बात तो सीधी है

Acharya Prashant

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बात तो सीधी है
हमारा सौभाग्य भी है दुर्भाग्य भी, जो बेचैनी मनुष्य के मन में रहती है वो और कहीं नहीं पाई जाती। पशुओं को आप उनकी प्राकृतिक व्यवस्था के अनुसार आहार और चीज़ें दे दीजिए — वो अपना संतुष्ट पड़े रहते हैं। लेकिन मनुष्य का मन कुछ तलाश रहा है। धर्म का अनिवार्य संबंध उस तलाश से है और क्या तलाश रहा है हमारा मन? अगर बेचैन है हमारा मन, तो स्पष्ट सी बात है — चैन तलाश रहा है। अशांत है, तो शांति तलाश रहा है। उलझन में है, तो सुझाव तलाश रहा है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

सुभाष चंद्रा: सबको प्रणाम। आज की इस धर्म चर्चा में आपका स्वागत है। आज हमारे बीच में एक ऐसी विभूति, या कहें शख़्सियत, आचार्य प्रशांत जी हैं। आपके बारे में मैं थोड़ा सा बताना चाहूँगा। आप बहुत ही ज्ञानी और पढ़े-लिखे एक आचार्य हैं, इन्होंने आईआईटी से इंजीनियरिंग किया, फिर एमबीए किया। उसके बाद सिविल सर्विसेस की परीक्षा में सौ प्रतिशत तक अंक लिए, फिर बिज़नेस में भी कुछ संस्थाओं की मदद की।

परंतु फिर भी जो जिज्ञासा आपके मन में शायद बचपन से ही वेदों के प्रति, उनके बारे में शोध करने के बारे में, धर्म के बारे में जानने की जो रही होगी — उसने आज आचार्य जी को पूर्णकालिक रूप से धर्म की सेवा करने में रत कर दिया है, देश और समाज को तथ्यों के आधार पर एक मार्गदर्शन देते हैं, ऐसे आचार्य जी का स्वागत है। हमारे दर्शकों का हम आपके बहुत आभारी।

आचार्य जी, ये प्रश्न सभी हमारे दर्शक भी और बहुत से लोगों के मन में आता है कि असली धर्म क्या है? और बहुत से लोग एक ही परिवार में रहते हुए भी — कोई किसी प्रकार की साधना करता है, कोई किसी प्रकार की पूजा करता है, कोई कुछ करता है — तो बहुत कन्फ्यूज़न है लोगों के मन में कि सच्चाई क्या है? धर्म की सच्चाई क्या है?

आचार्य प्रशांत: इतने तरह के जीव होते हैं, मनुष्यों के अलावा भी करोड़ों-अरबों प्रजातियाँ हैं, लेकिन उनके संदर्भ में हम कभी भी धर्म शब्द की बात नहीं करते। तो पहली चीज़ तो हम ये ग़ौर करते हैं कि धर्म जो कुछ भी है, लागू सिर्फ़ मनुष्य पर होता है।

सुभाष चंद्रा: बिल्कुल ठीक।

आचार्य प्रशांत: शेर के लिए, हिरण के लिए, पेड़-पौधे के लिए, या हवा के लिए, पानी के लिए — धर्म शब्द बेतुका हो जाएगा, एब्सर्ड हो जाएगा। उनके पास उनकी प्रकृति है, और वे प्रकृति के अनुसार ही वर्ताव करते हैं, आचरण करते हैं। और उनसे ना तो कोई अपेक्षा रखता है कि अपनी प्रकृति छोड़ दो, ना उनकी प्रकृति का पालन करने पर उनकी प्रशंसा या निंदा की जाती है।

शेर यदि हिरण को मारता है, तो हम उसको हिंसा नहीं कह सकते, वो उसकी प्रकृति है, ना हम ये कह सकते हैं कि शेर को भी किसी धर्म का पालन करना चाहिए और जीव-हत्या नहीं करनी चाहिए। इसी प्रकार जितने भी प्रकृति में तत्व हैं, मनुष्य के अलावा — जड़, चेतन सारे — सब के सब अपनी प्राकृतिक व्यवस्था के अनुसार ही गति करते रहते हैं। और वहाँ मामला एकदम सुलझा हुआ है, वहाँ कभी कोई समस्या ही नहीं आती, कोई कन्फ्यूज़न भी नहीं है, कोई उलझन नहीं है, कोई समस्या नहीं है।

पानी की प्रकृति है — बहना, नीचे की ओर। भाप की प्रकृति है — उठना, ऊपर की ओर। खरगोश घास ही खाएगा, और बाघ माँस ही खाएगा तो उसमें कहीं कोई समस्या ही नहीं है। मनुष्य अकेला है, जिसके सामने ये प्रश्न आता है कि "मैं क्या करूँ? कैसे जिऊँ?" मनुष्य अकेला है जो बेचैन है। मनुष्य अकेला है जो पूछता है कि "मैं हूँ कौन? मेरा जन्म क्यों हुआ है? और मैं क्यों आया हूँ यहाँ पर? ये जगत, ये चीज़ क्या है?"

तो शुरुआत हुई थी कहने से कि "धर्म क्या है?" और हमने पूछ लिया — धर्म किसके लिए है? फॉर हूम। तो धर्म सारा का सारा मनुष्य के बेचैन मन के लिए है।

सुभाष चंद्रा: बेचैन मन।

आचार्य प्रशांत: वो बेचैनी अस्तित्व में कहीं और पाई ही नहीं जाती जो बेचैनी मनुष्य में रहती है। हम विशेष हैं, वो हमारा सौभाग्य भी है दुर्भाग्य भी, जो बेचैनी मनुष्य के मन में रहती है वो और कहीं नहीं पाई जाती। पशुओं को आप उनकी प्राकृतिक व्यवस्था के अनुसार आहार और चीज़ें दे दीजिए — वो अपना संतुष्ट पड़े रहते हैं, कोई समस्या नहीं ज़िन्दगी में। लेकिन मनुष्य का मन कुछ तलाश रहा है।

धर्म का अनिवार्य संबंध उस तलाश से है और क्या तलाश रहा है हमारा मन?

अगर बेचैन है हमारा मन, तो स्पष्ट सी बात है — चैन तलाश रहा है। अशांत है, तो शांति तलाश रहा है। उलझन में है, तो सुझाव तलाश रहा है। समस्या में है, तो समाधान तलाश रहा है। और ये सारे ही जो शब्दों के जोड़े हैं, ये इशारा एक ही ओर को कर रहे हैं — कि मन को कुछ चाहिए मन अपूर्ण है, अतृप्त है और मन को एक पूर्णता चाहिए, तृप्ति चाहिए।

सुभाष चंद्रा: तो आचार्य जी, क्या ये अतृप्ति कहें, या जो उसको असंतुष्टि है — क्या वो मनुष्य के अपने कर्मों के कारण पैदा होती है? असंतुष्टि, विवाद, चिंता, इत्यादि-इत्यादि?

आचार्य प्रशांत: नहीं। वो जो मनुष्य की शारीरिक संरचना है, सीधे-सीधे वहीं से आ रही है। वो असंतुष्टि अगर एक चीता या एक खरगोश या एक नारियल का पेड़ अनुभव नहीं करता, तो इसमें उसके कर्म की कोई बात नहीं है। इसमें उसकी जो प्राकृतिक व्यवस्था है, जो उसकी दैहिक संरचना है — बात उसकी है।

देखिए, मनुष्य का बच्चा पैदा होते ही रोता है। हमें कोई ना भी सिखाए परेशान होना — हम तब भी परेशान रहेंगे। जो कौतूहल, जो उत्सुकता हमारे पास है — वो अन्य जीवों में पाई ही नहीं जाती। तो हमारी जो शारीरिक संरचना ही है, हमारा जो मस्तिष्क ही है — वही ऐसा है कि हम सिर्फ़ शरीर होकर के, और खा के, पी के या प्रजनन करके संतुष्ट नहीं रह पाते।

हमें अर्थ चाहिए, हमें समझना है, हमें जानना है उस जानने की अभिलाषा का नाम धर्म है। मुझे जानना है और मैं अपने आप को जानने से वंचित करूँगा, तो मैं अधर्मी हो गया।

मुझे शांति चाहिए, पर मैं जीवन ऐसा जिऊँगा जो अशांति की बुनियाद पर खड़ा हो — तो मैं अधर्मी हो गया।

समय में जो कुछ भी घट रहा है — वो मुझे कभी तृप्त नहीं कर पाता, क्योंकि कुछ आता है, तो कुछ चला जाता है। मुझे निरंतर उसकी तलाश है जिस पर पूरा भरोसा किया जा सके, जो नित्य हो, जो कभी बदले नहीं। जिसके संभल पर खड़ा हुआ जा सके। अगर मैं फिर भी, जो जगत की क्षणभंगुर चीजें हैं — आवत-जावत, जो खेल है सारा — मैं सिर्फ़ उसमें ही लिप्त रह जाऊँ, तो ये अधर्म हो गया।

धर्म है — अपने आप को वो देना जिसकी आपको गहनतम् अभिलाषा है और हम सब को कुछ है जो चाहिए। जो चाहिए, वो प्रकृति में आसानी से मिलता नहीं। क्योंकि अब तो बाज़ार पटे हुए हैं हज़ार तरह के उत्पादों से और सेवाओं से। मनुष्य एक तरीके से आज जितना समृद्ध है — उतना इतिहास में कभी भी नहीं था लेकिन उससे हमारी बेचैनी चली तो नहीं गई, उससे तो हम ये पा रहे हैं —

सुभाष चंद्रा: और बढ़ती जा रही है।

आचार्य प्रशांत: मानसिक तनाव और बीमारियाँ, और बढ़ ही रही हैं। तो कुछ विशेष है जो हमको चाहिए, उस विशेष की तलाश का ही नाम धर्म है।

सुभाष चंद्रा: ये आचार्य जी, बड़ा अच्छा कहा आपने। जैसे कहा 'चाहिए' तो चाहत तो आचार्य जी, बचपन में जैसे बच्चा पैदा होता है तो रोते-रोते पैदा होता है। तो उसको चाहिए, क्योंकि उस समय में उसको माँ से पोषण चाहिए, हवा चाहिए, श्वास चाहिए उसके बाद और बढ़ता है तो कुछ ना कुछ चाहिए। सारी उम्र हम चाहते रहते हैं।

तो क्या वो डिज़ायर के प्रति क्लिंगिंग या उसके प्रति आसक्ति, उसके कारण से ये समस्याएँ हैं क्या?

आचार्य प्रशांत: हमें चाहिए, लेकिन अगर हम अपने आप को वो ना दें जो हमें सचमुच चाहिए और कुछ और देते रहें, तो धर्म नहीं हुआ न?

सुभाष चंद्रा: जी, ठीक है।

आचार्य प्रशांत: मुझे प्यास लगी है और मैं अपने आप को पकौड़ा दूँ, खीर दूँ, कोई पकवान दूँ — उससे कोई अर्थ नहीं है, मुझे तो पानी चाहिए। समस्या ये है कि हमें प्यास का तो अनुभव होता है, लेकिन हमें ये ज्ञान नहीं होता कि वो प्यास सचमुच मिटेगी किससे, तो इसलिए हम ज़िन्दगी भर चाहत का खेल खेलते रहते हैं। कभी ये पकड़ते हैं, कभी वो पकड़ते हैं। पचास चीज़ों में हाथ डालते हैं, ये आज़माते हैं। अनुभवों में डूबते-उतरते रहते हैं — "इस चीज़ का अनुभव ले लो, क्या पता प्यास मिट जाए।" और थोड़ी देर के लिए प्यास मिट भी जाती है, ऐसा नहीं है कि नहीं मिटती।

कोई बहुत ही आपको तृप्तिदायक अनुभव हो, तो मन थोड़ी देर के लिए तो ऐसा हो ही जाता है कि वाह! तर गए।

सुभाष चंद्रा: जी, ऐसा अनुभव होता है।

आचार्य प्रशांत: अनुभव होता है लेकिन वो अनुभव फिर चला जाता है और पीछे फिर एक रिक्तता छोड़ जाता है।

सुभाष चंद्रा: पर आचार्य जी, आम व्यक्ति जो इतना अध्यात्म में या इन विषयों में जानकार नहीं है, वो तो देखता है साधु-संतों की तरफ़, जो टीचर हैं, अध्यापक हैं उनसे प्रश्न पूछता है, वो दस लोगों से प्रश्न पूछता है तो उनको आठ अलग-अलग चीज़ें मिलती हैं। तो उसमें वो कैसे निर्णय करें कि " ये धर्म है और यही चीज़ मुझे चाहिए और यही, इसी दिशा में चलना चाहिए?”

आचार्य प्रशांत: देखिए, धर्म के दो पंख होते हैं।

एक पंख होता है विद्या का और एक होता है अविद्या का। एक पंख होता है कि जाओ और ज्ञानियों के पास बैठ कर के ज्ञान प्राप्त करो — या उनकी लिखी किताबें वग़ैरह पढ़ो या जो परंपरा से ज्ञान चला आ रहा है, तुम उसको अर्जित करो। एक तो पक्ष ये होता है धर्म का।

लेकिन जो दूसरा पक्ष होता है, वो बहुत आवश्यक होता है — और वो अक्सर उपेक्षित रह जाता है। दूसरा पक्ष होता है — अपने दम पर जीवन को जानना सीखो, जीवन का अवलोकन करो। अपने अनुभवों को देखो, तुमने ऐसा करा — पूछो, इससे मिला क्या? तुमने कोई गलती करी, तुम्हें कष्ट हुआ — पूछो कि क्या तुमने वो गलती पहली बार करी है जीवन में, या तुम पुरानी ही गलतियों को नए-नए रूपों में दोहरा रहे हो?

तो ये दोनों ही काम करने पड़ते हैं। इसको ज़मीन की भाषा में बोल देंगे — सत्संग और स्वाध्याय।

सुभाष चंद्रा: सत्संग और स्वाध्याय, दोनों ही आवश्यक।

आचार्य प्रशांत: एक तो ये कि जितने मिल सकें, जिनसे पूछा जा सकता है — उन सबसे पूछो। और दूसरा ये है — स्वाध्याय का मतलब ये भी नहीं कि अकेले में बैठकर किताब पढ़ रहे हो। स्वाध्याय का जो और मौलिक अर्थ हुआ, वो ये हुआ कि अपनी ही ज़िन्दगी का अवलोकन करो। अपने आप खड़े हो जाओ और तटस्थ हो कर के देखो कि दुनिया कैसे चल रही है, ज़िन्दगी से सीखो, ज़िन्दगी से सवाल पूछो। और जब ये दोनों चीज़ें होती हैं, तब जाकर के धर्म घटित होता है।

सुभाष चंद्रा: बड़ी अच्छी बात कही आचार्य जी ने। मैं अब आपके लिए प्रश्न पूछ रहा हूँ। तो शायद साधारण रूप से प्रश्न पूछूँगा, आचार्य जी शायद मुझे समझे भी कि "सुभाष जी कुछ ज़्यादा जानते नहीं हैं" परंतु फिर भी, आपके लाभ के लिए एक साधारण रूप से।

आचार्य जी, जब आपने कहा सत्संग भी आवश्यक है और स्वाध्याय भी आवश्यक है — दोनों बातें ठीक हुई और इन दोनों के मिश्रण से ही धर्म उदित होता है।

लेकिन जब एक साधारण व्यक्ति सत्संग के लिए किसी ज्ञानी पुरुष के साथ बैठता है, तो वो कहते हैं कि, "भाई, सनातन धर्म ही तुम्हारा धर्म है।" और आज के युग में — मुझे नहीं पता कब से ये हुआ — सनातन धर्म को केवल मंदिरों में मूर्तिपूजा के साथ जोड़ के, जो व्यक्ति मूर्तिपूजा करता है, जो हरिद्वार-ऋषिकेश में जाकर स्नान करता है, इत्यादि-इत्यादि — उसी को सनातन धर्म मान लिया।

जबकि मैंने आपकी भी कुछ चीज़ें सुनी हैं, आपने 'सनातन' की बड़ी अच्छी व्याख्या की है। तो एक बार हमारे दर्शकों के लिए, एक बार बताएँ न — कि सनातन का धर्म के साथ क्या संबंध है?

आचार्य प्रशांत: मन जब से रहा है — तब से वो प्यासा और व्याकुल ही तो रहा है न। तो समय की पूरी धारा में — क्योंकि जब हम 'सनातन' बोलते हैं, तो उससे आशय होता है ऐसी चीज़ जो समय में शुरू और खत्म ना होती हो।

सुभाष चंद्रा: बिल्कुल।

आचार्य प्रशांत: जो कुछ भी ऐसा हो कि समय में उसका आदि-अंत ना हो — तो सनातन का उससे संबंध है। तो मनुष्य के लिए, जब से समय शुरू हुआ है और आज तक, और जब तक काल की धारा बहेगी हमारे लिए तब तक मनुष्य का मन तो उपद्रव में ही रहेगा, अपूर्ण ही रहेगा और कहें तो कलपता रहेगा।

जो आदि मानव था, आप अगर पढ़ें तो उसके ऊपर भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से शोध हुए हैं और वहाँ भी यही बात निकल के आ रही है कि वो भी कुछ तलाश रहा था। वो भी बस इससे संतुष्ट नहीं था कि शिकार कराया और जोड़ा बना लिया और समूह बना लिया और अपनी सुरक्षा कर ली और जीवन-यापन कर रहा है।

वो न जाने क्या कर रहा था, वो अपनी गुफाओं की दीवारों पर कुछ उकेर रहा था। वो जो लोग मरने लग जाते थे, उनके शरीरों को देखता था। कई बार उनसे जुड़ी चीज़ों का संग्रह करने की कोशिश करता था।

सुभाष चंद्रा: ऐसा पढ़ने में आता है।

आचार्य प्रशांत: और इसके प्रमाण मिलते हैं और ये सब काम पशु कभी भी नहीं करते, तो मनुष्य बेचैन हमेशा से रहा है। थोड़ा और आगे आइए, जब से हमने भाषा विकसित कर ली, और जब से हमारा किसी प्रकार का संग्रहित इतिहास मिलता है — तो हम लड़ रहे थे, या हम राज्य में व्यवस्था कर रहे थे। आप पुराने राजाओं का पढ़ते हैं — हम जिन मुद्दों पर तब लड़ रहे थे, उन्हीं मुद्दों पर आज भी लड़ रहे हैं और शायद आगे भी वही मुद्दे चलते रहेंगे। हाँ, लड़ने के तरीके बदल गए हैं।

हम जैसे तब अपने स्वार्थ के लिए संधियाँ कर लेते थे, वैसे ही हम आज भी अपने स्वार्थ के लिए संधियाँ कर लेते हैं, गठबंधन बना लेते हैं और वही आज भी चलता रहेगा। तो क्या चीज़ है जो समय की धारा में नहीं बदल रही है? — मन की बेचैनी। तो सनातन धर्म है — कि ये जो बेचैनी है, ये निरंतर है इसको वो चाहिए जो काल की धारा के बाहर है।

काल की धारा में — मतलब जब से समय शुरू हुआ है, तब से पूरा आज तक और आगे भी, पूरे इतिहास में और आगे भविष्य में — मन बेचैन है। और मन बेचैन है जरूरी ही, आवश्यक रूप से — किसी ऐसी चीज़ के लिए जो काल की धारा से बाहर की है,

सुभाष चंद्रा: जो पहचानी नहीं जा सकती, जो जानी नहीं जा सकती।

आचार्य प्रशांत: जानी नहीं जा सकती, और चूंकि वो जानी नहीं जा सकती, इसलिए मिलती ही नहीं है इस धारा में।

सुभाष चंद्रा: बिल्कुल ठीक।

आचार्य प्रशांत: नदी की धारा में वो चीज़ कैसे मिलेगी जो नदी के तट पर है? तो सनातन धर्म है — शाश्वत खोज मनुष्य की उस वस्तु की जो कालातीत है। हमारी एक शाश्वत, अनवरत खोज है। और वो जो खोज है, वो किसी पंथ-विशेष या समुदाय-विशेष के ही लोगों की नहीं है। वो मनुष्य मात्र की है, तो नहीं फ़र्क पड़ता कि वो जो पुराना आदमी था, वो यूनान का था, कि भारत का था, कि चीन का था, कि मेसोपोटामिया का था — वो था तो आकुल ही, वो था तो व्यग्र ही।

और जैसे-जैसे हम पाते हैं कि विचार ने भारत में जड़ पकड़ी और फिर विस्तार पाया, उसी के समक्ष हम पाते हैं कि ग्रीस में भी वैसे ही विचार हो रहा था और लोग सोच रहे थे। और कई बार तो हैरत होती है कि लगभग वही मुद्दे — जिन मुद्दों पर भारत में विचार हो रहा था — लगभग बिल्कुल उसी समय पर ग्रीस में भी उन्हीं मुद्दों पर विचार हो रहा था। तो मनुष्य का मन सोचना चाहता है, समझना चाहता है। उस सोच को उसके परिणाम तक, निष्पत्ति तक पहुँचाना ही सनातन धर्म है।

सुभाष चंद्रा: आचार्य जी ये फिर जो बात हम कहते हैं, कि भगवान बुद्ध ने मोक्ष प्राप्त किया। आज भी बहुत से साधु-संत मृत्यु प्राप्त करते हैं तो उनके अनुयाई उनको बहुत अच्छे रूप से सजाते हैं, उनकी अर्थी को कहिए या जो भी कहिए और सब मानने लगते हैं कि उनको मोक्ष प्राप्ति हुई। तो ये सब क्या है?

आचार्य प्रशांत: मोक्ष इतना सस्ता नहीं है कि मरने से मिलेगा। मोक्ष और मुक्ति तो जो सबसे बड़ा मूल्य है उसको चुका करके मिलते हैं। ये हमारी समझ का फेर है, कि हम श्मशान को मोक्ष धाम बोल देते हैं और जो शव वाहन होता है उसको लिख देते हैं मुक्ति रथ है, श्मशान मोक्ष धाम है। और कोई मर जाता है तो हम कह देते हैं — ब्रह्मलीन हो गए, या निर्वाण को प्राप्त हो गए या मोक्ष। इतना आसान नहीं है मोक्ष मुक्ति, निर्वाण या ब्रह्मलीनता। इतने आसान थोड़ी है कि बस शरीर गिरेगा और मुक्त हो जाएँगे।

तो भारत ने इस विषय में बहुत अनूठी बात जानी है। वेदांत इसीलिए पूरे विश्व में पूज्य है — कि मुक्ति अगर मिल सकती है तो बस जीते-जी मिल सकती है,

सुभाष चंद्रा: जीते-जी मिल सकती है।

आचार्य प्रशांत: सिर्फ़ जीते-जी मिल सकती है और यही जीवन का उद्देश्य है — कि जीते-जी मुक्त हो जाओ।

सुभाष चंद्रा: ये बड़ी अच्छी बात कही आचार्य जी, तो ये क्या हम मानें कि वेद हमें ये दिशा बताते हैं — कि ये मुक्ति का रास्ता है?

आचार्य प्रशांत: हाँ बिल्कुल।

सुभाष चंद्रा: तो वेदों को क्या हम धर्म ग्रंथ कहेंगे या वैज्ञानिक ग्रंथ कहेंगे?

आचार्य प्रशांत: देखिए, विज्ञान तो ज्ञान को पाने का एक तरीका है, एक कायदा है, एक विधि है। विज्ञान क्या है? द साइंटिफिक मेथड — वो क्या है? वो ये है कि तटस्थ रहकर के अवलोकन करो और परीक्षण करो और उसके आधार पे ज्ञान की उत्पत्ति होगी। पहले तो देखो — प्रकृति को और जब देखोगे तो उससे तुम्हारे मन में कुछ विचार आएँगे, कार्य-कारण को लेकर के कोई संबंध तुम हाइपोथेसिस करोगे, फिर उसको टेस्ट करो उसका परीक्षण करो, ये विज्ञान है।

तो जिसको हम विज्ञान बोलते हैं, वो मटेरियल साइंस है और जिसको हम अध्यात्म बोलते हैं, वो एक तरह से मेंटल साइंस या इनर साइंस है। पर जो साइंटिफिक मेथड है, जो वैज्ञानिक विधि है — ठीक वैसे जैसे वो लगती है रसायन शास्त्र में या भौतिकी में, वैसे ही वो अध्यात्म में भी लगती है। तो साइंस और स्पिरिचुअलिटी कोई दो अलग-अलग चीज़ें नहीं हैं।

देखिए, अगर आपको जानना हो उदाहरण के लिए — एक पेड़ के बारे में, ठीक है न। अब आप वनस्पति विज्ञान में आ गए आप पेड़ के बारे में जानना चाहते हैं। तो आप कैसे जानते हैं? आप कहते हैं, "मैं देखूँगा क्या हो रहा है। अच्छा, बीज था?" अच्छा, अच्छा बीज था। फिर आप कहते हैं, "अब ये बीज उठा, अब इसमें मैं कोपलें देख रहा हूँ। फिर मैं देख रहा हूँ कि अच्छा — जब बारिश हुई, तो उस मौसम में इसमें ज़्यादा बढ़त हुई और फिर मैंने देखा कि गर्मी के मौसम में वो एकदम ठहर सा गया और झुलस सा गया, वो इंतज़ार कर रहा था बारिश हो। और फिर आपने देखा कि उसमें फल आ गए कुछ सालों बाद।"

ये सब आप ऑब्ज़र्वेशन से देख रहे हैं और फिर आपने वही चीज़ उसी तरह के सब पौधों में होती देखी और वहाँ से फिर आपका ज्ञान निर्मित हुआ। अब आप कह सकते हो कि — मेरे पास ज्ञान आ गया है कि बीज की आगे की प्रक्रिया क्या होती है, विकास की, ठीक है? ठीक वैसे ही स्वयं को जाना जाता है, वही अध्यात्म है।

सुभाष चंद्रा: तो वेदों को अध्यात्म का ज्ञान कहेंगे, विज्ञान कहेंगे।

आचार्य प्रशांत: वेदों को आप कहेंगे — आत्मज्ञान, वैज्ञानिक तरीके से ही — आत्मज्ञान। असल में, जिसको आप अध्यात्म कहते हैं — अध्यात्म, स्पिरिचुअलिटी नहीं — अध्यात्म का अर्थ ही आत्मज्ञान होता है, स्वयं को जानना।

जिसको हम साइंस कहते हैं, वो जानती है जगत को, कि यहाँ जगत में क्या चल रहा है।

सुभाष चंद्रा: मटेरियल वर्ल्ड।

आचार्य प्रशांत: मटेरियल वर्ल्ड कि यहाँ ये भौतिक जगत है। इसमें क्या चल रहा है संसार में — ये है, ऐसी चीज़ है, ऐसा होता है। फिर उसमें आप घुसते हैं — अणु-परमाणु की खोज कर लेते हैं, या आप टेलिस्कोप लेकर बैठ जाते हैं तो दूर आकाशगंगा को देखना शुरू कर देते हैं। तो छोटी चीज़ को देखें, बड़ी चीज़ को देखें — ले-दे के आप देख जो रहे हैं, भौतिक जगत को देख रहे हैं।

इसी तरीके से — उसको देखने वाला यहाँ (अपनी तरफ़ इशारा करते हुए) मौजूद है कोई। अध्यात्म कहता है — जो देख रहा है, अब मुझे उसको जानना है। विज्ञान कहता है — जो दिख रहा है, मुझे उसको जानना है। विज्ञान ऐसे टेलीस्कोप लेता है — कहता है जो दिख रहा है, उसको जानना है। या माइक्रोस्कोप लेता है — कहता है छोटी सी चीज़ क्या बैक्टीरिया है, मुझे इसको जानना है।

विज्ञान कहता है — जो दिख रहा है, मुझे उसको जानना है। अध्यात्म कहता है — जो देख रहा है यहाँ भीतर, उसको जानना है। लेकिन चाहे वो दृश्य हो बाहर, और चाहे दृष्टा हो भीतर, दोनों को जानने की विधि एक ही है। विधि है — अवलोकन, परीक्षण और कोई विधि नहीं है।

सुभाष चंद्रा: और आचार्य जी ये भी कहा — कि जो जान रहा है, देख रहा है — वो "मैं" नहीं हूँ?

आचार्य प्रशांत: वो तो "मैं" ही हूँ, उसी का नाम तो अहंकार है। वही तो "अहम" है — वो जो कहता है, "मैं देख रहा हूँ, मैं दृष्टा हूँ, मैं करता हूँ, मैं भोगता हूँ।" वही तो अहम है।

सुभाष चंद्रा: क्या आचार्य जी — वो भी अहम ही कहीं हमारी जो वेदना कहें या जो बेचैनी कहें, उसका कारण है?

आचार्य प्रशांत: उसी को होती है वो कारण नहीं है, वो भोक्ता है। वो खुद ही भोग रहा है। जब आप उसकी वेदना का अनुसंधान करते हैं — तो आपको पता चलता है शायद उसकी तकलीफ़ का कारण कोई और है ही नहीं, वो स्वयं ही अपनी तकलीफ़ का, अपने कष्ट का कारण है। तो फिर उसको कैसे कहते हैं अध्यात्म में कि — दुखी ही दुख है। दुखी ही अपना दुख आप है, आप बीमार अपनी बीमारी स्वयं है।

मतलब बहुत सारी चीज़ें हम कह रहे हैं, और अभी सुनने वालों को नहीं..

सुभाष चंद्रा: हमारे दर्शकों को शायद कम समझ में आएगा, लेकिन आगे चर्चा करते रहेंगे, आपका समय लेते रहेंगे, उसमें क्लियर भी होगा, कोई बहुत सी बातें लोगों को समझ में आएँगी। परंतु क्या कहेंगे आचार्य जी, कि यदि “मैं” जो है, जिसको आपने अहम कहा, अगर वो दृष्टा भाव से उस चीज़ को देखे, "मैं" के भाव से ना देखे, क्या वो दुख से दूर रह सकता है?

आचार्य प्रशांत: नहीं, उसे तो सबसे पहले अपनी ही गतिविधि को देखना पड़ेगा ना और जब वो अपनी गतिविधि को देखता है, तो पाता है कि वो है ही नहीं। सिर्फ़ प्रकृति के गुण हैं, समाज के संस्कार हैं, और इन्होंने एक नाम पकड़ लिया है — "मैं"।

जब ये पता चलता है, तो फिर वो मुस्कुरा उठता है, बोलता है कि मैं हूँ ही नहीं, तो मैं परेशान किस बात पर हो रहा हूँ? जो भी घटना घट रही है, वो घट रही है, या तो मेरी शारीरिक संरचना के कारण, या मुझ पर जो सामाजिक प्रभाव पड़े उनके कारण, या कि प्रकृतिगत संयोग जो है उनके कारण। तो शरीर, समाज, संयोग — जो तीनों प्रकृति के ही अधीन हैं। तो इनके कारण जो हो रहा है, सो हो रहा है, मैं बेमतलब में कर्ता बना बैठा हूँ।

मुझे लग रहा है कि मैं कर रहा हूँ, और मुझे क्यों लग रहा है कि मैं कर रहा हूँ? क्योंकि मैं कर्ता बन के आगे फल का भोक्ता बनना चाहता हूँ। तो आगे फल को भोगने के लालच में, मैं आज न जाने कितने दुख उठा रहा हूँ।

सुभाष चंद्रा: ख़ुद ही का दुखों का एक कारण बन रहा हूँ,

आचार्य प्रशांत: ख़ुद दुख का कारण बन रहा हूँ। अज्ञान और कामना,और इन दोनों में भी जो ज़्यादा मौलिक है, वो अज्ञान।

सुभाष चंद्रा: तो दोस्तों, आपने समझा कि अज्ञान के वश ही हम कोई भी जो चीज़ हमारे साथ घट रही है, जो हो रही है, हम उस अज्ञानता के वश हम समझने लगते हैं कि ये मैं कर रहा हूँ या मैं कर रही हूँ, और उसके कारण ही सब दुख और तकलीफ़ें आती हैं, ऐसा एक दिशा इंडिकेशन आचार्य जी ने दिया। आपके मन में भी क्या आ रहा है? ये प्रश्न भेजेंगे तो हम आचार्य जी से भी आपके प्रश्न देंगे, और हम भी आपके प्रश्नों का जवाब देने का प्रयास करेंगे।

आचार्य जी, ये सब बातें तो बड़ी अच्छी आपने दिशा बताई हमें, लेकिन इन सब चीज़ों में ईश्वर की परिकल्पना कहाँ से हुई, कब हुई, कैसे हुई, क्या ईश्वर वाकई है, या है तो कैसे उसकी परिकल्पना, क्यों की गई होगी?

आचार्य प्रशांत: देखिए, जो वैदिक धर्म है, उसका जो सर्वोच्च मंतव्य है, बल्कि कहिए, उसका जो एकमात्र प्राप्त्य है, ओनली डेस्टिनेशन, ओनली ऑब्जेक्टिव, पर्पज़, वो सत्य है।

सत्य — ईश्वर नहीं।

सुभाष चंद्रा: सत्य को प्राप्त करने की जो इच्छा है, उसके लिए जो कर्म किया जाए, उसके लिए जो प्रयास किया जाए।

आचार्य प्रशांत: वही धार्मिक जीवन। तो वेदों का उसमें मंत्रों वाला भाग है, फिर किस विधि-विधान से अलग-अलग देवताओं को तृप्त किया जाए, वो भाग है, उपासना में आ जाता है। और फिर जो दार्शनिक भाग है — ज्ञान कांड, वो है उपनिषद।

तो उपनिषदों से आप पूछेंगे कि किस लिए हो, क्या चाह रहे हो, तो उपनिषद कहेंगे — सत्य — ईश्वर नहीं कहेंगे। उस सत्य के लिए दो और नाम हैं — ब्रह्म और आत्मा।

सुभाष चंद्रा: ये ब्रह्म और आत्मा सत्य के ही दूसरे नाम हैं,

आचार्य प्रशांत: सत्य के ही दो नाम हैं। तीनों एक के बराबर हैं, इसमें कहीं कोई भेद नहीं है। तो ब्रह्म, आत्मा, सत्य — ये तीनों हैं। और धार्मिक जीवन का लक्ष्य है — अहम, जो कि झूठ है, जो कि मिथ्या है। उसका विगलन, विसर्जन और सत्य में जाकर के समर्पित हो जाना, ये धार्मिक जीवन है।

अब प्रश्न है आपका कि “फिर मनुष्य ने ईश्वर की क्यों परिकल्पना करी?”

देखिए, हम अपनी आँखें खोलते हैं, इधर देखते हैं तो हमें दिखाई देता है कि एक जगत है जो चल रहा है। हम कहते हैं — चल रहा है, तो कोई चलाने वाला भी होगा। अब अगर भगवद गीता के पास जाएँ तो वहाँ हमें एक बड़ी अच्छी अंतरदृष्टि मिलती है।

श्री कृष्ण कहते हैं कि — प्रकृति के गुण सारी गति कर रहे हैं, लेकिन जो शब्द प्रयोग करते हैं श्री कृष्ण, “अहंकार विमूढ़ आत्मा “ कहते हैं कि अहंकार से मोहित होकर के तुम ये सोचने लग जाते हो कि तुम कर रहे हो, जबकि वो हो स्वयं रहा है। जैसे सांस का चलना, अब सांस के चलने में तो हमें दिख जाता है कि हम नहीं कर रहे, ख़ुद ही हो रहा है, या दिल के धड़कने में हमें दिख जाता है, खाना पच रहा है — वो भी दिख जाता।

सुभाष चंद्रा: आचार्य जी, वो भी बहुत लोग नहीं मानते। वो भी कहते हैं, "मैं ही सांस ले रहा हूँ, सांस स्वयं चल रही है।" जब कि हमें — बहुत से लोगों को पूछो कि, "भाई, आप श्वास का चलना जान रहे हो क्या?"—वो भी नहीं जानते।

आचार्य प्रशांत: तो इस दृष्टि से, अभी मैं चर्चा ही कर रहा था —बकल परसों ही। तो कर्मयोग के जो 27वाँ और 28वाँ श्लोक हैं — वो आपके प्रश्न का एकदम सटीक उत्तर हैं।

श्री कृष्ण कह रहे हैं, "देखो, जो कुछ हो रहा है, वो प्रकृति के गुणों के अधीन स्वयं ही हो रहा है।" स्वयं हो रहा है, प्रकृति कर रही है। लेकिन तुम कहते हो, "मैंने किया," और अपने आप को कर्ता बनाकर के, तुम झूठ मूठ की एक “मैं” का आविष्कार कर लेते हो—जो है ही नहीं।

जैसे कि गाड़ी स्वयं चल रही हो, पर आप जानते ही न हो कि गाड़ी स्वयं चल रही है, तो आप ये कल्पना कर लें कि यदि गाड़ी चल रही है, तो अंदर उसमें एक चालक होगा ही होगा। तथ्य ये है कि वो गाड़ी स्वयं चल रही है, कोई चलाने वाला नहीं है — वो गाड़ी स्वयं चल रही है।

और श्री कृष्ण — 3.27, 3.28 आप देखेंगे — तीसरा अध्याय का, तो बड़ा आपको आनंद आएगा। श्री कृष्ण कह रहे हैं, "गाड़ी स्वयं चल रही है, भाई, कोई नहीं चला रहा।" लेकिन तुम पॉज़िट करते हो, तुम कल्पना करते हो, असंप्शन करते हो कि यदि गाड़ी है तो चालक होगा। तो इस कारण, तुम एक “मैं” का निर्माण करते हो जो फिक्टिशियस है, काल्पनिक है।

ठीक इसी सिद्धांत को लगाकर के तुम कहते हो, ये चाँद-तारे भी तो चल रहे हैं, तो इनको चलाने वाला कोई होगा, कोई होगा। जैसे आपने कहा कि दिल की धड़कन चलती है तो हम कहते हैं, "मैं चला रहा हूँ।" जबकि चला आप नहीं रहे हो, नहीं चला रहे।

उसी तरह से चाँद-तारे भी चलते हैं — तो आप कहते हो, "वो भी चल रहे हैं, तो कोई चला रहा होगा।" दिल की धड़कन का कर्ता आप बना लेते हो अहंकार को और चाँद-तारों को चलाने वाला आप बना देते हो ईश्वर को।

सुभाष चंद्रा: उसको ईश्वर का नाम दे देते हैं।

आचार्य प्रशांत: और श्री कृष्ण कह रहे हैं, दोनों ही स्थितियों में चलाने वाला कोई नहीं है। प्रकृति स्वयं अपनी संचालिका है, अब अगर आपको प्रकृति को ही ईश्वर का नाम देना है, फिर ठीक है। अगर आपको ये कहना है कि प्रकृति ही ईश्वर है, तो फिर ठीक है। लेकिन ये ना कहिए कि प्रकृति का संचालक या रचयिता कोई ईश्वर है।

सुभाष चंद्रा: अच्छा, ये कोई नहीं, ये मिथ्या है।

आचार्य प्रशांत: प्रकृति अपने आप में ईश्वर है — यहाँ तक ठीक है।

सुभाष चंद्रा: आचार्य जी, फिर एक बात और मुझे ध्यान में आती है। आज हम जब भी बात करते हैं, चाहे वेस्ट में जाएँ, चाहे भारत में भी, एक किसी के विषय में — मान लीजिए, मैं बहुत सी बातें — श्मशान में जाते हैं किसी के मरने पर, तो बड़ी चीज़ें सीखने को मिलती हैं। आपस में लोग चर्चा करते हैं, "कोई अच्छा व्यक्ति था, चला गया।" बहुत ज़्यादा लोग होंगे, तो आप समझेंगे कि लोकप्रिय व्यक्ति था — इसके मय्यत में बहुत से लोग आए। लोग बात करते हैं, “ही वाज़ अ गॉड-फियरिंग मैन” — ये जो आपने अभी बात की, मैं उससे इसको जोड़ के देख रहा हूँ और आपसे प्रश्न पूछ रहा हूँ — क्या केवल मनुष्य मात्र, मनुष्य जाति, ईश्वर को इसलिए तो नहीं मान रही है कि उनको डर लगता है ईश्वर नाम की किसी चीज़ से, कि "मेरे साथ बुरा जो कहीं ना हो जाए?” इसलिए क्या वो पूजा, याचना, अर्चना सब करता है? क्योंकि मैं समझता हूँ कि यदि लोग आपकी बातें, ज्ञान सीख करके, गॉड-लविंग हो जाएँ — गॉड-फियरिंग जगह — तो शायद ज़्यादा अच्छा होगा, क्या आप क्या दिशा देंगे?

आचार्य प्रशांत: देखिए, भय बहुत प्राकृतिक परिणाम होता है अज्ञान का। जिस चीज़ को आप नहीं जानते, उससे डरना एकदम लाज़मी है, प्राकृतिक बात है। डर लगेगा ही लगेगा, जहाँ अज्ञान है, वहाँ डर है। आपको पता तो है कि आप जानते नहीं, लेकिन आप अपने अज्ञान के ऊपर यूँही किसी काल्पनिक सिद्धांत का मुखौटा लगा दो, कपड़ा पहना दो — इससे आपका अज्ञान हट तो गया नहीं, अज्ञान तो है ही।

सुभाष चंद्रा: हम दिखाना चाहते हैं कि मैं ज्ञानी हूँ।

आचार्य प्रशांत: स्वयं को ही दिखाना चाहते हैं लेकिन आप जानते तो हो ही कि आप कुछ नहीं जानते — तो डर लगा ही रहता है। चूँकि हम जीवन को, जीव को और जगत को समझते ही नहीं हैं, इसलिए फिर हमको तमाम तरह की कल्पनाएँ करनी पड़ती हैं, हम कितनी भी कल्पनाएँ कर लें, डर लगा ही रहेगा।

वहाँ से फिर वो बात आती है — गॉड-फियरिंग। इस पर संतों, ज्ञानियों ने एक बड़ी रोचक बात कही है। वो कहते हैं, "डरना तो तुम्हें चाहिए, इस बात से डरो कि कहीं अज्ञानी रहते हुए ही, बंधन में रहते हुए ही जन्म न गवाँ दो।" इसलिए डरो कि जैसे पैदा हुए थे, कहीं वैसे ही ना मर जाओ। पैदा तो तुम पशु की भांति ही हुए थे और वहीं पशु की भांति मर ही ना जाओ — इस बात से तुम डरो।

सुभाष चंद्रा: जी, ये बड़ी अच्छी बात है।

आचार्य प्रशांत: हाँ, तो संत कबीर उदाहरण के लिए कहते हैं, "भय पारस है, जीव को निर्भय होए ना कोए।" वो कहते हैं, भय बड़ी अच्छी चीज़ है और निर्भय किसी को नहीं होना चाहिए। लेकिन वो सही भय होना चाहिए, वो भय ये नहीं होना चाहिए कि "कहीं मेरी चोरी पकड़ी तो नहीं जाएगी", वो भय ये होना चाहिए कि "कहीं मैं चोर बने-बने मर ना जाऊँ।" ये दो अलग-अलग भय हैं, लेकिन एक-दूसरे के विपरीत हैं।

एक भय ये है कि, "चोर तो मैं बना ही रहूँगा, मेरी नीयत ही खराब है और मुझे भय ये लगता है कि कोई मेरी चोरी पकड़ न ले।" और दूसरा भय ये है कि, "एक जन्म मिला हुआ है, और इस जन्म को क्या चोर बने-बने ही गवाँ देना है?"

तो संतों ने आग्रह करा है कि तुम में सही भय पैदा हो — सही भय। हमारा उल्टा खेल है — जो भय हमें लगना चाहिए, वो हमें लगता नहीं और जो भय व्यर्थ का है, उसको हम पाले रहते हैं, उससे दबे रहते हैं।

सुभाष चंद्रा: तो इसीलिए, आचार्य जी — ये भी कहेंगे क्या कि ब्रह्म, ईश्वर और देवता — ये तीनों अलग-अलग शब्द हम इस्तेमाल करते हैं, तो क्या तीनों एक ही हैं या अलग-अलग रूप से भिन्न हैं?

आचार्य प्रशांत: देखिए, मन के पार, मन के ना रहने पर, मन की कल्पनाओं से अतीत, कहीं आगे जो एकमात्र सत्य है, उसको 'ब्रह्म' कहते हैं, वो एकमात्र सत्य है। ईश्वर की परिकल्पना की गई है प्रकृति के रचयिता और संचालक के रूप में, जिसकी अभी चर्चा हुई थी। ब्रह्म, प्रकृति के पार का है, प्रकृति से परे जो है, उसे ब्रह्म कहते हैं।

तो जहाँ ब्रह्म आता है, वहाँ पर ये बात साथ में आई जाती है कि — प्रकृति ही मिथ्या है। प्रकृति के लिए ही दूसरा जो नाम है वैदिक, वो है 'माया'। तो यदि प्रकृति माने ये पूरा संसार ही माया है, तो इसको रचने वाला असली कैसे हो सकता है?

तो अगर आप अद्वैत वेदांत में जाएँगे, तो वहाँ पर आचार्य शंकर सीधे यही बोल के गए। वो बोल के गए हैं कि ब्रह्म पर जब माया आरोपित हो जाती है, तो इसको 'ईश्वर' कहते हैं। तो माने, जीव को आराधना भी करनी चाहिए, तो ब्रह्म की। लेकिन लोग ईश्वर की आराधना करना शुरू कर देते हैं। ठीक है, कोई बात नहीं, ईश्वर की आराधना शुरू कर के फिर ब्रह्म आराधना तक जाया जा सकता है, तो ठीक है।

तो ईश्वर माने — जिसका संबंध प्रकृति से है, ब्रह्म माने — वो जो प्रकृति से कहीं आगे का है। और देवी-देवता सब कौन हैं? वो प्राकृतिक शक्तियों के प्रतिनिधि हैं।

व्यक्ति रूप में प्राकृतिक शक्तियों के जो प्रतिनिधि हैं, वो सब देवी-देवता हो गए। और कई बार प्रकृति की शक्ति को ही देवी के रूप में अभिव्यक्त कर दिया जाता है, समूची प्रकृति को ही देवी कह दिया जाता है।

सुभाष चंद्रा: तो क्या ये कहें, आचार्य जी, कि जैसे वनस्पति देवता, वर्षा के देवता को इंद्र कह दिया।

आचार्य प्रशांत: ये जो आप बोल रहे हैं, ये ऋग्वैदिक सिद्धांत है, ऋग्वेद में ऐसा ही था। वहाँ पर जो आपके पूज्य थे, वे व्यक्तियों के रूप में नहीं थे। जब आप पुराणों पर आते हैं, और पुराण बहुत बाद के हैं, तो पुराणों में आप पाते हैं कि जिनको पूजा जा रहा है, वो सब व्यक्ति — उन्होंने जन्म लिया है और उनकी मनुष्य रूप में आगे एक कथा है।

वेदों में जब कि आप जाते हैं, जब खासकर जहाँ आरंभ भी हो रहा है ऋग्वेद में, तो वहाँ पर जो प्रकृति की शक्तियाँ हैं, उनका पूजन हो रहा है। अग्नि का पूजन है, सूर्य, इंद्र का, मित्र का — इनका पूजन हो रहा है।

सुभाष चंद्रा: ये एक उसका प्रारंभिक प्रारूप है। तो ये जो हमारा स्वभाव बन गया कि ईश्वर की आराधना, पूजन करना — बजाय इसके कि ब्रह्म की हम आराधना करें — ये आपने कहा ठीक, कि चलो, ईश्वर की करो, उससे फिर ब्रह्म तक जाया जा सकता है।

तो हम अपने स्वभाव को किस प्रकार से सही रूप से पहचानें? क्या ये कोई विधि है अपने स्वभाव को ठीक से पहचानने की?

आचार्य प्रशांत: स्वयं को देख करके ही। हमारे ही भीतर आदतें हैं एक ज़मीनी शब्द ले रहा हूँ अब मैं उसको वृत्ति भी बोल सकता हूँ, पर शायद सब लोग न समझें तो आदत। तो हमारे भीतर बहुत गहरी आदतें हैं, और हमारे ही भीतर आदतों को तोड़ कर के किसी और लक्ष्य के प्रति प्रेम भी है।

तो ये हमें अपने आपको देख के पहचानना पड़ेगा — अपने ही विचारों को, कर्मों को, भावों को, प्रतिक्रियाओं को देख कर के — कि कहाँ मेरी आदतों का खेल चल रहा है और कहाँ वास्तव में मेरे पास बोध है, प्रेम है, और स्पष्टता है कि मुझे किस दिशा में जाना है।

तो स्वभाव तभी पता चल सकता है जब पहले आदतों का हम नकार कर पाएँ।

सुभाष चंद्रा: नकार कर पाएँ या उनका विश्लेषण कर पाएँ।

आचार्य प्रशांत: नहीं तो क्या होगा, जो कि आमतौर पर होता है सबके साथ — आप अपनी आदत को ही अपना स्वभाव बोल देते हो।

सुभाष चंद्रा: हाँ, यही आम बात आज के युग में यही है कि उसी को ही स्वभाव कहते हैं।

आचार्य प्रशांत: उदाहरण के लिए अगर कोई जल्दी-जल्दी गुस्सा करता है, तो हम कह देते हैं कि वो क्रोधी स्वभाव का है। ये बिल्कुल गलत व्याकरण है। ये बात आध्यात्मिक तौर पर बिल्कुल गलत है। अगर आप कहें कि कोई क्रोधी स्वभाव का है, किसी को कहें प्रेमी स्वभाव — ये बिल्कुल गलत बात है, ऐसे नहीं बोला जाता। पर हमारी भाषा, हमारी संस्कृति ऐसी हो गई है — वो अध्यात्म से बहुत दूर छिटक गई है, बहुत दूर छिटक गई है और वो चीज़ फिर हमारी बोलचाल में भी परिलक्षित होती है।

तो कोई क्रोधी है — ये बात उसकी प्रकृति की है, उसकी आदत की है, या उसके ऊपर जो प्रभाव पड़ गए समाज से — उसकी है, ये उसकी आदत है। स्वभाव बिल्कुल दूसरी चीज़ है। स्वभाव क्या है — इस पर कुछ अगर हम प्रश्न ले लेंगे, तो उसे स्पष्ट हो जाएगा।

जैसे कोई झूठा हो सकता है, एकदम झूठा आदमी — वो सबसे झूठ बोलता है, दुनिया में।

सुभाष चंद्रा: उनकी आदत बन चुकी है।

आचार्य प्रशांत: बहुत बढ़िया, तो कोई बहुत झूठा आदमी है — वो दुनिया भर से झूठ बोलता फिरता है। लेकिन वो भी ये नहीं पसंद करेगा कि उससे झूठ बोला जाए।

सुभाष चंद्रा: हाँ, दूसरा कोई उससे झूठ ना बोले — ये वो कहेगा।

आचार्य प्रशांत: और ये बात दुनिया के एक-एक इंसान पर लागू होती है। कोई नहीं चाहता कि उससे झूठ बोला जाए बार-बार, तो इससे हमें हमारे स्वभाव के बारे में थोड़ा इशारा मिलता है। ज़रूर — हमारे स्वभाव का संबंध झूठ से नहीं है।

एक और उदाहरण: कोई भी आदमी हो — दुनिया का छोटा, बड़ा, काला, गोरा, स्त्री, पुरुष, अमीर, गरीब — कैसा भी हो, वो ये पसंद नहीं करेगा कि उसको बेड़ियों में जकड़ के, बंधन में रखा जाए। यहाँ तक कि पशु भी नहीं पसंद करते। नहीं पसंद करते। ज़रूर हमारे स्वभाव का संबंध बंधन से नहीं है। बिल्कुल — बंधन के विपरीत — मुक्ति से है।

हम आप बात कर रहे हैं — मैं भी ये चाहूँगा कि आपकी बात मुझे समझ में आए और आप भी चाहेंगे कि मेरी बात आपको समझ में आए। अगर आप जो बोल रहे हैं, मुझे समझ में ही नहीं आ रहा — तो मुझे ऊखभीख होगी, छटपटाहट होगी। मैं भी जो बोल रहा हूँ, आपको समझ में नहीं आ रहा — तो या तो आप ऊब जाओगे, या भ्रमित हो जाओगे, जैसा भी होगा, आपको अच्छा अनुभव नहीं होगा। हम समझना चाहते हैं, हमें पसंद नहीं आता अगर हमें सब चीजें समझ में नहीं आ रही।

ज़रूर — हमारे स्वभाव का संबंध बोध से है।

अगली बात: दुनिया में कोई आदमी पसंद नहीं करता कि उससे घृणा की जाए। कोई उसे अपशब्द बोले, कटु बोले, नफ़रत करे — कोई भी नहीं। यहाँ तक कि जानवर भी पसंद नहीं करते कि आप उन्हें दुत्कार दो। हर व्यक्ति प्रेम का प्यासा है, ज़रूर — हमारे स्वभाव का संबंध प्रेम से है। और ये बात आज की ही नहीं है — किसी एक देश की, किसी जगह की — ये तो काल के आरंभ से ऐसा ही चल रहा है। हर परिस्थिति में यही है।

ये तो जैसे एक नियम है — कि हर आदमी सच्चाई की तलाश में है, हर आदमी मुक्ति की तलाश में है, हर आदमी प्रेम की तलाश में है। ये स्वभाव है हमारा।

तो इसीलिए जानने वालों ने कहा: 'सच्चिदानंद'।

कोई भी व्यक्ति दुख तो पसंद नहीं करता ना? कोई नहीं मिलेगा आपको जो कहे: 'मुझे दुख दो।' आनंद चाहिए हमको, हमें सत्य चाहिए, हमें बोध चाहिए — सत्-चित्-आनंद, और हमें आनंद चाहिए — ये स्वभाव है हमारा। बाकी सब आदतें हैं उन्हें स्वभाव नहीं बोला जाना चाहिए।

सुभाष चंद्रा: तो ये कहेंगे कि जो चीज़ हमें चाहिए, जो अपेक्षा हम करते हैं, वही हमारा स्वभाव है?

आचार्य प्रशांत: वही हमारा स्वभाव है।

सुभाष चंद्रा: आदत और स्वभाव में पूरा अंतर है आपने बहुत अच्छे रूप से बताया।

तो, आचार्य जी, क्या धर्म के भी कई प्रकार होते हैं? जैसे स्वभाव और आदत में फर्क रहा, ब्रह्म और ईश्वर में फर्क हुआ — और भी कई आज जो चर्चाएँ की, उनमें अंतर जो हमें समझ में आने लगा — तो क्या धर्म के भी कई प्रकार होते हैं?

आचार्य प्रशांत: देखिए, स्थितियाँ बदलती रहें। मैं कभी छोटा था — बेचैन तो मैं तब भी था। मैं आज इस उम्र का हो गया हूँ, मैं कल को और होऊँगा — मैं बेचैन तो तब भी हूँ। तो बहुत सारी चीज़ें बदलती रहती हैं, पर मानव-मन की व्याकुलता तो नहीं बदलती ना? वो तो वैसी की वैसी है। व्याकुल होने की वजह बदल जाती है।

कल मैं इसलिए परेशान था कि मैं बहुत छोटा था, तो मुझे लगता था सब मुझ पर रौब झाड़ते हैं। आज मैं इसलिए परेशान हूँ कि मैं बड़ा हूँ — मुझे लग रहा है सबकी ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर आ गई है। परेशान होने की वजह बदल गई — परेशान तो मैं तब भी हूँ, परेशान तो अब भी हूँ।

तो जब बीमारी एक ही बनी हुई है — तो धर्म भी तो एक ही है। उस बीमारी के कारण अलग-अलग हैं, वो बीमारी अलग-अलग लोगों में अलग-अलग लक्षण लेकर प्रस्तुत होती है लेकिन मूल बीमारी तो एक ही है। तो धर्म भी एक ही है। जीवन की कोई भी परिस्थिति हो — धर्म तो एक ही है:

अशांत मन को शांति की ओर ले जाना — मात्र यही धर्म है।

पचास धर्म नहीं होते। पचास मान्यताएँ होती हैं — मान्यताएँ, धारणाएँ, कल्पनाएँ, पचास प्रकार के आग्रह होते हैं, धर्म तो एक ही होता है। क्योंकि मन की मूल दशा एक ही है और क्या है वो मन की मूल दशा — व्यग्रता, बेचैनी, अज्ञान, अंधकार। तो — 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' — यही धर्म है, यही प्रार्थना है।

सुभाष चंद्रा: यही ये आपने समझा दोस्तों। आज आचार्य जी ने एक बहुत बड़ी, एक जो हमारी अज्ञानता है, उसके बारे में बताया कि धर्म केवल एक ही है, और वो है अपने अज्ञानता को ज्ञान की तरफ़ जाने का। तो ये इस चर्चा को फिर भी आगे चालू रखेंगे, आरंभ किया है। आपके कोई प्रश्न हो तो पूछे। आचार्य प्रशांत जी के भी अपना एक चैनल है यू-ट्यूब इत्यादि पर। उनकी अपनी ऐप है, उस पर भी आप उनकी धर्म चर्चा को सुन सकते हैं, उसको देख सकते हैं, उससे ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। आज के लिए केवल इतना ही, जल्दी फिर मिलेंगे। धन्यवाद, नमस्कार।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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