शादी की परम्परा || आचार्य प्रशांत (2017)

Acharya Prashant

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शादी की परम्परा || आचार्य प्रशांत (2017)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी! समाज में ये जो विवाह की व्यवस्था है, ये आख़िर होनी क्यों चाहिए? क्योंकि ये तो केवल सिक्योरिटी (सुरक्षा) के लिए है कि एक कॉन्ट्रैक्ट (अनुबंध) साइन (हस्ताक्षर) कर दिया, अब जीवनभर के लिए सिक्योर (सुरक्षित) हो गए। तो जब हमें मुक्ति ही चाहिए तो ये सिस्टम (व्यवस्था) क्यों बना फिर? क्योंकि कल को यदि हम उस रिश्ते से आज़ाद होना चाहें तो नहीं हो सकते, ऐसे में तो हम फिर बॅंध गए? कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: किसी ने तुमसे कहा थोड़े ही है कि उसी क़िस्म का विवाह करो। किसी ग्रन्थ में लिखा थोड़े ही है कि किसी लड़की को तभी पकड़ना, जब उसे बाँधकर रखना हो। प्रेम की भी कोई हस्ती होती है या नहीं? और प्रेम में ये नहीं होता कि तुझे मैंने बाँध लिया और तू मुझे जकड़ ले। साधारण प्रेम वैसा ही होता है। इसीलिए प्रेम के नाम से थोड़ा अब घबरा रहे हो। अच्छा है कि घबराओ। आम प्रेम से घबराओ, प्रेम से नहीं।

जिसे आमतौर पर प्रेम कहते हो, उससे ज़रूर घबराओ। पर उससे आगे भी प्रेम होता है दूसरा। मात्र वही प्रेम है। नारद से पूछोगे या शांडिल्य से पूछोगे तो वो कहेंगें, ‘वो परमप्रेम है।’ वो परमप्रेम भी नहीं है, वही प्रेम है, मात्र वही। और जिसे किस्से-कहानियों और फिल्मों में देखते हो, वो प्रेम है ही नहीं। तो विवाह अगर फिल्मी प्रेम पर आधारित है तो बेशक बचो विवाह से।

पर एक दूसरा विवाह भी हो सकता है। वो फिर साधारण विवाह जैसा विवाह नहीं होगा। वो बात ही कुछ और होगी। बिन फेरे हम तेरे! ऐसा भी होता है। फिर वहाँ पंडित-वंडित नहीं चाहिए, आग के फेरे लेने के लिए। वहाँ फिर आग हृदय में होती है और पंडित परमात्मा होता है। हो गया विवाह।

आ रही है बात समझ में?

श्रोता: जैसे कृष्ण और राधा का प्रेम!

आचार्य: अरे छोड़ो ये सब! क्या पता कृष्ण का, क्या पता राधा का तुमको? हम दिलों की आग की बात कर रहें हैं। फेरों के फेर में मत पड़ना। वो तो नाम ही है उसका, फेरे! (श्रोतागण हॅंसते हैं)

विवाह न अच्छा है न बुरा है। मैं सम्बन्धों की बात करता हूँ। और सम्बन्ध अच्छे-बुरे आपके अनुसार होते हैं। घटिया आदमी के अच्छे सम्बन्ध कैसे हो सकते हैं? और अच्छे आदमी के घटिया सम्बन्ध कैसे हो सकते हैं? बात बहुत सीधी नहीं है?

प्र: सर, अगर दूसरे व्यक्ति के साथ कम्पेटिबिलिटी (अनुकूलता) है ही नहीं, तो अच्छे सम्बन्ध कैसे बन सकते हैं?

आचार्य: ये कम्पेटिबिलिटी क्या चीज़ होती है?

प्र: जैसे मान लीजिए कि हम कुछ बोल रहें हैं लेकिन वो इंटरप्रेट (व्याख्या) कुछ और ही कर रहा है क्योंकि वो अपने मन में ही इतना उलझा हुआ है।

आचार्य प्रशांत: ये तो सभी के साथ होता है। मैं जो बोल रहा हूँ, क्या तुम उसको जस-का-तस पकड़ रहे हो?

प्र: नहीं, लेकिन वहाँ ऐसा होता है कि बिलकुल उल्टा अर्थ पकड़ लिया जाता है।

आचार्य: तुम्हें पक्का है कि जो मैं कह रहा हूँ, तुम उसका उल्टा अर्थ नहीं ले रहे?

कई बार दूसरे से जुड़ा ठीक इसलिए जाता है क्योंकि वो तुम्हारी बात का उल्टा अर्थ लेता है। तुम उससे बिलकुल इसीलिए रिश्ता बनाओगे क्योंकि वो तुम्हारी बात का उल्टा अर्थ लेता है। उसे सहारा चाहिए। वो भ्रमित है। जिसदिन वो तुम्हारी बातों का सीधा अर्थ लेने लगे, जिसदिन उसकी दृष्टि सीधी हो जाए, उसका श्रवण सीधा हो जाए, उसदिन उसको बेशक छोड़ देना। पर अभी नहीं छोड़ सकते। अभी तो उसके जीवन में सबकुछ विकृत है, हर चीज़ में विकृति है, अभी कैसे छोड़ सकते हो?

आदमी डूब रहा है, छोड़ कैसे दोगे? पर जो वक्तव्य मैंने कहा, वो सिर्फ़ बलवानों को शोभा देता है। डूबते को दूसरा डूबता हुआ नहीं बचाएगा।

डूबते को बचाने की बात वो करे, जिसके पाँव ज़मीन पर मज़बूती से जमे हुए हों या जिसके बाज़ूओं में तैरने का दम हो। विवाह अगर ऐसा हो रहा है कि ‘जल विवाह!’ दोनों डूब रहें हैं, बधाइयों के बुलबुले उठ रहें हैं और थाम लिया है एक-दूसरे को। तो ये बात बड़ी विसंगत है, मूर्खता है। घातक।

हमें दूसरे से जुड़ने की बड़ी जल्दी रहती है। अपनेआप को उठाने की, सम्भालने की, हमारी इच्छा मंद रहती है। और जुड़ने के लिए हम ढूॅंढते भी किसको हैं? जो हमारे ही जैसा हो। हमारे ही तल पर। हिमांश के शब्दों में उसको कहतें हैं, कंपेटिबिलिटी (अनुकूलता)। सेम-टू-सेम (एक जैसा)। हम दोनों बिलकुल एक जैसा सोचते हैं, हमारा स्तर बिलकुल मैच करता है। ये सुने हैं वक्तव्य कि नहीं?

तुम पगले हो! ऐसे ही चुनाव हुआ न? दो ही रास्तें हैं, तीसरा कोई पकड़ मत लेना। पहला– ‘चुपचाप एकांत में स्वयं पर ध्यान दो।’ और दूसरा– “जुड़ने की बड़ी इच्छा हो, तो किसी ऐसे से जुड़ो जो तुम्हें ऊपर खींच ले। या तो जुड़ो ही मत।”

कोई ऐसा नहीं नज़र में आता, नहीं हैं ऐसा सौभाग्य कि कोई ऐसा मिले जो तुम्हें ऊपर खींच ले, तो जुड़ो ही मत किसी से। अकेले रहना भला।

अकेले रहने में भी परिष्कार होगा, उन्नति होगी। और अगर जुड़ो तो ऐसे से जुड़ो, जो कहीं और का हो। जो ऊपर से सीढ़ी भेजे, ‘कि चढ़ इसपर और हाथ दे!’

ये मत कर देना कि चूहेदानी के एक चूहे ने, चूहेदानी के दूसरे चूहे से दोस्ती कर ली। ऐसे नहीं बाहर आते चूहेदानी से। ऐसे तो चूहेदानी में घर बन जाता है। पहले सिर्फ़ चूहा था और चुहिया थी और चूहेदानी। कुछ दिनों बाद, चूहेदानी होगी, चूहा होगा, चुहिया होगी और छोटे-छोटे, छोटे-छोटे....। (श्रोतागण हॅंसते हैं)

ऐसे चूहेदानी से बाहर नहीं आते। ऐसे तो चूहेदानी पक्का-पक्का बसेरा बन जाती है। ये मत कर लेना। कोई हो, जो दिखे चूहेदानी से बाहर, उससे प्रीत बाॅंधो। उसको निकट बुलाओ, उससे प्रार्थना करो। पूछो कि, तुम बाहर कैसे गये? उससे बोलो कि, शरण में आतें हैं। और तुम्हारी आज़ादी को देखकर प्यार हो गया है तुमसे। क्या पता, कोई उपाय हो जाए?

आतुर बहुत मत हो जाना, गाॅंठ बाॅंधने के लिए। चूहेदानी के भीतर हो यदि, तो संभावना यही है कि आसपास के सारे चूहे भी जो दिख रहें हैं, वो चूहेदानी के भीतर के ही हैं। गठबन्धन के लिए बहुत उतावले रहोगे तो उन्हीं में से किसी एक को पकड़ लोगे। तो उतावलापन मत रखना, इन्तज़ार करना!

तुम्हारी प्रतीक्षा ही प्रार्थना बनेगी। जो झूठ के मध्य रहते हुए भी झूठ का आलिंगन नहीं करता, उसकी प्रतीक्षा बड़ी सशक्त प्रार्थना है। वो झूठ को स्वीकार न करके लगातार सत्य को प्रेम संदेश भेज रहा है। झूठ को स्वीकार न करना ही ‘प्रेमपाती’ है। वो दूर से देख रहा है कि देखो वो जो वहाँ बैठा है, वो कह रहा है कि, ‘झूठ के बीच हूँ लेकिन झूठ को छूने नहीं दे रहा ख़ुद को।’ वो अविरल प्रतीक्षा में है। तो तुम प्रतीक्षा किये जाना, हंसिनी उतरेगी! लुभाना ज़रुरी है भाई! (एक श्रोता कुछ पूछते हैं) अब बाहर निकलकर क्या करोगे? जो रास्ता अकेले चूहे के लिए है, वही रास्ता पारिवारिक चूहे के लिए भी है। जो भी स्थिति है, तुम उसी स्थिति में बाहर देखना मत छोड़ो, प्रार्थना मत छोड़ो। जो भी आशा रखो, बाहर से रखो, भीतर से नहीं। जवान हो, लड़कियों की ही प्रतीक्षा है न? नहीं? जिसकी भी प्रतीक्षा हो, जिसको भी चुनना, किसी ऐसे को चुनना जिसकी संगत में बेहतर हो सको।

और जिसकी संगत में बेहतर हो सको वो बहुत जॅंचेगा नहीं। क्योंकि असुविधा देगा। सोचो! कोई लड़की, कोई लड़का, मिल गया तुमको जो तुम्हारे सामने ऊॅंचाई का प्रतिमान बनकर खड़ा हो जाए, तुमसे कहीं ज्य़ादा साफ़ है, तुमसे कहीं गहरा उसका ध्यान है, बहुत-बहुत होशियार है, हर मामले में अव्वल है, तो उसका साथ जॅंचेगा थोड़े ही, क्योंकि उसके साथ रहोगे तो बौने जैसे लगोगे।

मन करेगा किसी ऐसे को पकड़ लें जो समकक्ष हो, या अपने से भी नीचा हो। गुरू के मिलने में बड़ी समस्या ही यही है। वो सामने खड़ा होता है तो ऐसा लगता है कि, ‘हम कौन हैं?’ समाधान– प्रतिस्पर्धा मत करो, प्रेम करो। गुरु से प्रतिस्पर्धा करोगे तो वो छूट जाएगा। और हाथ पकड़ोगे उसका तो पाओगे कि जिन ऊॅंचाइयों को वो उपलब्ध है वो तुम्हारी भी हैं।

ज़रुरी थोड़े ही है कि कोई प्रेमी हो, कोई प्रेमिका हो और उसको ‘तू’ करके बोलो। ऐसे से नहीं हो सकता क्या प्रेम जिसे ‘आप’ कहना पड़े? पर ये सुनने में ही विचित्र लगता है कि जीवन में कोई ऐसी लड़की आ गयी है जो इतनी उजली और इतनी प्रकाशित और इतनी साफ़ कि उससे ‘आप’ करके बात करनी पड़ रही है। ऐसी लड़की तो झेली न जाए। पर ऐसी ही खोजना। भले ही उसका पति नहीं, प्यादा बनकर रहो।

‘तू’ दो स्थितियों में बोला जाता है। एक तब, जब बड़ी आत्मीयता हो, बुल्लेशाह परमात्मा को ‘तू’ करके बात करेंगें। पर आमतौर पर ‘तू’ तब बोला जाता है, जब पता है कि सामने वाला किसी औकात का नहीं है।

वास्तविक प्रेम हम जानते नहीं, तो बुल्लेशाह जिस अर्थ में ‘तू’ बोलते हैं, उस अर्थ में तो हमारा ‘तू’ होता नहीं। हम जब ‘तू’ या ‘तुम’ कहते हैं किसी को, तो इसी अर्थ में कहतें हैं कि मैनें नाप लिया है तुझे। इतना ऊँचा नहीं है तू कि तुझे ‘आप’ बोलूॅं। और इतना ऊँचा अगर नहीं है वो, तो तुम उससे जुड़े क्यों? ऐसे से ही जुड़ना जिसे ‘आप’ बोल सको।

अब क्या करोगे? फिल्मी गाने तो गा नहीं पाओगे। वहाँ तो ऐसा है ही नहीं कि नायक-नायिका एक दूसरे को ‘आप’ कहकर गाते हों। कोई बिरला ही गाना होगा, हज़ार में एक, छाॅंटना पड़ेगा। वहाँ तो लड़की वो अच्छी जो टंगड़ी कबाब हो, हाई हील हो। हाई हील को ‘आप’ बोलोगे क्या? हाई हील को तो यही बोलोगे, ‘तू बड़ी जचे।’ वहाँ तो ‘तू’ चलेगा, आप नहीं। सोचो! ‘हाई हील में नचे तो आप बड़ी जचें!’ ये तो कुछ मेल ही नहीं हुआ। आप मेरे जानू हैं, आप मेरे दिलबर! ये तो कोई बात नहीं हुई। वहाँ तो, तू मेरा जानू है! कानों में मिश्री घुल जाती है, जब कोई कहता है, तू मेरा दिलबर!

कबीर साहब भी कहतें हैं, “तू-तू करता तू हुआ।” वहाँ बात दूसरी है। वहाँ नज़दीकी इतनी है कि मामला तू पर आ गया है। तुम नज़दीकी में थोड़े ही बोलते हो। तुम अपमान में बोलते हो, करीब-करीब कन्टेम्प्ट (अवमानना) में बोलते हो ‘तू।’ तुम जिसकी हैसियत नाप लेते हो, उसे बोलते हो तू। रिक्शे वाले को बोलते हो तुम ‘तू’, अगर असभ्य हो। जो सभ्य होते हैं ,वो रिक्शे वाले को भी ‘आप’ ही कहेंगे। पर उसे तुम ‘तू’ इसलिए बोलते हो क्योंकि तुम्हें लगता है, तुमने उसकी आर्थिक स्थिति से उसकी हैसियत नाप ली है।

तो जब प्रेमी तुम्हारा तुम्हें ‘तू’ इत्यादि कहने लगे, तो जान लेना कि उसने फीता लेकर नाप लिया हमें, इसीलिए अब ‘तू’ पर उतर आया है। अब ये रिश्ता गया। अब दोनों में से कोई किसी के काम का नहीं रहा। नप गये दोनों।

रिश्ते हमारे ऐसे हैं कि हमें कल्पना में ही नहीं आ रहा कि बीवी मेरी मुझे ‘आप’ बोलेगी? असम्भव! यथार्थ छोड़ दो, कल्पना भी नहीं की जा सकती कि वो आप बोल रही है। ऐसा मैं सपना देखूँ, तो सपना टूट जाए, नींद खुल जाए। कुछ भी हो सकता है, ये तो नहीं हो सकता। और आप अगर बोल दे वो किसी दिन, तो समझ लो और बड़ा ख़तरा है, अब कुछ होने जा रहा है हिमांशु हताश है, कह रहा है, ये दुनिया जवान होने लायक नहीं है, भला हुआ अभी से आगे के ख़तरे पता चल गये। इसीलिए कहने वालों ने कहा है कि “प्रेमी ही गुरु है, गुरु ही प्रेमी है।” इशारा यही है कि ऐसे से ही प्रेम करना जो गुरु होने लायक हो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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