प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जो ‘इच्छा’ होती है वो मुझे आज तक पता ही नहीं चला कि मेरी आखिर इच्छा है क्या। जैसे कि मैट्रिक पास किया और सब दोस्त आईएससी किए, हम भी कर लिए। फिर सब इंजीनियरिंग का तैयारी करना शुरू किए हम भी किए साथ में। इच्छा नहीं थी कि हम इंजीनियर बने, फिर भी। फिर हुआ कि दोस्त जो था बी सी ए की इंजीनियरिंग किया, नहीं हुआ इंट्रांस , कहा बी सी ए कर लीजिए, बी सी ए कर लिए। मतलब कभी अपनी अन्दर की इच्छा पता ही नहीं चलती है कि आखिर मेरी इच्छा है क्या। मतलब बाहर का सराऊन्डिंग जो कराता है वो करते चले जाते हैं, और ऐसे करते हुए करीब सन् दो हज़ार तीन में हम मैट्रिक पास किए आज सन् दो हज़ार उन्नीस चल रहा है। आज तक कुछ नहीं कर पाए। मतलब अन्दर की इच्छा नहीं; कभी-कभी कोई चीज़ सोचते हैं तो फ़ायदा-घाटा के हिसाब से सोचते हैं कि इसमें फ़ायदा, इसमें घाटा है। लेकिन इच्छा नहीं पता चलती है कि आखिर इच्छा क्या है। और अब आचार्य जी, चलते-चलते ऐसी आ गयी है कि अब शादी की बारी आ गयी है। यहाँ भी पता नहीं चल रही है कि मेरी इच्छा क्या है; और कभी-कभी लगता है कि विरोध किया जाए शादी का लेकिन हमको लगता है कि ज़रूरी नहीं है लेकिन अन्दर से ज़्यादा इच्छा का कंफ्यूजन होता है और मतलब न ही हम ‘हाँ’ बोल पाते हैं किसी चीज़ में, न ही ‘ना’ बोल पाते हैं।
आचार्य प्रशांत: शुरुआत हमेशा वहाँ से करो जिसके बारे में पूरी आश्वस्ति हो; जो बात पक्की ही पता हो, शुरुआत वहाँ से करो, फिर गलती नहीं होगी। तुम्हें नहीं पता कि तुम्हारा मन किधर का है, तुम नहीं जानते, क्या सही क्या गलत, तुम नहीं जानते कि तुम्हारी अपनी निजी इच्छा क्या है। ये सब वो चीज़ें हैं जो तुम नहीं जानते। हज़ार बातें होंगी जो तुम नहीं जानते, कुछ ‘एक’ है जो जानते हो? वहाँ से शुरू करो न।
कुछ है जिसके बारे में तुम्हें पक्का पता है? सवाल ये सबके लिए है।कुछ है जिसको लेकर आप शत प्रतिशत आश्वस्त हैं कि ये तो है ही। वहाँ से आगे बढ़ेंगे, उसके आधार पर आगे के एक-एक करके निर्णय करेंगे, निर्णय गलत नहीं होंगे। बहुत ज़्यादा नहीं जानना है, बस जो जानना है उसे गहरी आश्वस्ति के साथ जानना है, पूर्णता के साथ जानना है। क्या है जो तुम इतनी श्रद्धा के साथ जानते हो कि कोई भी उसका विरोध कर ले तुम डिगोगे नहीं। कुछ है ऐसा जिसको लेकर के तुम्हें इतना विश्वास है कि तुम्हें पुनर्विचार नहीं करना पड़ेगा। कुछ है ऐसा?
प्र: नहीं
आचार्य: किसको नहीं है?
प्र: मुझे नही है
आचार्य: तुम्हें नही है। तो कुछ तो ऐसा है जिसको तुम जानते हो। क्या है वो?
प्र: मुझे कुछ नहीं पता कि क्या करना है।
आचार्य: इसी बात को गौर से देखो, इसी में वो छिपा है जिसको लेकर तुम्हें पूरा यकीन है। जब तुम कहते हो मैं नहीं जानता या जब तुम कहते हो कि मैं जानता हूँ, दोनों ही स्थितियों में तुमने एक बात पर तो पूरी श्रद्धा दर्शा ही दी। किस बात पर? किस बात पर?
श्रोता: हम नहीं जानते।
आचार्य: वो बात ऐसी होनी चाहिए कि कोई कितना भी विरोध कर ले विवाद कर ले, तुम चूको नहीं, डिगो नहीं। तुम्हारा सारा ज्ञान गलत साबित हो सकता है। कोई एक ऐसी चीज़ है जो गलत साबित नहीं हो सकती?
श्रोता: हमारी पहचान।
आचार्य: पहचाने तो बनती-बिगड़ती रहती हैं। कुछ है तुम्हारे पास जो बनता-बिगड़ता नहीं है?
(प्रश्नकर्ता के अलावाअन्य श्रोताओं को कहते हुए )बिलकुल व्यवहारिक तल पर बात करो क्योंकि बात अगर असली नहीं होगी तो फिर ये उस पर डिगे नहीं रह पाएँगे। अटल नहीं रह पाएँगे।
श्रोता: पता करने की क्षमता।
आचार्य: वो(प्रश्नकर्ता) कह देंगे पता करने की क्षमता भी नहीं है मुझमें।
श्रोता: शांति या अशांति।
आचार्य: कह देंगे। कभी कहते हैं कि शांति है कभी कह देते हैं अशांति है। वो भी ऐसी चीज़ नहीं जो अटल हो। तो तुम जब ये भी कहते हो कि मैं समस्या ग्रस्त हूँ या ये भी कहते हो मैं अनाड़ी हूँ या ये भी कहते हो कि मैं कुछ नहीं जानता हूँ तो भी एक बात को लेकर के तो तुम्हें पूरा भरोसा है। क्या?
श्रोता: ‘मैं’ हूँ।
आचार्य: यहाँ से शुरू करो न। ‘मैं’ हूँ। अब इस बात में कोई सन्देह नहीं है। जहाँ कोई सन्देह नहीं है वहाँ से शुरुआत करना अच्छा है क्योंकि अगर शुरुआती बिंदु ही गलत हुआ तो आगे की यात्रा पूरी ही गलत हो जाएगी,तो शुरुआत करने का बिंदु भले साधारण लगे पर सही होना चाहिए, साधारण भले हो पर सही ज़रूर हो। ‘मैं’ हूँ। ठीक? तुम हो। तुम हो और तुम कहते हो तुम परेशान हो कि तुमको निर्णय करना नहीं आता और तुम कहते हो कि मैं कुछ जानता नहीं हूँ और तुम कहते हो दूसरों के प्रभाव में आ जाता हूँ। तो ये जो ‘मैं’ है, ये क्या चाहता है?
पहली बात हमने पकड़ी कि ‘मैं’ हूँ और अब हम जानना चाहते हैं कि इस ‘मैं’ का स्वभाव क्या है; ये क्या चाहता है। किस बात को लेकर के तुम्हें पक्का भरोसा है कि ‘मैं’ को स्वीकार्य होगी और किन बातों को लेकर तुम जानते ही हो कि ‘मैं’ उन्हें स्वीकार नहीं करता।
प्र: सुख और शांति चाहता है।
आचार्य: ठीक। तो ‘मैं’ हूँ और ‘मैं’ चाहता हूँ शांति। निर्णय लेने के लिए बड़ा अच्छा आधार बनता जा रहा है। मैं हूँ और ये जो ‘मैं’ हूँ ये चाहता है शांति। ठीक है? अब ये पक्का है न कि शांति ही चाहते हो? शांति चाहते हो हमेशा चाहते हो, किसी भी स्थिति में ऐसा तो नहीं होता न कि कहो कि मैं चाहता हूँ कि मैं परेशान रहूँ। ऐसा होता है क्या?
श्रोता: नही।
आचार्य: ठीक है। तो हमें अब कुछ ऐसा मिल गया है जो बिलकुल अडिग है और चूँकि वो अडिग है इसीलिए उसका भरोसा है। जैसे नीव का पत्थर अडिग होता है न, हिलता-डुलता नहीं। हिलता-डुलता नहीं है तो तुम क्या करते हो फिर उस पर पूरा मकान खड़ा कर देते हो। आगे कुछ और लम्बा-ऊँचा खड़ा करो इसके लिए ज़रूरी है कि जो नीव का पत्थर हो वो बिलकुल अडिग हो। तुम्हें कुछ ऐसा मिला अभी-अभी जो अडिग है। क्या मिला अभी-अभी? ‘मैं’ हूँ और मैं?
श्रोता: शांति चाहता हूँ।
आचार्य: ठीक है। इसी को ओर कोनों से ज़रा टटोलो; और क्या चाहते हो? और क्या है ऐसा जिसको तुम सदा चाहते हो? किसी भी स्थिति में चाहते हो, अनअपवाद रूप से चाहते हो, बिना रुके चाहते हो। बोलो, क्या है जो तुम सदा चाहते हो?
श्रोता: शांति, फ्रीडम (आज़ादी)
आचार्य: शांति तो कह ही दिया उन्होंने, और मुक्ति। कोई है ऐसा जो किसी भी स्थिति में कहे कि मुझे मुक्ति नहीं बंधन चाहिए? कोई इन्सान देखा है जो चाहता हो कि उसको कैद हो जाए? कोई पक्षी देखा, जो स्वेच्छा से पिंजरा माँगता हो? तो ‘मैं’ हूँ और मैं वो हूँ जिसे शांति चाहिए और जिसको मुक्ति चाहिए। जीवन के निर्णय लेने के लिए अब तुमको क्या मिलते जा रहे हैं- आधार, कसौटियाँ, क्राइटीरिया। मैं हूँ और मैं वो हूँ जिसे शांति चाहिए मुक्ति चाहिए।
ऐसा कोई है जिसे अच्छा लगता है कि उसे धोखा दिया जाए? कितने लोग यहाँ बैठे हैं जो चाहते हैं कि उन्हें धोखा मिले? तो हम सब सच चाहते हैं न? भ्रम नहीं। क्या चाहते हैं? सच चाहते है न। कितने लोग हैं जिन्हें बहुत अच्छा लगता है जब उनसे झूठ बोला जाता है? मज़ा आया, मज़ा आया झूठ बोला गया मुझसे। अच्छा लगता है?
श्रोता: वेन यू कैन टेल द़ पर्सन इज़ लाइंग सो इट्स् फनी।(जब आप बता सकते हैं कि व्यक्ति झूठ बोल रहा है तो यह मज़ेदार है)
आचार्य: तुम्हें झूठ पकड़ना अच्छा लगता है। ये सच्चाई की पहचान है। कोई झूठ बोलकर तुम्हें धोखा ही दे जाए ये तुम्हें पसंद है क्या? तो तुम हो और तुम वो हो जिसे सच चाहिए। भ्रम और धोखा नहीं। ज़िन्दगी के निर्णय लेने के लिए तुम्हें एक और मिल गया आधार। मिल रहा है कि नहीं मिल रहा है? अब बताओ निर्णय लेने में क्या दिक्कत है। जब भी चुनाव करने की बारी आए तो देख लो कि भ्रम किधर है और सच्चाई किधर है। देख लो बंधन किधर है और मुक्ति किधर है। देख लो शांति किधर है, अशांति किधर है।
प्र: ऐसा इसमें होता है आचार्य जी कि जब तक दोनों चीज़ करके नहीं देखेंगे, पता कैसे चलेगा?
आचार्य: (व्यंग्यात्मक रूप से)करके देख लो।
प्र: आप बोले कि जैसे नौकरी करना है या नहीं करना है। तो नौकरी अगर पहले करेंगे तब पता चलेगा उसमें जो मिलता है खुशी या नहीं या फिर नहीं करेंगे तब। शादी है, तो शादी कर-करके देखेंगे तब पता चलेगा।(श्रोतागण हंसते हैं)
आचार्य: करके देख लो।
प्र: तो पहले से पता कैसे चलेगा कि क्या करने पर मिलेगा?
आचार्य: देखो बेटा, पता तो पहले भी होता है। शादी यकायक तो नहीं हो जाती? ऐसा तो होता नहीं कि सुबह सोकर उठे और शादीशुदा थे। वो पूरी प्रक्रिया, वो पूरी तैयारी, पूरी मानसिकता ही तुमको बता देती है कि जो होने जा रहा है वो क्या है। उसमें तुमको शांति और सच्चाई और मुक्ति दिख रही हो तो फेरे ले लो। नहीं तो कोई भूल नहीं हो गयी कि प्रयोग करके ही देख लो। साल दर साल बीतते जाएँ और उलझन और आँसुओं और परेशानी में रहो इससे अच्छा तो यह है कि तुम गलत रास्ता ही चल लो। कम-से-कम यह तो पता चलेगा कि गलत रास्ता गलत है।
अभी तो तुम समय और जीवन दोनों व्यर्थ करते जा रहे हो और तुम्हें यह लाभ तक नहीं हो रहा कि गलत का ही कम-से-कम कुछ प्रयोग हो। अभी तो तुम्हारे लिए सही गलत इतना एक बराबर है कि कह रहे हो कि करके ही पता चलेगा। अगर करके ही पता चलना है तो करके ही देख लिया होता न उसमें भी कोई लाभ मिल ही जाता।
वाल्मीकि (अंगुलीमाल) ने एक रास्ता चलकर के देख लिया, उससे भी उन्हें लाभ ही हो गया इतना तो जान गए न कि यह रास्ता चलने लायक नहीं है। चार रास्ते दिख रहे हों, गलत रास्ते पर भी चले तो भी कुछ तो लाभ हुआ। अब तीन ही बचे प्रयोग करने के लिए, एक का तो पता चला कि चलने लायक नहीं है, और अगर बुद्धिमत्ता, संवेदनशीलता, ग्रहणशीलता थोड़ी ज़्यादा हो तो इशारों से समझ लो। शादी की बात कर रहे हो, शादी के बाद क्या होगा वो शादी की तैयारियों में ही झलकता है। कर्मफल कर्म से अलग तो होता नहीं न? तो जिस उद्देश्य के साथ शादी कर रहे होगे, शादीशुदा जीवन वैसा ही होगा।
प्र: आचार्य जी, यही तो पहली समस्या है कि वो आज तक इच्छा उद्देश्य नहीं पता चलता।
आचार्य: तो शादी क्यों हो रही है तुम्हारी?
प्र: बस हो रही है।
आचार्य: बस हो रही है नहीं होता बेटा। ऐसा तो नहीं है, कभी कोई आ करके तुमको उठा करके तुम्हारा कपड़ा उतारने लग जाए तो विरोध करोगे न? माने ऐसा तो नहीं है कि विरोध करने कि तुममें क्षमता ही नहीं है। जब तुम विरोध नहीं करते हो तो कोई अपना लाभ कोई स्वार्थ देखते हो तभी विरोध नहीं करते।
प्र: नहीं आचार्य जी ऐसी स्थिति है कि हमको लगता है करने से भी कुछ नहीं मिलेगा, नहीं करने से भी कुछ नहीं मिलेगा।
आचार्य: अगर करने नहीं करने से कुछ नहीं मिलेगा तो करके समय क्यों व्यर्थ कर रहे हो। अगर मैं यहाँ बैठा हूँ और दो राहे हैं। एक इधर जाने की और एक उधर जाने की, और मुझे पक्का भरोसा है कि न इधर जाकर कुछ मिलना है और न उधर जाकर कुछ मिलना है। उसके बाद भी तुम पाओ कि मैं बार-बार उधर को हीं जा रहा हूँ तो इसका मतलब मैं झूठ बोल रहा हूँ। मुझे पक्का भरोसा होता कि न इधर जाकर कुछ मिलना है न उधर जाकर कुछ मिलना है तो मैं चुपचाप बैठा रहता। पर तुम चुपचाप तो नहीं बैठे हो, तुम तो कुछ-न-कुछ करते जा रहे हो। तो कारण तुम्हारे पास है, अब खुद को ही अगर तुम धोखा दो तो कोई क्या करेगा। जो कुछ नहीं जानता होगा वो कुछ नहीं करेगा न भाई, पर तुम तो बहुत कुछ करते ही जा रहे हो और आगे भी करने की तैयारी है।
ऐसे भी नहीं हो कि पेड़ से टूटे पत्ते हो, कि हवा आती है और बहा ले जाती है। अपने ऊपर प्रयोग करके देख लो, क्रोध भी आता होगा तुमको, अड़ते भी होंगे, बहस भी करते होंगे, सक्रिय विरोध भी करना जानते होंगे, ये सब कलाएँ जानते तो हो ही और जब तुम पाओ कि न अड़ रहे न विरोध कर रहे तो इसका मतलब कुछ स्वार्थ देख रहे हो। मैं सिर्फ़ ये चाहता हूँ कि जो स्वार्थ तुम देख रहे हो, छानबीन करो कि उसमें मुक्ति, शांति, सत्य, शामिल हैं या नहीं हैं? किसी न किसी वजह से तो तुमने वो सब डिग्रियाँ इत्यादि हासिल करी जो तुमने करी। किसी न किसी वजह से वो सब रोज़गार भी करे जो तुमने करे। किसी न किसी वजह से अब तुम शादी इत्यादि भी करोगे। इतनी तुम बस तहकीकात कर लो कि ये सब करके वो मिल रहा है कि नहीं मिल रहा। क्या– ‘शांति, मुक्ति, सत्य’। वो मिल रहा हो तो धड़ल्ले से करो जो कर रहे हो, वो नहीं मिल रहा तो फिर आत्मघाती है कुछ भी करना।
प्र: तो अन्दर कहीं है जो वो करना चाहता है। पढ़ाई जैसे जो भी किए, अब लग रहा है कि बाहरी प्रभाव है लेकिन अन्दर भी कहीं-न-कहीं वो इच्छा है।
आचार्य: उसको अगर जानना है कि वो वास्तव में क्या है जो तुमसे ये सब करवा रहा है तो एक छोटा सा प्रयोग है, करना चाहोगे?
प्र: जी।
आचार्य: अपनेआप से ये पूछ लो कि जो मुझसे करवाया जा रहा है, अगर मैं वो न करूँ तो क्या होगा? फिर तुम्हें समझ में आ जाएगा कि तुम क्यों वो सब कर जाते हो जो तुम कर रहे हो। उदाहरण के लिए तुम से कहा गया कि इंजीनियरिंग कर लो या कोई नौकरी कर लो, तुमने कर ली। अभी तुम कहते हो कि मेरी तो इच्छा-अनिच्छा कुछ भी नहीं थी, मैंने फिर भी कर ली। पर बात वास्तव में वेसी नहीं होती।
चाहो तो बस वैचारिक तल पर ही यह प्रयोग करके देख लो। तुम्हें किसी नौकरी को करने के लिए प्रेरित किया जा रहा था। तुमने इनकार कर दिया। यह वैचारिक प्रयोग है, देखो अब क्या होता? हुक्का-पानी बंद हो जाता न? हो सकता है घर पर रोटी-पानी बंद हो जाता। हो सकता है दोस्तों की यारों की, घरवालों की, उपेक्षा और विरोध इत्यादि झेलने पड़ते। जैसे ही तुम ये देखोगे फिर तुम्हें समझ में आएगा कि तुमने वो नौकरी या वो पढ़ाई क्यों करी। क्यों करी? ताकि रोटी-पानी बंद न हो, ताकि स्वजनों का और मित्रों इत्यादि का विरोध न झेलना पड़े। उनके उपहास का पात्र न बनना पड़े, तो कारण तुम्हारे पास था। कारण था ‘भय’।
ये न कहो कि मैं जो कुछ कर रहा हूँ बिना किसी वजह के कर रहा हूँ, वजह है। वजह है भय, और भय यही है कि इन्हीं से छत मिलती है इन्हीं से नाम मिलता है, इन्हीं से रोटी-पानी चल रहा है, इन्हीं से पहचान है। इनकी बात तो माननी ही पड़ेगी। भय के केंद्र से चलो, उससे कहीं ज़्यादा अच्छा है कि सत्य के और शांति के और मुक्ति के केंद्र से चलो। भय करो भी तो यही करो कि अगर धोखे में ही जीना पड़ गया और सच से दूर रह गया तो? कितनी डरावनी बात है न ये। तो डरते तो हो ही, इस बात से डरो। दुनिया से और दुनिया की ताकतों से और घरवालों से और पचास लोगों से डरते हो, इस बात से भी तो डरो कि ज़िन्दगी भर अगर कैद में रह गया तो? ये बात क्या डरावनी नहीं है? इस बात से क्यों नहीं डरते?
इस बात से तो डर जाते हो कि अगर कहीं घर से निकाल दिए गए तो रहेंगे कहाँ। इस बात से क्यों नहीं डरते कि जन्म ही व्यर्थ हो गया तो? धोखे में ही जीते गए तो? बेहोशी में ही जवानी बीत गयी बुढ़ापा आ गया तो? क्या ये डरावनी बातें नहीं हैं? समझ रहे हैं बात को? कभी-कभी छोटे डर का इलाज़ होता है बड़ा डर। संतों ने डर की महिमा भी खूब गायी है। कहते हैं डर से बड़ी औषधी दूसरी नहीं होती, बशर्ते तुम डरना जानो। तुम ऐसे-ऐसे छोटे डरों के आगे झुके रहते हो कि बड़े डर का तुम्हें पता ही नहीं चलता।
जीवन से छोटे-मोटे डर सब हटाने हों तो बड़ा डर ले आओ और बड़ा डर यही है, कल्पनाओं में तो खोए ही रहते हो एक कल्पना यह भी कर लिया करो कि अस्सी साल का हो जाने पर अचानक पता चला कि अस्सी साल बर्बाद किए हैं। फिर कैसा लगेगा? कैसा लगेगा? कि दो दिन तक रेल की यात्रा करने के बाद अचानक पता चला कि गलत ट्रेन में बैठे हैं। कैसा लगेगा? इस कल्पना को कर लिया करो। रूह काँपेगी। गलत नौकरी करते गए करते गये और पेंत्तिस साल बाद पता चला कि ये नौकरी तो मुझे कभी करनी ही नहीं चाहिए थी। अब पेंत्तिस साल वापस ला पाओगे? विवाह भी कर लिया, बच्चे भी कर लिए और फिर एहसास हुआ, कुछ गलत हो गया है। अब रिवर्स गियर लगा पाओगे? डरो। छत छिनने से डरते हो; ‘सत्’ छिनने से नहीं डरते?
प्र २: जो उन्होंने बोला था मैं उसी बात पर थोड़ा वापस आना चाहता हूँ। उन्होंने ये बोला था कि वो रास्ता डिसाइड नहीं कर सकते। मेरे साथ ये हो रहा है मैं मंजिल डिसाइड नहीं कर पा रहा हूँ। आई एम इन द़ अर्ली स्टेज ऑफ माई करियर(मैं अपने जीवन की शुरुआती अवस्था में हूँ) मैं अभी कॉलेज में हूँ और मैं एमबीबीएस कर रहा हूँ, मेरा बस यही अकेला मोटिव(उदेश्य) है एमबीबीएस करने का कि बड़े हो कर डॉक्टर बनकर सिर्फ़ रोटी मिल रही है दैट्स द़ ओनली पॉइंट (यही एकमात्र बात है )और मेरा वही है जो आपने बोला कि सत्तर की उम्र का होकर यही लगेगा कि ज़िंदगी बर्बाद कर दी पूरी।
आचार्य: तो रोटी कमाना कोई अपराध तो नहीं है। अगर रोटी कमाने के लिए तुम कुछ पढ़ रहे हो कुछ यत्न कर रहे हो तो उसमें कुछ गलत तो नहीं कर दिया। बस रोटी तक जीवन सीमित नहीं रखा जा सकता। रोटी का होना कोई समस्या नहीं है। ‘मात्र रोटी का होना समस्या है’। एम बी बी एस ठीक है, बढ़िया बात, करो। उसके अलावा क्या कर रहे हो? देह के बारे में जानकर और देह की चिकित्सा करके तुम्हें देह के लिए रोटी मिल जाएगी। कुछ बौद्धिक सुख भी मिल जाएगा, ज्ञान मिला है, शरीर में ये व्यवस्था ऐसे काम करती है, ये तंत्र ऐसे चलता है। पर जीने के लिए उसके अलावा भी कुछ चाहिए और वो नहीं है तो ज़िन्दगी बोझिल हो जाती है। उसका कुछ प्रबंध करो। कर तो रहे हो।