब हवा चलेगी, तो झूम लेंगे। जब हवा चलेगी, तो झूम लेंगे। जंगल में नदी बह रही होती है। उस पर वन्य जीव समय बाँधकर पानी पीने जाते हैं? वो कब जाते हैं पीने? वो कहते हैं जब प्यास लगेगी, तब पी लेंगे।

शरीर को शरीर का काम करने दो, तुम नियम काहे को बाँध रहे हो बाबा! हर छोटी चीज़ में ये जो तथाकथित धार्मिक आदमी है, धार्मिक माने अहंकारी। हम जैसे धर्म पर चलते हैं वो अहंकार का सबसे बड़ा रूप है। हर छोटी चीज़ में धार्मिक आदमी अपने शरीर पर चढ़ बैठता है।

शरीर में इस जगह पर ये निशान लगाऊँगा, यहाँ पर ये करूँगा, यहाँ पर ऐसे नाक छेद दूँगा, कान छेद दूँगा, यहाँ पर कुछ मल लूँगा, यहाँ ये कर लूँगा। (अपने चेहरे के अंगों की ओर इशारा करते हुए।)

काहे को शरीर के पीछे पड़े हो? शरीर ने तुमसे बोला कि कुछ मलो? कुछ मलवाना होगा, तो शरीर मलवा लेगा खुद। हाथ है, हाथ किसके हैं? शरीर के और माथा भी किसका है? शरीर का। माथे को कुछ चाहिए होगा न, तो हाथ को बोल देगा।

माथे पर मच्छर काट रहा होता है, हाथ क्या करता है? हाथ अपने आप उठ जाता है, हटा देता है। माथे को कुछ चाहिए होता, तो माथे ने खुद बता दिया होता हाथ को। तुम क्यों ज़बरदस्ती हाथ से माथे पर कुछ मलवा रहे हो।

और सबसे ज़्यादा जिन चीज़ों पर चढ़कर बैठता है, अहंकारी चित्त वो है शरीर की प्राकृतिक इच्छाएँ। और तुमसे एक बात बता रहा हूँ जो अब शरीर की छोटी-छोटी प्राकृतिक गतिविधियों को और इच्छाओं को दबाएगा, वो पाएगा कि उसने अपने भीतर दमन का पूरा एक ज्वालामुखी तैयार कर लिया है। भयानक फटेगा फिर, भयानक फटेगा।

अरे, ये छोटी बातें हैं, इनको रेगुलेट (विनियमित) नहीं किया जाता। खाना-पीना ये सब। यहाँ तक की यौन इच्छा। परमात्मा की प्राप्ति के नाम पर चढ़कर बैठ गए हैं यौन इच्छा पर। कि ज़ोर से नाड़ा बाँध लो, अभी परमात्मा मिल जाएगा। कॉटन का नहीं आयरन (लोहा) का। ताला लगा दो, चाभी फेंक दो, अभी कल ही मिलेगा परमात्मा। और डरते हैं, बोलते हैं — अगर हमने ताला नहीं लगाया, तो शरीर निरंकुश हो जाएगा, व्यभिचारी हो जाएगा।

पूरी प्रकृति में कौनसा जीव तुमको व्यभिचारी मिलता है, बताओ? मनुष्य अकेला है जो व्यभिचारी है, और मनुष्य व्यभिचारी इसीलिए है क्योंकि उसने अपनी यौन इच्छा पर खूब ताला लगाया है।

“कामी कुत्ता तीस दिन, अंतर होए उदास। कामी नर कुत्ता सदा, छ: ऋतु बारह मास।।”

कुत्ता हर समय लगा रहता है क्या कुतिया के पीछे? पर मनुष्य को यही डर है अगर मैंने अपने आपको ढील छोड़ दी, तो फिर तो मैं स्वेच्छाचारी हो जाऊँगा न, पता नहीं क्या कर दूँगा।

पता नहीं क्या कर दोगे नहीं तुम, ‘पता नहीं क्या’ जो भी है, वो तुम अभी करते हो। मनुष्य जैसी बलात्कारी प्रजाति दूसरी नहीं होती, क्योंकि मनुष्य अकेला है जो अपनी यौन इच्छा पर अंकुश लगाता है। चढ़े हुए हैं शरीर पर। अपने शरीर पर चढ़ोगे, तो दूसरों के शरीर पर भी चढ़ोगे। अपने शरीर से इतनी उम्मीदें रखोगे, तो दूसरों के शरीर से भी बहुत उम्मीदें रखोगे। और शरीर कोई उम्मीद पूरी नहीं कर सकता।

जीवन में जो छोटी-छोटी बातें होती हैं न, उन पर चढ़ मत जाया करो। बारह बजे खाया था खाना दोपहर में, दो बजे फिर कुछ खाने का लग रहा है, तो खा लो थोड़ा सा। नियम मत बनाओ कि अरे! ये तो अधार्मिक काम हो गया। हम तो सब कुछ बिल्कुल तयशुदा तरीके से करते हैं। दिखाओ कहाँ है खाने का टाइम टेबल। समय सारिणी लेकर आओ भाई, एक मिनट पहले नहीं, एक मिनट बाद नहीं। मुहूर्त देखकर खाना खाएँगे। देखिए साहब! अब पच्चीस साल हो गए हैं। मैं ठीक साढ़े नौ बजे डिनर करके ठीक दस बजे सो जाता हूँ। (अपनी भारी आवाज़ में बोलते हुए।)

बचकर के रहना, इस आदमी ने खूब अपना दमन कर रखा है, विस्फोट बिल्कुल आने ही वाला है। अब मैं नहीं कह रहा हूँ कि तुम साढ़े नौ बजे खाओ तो मत सोओ दस बजे। पर ये नियम की बात थोड़े ही है? साढ़े नौ बजे खा रहे हो, तो संभावना यही है कि दस बजे नींद आ ही जाएगी पर नहीं आ रही, तो चढ़ो मत अपने ऊपर। ग्यारह बजे आ गई अच्छी बात है, और किसी-किसी दिन अगर पूरी रात जग लिए, तो वो भी अच्छा है। कितनी सुंदर कविताएँ हैं जो रातों में ही फलित होती हैं। कोई तुमने पाप नहीं कर दिया अगर किसी दिन रातभर जग लिए तो। शारीरिक बातें हैं।

देखा है किसी दिन भूख लगती है किसी दिन नहीं लगती है। देखा है? कभी भूख ज़्यादा लग गई, कभी कम लग गई। शरीर का मामला है, शरीर खुद देख लेगा। तुम काहे के लिए परेशान हो रहे हो?

और हमारी लिए तो ये तो गजब हो गया। मैं पुराना योगी हूँ, ठीक! ढ़ाई रोटी खाता हूँ। और किसी दिन अगर भूख है, तो खा ले चार, नर्क में नहीं पड़ जाएगा। और किसी दिन हो सकता है भूख नहीं लग रही है, तो मत खा न।

समझ में आ रही है बात?

कुछ बातें शरीर की हैं, शरीर देख लेता है। उसमें इतना नहीं रोते-चिल्लाते। तुम जिम जाते हो, रोज़ एक सा वजन उठा पाते हो? किसी दिन शरीर बोलता है आज मज़ा आ रहा है आज लाओ। बल्कि ये भी लगता है कि आज पाँच किलो और लगा रे।

और किसी-किसी दिन अकारण ही, तुम नहीं जानोगे शरीर की अपनी व्यवस्था है, उसके अपने कारण हैं, वो तुम्हें नहीं पता। किसी दिन शरीर बोलता है कि हो गया, आज पंद्रह रेप्स की जगह दस रेप्स भी नहीं हो रहे हैं। ठीक, कोई बात नहीं। चढ़ो मत शरीर के ऊपर। नहीं हो रहा है, तो नहीं हो रहा है।

मैं अनुशासनहीनता की वकालत नहीं कर रहा हूँ। मैं जो बोल रहा हूँ, वो बात सूक्ष्म है। उसको समझो और मेरी बात को विकृत कर देना बहुत आसान है। लोग कहेंगे कि ये तो सबको कह रहे हैं कि बिल्कुल स्वेच्छाचारी हो जाओ। ये सबको धकेल रहे हैं उच्छृंखलता की ओर, व्यभिचार की ओर। तुम्हें ऐसा कहना है तो कह सकते हो। पर जो मैं बात कह रहा हूँ, वो थोड़ी ज़्यादा सूक्ष्म है।

मैं कह रहा हूँ छोटी चीज़ों को छोटी चीज़ों की जगह पर पड़े रहने दो। छोटी चीज़ों को बहुत बड़ा बना लोगे, तो बड़ी चीज़ से वंचित रह जाओगे। शरीर की बातें छोटी बातें होती हैं। छोटी बातों को छोटा शरीर खुद ही देख लेगा, इसमें तुम्हें।

अब यहाँ तुम बैठे हुए हो, सब अलग-अलग तरीके से बैठे हुए हो जैसा जिसका शरीर है वैसा बैठा है। ये अपनी जो दोनों टाँगे हैं वो एक खास अदा से, एक कोण में मोड़कर बैठे हैं। वो पाल्थी मार के बैठा है, थोड़ी देर पहले इसने एक टाँग उठा रखी थी। तो? अरे, जिसको जैसे ठीक लग रहा है, जिसका जैसा शरीर है वैसे बैठ जाओ।

मैं तो असहज हो जाता हूँ। लोग जो मुझे सुनने आते हैं, और बिल्कुल वो प्रयास कर-करके कहते हैं मेरुदंड सीधा होना चाहिए, नब्बे अंश का कोण बनना चाहिए, और ऐसे बैठेंगे, और कई हाथ में ऐसे मुद्रा वगैरह धारण करेंगे।

वो अगर सहजता से होता है, तो होने दो, चढ़ो मत शरीर पर। तुम सारा ध्यान इसी पर लगा दोगे कि तुम्हारा मेरुदंड सीधा है कि नहीं, तो सुनने पर ध्यान कैसे लगेगा? मैं नहीं कह रहा हूँ कि लेट जाओ। लेट जाओगे, तो मैं भी कहता हूँ कि क्या कर रहे हो। क्योंकि लिटाने का काम भी शरीर नहीं कर रहा है, वो तुम्हारा अहंकार लिटाता है।

शरीर अपना हिसाब जानता है, प्रकृति को थोड़ा सम्मान देना सीखो। प्रकृति की अपनी एक इंटेलिजेंस (बुद्धिमत्ता) होती है, उस पर भरोसा करना सीखो। तुम अलग वो अलग, वो अपना घर देख लेगा।

शरीर प्रकृति का अड्डा है, वहाँ पर जो नियम-कायदे चलते हैं, वो चलने दो, उसमें मत घुसो। तुम अपना हिसाब देखो। अपने घर में आग लगी है और दूसरे के घर में हस्तक्षेप कर रहे हो। ये कहाँ की अक्ल है? अपना घर माने ‘मैं’, अहम्, अहम्। ये प्रकृति का घर है, वहाँ मत घुसो।

सोचो, तुम ज़्यादा ही घुस जाओ शरीर में, और तुम कहो कि साँस भी कैसे लेनी है मैं तय करूँगा, दिल भी कैसे धड़कना है मैं तय करूँगा। फिर क्या होगा? मर ही जाओगे। आपमें से किस-किसको पता है कि खाना कैसे पचता है? आपमें से कौन-कौन अपना खाना खुद पचाता है?

और अगर आप तय कर लोगे कि अपना खाना खुद पचाओगे, तो कभी पचेगा? ये तो गनीमत की बात है, अनुग्रह की बात है कि आपको पता भी नहीं है कि आपका खाना कैसे पचता है। तभी बढ़िया पचता है, क्योंकि प्रकृति अपना काम करना जानती है।

अगर आपके हाथ में छोड़ दिया होता खाना पचाना। सोचो, अगर आपको ये अधिकार मिल जाए कि शरीर में जो कुछ होगा आपके हिसाब से होगा, तो सोचो आप क्या-क्या नहीं कर डालोगे। कमलेश की तो आँखें चमक गईं। बोले माने मैं जैसा चाहूँ वैसा हो सकता है? फिर सोचो हम क्या-क्या नहीं कर डालेंगे इसके साथ। ये बहुत बड़ी मैं कह रहा हूँ गनीमत है कि हमारे सारे हस्तक्षेप के बावजूद शरीर हमें एक सीमा से आगे बर्दाश्त नहीं करता, वो अपने हिसाब से चलता है।

शरीर को दर्द हो रहा है उपचार कौन करेगा? शरीर खुद। स्मृति बताएगी कि जब पिछली बार दर्द हुआ था, तो क्या हुआ था। बुद्धि बताएगी इस बार दर्द हो रहा है, तो क्या करना है। हाथ गाड़ी की चाभी खोजेंगे, पाँव ब्रेक और एक्सिलरेटर दबाएँगे, आँखें जीपीएस देखेंगी। मुँह डॉक्टर से अपनी अवस्था बताएगा, कान डॉक्टर की सलाह सुनेंगे। फिर हाँथ से डॉक्टर की दी दवाई खाई जाएँगी, और शरीर का दर्द दूर हो जाएगा। ये सब किसने किया? शरीर ने किया। इसमें आपकी कोई ज़रूरत थी? आपकी कोई ज़रूरत नहीं थी।

लर्न टू लिव विदाऊट योरसेल्फ। (अपने बिना जीना सीखें।) आत्मा कर्ता नहीं होती, आत्मा साक्षी है। शरीर अपना सब काम करता रहेगा, आत्मा उसकी साक्षी मात्र रहेगी। शरीर कर रहा है, आप देख रहे हैं। शरीर ने किया, मैंने देखा। उसमें हस्तक्षेप करने का, उँगली डालने का मेरा कोई इरादा नहीं है। यही प्रकृति के प्रति सम्मान की बात है — माँ तू अपना काम कर, मैं बस साक्षी हो सकता हूँ। मैं होता कौन हूँ विघ्न डालने वाला। ये तेरा क्षेत्र है माँ। शरीर तेरा क्षेत्र है, तू देखेगी, तू देख। तूने जन्म दिया, तू ही चला, मैं बस साक्षी हूँ।

कौन-सी माँ की बात हो रही है? ‘बड़ी माँ, प्रकृति माँ।’ उसने जन्म दिया है, तो उसने छोटे-से-छोटे जीव को एक क्षमता भी दी है कि वो जीवन चला सके। तुम्हें ही नहीं दी है क्या क्षमता? छोटे-से-छोटा, इतना सा जीव होता है, उसके पास भी क्षमता होती है चलाने की। ये तो मनुष्य के पास भी है। और तुम्हें जन्म अहंकार ने नहीं दिया, तुम्हें जन्म प्रकृति ने दिया था तो जीवन भी अहंकार नहीं चलाएगा, जीवन भी? प्रकृति चलाएगी। अहंकार को किनारे रखो, उसको बोलो — साक्षी हो जा। साक्षी अहंकार ही ‘आत्मा’ कहलाता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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