वक्ता: मन से जो भी उठेगा वो अतीत से ही आयेगा। तुमने लक्ष्य बना रखा है आलू खरीदने का। तुम किसी स्टोर पर जाते हो जहाँ सब कुछ मिल रहा है, पर तुम सवाल क्या करते हो? ‘आलू कितने के हैं? आलू का काउंटर कहाँ है?’ तो सवाल क्या हुआ?
श्रोता: जो सोचा था वही सवाल किया।
वक्ता: और वो सोच कहाँ से आ रही है? अतीत से। तुम कभी ये मत सोच लेना कि तुम्हारा सवाल तुम्हें कोई नया उत्तर दे देता है क्योंकि जो सवाल तुमने पूछा है जैसे कि ‘आलू कहाँ है?’, तो तुम्हें उत्तर भी कैसा मिलेगा? आलू से सम्बंधित।
तो सवाल क्या है? सवाल अतीत से आती हुई मन की जिज्ञासा है। *सवाल कोई बहुत कीमती होते नहीं*, तुम्हारा समझना कीमती होता है।
ये सवाल तो बेहुदे ही हैं, सवाल की दो कौड़ी की कीमत नहीं है, पर हाँ, जो मैं कह रहा हूँ, तुम समझ रहे हो, वो समझोगे, तो उसकी बहुत कीमत है। नहीं तो ये सवाल – ‘जिन्न क्या है? भूत क्या है? भलाई क्या होती है?’- ये सवाल कोई सवाल है? इनमें क्या रखा है?
कीमत सवाल की नहीं होती। कीमत किसकी होती है? फूल को देखते हो तो सवाल नहीं उठता मन में, फूल के साथ एक समीपता आती है, एक प्यार भरा रिश्ता आता है। और वो महामूर्ख होगा जो फूल से सवाल करेगा। ‘कितने पत्ते हैं तेरे? तू चीज़ क्या है? तुझे बोला किसने कि गुलाब ही बन? तू कमल क्यों है?’। (ठहाके)
हम ऐसे ही हैं। हम सोचते हैं कि सवाल में बड़ी कीमत है। सुबह उठो और सूरज को देखो, तो उससे पूछेगा क्या, ‘तू आज फिर क्यों उग आया? सवाल कम करो, समझो ज्यादा। बल्कि कई बार सवाल समझ का दुश्मन बन जाता है। हमारे अधिकांश सवाल ऐसे ही होते हैं जो समझ के दुश्मन बन जाते हैं।
अगर तुम वास्तव में ऐसे हो जाओ कि सारे सवाल ख़त्म हो गए तो ठीक उसी वक्त ये संवाद भी ख़त्म हो जाएगा। आज का ही नहीं, भविष्य के भी तुम्हारे सभी संवाद ख़त्म कर दिए जाएँ। पर तुम ऐसे हो नहीं कि तुम्हारे सारे सवाल ख़त्म हो जाएँ। तुम मुझसे भले ही बोल दो कि तुम्हारे सवाल ख़त्म हो गए, पर मन में तुम्हारे सवाल उठ रहे होंगे। तुम्हारे सवाल अगर वास्तव में ख़त्म हो जाएँ, तो फिर तो सब कुछ हो गया। पर ख़त्म हुए कहाँ हैं?
ये बात आखिरी होती है कि कोई सवाल है ही नहीं। अगर ये बात तुम्हें मिल ही जाए, तो इससे अच्छा तो कुछ है ही नहीं।
– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।