प्रश्नकर्ता: मेरे चाचा का एक लड़का हुआ था, तो करीबन तीन साल हो गये, तीन साल, चार साल हो गये होंगे, उसका न ब्रेन का एक पार्ट (दिमाग का एक हिस्सा) नहीं है। तो डॉक्टर्स ने बोला हुआ है कि इसका कुछ हो नहीं सकता। बट (लेकिन) वो लोग बहुत ज़्यादा डेस्पेरेट (निराश) हैं कि नहीं कुछ तो, मतलब चक्कर काटते रहते हैं कहीं-न-कहीं, कहीं कुछ हो, कहीं कुछ हो। तो कोई थोड़ा सा भी कहता कि ठीक है, मतलब साल लगेगा ठीक हो जाएगा, ये दवा ले लो, वो दवा ले लो। तो सीधा वहीं पर सब हो जाता। सिचुएशन (स्थिति) बहुत ऐसी कि न तो उन्हें समझा सकते हैं और न उसका सोल्यूशन (हल) दे सकते हैं। बट परेशान वो लोग बहुत ज़्यादा हैं। तो मतलब वही बात है कि समझा भी नहीं सकते और उनको कुछ कहेंगे तो वो लोग न तो समझेंगे। तो इस केस (मामले) में क्या किया जा सकता है?
आचार्य प्रशांत: समझाया जा सकता है।
प्रश्नकर्ता: और वो जो मेरी चाची हैं, उनकी कंडीशन (हालत) ऐसी हो गई है कि वो सुबह-शाम तक बस उसी में लगी रहती हैं, सब मतलब, जो अपनी जो खुद की हेल्थ (स्वास्थ्य) है, वो सब जा रही है।
आचार्य प्रशांत: बेटा, बाहर जब कोई ऐसी घटना घटती है तो आपको दिख जाती है, पर वही घटना भीतर-भीतर चल रही होती है न बहुत समय से, तब दिख नहीं रही थी। इस पूरी स्थिति में गौर से अगर तुम देखो कि बीमार कौन है, तो तुम्हें उलझन हो जाएगी —किसको बीमार बोलें? उस बच्चे को जिसका शायद जन्म ही मस्तिष्क में किसी कमी के साथ हुआ है, या उनको जिनका कहने को मस्तिष्क समूचा है, पर बुरी तरह संस्कारित है।
सिर्फ़ इसलिए कि आपकी काया में कोई हिस्सा कम है या त्रटिपूर्ण है, दुख आवश्यक नहीं है। हो सकता है कि आपके शरीर में कोई जैविक कमी हो, कोई भौतिक कमी हो, फिर भी आप मज़े में जिये जाओ। ठीक है, कई चीज़ें होंगी जो आप नहीं कर पाओगे, कई क्रियाएँ नहीं कर पाओगे। हो सकता है कि व्यवहारिक बुद्धि आपकी बहुत परिपक्व न हो, इत्यादि। लेकिन फिर भी आवश्यक नहीं है कि आप दुख में जियो, पर दुख फ़िर भी आवश्यक हो जाता है जब आपको पता भी नहीं होता कि आप किन मान्यताओं का बोझ ढो रहे हो, आप कहने को दूसरे के लिए कुछ कर रहे हो, पर वास्तव में अपनी ही अपेक्षाएँ पूरी करना चाहते हो, इत्यादि-इत्यादि। तुम कह रहे हो, समझाया नहीं जा सकता, बिलकुल समझाया जा सकता है।
अगर कभी कुछ था जो मन पर चढ़ गया, तो उसको किसी तरीके से उतारा भी जा सकता है। सब सम्भव है। और इलाज, मैं दोहराता हूँ बच्चे को कम चाहिए; उन माँ-बाप को ज़्यादा चाहिए। बच्चे में वैसी चेतना नहीं आएगी, जैसी चेतना आम लोगों में होती है। उसकी अपनी तरह की चेतना होगी, उसे जीने दो न, उसका अपना एक संसार होगा, समस्त जीवों की चेतना वैसे भी एक जैसी नहीं होती। बकरी की चेतना कुत्ते जैसी नहीं होती, कुत्ते की हाथी जैसी नहीं होती और आदमी की औरत जैसी नहीं होती। और आदमी और आदमी की चेतना में भी बहुत फ़र्क होता है।
तो अगर किसी के मस्तिष्क का कोई हिस्सा क्षतिग्रस्त है या अनुपस्थित है तो उसकी चेतना अपने प्रकार की होगी, विशिष्ट प्रकार की होगी, चेतना विशिष्ट है, अलग है इससे ये ज़रूरी नहीं, मैं दोहरा रहा हूँ कि दुख होगा। हाँ, दुख उन्हें होगा जो बच्चे को एक साधारण और सामान्य बच्चे की तरह देखना चाहते थे। खरगोश, खरगोश है, इसमें कोई दुख की बात नहीं है कि खरगोश, खरगोश है। पर अगर आप बकरी चाहते थे, आपको खरगोश मिल गया है, तो! बहुत दुख की बात है। बच्चा,बच्चा है; बच्चे के होने में कोई दुख नहीं है। पर आपकी उम्मीद ये थी कि मेरा बच्चा पड़ोसी के बच्चे जैसा ही हो। तब बहुत दुख है।
प्रश्नकर्ता: उसका (बच्चा) तो बेड (बिस्तर) पर लेटा रहता है। न बोल पाता है, न बैठ पाता, न चल पाता है, लाइक (मान लीजिए), बस है। बस कुछ ऐसी कंडीशन है आज, न समझ पाता है, न बोल पाता है, कुछ नहीं।
आचार्य प्रशांत: नहीं, ये सारी बातें क्या तुम्हें पक्का है कि उसके लिए दुखदायीं हैं और कहीं ऐसा तो नहीं कि ये सबकुछ करके तुम उसके लिए स्थिति और जटिल बना रहे हो। वो जैसा भी है, जितने भी दिन जिएगा अपने अनुसार जी लेगा। पर तुम चाहते ये हो कि जैसे सब बच्चे इंजीनियर बनते हैं, ये भी इंजीनियर बने। जैसे सब बच्चे दौड़ते हैं, वैसे ये भी दौड़े। तुम्हें स्वीकार ही नहीं हो रहा कि तुम्हारे सामने जो है, वो भी परमात्मा की ही एक अभिव्यक्ति है।
तुम्हें स्वीकार ही नहीं हो रहा कि ऊँचे खजूर के पेड़ भी होते हैं, और एक छोटी सी घास की पत्ती भी होती है। और दोनों को जीने का बराबर का हक है। जो भी उसकी स्थिति होगी, जैसा भी चलेगा, चलेगा, पाँच साल चलेगा, दस साल चलेगा, कि सौ साल चलेगा, लेटे-लेटे चलेगा, भागे-भागे चलेगा, बहुत होशियार होगा या तुम्हारी दृष्टि में बहुत बेवकूफ़ होगा, जैसा भी होगा, होगा। उसके होने में दुख कहाँ है मुझे बताओ, तुम्हारी उम्मीदों के टूटने में दुख है। और तुम्हारी उम्मीदें ये नहीं है कि दूसरा आनंदित हो, कि दूसरा मुक्त रहे; तुम्हारी उम्मीद ये है मेरे बाद भी इस दुनिया में ज़िन्दा मेरा नाम रहे, जो भी तुझे देखेगा, तुझे मेरा लाल कहेगा। ये तुम्हारी उम्मीद है।
जो तुम अपने जीवन से हासिल नहीं कर पाये, वो सारी उम्मीदें तुम दूसरे के ऊपर थोपते हो न, दूसरा जिससे तुम्हारा अहंकार जुड़ा हो,जिसको तुम कह सको कि मेरा है। खुद, तुम जो कुछ नहीं हो पाते, वो तुम दूसरे के माध्यम से हासिल करना चाहते हो। मैं कुछ नहीं हो पाया। पर ये देखो मेरा राजा बेटा, ये राजा है, राजा है, और मेरा बेटा है। तो ज़रा परोक्ष तरीके से मैं ही राजा हो गया।
तुम बेटे के लिए थोड़े ही मनाते हो कि वो राजा हो जाए, तुम अपने लिए मनाते हो। प्रमाण इसका ये कि वो तुम्हारा बेटा न होता, तुम उसके लिए मनाते क्या? तुम उसके माध्यम से अपनी इच्छाएँ और वासनाएँ तृप्त करना चाहते हो। वो जैसा है उसे रहने दो, सबको अपने अनुसार होने का हक है। बिलकुल हो सकता है वो बिस्तर पर पड़ा रह जाए, तो! तो? तो क्या हो गया,बिलकुल हो सकता है वो आजन्म कुछ बोल न पाये। तो?
क्या ये आवश्यक है कि कुछ बोल न पाने में दुख हो ही। क्या ये आवश्यक है कि पड़े रह जाने में दुख हो ही। जवाब दो। बिलकुल भी आवश्यक नहीं है। पर तुम्हें ग्लानि होती है। हो सकता है तुम्हें शर्म भी आती हो कि सबके बच्चे तो खेलते हैं, कूदते हैं, दुनिया में आगे बढ़ते हैं। हमारा ही बच्चा पीछे रह गया। और लोग बच्चे पैदा करते हैं कि बुढ़ापे का सहारा बनेंगे। ये हमारा क्या सहारा बनेगा, इसे तो हम ही सहारा दिये जा रहे हैं। तो फिर मन में ऐसा लगता है जैसे धोखा हो गया, सबकी लॉटरी लगी, हमारी नहीं लगी। हमें ये क्या मिल गया।
तुम्हें अगर अपनी उम्मीदों से ज़्यादा वास्तव में बच्चे से प्रेम होगा, तो बच्चा जैसा भी है, उसको रहने दोगे। जिस रूप में वो है, उस रूप में उसकी जो उच्चतम सम्भावना है, वो उसको प्राप्त हो जाए, बात खत्म। शांति सबको उपलब्ध हो सकती है। शांति उपलब्ध कराने के तरीके सबके लिए अलग-अलग होते हैं। स्त्री को शांत करने की अलग विधि होती है, पुरुष को शांत करने की अलग विधि होती है, अलग-अलग स्त्रियों पर अलग-अलग विधि, अलग-अलग पुरुषों पर अलग-अलग विधि, सिंह पर अलग विधि लगेगी, बतख पर अलग विधि लगेगी, हर व्यक्ति पर अलग विधि लगेगी।
शांति ही उच्चतम सम्भावना है मनुष्य की। और तुम कोई भी हो, शांति को तो उपलब्ध हो ही सकते हो न। तो बच्चा भले ही बीमार है, वो भी अपनी उच्चतम सम्भावना को पा ही सकता है, पर अपने तरीके से, अपने रूप में, उसके अनुरूप एक विधि देनी होगी। और वो विधि ये नहीं होगी कि उसके पास भी पी.एच.डी आ गयी। उसकी शिक्षा अलग तरीके की होगी, उसका पालन-पोषण अलग तरीके का होगा। और तुम कभी भी छाती फुलाकर ये नहीं कह पाओगे कि मेरा बेटा ज़माने में सबसे आगे जा रहा है। क्योंकि वो ज़माने की दौड़ नहीं दौड़ पाएगा वो ज़माने से ज़रा अलग है।
लेकिन जिस कारण जन्म लिया जाता है, वो कारण उस बच्चे का भी सार्थक हो सकता है। वो कारण तुम्हारे मस्तिष्क की संरचना पर निर्भर नहीं करता। इसका प्रमाण ये है कि जो लोग बहुत ज़्यादा बुद्धिमान इत्यादि होते हैं, उन्हें मुक्ति मिल ही जाए, कोई ज़रूरी नहीं। फिर मुक्ति, मोक्ष यदि मस्तिष्क पर निर्भर करते होते तो फिर तो विज्ञान के माध्यम से तुम मस्तिष्क में ही कुछ कारगुज़ारी करके सबको मोक्ष दिलवा देते। क्योंकि मस्तिष्क में जो कुछ है वो भौतिक है, मस्तिष्क में जो कुछ है, वो मटीरियल (पदार्थ) है। उसको तो नापा जा सकता है।
और बहुत लोग कोशिश कर भी रहे हैं। वो कह रहे हैं कि बुद्ध का बुद्धत्व ज़रूर उनके मस्तिष्क में घटने वाली कोई घटना है। तो बुद्धत्व के समय वो पता करना चाहते हैं कि ब्रेन में क्या होता है। और वो कह रहे हैं कि बुद्धत्व के समय, निर्वाण के समय ब्रेन में जो कुछ होता है, वो हम विज्ञान के माध्यम से कर देते हैं। तो फिर निर्वाण-क्लिनिक होंगे वहाँ जाइए और निर्वाण ले लीजिए। वो ब्रेन में दो-चार चीज़ें कुछ कर देंगे, आप भी बुद्ध हो गये। ये पागलपन की बात है। ये परम बेवकूफ़ी का खयाल है। तुम कोशिश करते रहो, ये होने का नहीं।
बुद्धत्व का अर्थ है कि मस्तिष्क में अब जो भी कुछ हो रहा हो, हम उससे परे हैं। बुद्धत्व की परिभाषा ही यही है कि मस्तिष्क में जो भी घटना घटती हो, हम उससे आगे निकल आये। तो फिर मस्तिष्क में कोई घटती कोई घटना बुद्धत्व कैसे परिणीत कर सकती है। ये ऐसी सी बात है कि तुम सोचो कि धरती पर गड्ढा खोदकर, या धरती को रंगकर या धरती पर महल बनाकर तुम आसमान का कुछ बिगाड़ लोगे। और एक आयाम अलग-अलग है। आसमान का अर्थ ही है वो जो धरती से ऊपर का है। तुम धरती पर कुछ भी करते रहो, आसमान पर क्या प्रभाव पड़ जाएगा, तुम मस्तिष्क पर कुछ भी करते रहो, उससे बुद्धत्व पर क्या असर पड़ जाएगा।
प्रश्नकर्ता: तो मतलब जो उसकी लाइफ़ है। जो उसको, कहने का मतलब है कि शांति उसको भी उपलब्ध हो सकती है। तो, वो तो उसको खुद करना होगा, या खुद होगा वो।
आचार्य प्रशांत: तुम्हारा खुद हो रहा है? तुम्हारा खुद हो रहा है, तुम्हारा खुद नहीं हो रहा है, उसका खुद हो जाएगा।
प्रश्नकर्ता: तो नहीं, बट (लेकिन) कुछ कन्वे (बताया) नहीं किया जा सकता है न।
आचार्य प्रशांत: तुम्हें कैसे पता, नहीं किया जा सकता? कभी कोई जानवर खिलाया है, उसे कुछ कन्वे नहीं किया जा सकता। खरगोश से कौनसी भाषा बोलते हो, फ्रेंच बोलते हो, पर जिन्हें कभी भी किसी पशु से कुछ लेना-देना रहा है, वो अच्छे से जानते हैं कि पशुओं से संवाद हो सकता है। हाँ, फ्रेंच में नहीं होगा, कैसे होता है? बस हो जाता है पूछो मत।
आज सुबह ही सुबह बैठा हुआ था पार्क में एक बेंच पर, एक कुत्ता आया बिलकुल चढ़ गया और मुँह और नाक चाट के चला गया। जितनी देर मुहँ-नाक चाट रहा था उतने में एक फ़ोटो भी ले ली मैंने उसकी, मैंने कहा ये देखो। तुम्हें क्या लग रहा है वो नाक चाट रहा था, नाक में क्या है, वो बात कर रहा था। पर तुम्हें समझ में नहीं आती बात। बोल रहे हो उसे कुछ कनवे नहीं किया जा सकता। बल्कि तुम्हें नहीं कन्वे किया जा सकता, क्योंकि तुम शब्दों पर आश्रित हो।
जहाँ शिव हैं, वहाँ याद रखना कि गणेश का सिर भी है। गणेश के पास अगर हाथी का सिर है। और गणपति बुद्धिमानों में बुद्धिमान कहे जाते हैं। तो अर्थ समझना कि दैवीय बुद्धि का मस्तिष्क से कोई लेना-देना नहीं। मस्तिष्क आदमी का हो, चाहे हाथी का हो, गणपति, गणपति हैं। अगर आदमी की खोपड़ी में ही सारी अक्ल होती तो गणेश को तो बुद्धू होना चाहिए था, कि नहीं होना चाहिए था। नहीं समझ में आयी ये बात?
प्रश्नकर्ता: आ गयी।
आचार्य प्रशांत: मस्तिष्क-मस्तिष्क क्या कर रहे हो? ये तो क्या है (सिर की ओर इशारा करते हुए), गूदा है पिलपिला, ये तो जल जाएगा, इसका बुद्धत्व से, प्रेम से, आनंद से कोई लेना देना नहीं है।
प्रश्नकर्ता: जो जैसे चेतना में जो गहरी-गहरी गाठें हैं, वो कैसे दूर हों? गाठें हैं जो वो कैसे दूर हों चेतना में?
आचार्य प्रशांत: कैसे हटें?
प्रश्नकर्ता: विवेक कैसे पुष्ट हो?
आचार्य प्रशांत: वो वही बात जो उन्होंने पहले पूछी थी, हट ही रही हैं। जल्दबाजी मत करो बस। दो ही गलतियाँ होती हैं। पहली ये कि तुम निराश हो जाओ कि हट ही नहीं सकती। और दूसरी ये कि तुम अति उत्साहित हो जाओ कि कल ही हटाना है। दोनों ही गलतियाँ हैं। ये वो रास्ता है जिस पर शुरुआत तो तुम्हारी मर्ज़ी से होती है, अंत का कुछ पता नहीं। और श्रद्धा इसी में है कि शुरू कर रहा हूँ अंत कब होगा, कैसे होगा, होगा भी कि नहीं मुझे नहीं पता। तो तुम अपनी शुरुआत को कायम रखो, रुक मत जाना। अंत कब आएगा, ये तुम्हें कभी पता नहीं चलेगा। क्योंकि जब अंत आएगा, तब तुम होओगे नहीं, कहने के लिए कोई बचेगा नहीं कि अंत आ गया। तुम बस चलते रहो, चलते रहो।
प्रश्नकर्ता: एक क्वेश्चन मेरे को भी पूछना है। जितनी मेरी जानकारी है, उसके हिसाब से जो, जिनको हम कहते हैं कि उनको अपने जीवन का उद्देश्य मिल गया, वो संन्यासी हुए, चाहे जिनके चित्र लगे, या जिनके आपने नाम भी बोल दिये, उनको जीवन का जो उद्देश्य मिला वो संन्यासी होकर ही मिल पाया। क्या ये ज़रूरी है? या जो भी लोग, हमारी सबकी तरह कॉमन (आम) की तरह अपना रिलेशन्स (सम्बन्धों) में रहते हैं, अपने व्यवहारिक जीवन, सांसारिक जीवन में रहते हैं अंत तक, उसके अन्दर रहकर क्या मुक्ति नहीं मिल सकती है या अपने जीवन को उद्देश्यों को नहीं पा सकते।
आचार्य प्रशांत: उसी से तो मुक्ति चाहिए होती है। तुम पूछ रहे हो बन्धनों में रहकर मुक्ति मिल सकती है क्या? उसी से तो मुक्ति चाहिए और किससे मुक्ति चाहिए? जब तुम कहते हो मुक्ति चाहिए, तो किससे मुक्ति चाहिए, बाल से मुक्ति चाहिए, किससे मुक्ति चाहिए, जुएँ से मुक्ति चाहिए, कुर्ते से मुक्ति चाहिए, काहे से मुक्ति चाहिए, उसी से तो मुक्ति चाहिए न जिसमें दिन-रात फँसे हुए हो और तुम कह रहे हो उसमे फँसे रहकर मुक्ति मिल सकती है क्या?
मुक्ति का क्या अर्थ है और किससे मुक्ति माँग रहे हो बताओ तो एक बार। दिन भर की जो किचकिच, पचपच चलती है, उसी से तो मुक्ति चाहिए। तुम्हें किससे मुक्ति चाहिए? तुम्हे किससे मुक्ति चाहिए? उसने कहा, ‘मुझे विकारों से चाहिए।’ वो विकार कहाँ प्रदर्शित होते हैं, अंदर पेट में थोड़े ही विकार प्रदर्शित होते हैं।
वो विकार हैं तुममें, ये तुम्हें कब पता चलता है? सम्बन्धो में ही तो पता चलता है विकार। उसी से तो मुक्ति चाहिए। किसी पर गुस्सा करते हो न। सम्बन्ध होते हैं, वहीं पर तो विकार पता चलते हैं। तो इन्हीं चीज़ों से तो मुक्ति चाहिए होती है। और किससे? दूसरी बात याद रखना कि हर बच्चा करीब-करीब संन्यासी पैदा ही होता है। बस वो संन्यास से थोड़ा सा पीछे होता है। तुम जिन चीज़ों की बात कर रहे हो, वो बाद में मिलती हैं।
तो प्रश्न ये नहीं पूछा जाना चाहिए कि वो संन्यासी क्यों हो गये, क्योंकि संन्यासी तो हम सब करीब-करीब पैदा ही होते हैं। उन्हें नहीं उत्तर देना है कि वो संन्यासी क्यों हो गये, तुम्हें उत्तर देना है कि तुमने इतना बोझ क्यों बना लिया। तुम घर साथ लेकर पैदा हुए थे? तुम बीवी साथ लेकर पैदा हुए थे? अब किसी की बीवी न हो; तुम पूछो कि आपने ये निर्णय क्यों लिया, कि बीवी न हो, वो कहेगा यार! अजीब बात है, बीवी न थी, न है। ये बात ही कहाँ से आ रही है। उसे तुमसे पूछना चाहिए न कि तू बता, तूने ये कारनामा कैसे किया? सवाल तो उसे पूछना चाहिए; जवाब तुम दोगे।
क्योंकि तुमने कुछ किया है, उसने तो कुछ नहीं किया, इसलिए वो संन्यासी है। तुमने कुछ किया, तुमने शादी डॉट-कॉम किया, तुमने ये किया, तुमने वो किया, फिर तुमने पंडित किया, फिर तुमने आयोजन किया, तुमने किया कि उसने किया, किसने किया? किया तुमने और पूछ उससे रहे हो, आपने कैसे किया? और वो हक्का-बक्का है कि किया क्या कि, बताएँ कि क्या किया।
अजीब तो सवाल है। तुम बताओ न, तुम वो सब क्यों कर रहे हो जो कर रहे हो, वो संन्यासी नहीं हुए, वो सुभावस्त थे, वो वही थे, जैसे वो थे, उन्होंने कुछ किया नहीं, तुम बहुत कुछ कर रहे हो। ये ऐसा ही है। कभी-कभी कोई पूछता है आपने दाढ़ी क्यों रखी? मैंने कहा कैसे रखी, वहाँ से उठाकर रखी। मैंने क्या किया इसके रखने में, मैं तो कुछ करता नहीं। तुम रोज़ सुबह मूंडते हो। तुम मुझे बताओ तुम क्यों मूंडते हो। मैं तो कुछ करता नहीं।
तुमने ये कहाँ से सीखा कि रोज़ चाकू लेकर, हथौड़ी लेकर, जो भी तुम करते होओगे, कोई-न-कोई हथियार तो आजमाते ही हो। ये तुम्हें किसने सिखाया कि सुबह-सुबह हथियार से गाल को रगड़ना है। तुम सोचो पहले, कोई भी आदमी जो पागल न हो, वो ये हरकत कर सकता है क्या कि सुबह-सुबह चाकू निकाले, चाकू निकाल के गाल पर लगाए और घिसे; इस आदमी को तुम पागल के अलावा क्या बोल सकते हो और पूछ मुझसे रहे हो, आपने दाढ़ी क्यों रखी। मैं क्या दाढ़ी से विनती करने जाता हूँ कि आ जा मैं तुझे रखूँगा, अरे! आ गयी, अपने आप आ गयी।
ये ऐसी सी बात है कि तुम किसी से पूछो की आपने टट्टी क्यों की? अरे! आ गयी भाई। तुम मुझे बताओ, तुम्हें क्यों नहीं आती। और तुम्हें नहीं आती, तुम बहुत खतरनाक हो, तुम बम हो, तुम फटोगे और सबको परेशान करोगे। विचित्र सवाल है।
स्वभाव के रास्ते में बाधा तुम बने हो, तुम्हें बताना होगा; तुम वो सबकुछ क्यों कर रहे हो जो तुम कर रहे हो? वो कुछ विशेष नहीं करते थे। ब्रह्म को इसलिए निर्विशेष कहा गया है। वहाँ कुछ खास नहीं है, सब साधारण है, खास काम तो तुम करते हो। तुम बताओ तुमने कैसे किया? पक्षी आसमान में उड़ता है, कोई एक वृक्ष उसका नहीं और सब वृक्ष उसके हैं। तुमने कैसे कर लिया ये कि ये इतना सा जो है, यही मेरा है, बाकी मेरा नहीं है। तुमने कैसे किया ये? शेर जंगल में होता है, पूरा जंगल उसका है। तुमने कैसे तय कर लिया कि इतना बड़ा जो प्लॉट है यही भर है मेरा, बाकी मेरा नहीं है।