प्रश्नकर्ता: मेरी उम्र अट्ठाइस वर्ष है, पिछले दस सालों से मेरा खराब स्वास्थ्य मेरे जीवन का केन्द्र रहा है। आचार्य जी, अक्सर स्वयंसेविओं के माध्यम से आपके जीवन के विषय में कुछ बातें सुनने को मिलती हैं कि किस तरीके से आप स्वास्थ्य खराब होने के बावजूद भी जो करने योग्य है उसको करते रहते हैं। मेरा प्रश्न इसी सम्बन्ध में है कि क्या करें अगर स्वास्थ्य रोज़मर्रा के कामों में भी बाधा बनने लग जाए? अगर आपका स्वास्थ्य और शरीर धर्म के मार्ग पर बाधा बनने लग जाए?
तमाम डॉक्टर्स हैं, उनके पास भटकने के बाद पता चला कि मेरी जो बीमारी है वो बहुत हद तक साइकोसोमेटिक (मनोदैहिक) है। मैंने बीटेक आइआइटी रुड़की से किया है लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि वो सारी मेहनत, सारा टैलेंट (प्रतिभा) जैसे बर्बाद ही हो रहा है। मुझे जो करना है उसे करने की प्रबल इच्छा है, लेकिन मेरा स्वास्थ्य इसमें आड़े आता है।
आचार्य प्रशांत: कब के पास आउट हो?
प्र: २०१४
आचार्य: देखो बेटा, ओलम्पिक्स का उदाहरण ले लेते हैं। एक जैवलिन थ्रोअर (भाला फेंक) हो, जैवलिन थ्रो जानते हो? क्या होता है जैवलिन थ्रो में? (इशारे से समझाते हुए) और एक टेबल टेनिस का खिलाड़ी हो, और एक भारोत्तोलक हो, एक हैवीवेट बॉक्सर (वज़नदार मुक्केबाज़) हो, और हॉकी टीम है, और रिले रेस (बदल दौड़) है, और टेनिस सिंगल्स (एकल) है और मिक्स्ड डबल्स (मिश्रित युगल) है। इनमें से किसी भी प्रतियोगिता को जीतो तो क्या मिलेगा? जो जीतेगा उसे क्या मिलेगा? तो स्वर्ण पदक ही मिलेगा न? और किसी भी प्रतियोगिता में मिला हुआ स्वर्ण पदक किसी भी अन्य प्रतियोगिता में मिले हुए स्वर्ण पदक के बराबर ही होता है न? बराबर ही होता है न?
तो भाई, जैसा तुम्हारा शरीर हो तुम उसके हिसाब से खेल चुन लो। खेल कोई भी होगा सोने की चमक एक बराबर की ही होगी। तुम्हें पानी सुहाता है, तुम्हारा शरीर ऐसा है कि पानी के साथ उसका बढ़िया मेल बैठता है तो तुम तैराकी कर लो। तैराकी की प्रतियोगिता जीतोगे स्वर्ण पदक मिलेगा, क्या उस सोने में पानी मिला होता है? सोना तो सोना होता है न? खरा सोना। और हॉकी देख लो या फुटबॉल देख लो, उसमें बेचारे ग्यारह लोग और पूरी प्रतियोगिता में देखो तो आठ-दस मैच खेलेंगे, और वो ग्यारह ही नहीं होंगे, आठ-दस मैच में पन्द्रह हो जाते हैं, कोई अन्दर हो रहा है कभी कोई बाहर हो रहा है। तो पन्द्रह लोगों ने मिलकर आठ-दस मैच खेले। ठीक? और फिर जब फाइनल जीत लेते हैं तो उन्हें क्या मिलते हैं? पन्द्रह स्वर्ण पदक मिलते हैं? हॉकी जो टीम जीत लेती है उसमें उस दिन ग्यारह ही लोग खेले, तो उनको कहा जाता है क्या कि तुम ग्यारह लोग थे तो तुम्हारी टीम को हम ग्यारह स्वर्ण पदक देंगे। ऐसा होता है?
तुम अकेले नहीं कर सकते तो तुम दस और लोगों के साथ कर लो, स्वर्ण पदक तो फिर भी बराबर का ही मिलेगा। तुम में बहुत जान है तुम अकेले कर सकते हो तो तुम मैराथन दौड़ जाओ। स्वर्ण पदक तो फिर भी वही मिलेगा। ज़िन्दगी भेदभाव नहीं करती है। ज़िन्दगी बिलकुल नहीं कह रही है कि तुम्हारा शरीर कैसा भी हो तुमको मैराथन ही दौड़नी है। ज़िन्दगी बिलकुल नहीं कह रही है कि तुम्हारा शरीर कैसा भी हो तुमको लॉन टेनिस ही खेलना है।
अरे भाई, तुमसे लॉन टेनिस नहीं खेला जा रहा तुम टेबल टेनिस खेल लो न। लॉन टेनिस जीतने वाले को जो स्वर्ण पदक मिलता है और टेबल टेनिस जीतने वाले को जो स्वर्ण पदक मिलता है वो अलग-अलग होते हैं क्या? और लॉन टेनिस में भी सिंगल्स जीतने वाले को जो मिलता है और मिक्स डबल्स जीतने वाले को जो मिलता है वो अलग-अलग होते हैं क्या? ज़िन्दगी ऐसी ही है।
तुम अपनी पसन्द का खेल चुन लो। तुम्हारे शरीर के अनुकूल जो भी खेल उचित बैठता हो वो चुन लो। और ये तुलना ही मत करो कि मैं तो परेशान हूँ, बीमार हूँ, और वो सामने हैवीवेट बॉक्सर घूम रहा है। वो हैवीवेट बॉक्सर अगर घूम रहा है तो उसका मुकाबला भी किससे हो रहा है? हैवीवेट बॉक्सर से ही हो रहा है। तुम पाते हो कि तुम में नहीं अभी इतना दम है कि तुम सारा काम खुद कर पाओ, तुम रिले रेस दौड़ लो भाई। तुम कहो कि जितना मैं कर सकता हूँ करूँगा और उसके बाद मैं बैटन किसी और को थमा दूँगा। आगे तू दौड़, हम इतना ही कर सकते थे, हमारी सामर्थ्य इतनी ही थी, हमने इतना कर दिया। उसमें भी अगर जीतोगे तो स्वर्ण पदक एक ही मिलेगा।
और तुम में अगर बहुत दम है तो तुम ऐसी-ऐसी प्रतियोगिताओं में हिस्सा ले सकते हो जिसमें दौड़ना भी होता है, कूद के लांघना भी होता है, पचास चीज़ें होती हैं। लेकिन उनमें भी क्या मिलता है? स्वर्ण पदक तो एक ही मिलता है न? बात ये नहीं है कि तुम किस तरीके से भाग ले रहे हो ज़िन्दगी में, जैसी भी तुम्हारी शारीरिक और मानसिक क्षमता है तुम उस तरीके से भाग लो। अभी तक हमने ये देखा कि टेबल टेनिस खेलने वाले में और हैवीवेट बॉक्सर में अन्तर क्या है। ठीक है न? अभी तक हम उस पर ज़ोर दे रहे थे।
अब ज़रा ये समझो कि दोनों में समानता क्या है। टेबल टेनिस का जो चैंपियन (विजेता) होगा, स्वर्ण पदक विजेता और जो बॉक्सिंग चैंपियन होगा दोनों में समानता क्या होगी? निष्ठा, एकाग्रता, अपने-अपने तरीके से, अपने-अपने क्षेत्र में। लेकिन तुम कहो कि इन दोनों को भिड़ा दें तो टेबल टेनिस वाला तो बहुत पिटेगा। उसको तुलना करनी ही नहीं है दूसरों को देखकर के। उसको तो ये देखना है कि अपने शरीर के अनुरूप मैंने एक काम चुना, उस काम में मुझे उतनी ही लगन से जुटना है जिस लगन से बॉक्सर अपने काम में जुटता है। तो मुझमें और बॉक्सर में शरीर का अन्तर है ध्यान का अन्तर नहीं है। उसको भी अगर जीतना है तो ध्यान उसे भी लगाना पड़ेगा और मुझे भी जीतना है तो ध्यान मुझे भी लगाना पड़ेगा। मैं ये नहीं कह सकता कि उसकी चुनौती ज़्यादा बड़ी है तो वो ज़्यादा ध्यान लगाये, और हमारा क्या है, हम तो एक टेबल पर घिटपिट-घिटपिट कर रहे हैं, हमें थोड़े ही ध्यान लगाना है।
अरे, लॉन टेनिस वालों का रैकेट भी बड़ा होता है, बॉल (गेंद) भी बड़ी होती है, मैदान भी बड़ा होता है तो वही करें मेहनत, टेबल टेनिस वालों का क्या है, हथेली बराबर रैकेट ले लिया, पाँच ग्राम की बॉल ले ली और डाइनिंग टेबल बराबर मेज़, उस पर टिकटिक-टिकटिक। हमारा काम तो सस्ते में चल जाएगा। चल जाएगा सस्ते में काम? टेबल टेनिस में स्वर्ण पदक सस्ते में मिल सकता है क्या? उतनी ही मेहनत और उतनी ही एकाग्रता चाहिए जितनी कि लॉन टेनिस में। है न? तो बेटा आप लॉन टेनिस की जगह टेबल टेनिस चुनिए। आपका शरीर नहीं साथ दे रहा तो आप लॉन टेनिस की जगह टेबल टेनिस चुनिए, लेकिन जो कुछ भी चुनिए उसके साथ इंसाफ़ करिए न।
आप कहें, ‘आचार्य जी, मेरा शरीर एकदम ही गायब हो गया।’ तो छोड़ो, तुम शतरंज खेलो। शतरंज खेलो, लेकिन शतरंज खेलने में भी तुम्हें उतना ही ध्यान, उतनी ही निष्ठा, उतनी ही साधना और उतना ही समर्पण चाहिए जितना मुक्केबाज़ी में। नहीं तो तुम शतरंज भी नहीं जीत पाओगे। तुम्हारा शरीर अगर टेबल टेनिस खेलने लायक भी नहीं है तो शतरंज खेल लो भाई। उसकी चैंपियनशिप जीतो न। चुन लो तुम्हें जो कुछ भी अनुकूल पड़ता हो अपने शरीर के अनुसार, लेकिन फिर उसमें रमो, घुसो और जीतो।
आ रही है बात समझ में?
और जब शरीर ऐसा हो जाए कि एकदम ही नहीं चल रहा तो स्टीफ़न हॉकिंग (एक वैज्ञानिक) की ओर देख लेना। उसके बाद भी जो काम करोगे, जब शरीर चलना एकदम ही बन्द हो जाए उसके बाद भी जो काम करोगे वो काम भी उतनी ही निष्ठा, और उतना ही श्रम और उतना ही समर्पण माँगेगा जितना कि किसी बहुत बलशाली शरीर वाले का काम। तो शरीर की तो अवस्थाएँ आती-जाती रहेंगी। मामला कमज़ोरी से ताकत की ओर बढ़ता है, फिर ताकत से फिर धीरे-धीरे कमज़ोरी की ओर वापस आता है। शरीर का सूरज पहले चढ़ता है सिर के ऊपर पहुँचता है, फिर धीरे-धीरे ढलता है। लेकिन शरीर की जो भी हालत हो उस हालत के अनुसार तुम्हें तो लगना ही पड़ेगा, डटना ही पड़ेगा।
टेनिस की हम बात कर रहे हैं। भारत में ही उदाहरण ले लो, लिएंडर पेस ने कहा है कि इस साल, अब रिटायर (सेवामुक्त) होंगे। शुरुआत तो सिंगल्स प्लेयर (खिलाड़ी) के तौर पर ही करी थी, और अच्छा खेले थे सिंगल्स। ओलम्पिक में जो कांस्य पदक मिला था उनको वो डबल्स के तौर पर थोड़े ही मिला था, सिंगल्स में ही लेकर के आये थे। फिर धीरे-धीरे उम्र बढ़ती है, दिखाई देता है कि अब सिंगल्स में बात नहीं बनेगी, तो आदमी क्या खेलना शुरू कर देता है? डबल्स। तो फिर डबल्स में जोड़ी बनायी, पहले महेश भूपति के साथ बनायी, फिर दूसरों के साथ बनायी। न जाने कितने ग्रैंड स्लैम जीते डबल्स में। फिर समझ में आया कि मेंस डबल्स (पुरुष युगल) के हिसाब से भी शरीर अब ढल गया, उम्र अब बहुत बढ़ गयी, तो फिर किसमें उतरे? मिक्स डबल्स में। फिर मिक्स डबल्स में भी कुछ और ग्रैंड स्लैम जीते। और अब जब अवस्था चालीस को भी खूब पार कर गयी है तो अब रिटायरमेंट है। रिटायरमेंट के बाद तुम्हें क्या लगता है कि अब कोई इस्तेमाल नहीं करने वाले शरीर का? सम्भावना ये है कि अब कोचिंग (सिखाना) करेंगे। कि शरीर इतना तो कर सकता है न कि कोचिंग करें।
तो जब सिंगल्स खेलते थे तो टॉप के सिंगल्स प्लेयर थे, कम-से-कम भारत के टॉप के सिंगल्स प्लेयर थे। एक समय पर सिंगल्स रैंक (श्रेणी), अगर मुझे सही याद है कॉलेज के दिनों का, एक समय पर सिंगल्स रैंक टॉप हंड्रेड (शीर्ष सौ) में आ गयी थी, सत्तर के आस-पास हो गयी थी।
तो जब सिंगल्स खेलते थे तो सिंगल्स में जान लगायी, ओलम्पिक्स मेडल भी जीता। डबल्स खेले तो डबल्स में जान लगायी, फिर मिक्स डबल्स खेले तो उसमें जान लगायी। अब कोचिंग करेंगे तो उसमें जान लगाएँगे। जो तुम्हारे शरीर की अवस्था हो तुम उस अवस्था के अनुरूप काम कर लो, लेकिन जो भी काम करो उसमें निष्ठापूर्वक काम करो, अव्वल दर्जे का काम करो न भाई। पचास साल के कोच को ये नहीं कहा जाता कि तुम जाकर के खुद खेलो ग्रैंड स्लैम।
स्टीफेन एडबर्ग का तो नाम सुना होगा? अपने समय के ग्रैंड स्लैम विजेता। फिर वो कोच भी किसके बने? रोजर फेडरर के। कि जब तक हम खुद खेलते थे तो दुनिया के नम्बर एक खिलाड़ी थे, अब जब हम खुद नहीं खेलते, उम्र ढल गयी, शरीर ढल गया तो हम कोच भी किसके हैं? दुनिया के नम्बर एक खिलाड़ी के। इसको कहते हैं नम्बर एक रहना। शरीर की हालत ऊपर से नीचे होती रहती है, हम नम्बर एक के नम्बर एक हैं। जब हम खुद खेलते थे तो खुद नम्बर एक थे, अब जब हम कोचिंग देते हैं तो हम कोच भी किसके हैं? दुनिया के नम्बर एक खिलाड़ी के कोच हैं। जो भी हालत है शरीर की, हम तो नम्बर एक ही हैं।
बात आ रही है समझ में?
प्र: जो आपका पूरा समर्पण हैे, काफ़ी सुना है ‘जिस काम में लगो लग जाओ।’ मेरे साथ क्या होता है, पहले से भी इतना ध्यान नहीं दिया मैंने स्वास्थ्य के ऊपर। आप कुछ भी काम करेंगे तो थोड़ा-बहुत मानसिक दबाव, थोड़ी चिन्ता, थोड़ा-बहुत वो दिमागी तौर पर आता है, और अगर मेरे साथ थोड़ा भी आता है तो मुझे दवा लेनी पड़ती है, फिर उसका शरीर पर असर दिखाने लगता है, फिर वो एक तरह का फीडबैक लूप (प्रतिक्रिया पाश) जैसा शुरू हो जाता है, शरीर से मन, मन से शरीर।
सर आप कुछ भी आप सार्थक कर रहे हैं, मेरी बहुत इच्छा है कि मैं कुछ सार्थक करूँ, पर बिना तनाव के मैं वो कैसे कर पाऊँ? मैं अपना सौ प्रतिशत भी दे दूँ, पर मुझे कोई मानसिक तनाव न हो, क्योंकि उस का सीधा असर मेरे शरीर पर आता है।
आचार्य: तनाव से कम समस्या है तुमको, ज़्यादा समस्या इस बात से है कि तुम तनाव को बड़ी चीज़ मानते हो। तुमने फीडबैक लूप की बात करी न? ज़्यादातर साइकोसोमेटिक बीमारियाँ तनाव से बढ़ती हैं। और बीमार आदमी को तनाव किस बात का होता है? मैं बीमार हूँ। जब वो अपनेआप को ये बार-बार बोलता है, ‘मैं बीमार हूँ’, तो उसका तनाव और बढ़ता है, और जब तनाव बढ़ता है तो उसकी ये धारणा बढ़ती है कि मैं बीमार हूँ। तनाव को बुरा मानना छोड़ दो। तनाव आये उसके प्रति तुम निर्विरोध रहो, नॉन-रेसिस्टेंट, फिर जितना आएगा उतना ही रहेगा, एक इंटरनल फीडबैक लूप (आन्तरिक प्रतिक्रिया पाश) नहीं चलेगा जो तनाव को मैग्नीफाई (आवर्धक) कर दे, जो तनाव में वृद्धि कर दे।
अभी क्या हो रहा है, समझ रहे हो न बात को?
तुम्हें पता है तनाव तुम्हारे लिए घातक है। तो अब तुम कुछ कर रहे हो। तुमने ठीक कहा कि कुछ भी करोगे उस में चुनौती आएगी, चुनौती आती है तो भीतर ज़रा सा तनाव तो खड़ा होता है। तो अब भीतर तनाव पैदा हुआ, तनाव पैदा हुआ तुम्हें तनाव का एहसास हुआ, और ज्यों ही तुम्हें तनाव का एहसास हुआ, तुमने अपनेआप को कहा, ‘अरे, बड़ी गड़बड़ चीज़ हो गयी है तनाव आ गया, तनाव आ गया।’ और जैसे ही तुमने अपने आपको कहा बड़ी गड़बड़ चीज़ हो गयी है तनाव आ गया, तनाव आ गया। क्या हुआ? इसी बात का तनाव हो गया कि तनाव हो गया। तुम्हें इस बात का तनाव है कि तुमको तनाव है। सिर्फ़ तनाव गड़बड़ चीज़ नहीं होती, तुम्हें तनाव रेज टू द पावर तनाव हो रहा है।
बात समझ रहे हो?
तुम खुद अपने तनाव को बढ़ा रहे हो, वरना जितना आता है आये। तनाव ही तो आया है, हाँ, हाॅं, हाॅं, थोड़ा टेंशन (तनाव) आ गया है, ठीक है। ये थोड़े ही है कि टेंशन आ गया तो ढोल बजा रहे हैं और गली-मोहल्ले में शोर कर दिया, ‘अरे, तनाव आ गया रे।’ आ गया तो आ गया, सबको आता है। तनाव माने चुनौती। जानते हो अगर तुम्हारी ये जो पूरी शारीरिक-मानसिक व्यवस्था है इसको चुनौती मिलनी बन्द हो जाए तो ये ढह जाएगी।
तनाव कोई आवश्यक रूप से खराब नहीं होता है। तुम जाते हो, व्यायाम करते हो। व्यायाम क्या है बताओ शरीर के लिए? तनाव ही तो है। तुम बैठकर के गणित के सवाल लगाते हो, ये सवाल लगाना क्या है दिमाग के लिए? तनाव ही तो है। और मत दो बिलकुल तुम शरीर को तनाव और मत दो तुम दिमाग को बिलकुल तनाव, फिर देखो शरीर का क्या होता है और दिमाग का क्या होता है? बुद्धि कुन्द हो जाएगी, शरीर लुॅंज हो जाएगा। लेकिन अगर तुम अपनेआप को एक छवि में बाॅंध लो कि मैं बीमार हूँ, मुझे तनाव बिलकुल नहीं होना चाहिए। तो फिर तो जो नैसर्गिक तल है तनाव का वो भी तुमको बड़ी भारी चीज़ लगेगी, खतरनाक लगेगी, अतिशय लगने लगेगी। भीतर एक अलार्म बजने लगेगा ज़रा सा तनाव हुआ है तो कि अरे तनाव हो गया। अब जितना तनाव, तनाव के होने से नहीं था उससे ज़्यादा तनाव हो गया अलार्म के बजने से।
बीमार के लिए जो शारीरिक बीमारी है वो तो घातक होती है, उससे कहीं ज़्यादा घातक बात तब हो जाती है जब बीमार अपनेआप को घोषित कर दे कि मैं तो बीमार हूँ। मेरा नाम है बीमार। मेरी पहचान है बीमारी। जैसे ही तुम्हारी ज़िन्दगी में ये हालत आ जाएगी कि कोई तुमसे पूछे कि कौन हो? कैसे हो? और तुम तुरन्त मुँह खोलकर के अपनी बीमारी का ही वर्णन शुरू कर दो, समझ लो कि कुछ बहुत गड़बड़ हो गया तुम्हारे साथ। होना ये चाहिए कि शारीरिक तौर पर तुम कितने भी बीमार हो, वो बीमारी शरीर भर की होनी चाहिए, मन की नहीं।
कितने भी बीमार हो शारीरिक तौर पर तुम, कोई और आकर के याद दिला दे कि बीमार हो, तो तुम्हें याद आना चाहिए कि तुम बीमार हो। ये नहीं होना चाहिए कि मुँह उतारे, थोबड़ा लटकाये घूम रहे हो और जो मिल रहा है उसी को बता रहे हो कि मैं तो बीमार हूँ, मैं तो बीमार हूँ। अरे शरीर को बताने दो न कि बीमारी है। जब बीमारी बहुत बढ़ जाएगी तो शरीर खुद ही गिरेगा, तब मान लेना कि लगता है बीमारी बढ़ गयी। डॉक्टरों को बोलने दो न कि बीमारी है। दुनिया वालों को बोलने दो न कि तुमको बीमारी है। तुम अपनेआप को काहे नाम दिये दे रहे हो 'बीमारमल' का।
ये नहीं होना चाहिए कि दुनिया तुमसे पूछे, ‘बीमारी कुछ कम हुई कि नहीं?’ होना ये चाहिए कि दुनिया तुमसे पूछे कि तुम बीमार हो भी क्या? जिस हिसाब से तुम काम कर रहे हो, चल रहे हो, खेल रहे हो, तुम्हें देखकर लगता नहीं है कि तुम बीमार हो। ये तो डॉक्टरों की रिपोर्टों में बार-बार आ जाता है कि तुम्हारे भीतर ये बीमारी है, वो बीमारी है। लेकिन तुम्हारी ज़िन्दगी हमें कहीं से बीमार नहीं लगती, ऐसे होना चाहिए जीवन।
शरीर बीमार हो जाए तो हो जाए, ज़िन्दगी बीमार नहीं होनी चाहिए।
और जहाँ तक शरीर की बात है, वो बीमार होगा क्या, बीमारियों का ही तो दूसरा नाम शरीर है भाई। जब बीमारी कम होती है तो तुम उसको स्वास्थ्य बोल देते हो, वरना मुझे बताओ कि यहाँ स्वस्थ कौन बैठा है? यहाँ जो अपनेआप को स्वस्थ कह रहे हैं वो भी अधिक-से-अधिक वो लोग हैं जिनकी बीमारी अभी सीमा के अन्दर है। शून्य नहीं है, सीमित है। कोई हो यहाँ पर इतने लोगों में तो हाथ खड़ा करके बता दे कि उसे बिलकुल कोई बीमारी नहीं है। कोई है ऐसा? हाँ, ये हो सकता है कि आप की बीमारी अभी दबी-छुपी है, दायरे के अन्दर है। वास्तव में शरीर मात्र ही बीमारी है। माँ के गर्भ से बीमारी का ही जन्म होता है तो बीमारी को कितनी अहमियत दोगे यार? कब तक रोते-गाते फिरोगे कि हम बीमार हैं, हम बीमार हैं। तुम्हें अगर यही रोना-गाना है तो ये तो जीवन भर का धन्धा बन जाएगा। फिर तो बीमारी उसी दिन मिटेगी, जिस दिन चित्ता उठेगी, अर्थी उठेगी।
समझ में आ रही है बात?
शरीर बीमार ही है। शरीर का स्वास्थ्य मूलतः एक भ्रान्ति है। शरीर स्वस्थ लग भी रहा हो तो इसका अर्थ यही है कि बीमारी अभी अप्रकट है, पर है छुपी हुई। अगर छुपी हुई न हो शरीर में बीमारी तो मुझे बताओ बाद में प्रकट कहाँ से हो जाएगी? बोलो।
किसी को बाहर से कोई किटाणु-जीवाणु-बैक्टीरिया-वायरस न लगे, एकदम न लगे, तो भी दस-बीस साल प्रतीक्षा करके देख लो बीमार तो वो हो ही जाना है। बीमारी शरीर के भीतर ही छुपी बैठी है न? शरीर ही बीमारी है। तो बहुत भाव मत दो शरीर को, और न प्रतीक्षा करो शारीरिक रूप से स्वस्थ हो जाने की, वो दिन कभी आना नहीं है कि शारीरिक रूप से स्वस्थ हो जाओ। ये गाड़ी तो जैसे चल रही है, इसको चलाओ। हाँ, ये मत कर देना कि ऐसी चला दी कि कल चलने लायक ही न बची। लेकिन बहुत लोग गलती ये कर जाते हैं कि वो इस भ्रम में और इस सपने में जीते हैं कि जब पूरी तरह स्वस्थ होंगे तब काम करेंगे। जब शरीर एकदम ठीक होगा, जब शारीरिक स्थितियाँ एकदम अनुकूल होंगी तब जीवन जियेंगे, तब शुरुआत करेंगे। शरीर कभी एकदम स्वस्थ होना ही नहीं है।
शारीरिक स्थिति हो, चाहे मानसिक स्थिति हो, चाहे सांसारिक स्थिति हो, चाहे तुम्हारी आर्थिक स्थिति हो, वो कभी पूर्णतया तुम्हारे अनुकूल होनी नहीं है। कब तक प्रतीक्षा करते रहोगे? जो करना है अभी कर डालो। अनुकूलता का इंतज़ार जीवन से विमुखता का एक बहाना भर है। कोई पूछे कि काहे भाई, जो सम्यक काम है, जो अभी धर्म कर्तव्य है तुम्हारा, वो कर काहे नहीं रहे? तो हमारे पास एक उम्दा बहाना तैयार होता है कि अभी शरीर ठीक नहीं है, कि अभी परिवार ठीक नहीं है, कि अभी मन और मूड ठीक नहीं है, अभी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है भाई, अभी मौसम ठीक नहीं है, ठण्ड बहुत है। ये सब कब ठीक होंगे? मुझे बताना। बताओ। ये सब कब ठीक होंगे? कोई दिन ऐसा आएगा जब ये ठीक ही होंगे? तो करते रहो इंतज़ार।
जो टेबल टेनिस भी नहीं खेल सकते उनके लिए मैंने एक और छोटी टेबल देखी है उसका नाम है 'पिंगोरी'। अब बताएँगे। कुल इतनी बड़ी है वो। (अपने मेज की आधी लम्बाई का इशारा करते हुए) लॉन टेनिस नहीं तो टेबल टेनिस ही सही, और टेबल टेनिस भी नहीं तो पिंगोरी सही। इंतज़ार मत करो बाबा। जो कर सकते हो वही करो। और भूलना नहीं की स्वर्ण पदक तो बराबर का ही मिलना है। जो कर रहे हो बस उसको जमकर करो, ठीक से करो।