शानदार व्यक्तित्व के मालिक कैसे बनें? || आचार्य प्रशांत, कबीर साहब पर ( 2018)

Acharya Prashant

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शानदार व्यक्तित्व के मालिक कैसे बनें? || आचार्य प्रशांत, कबीर साहब पर ( 2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, शानदार व्यक्तिव का मालिक बनना चाहता हूँ।

आचार्य प्रशांत: मालिक बनो नहीं, मालिक के हो जाओ। जो शानदार मालिक का हो जाता है, उसको फिर बहुत सारी शानदार चीज़ें मिल जाती हैं। जल्दी से बस माँग रख देते हो, हाथ फैला देते हो — ‘ये चाहिए।‘ जो चाहिए वो तो मिलेगा, लेकिन उसके पहले अपना धर्म भी तो पूरा करना पड़ेगा न?

शानदार व्यक्तित्व बाहर से खाल चमकाने से, रूप-रंग बनाने से, ज्ञान, भाषा, शैली परिष्कृत करने से नहीं आता; वो भीतर की बात है। शरीर को ही ले लो, जब भीतर से ठीक रहता है — दिल, जिगर, गुर्दा, आँत, पेट, भेजा, जब सब ठीक रहते हैं — तो त्वचा भी ठीक ही रहती है, कि नहीं रहती?

प्र: रहती है।

आचार्य: बहुत ज़रूरत तो नहीं पड़ती न, कि उसको चमकाओ और तेल लगा-लगाकर पॉलिश करो, या पड़ती है? और देखा होगा कि जिनको भीतर की बीमारियाँ हो जाती हैं, उनकी खाल पर बड़ा असर पड़ने लगता है। जब किसी का हाल बयान करना होता है, तो भी कहते हो कि शोक से चेहरा स्याह हो गया, या डर से चेहरा फ़क्क रह गया। कहते हो न? तो भीतर के हाल का प्रदर्शन बाहर हो जाता है।

अब बाहर की चीज़ सबको लुभाती है, कि व्यक्तित्व अच्छा हो। भीतर का हाल ठीक रखने में सबकी रुचि नहीं होती, क्योंकि दिखाई तो चीज़ बाहर की ही देती है, भीतर वाली तो पता चलती ही नहीं। बड़ा लालच रहता है, भीतर कौन ठीक करे! अगर बाहर-बाहर ही लेपकर के, रंग-रोगन करके काम चल जाता है, तो भीतर झाँकने की, मरम्मत करने की, सफ़ाई करने की ज़हमत कौन उठाये!

और गड़बड़ बात ये है कि कभी-कभार हमारी चाल सफल भी हो जाती है। हम जो चालें चलते हैं, अगर वो हमेशा ही, प्रामाणिक तौर पर, साफ़-साफ़ असफल हो जाएँ, तो हमारा बड़ा भला हो; हमारे पास कोई बहाना न बचे, हमारे पास कोई आशा न बचे। पर अभी तो ये होता है कि कई दफ़े दुनिया के बाज़ार में खोटे सिक्के चल भी जाते हैं। कई दफ़े हमारे झूठ, थोड़ी ही देर को सही, लेकिन सफल भी हो जाते हैं।

पाँच-दस बार में से एक बार भी अगर हमारी चालाकियाँ सफल हो गयीं, तो हमको सौ बार के लिए आशा बँध जाती है। हमारी न सफल हुई हों, हमें लगता हो किसी और की सफल हो गयीं, तो उसको देखकर के हमें आशा बँध जाती है, कि उसका काम चल गया था भाई, क्या पता हमारा भी चल जाए। तो हमारे लिए ज़्यादा घातक हमारी असफलता नहीं सिद्ध होती, हमारे लिए ज़्यादा घातक है हमारी सफलता। सफल कम ही होते हो, लेकिन जो दो-चार बार सफल हो जाते हो, वो तुमको सालों के लिए बात बहकाये रखती है।

तुम नहीं सफल हुए, चचेरा भाई सफल हो गया, पड़ोसी सफल हो गया। किसी का घूस देकर काम चल गया, किसी का नकल करके काम चल गया। कोई नकली आदमी है जो दिखा कि बहुत पैसा बना गया, कोई फ़रेबी है जिसको दिख रहा है बड़ी प्रतिष्ठा मिल गयी। और भीतर आस टिमटिमाने लगती है, कि अगर वो नकली होकर के इतना आगे निकल गया, तो क्या पता नकली होकर काम चल ही जाता हो। आसान है नकली होना। अगर आसानी से काम चल जाता हो, तो क्यों न चलाया जाए?

बचपन की बात है, तब वो पुराने वाले स्कूटर चला करते थे, गोल-मटोल — होंडा नहीं था तब, बजाज। तो पड़ोस में थे एक अंकल जी, उनका सवेरे स्कूटर स्टार्ट न हो। मैकेनिक बहुत दूर नहीं था, डेढ़-दो किलोमीटर दूर रहा होगा। वो किक मारें, मारें, मारें, स्टार्ट न हो, और ये क़रीब-क़रीब रोज़ की बात थी। किक मारते जाएँ, मारते जाएँ, दस मिनट, पन्द्रह मिनट बाद वो अंततः स्टार्ट हो जाता था।

तो मैं उनसे पूछूँ। मैं कहूँ, ‘आप इतनी किक मारते हैं, आप इसको मैकेनिक को दिखा ही क्यों नहीं देते?’ वो बोलते थे, ‘तू बता, किक मारना ज़्यादा आसान है, या डेढ़ किलोमीटर इसको ठेलकर ले जाना ज़्यादा आसान है?' और उनके तर्क में दम था, एक किक मारना ज़्यादा आसान प्रतीत होता है, और आस जगी रहती है, कि क्या पता अगली किक में स्टार्ट हो ही जाए। ये आशा मार देती है।

तो मैंने उनसे प्रतिप्रश्न किया। मैंने कहा, ‘ये बात आपकी ठीक है कि एक किक मारना ज़्यादा आसान है, बजाय इसके कि आप इसको ठेलकर वहाँ तक ले जाएँ' — तर्क सुनना — 'पर ठेलकर ले जाने की ज़रूरत क्या है, जब स्टार्ट हो जाता है तब ले जाइए।‘ तो बोले, ‘जब स्टार्ट हो ही गया, तो ले क्यों जाएँ?’

तो मैंने दूसरा तीर मारा। मैंने कहा, ‘अच्छा चलिए, किक मारना ज़्यादा आसान है इसको वहाँ तक ले जाने के बनिस्बत, लेकिन आप एक किक तो मारते नहीं, आप तो सौ किक मारते हो। क्या सौ किक मारना भी ज़्यादा आसान लगता है आपको, वहाँ तक ले जाने की अपेक्षा?‘

बोले, ‘देखो बेटा, सौ किक आज लगी, तुमने देख लिया, कल क्या पता दस ही लगें? हर किक एक नई उम्मीद है, क्या पता इस बार स्टार्ट हो जाए। लेकिन अगर मैं उसको ठेलकर के ले चला मैकेनिक की तरफ़, तो मैंने हार मान ली, उम्मीद टूट गयी। और उम्मीद नहीं टूटनी चाहिए, उम्मीद बनी रहनी चाहिए, और तर्क में मेरे दम है।'

मैंने कहा, ‘कैसे?’

बोले, ‘देखो, अंततः स्टार्ट हो जाता है कि नहीं हो जाता? यही तो हमारे बड़े-बुज़ुर्ग सिखा गये हैं, कि उम्मीद का दामन कभी मत छोड़ना, अंततः तुम्हें सफलता ज़रूर मिलेगी — हम होंगे कामयाब!'

तुम तर्क समझ रहे हो न? अब अगर कभी ऐसा हो जाए कि वो किक मारते रह जाएँ, मारते रह जाएँ, स्कूटर स्टार्ट ही न हो, तो उनका बड़ा भला हो, उस दिन स्कूटर मैकेनिक के यहाँ चला जाएगा। पर वो दिन आता नहीं। इसीलिए फिर कबीर साहब गाते हैं कि भला हुआ मोरी गगरी फूटी। छोटे-मोटे घाव से हमारा काम नहीं चलता, हमें पूर्ण असफलता चाहिए। गगरी फूट ही जाए, हम तभी मानते हैं, उससे पहले हम उम्मीद पकड़कर लटके रहते हैं। पतला हो उम्मीद का धागा, तो भी हम लटके रहते हैं। और माया भी बड़ी शातिर, वो पूर्ण असफलता हम पर कभी आने नहीं देती।

मैंने आगे उनसे पूछा। मैंने कहा, ‘आपने ये तो बता दिया कि सौ किक मारना भी दो किलोमीटर ठेलकर ले जाने से ज़्यादा आसान है। पर आप सौ किक ही नहीं मारते, आप बताओ हफ़्ते भर में ही कितनी किक मार चुके हो? सौ किक तो एक दिन की है, आप रोज़ इतनी किक मारते हो, ज़रा पूरा हिसाब करो न! उतनी किक मारने से अच्छा नहीं होता कि उसको ले जाते मैकेनिक के पास?'

तो बोलते हैं, ‘इतनी किक अगर मारता हूँ, तो रोज़ स्टार्ट भी तो हो जाता है, तू तो ऐसे बता रहा है जैसे मैंने इतनी किक बेकार ही मारी! मेरी किक क्या बेकार जा रही हैं? इतनी अगर मारता हूँ, तो कुछ फल भी तो मिलता है!‘

मुझे यक़ीन सा है कि वो आज भी सुबह-सुबह वैसे ही स्टार्ट करते होंगे। एक ही चीज़ उनको बचा सकती है — किसी दिन वो स्कूटर भर्भराकर के बिखर जाए, और ऐसा बिखर जाए कि फिर समेटे न सिमटे। जैसे गगरी फूटती है न, कि फूट गयी तो अब फूट गयी, अब सिमटेगी नहीं। वैसे ही हमारी हालत है। हम जुगाड़ में बड़े प्रवीण हैं, मुर्दे को भी टाँगे रहते हैं, ख़त्म होते मामले को ख़त्म होने नहीं देते। और फिर कह रहा हूँ — बदक़िस्मती हमारी कि वो मुर्दा जिये भी जाता है — “जैसे खाल लोहार की, साँस लेत बिनु प्राण।“ — जान कुछ नहीं है, जीवन कुछ नहीं है, ध्यान कुछ नहीं है, प्रेम कुछ नहीं है।

जिस घट प्रेम न संचरै, सो घट जान मसान। जैसे खाल लोहार की, साँस लेत बिनु प्राण।।

~ कबीर साहब

वो मुर्दा है पूरा, लेकिन साँस तो आ-जा रही है न, तो उम्मीद बँधी रहती है कि जी रहा है। और फिर जादुई क़िस्से हैं, तिलिस्मी कहानियाँ हैं, हमें बताया गया है कि चमत्कार होते हैं, तो हम इसी उम्मीद में जी रहे हैं कि एक दिन हमारा बजाज स्कूटर इशारे पर स्टार्ट होगा। सौ किक क्या, एक किक मारने की भी ज़रूरत नहीं पड़ेगी। दूर से बोलेंगे, ‘चल’, और स्टार्ट हो जाएगा।

मैं तीसरी में पढ़ता था, दूरदर्शन में पिक्चर आ रही थी — दो जासूस — उसमें गीत था, “दो जासूस करें महसूस, ये दुनिया बड़ी ख़राब है।” ब्लैक एंड व्हाइट टीवी का ज़माना था, उन्नीस सौ चौरासी-पिचासी की बात है ये। रंगीन टीवी आ चुके थे एशियाड के साथ, लेकिन ज़्यादातर घरों में अभी भी श्वेत-श्याम टीवी ही चलते थे। तो लड़कों ने पिक्चर देखी रविवार को, और सोमवार को स्कूल में मिले। सब एक-दूसरे को बता रहे हैं, ‘ऐसी है, वैसी है।‘

वो वो ज़माने थे जब किसी के टीवी में अगर कुछ आ जाए, तो यही ख़बर बन जाती थी। वो लम्बे एंटीने लगा करते थे। जो उस समय के होंगे उनको याद होगा। फिर जब तूफ़ान आते थे तो एंटीने ध्वस्त होते थे और सीधे करने पड़ते थे। तो जो देख पाये थे, वो आकर के बता रहे हैं कि ऐसी है कि वैसी है।

एक था, जाने उसने देखी नहीं पिक्चर, जाने उसके घर में टीवी ही नहीं था, जाने एंटीना गिरा हुआ था, जो भी बात थी, उसने देखा कि यहाँ तो बाक़ी सब बाज़ी मारे लिये जा रहे हैं। कोई कहानी बता रहा है, कोई कुछ बता रहा है, कोई विज्ञापन ही बता रहा है। बड़ा चाव आये बताते हुए, कि ऐसा हुआ, फिर ऐसा हुआ, जासूस ने ये कर दिया, वो कर दिया। तो वो बोलता है, ‘अब मैं बताता हूँ। कल मेरा ब्लैक एंड वाइट टीवी कलर हो गया।' उसने कहा, ‘छोड़ो तुम छोटी बात, कि मैं बताऊँ कि टीवी में आ क्या रहा था! मैं बताता हूँ, कल मेरे टीवी में रंगीन चित्र आने लग गये।'

पूरा झुंड उसके इर्द-गिर्द खड़ा हो गया — 'भई कैसे, क्या देखा? बता, कैसा लगता है?’

हम आशा के पुजारी हैं, हम लगातार इसी तलाश में हैं कि कहीं जादू हो जाए। और कोई बता बस दे कि जादू होता है, हम वहीं पहुँच जाते हैं, नमित हो जाते हैं, कि हाँ होता होगा, ज़रूर होता होगा। (व्यंग्यात्मक लहज़े में) भेड़िया भेड़ बन सकता है, भेड़ शेर बन सकती है, कुछ भी हो सकता है।

मोह तर्कशक्ति को, विचारणा को, सबको क्षीण कर देता है, जो बात सीधी होती है वो दिखाई देनी भी बन्द हो जाती है।

मैं अध्यात्म के गुप्त रहस्यों की बात नहीं कर रहा, मैं सीधी-सीधी बात कर रहा हूँ। जो बात बिलकुल सीधी है, वो भी दिखाई-सुनाई देनी, समझ आनी बन्द हो जाती है क्योंकि मोह बहुत है, आशा बहुत है, कामना बहुत है।

(पहाड़ पर भौंकते कुत्ते की ओर इशारा करते हुए) आपकी बिल्ली ऊपर खो गयी हो पहाड़ पर, और आपको उससे बड़ा मोह है, तो आपको लगेगा कि ये आपकी बिल्ली आवाज़ दे रही है। सुनना ध्यान से, बिल्ली की आवाज़ है ये बिलकुल, म्याऊँ बोली न अभी? इतनी देर से आपको ही तो बुला रही है — 'म्याऊँ-म्याऊँ, बड़ी याद आ रही है तुम्हारी।' अभी फिर बोलेगी। और अभागों में अभाग ये, कि हज़ार में से एक बार वो कुत्ता बिल्ली ही निकल जाता है। ल्यो! अब दस साल के लिए आशा फिर बँध गयी।

‘व्यक्तित्व चमकाना है।‘ क्या करोगे, इतने उदाहरण देख रहे हो अपने चारों ओर जो खोखले लोग हैं, भीतर पस से, मवाद से भरे हुए लोग हैं। चेहरे उनके चमक रहे हैं, और उनके पीछे अनुयायियों की, फ़ैन्स की भीड़ है। कोई दिखने में अच्छा है, कोई अच्छा वक्ता है, किसी ने शरीर ऐसा कर रखा है कि वाह, किसी ने ज्ञान बहुत पी रखा है। इन सबको देखते हो, दो बातें दिखाई देती हैं — पहली, कि बाहर उजाला है, दूसरी, भीतर अन्धेरा है। तुम्हारे भीतर ये भावना सघन हो जाती है कि भीतर अन्धेरे के होते हुए भी बाहर उजाला हो सकता है।

अपने आदर्शों को देखो न, समाज जिन लोगों को पूजनीय मान रहा है, उनको देखो न। वो सब कैसे लोग हैं, उनके भीतर कोई प्रकाश है क्या? ये वही हमारे नेतागण हैं, वही हमें दिशा दिखा रहे हैं, उन्हीं का ज़िक्र हम ऐसे करते हैं जैसे महापूज्य हों वो, वही मीडिया में छाये हुए हैं, हर तरफ़ वही-वही हैं।

तो भले ही तुम्हारा अपना व्यक्तिगत अनुभव स्वयं को लेकर ये रहा हो कि अन्दर-बाहर का मामला साथ ही चलता है, बाहर प्रकाश हो, उसके लिए भीतर भी होना चाहिए; पर बाहर तुमको बहुत दूसरे तरह के उदाहरण मिल जाते हैं। और हमने कहा — आशा को तो एक उदाहरण भी काफ़ी होता है। एक उदाहरण भी काफ़ी होता है, और यहाँ कितने हैं? अनन्त। एक उदाहरण भी घातक होता है, यहाँ तो जिधर देखो उधर ही…।

मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग। तासों तो कौआ भला, तन-मन एक ही रंग।।

~ कबीर साहब

हर तरफ यही-यही हैं।

बस एक ही उल्लू काफ़ी था, बर्बाद गुलिस्ताँ करने को। हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा।।

~ शौक़ बहराइची

अख़बार खोलो, यही छाये हुए हैं; टीवी खोलो, यही छाये हुए हैं; तथाकथित बड़ी जगहों पर जाओ, यही छाये हुए हैं। इनमें से एक-दो का भी होना घातक था, यहाँ तो हर शाख पर उल्लू बैठा है। यूट्यूब खोलो, इनके सैकड़ों, हज़ारों, लाखों में अनुयायी नहीं होते, इनके मिलियंस में होते हैं, दस लाख से इनकी गिनती शुरू होती है। और ये लगातार यही प्रचार कर रहे हैं, यही दर्शा रहे हैं कि चेहरे पर रंग लगाओ, जीवन बनाओ।

ये जूता समझते हैं तुम्हें। जूता भी क्या होता है? चमड़ा, जैसे खाल। और जूता कैसे ठीक रखा जाता है? जूते को उपनिषद् थोड़े ही सुनाया जाता है, जूते से थोड़े ही कहा जाता है कि तू भजन कर। जूते को बढ़िया रखने के लिए तो बस पॉलिश काफ़ी है। तो तुम्हें जूता ही समझते हैं ये, कि खाल हो, जैसे जूता खाल है, वैसे ही तुम भी खाल हो, और पॉलिश किये जाओ।

जूता मत बनो, वृक्ष बनो। (वृक्ष की ओर इशारा करते हुए) देखो, सारी पत्तियाँ कितनी चमक रही हैं। क्यों चमक रही हैं? बूँदें पड़ रही हैं, हल्की हवा चल रही है, भीगी हुई हैं, झूम रही हैं। कैसे हो रहा है ये सबकुछ? जड़ें गहरी हैं।

जूतों की कोई जड़ नहीं होती। हाँ, तुम जूता किसी को जड़ सकते हो, पर जूतों की कोई जड़ होती है?

श्रोतागण: नहीं।

आचार्य: तो वृक्ष की पत्ती जैसा स्वास्थ्य रखो। पत्ते का स्वास्थ जड़ का वरदान है, और जूते की चमक सिर्फ़ पॉलिश है। पत्ते भी चमकते हैं, चमकते पत्ते का रूप-रंग देखा है? जड़ें गहरी हों, पत्ता ख़ुद चमकेगा, या पत्ते को पॉलिश चाहिए होती है?

इतनी बढ़िया ये जगह है, यहाँ बैठे-बैठे ही चारों ओर देख लो तो बहुत कुछ सीख जाओगे। (एक वृक्ष की ओर इशारा करते हुए) उधर देखो, सबसे ज़्यादा पत्ते उस पर हैं, और फिर उसकी जड़ें भी देख लो। जहाँ से वृक्ष आ रहा है, वृक्ष उससे बहुत वफ़ादारी का नाता रखता है। हवा आये, ऊपर-ऊपर झूम लेगा, या कभी देखा है कि जड़ें भी झूम गयीं हवा में?

और वृक्ष की बात बहुत सीधी है। मछली जल से निकलेगी तो प्राण त्यागेगी, और वृक्ष कहता है, ‘मुझे अगर तुमने भूमि से निकाला तो प्राण त्यागूँगा।‘ मामला बहुत सीधा है। ऐसी वफ़ादारी होनी चाहिए — ‘जहाँ के हैं, जहाँ से आये हैं, वहाँ से अगर निकाला तुमने हमें, उससे अगर जुदा किया तुमने हमें, तो जान जाइए फिर जियेंगे नहीं हम।‘

“अधिक सनेही माछरी, दूजा अलप सनेह।“ कबीर साहब कह रहे हैं, ‘मछली ही प्रेम जानती है। दूसरों का प्रेम तो झूठा है, थोड़ा है, अल्प है, अधूरा है।

अधिक सनेही माछरी, दूजा अलप सनेह। ज्यों ही जल से बिछड़े, त्यों ही छाड़े देह।।

~ कबीर साहब

ऐसा प्रेम होना चाहिए — वृक्ष हो तो धरती से ऐसा प्रेम, मछली हो तो जल से ऐसा प्रेम, और जीव हो तो सत्य से ऐसा प्रेम — ‘और सबकुछ छीन ले जाना, उसको अगर छीना हमसे, तो जियेंगे नहीं।‘ वैसा प्रेम अगर हो, तो फिर वही प्रेम पत्तों की चमक बनकर बिखरता है, फिर पत्तों को नहीं कहना पड़ता कि हमें व्यक्तित्व चमकाना है। उसी प्रेम की चमक तुम्हें पत्तों में, टहनियों में, फूलों में, काँटों में भी दिखाई देती है, वो उसी प्रेम की चमक है।

किसी को अगर साधारण सांसारिक प्रेम भी हो जाए, तो कभी देखना, उसका चेहरा ज़रा दमकने सा लगता है। वो साधारण प्रेम है, लड़के-लड़की वाला, उसमें भी चेहरे पर एक प्रकाश आ जाता है। तो सोचो, जब वास्तविक प्रेम होगा, उससे (परमात्मा), तो चेहरे पर कैसा नूर आ जाएगा। छोटे बच्चों को देखना, वो चॉकलेट देखते ही उनकी आँखें वास्तव में चमक जाती हैं। चॉकलेट देखकर अगर आँख चमक सकती है बच्चे की, तो सोचो जब किसी बड़े को वो (परमात्मा) दिख जाएगा, तो उसका पूरा व्यक्तित्व कैसे चमकेगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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