सौ चीज़ हैं जवानी की, पर वो चीज़ नहीं || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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सौ चीज़ हैं जवानी की, पर वो चीज़ नहीं || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आज के युवा के पास ख़ुद को समय की धारा में व्यस्त रखने के लिए हर तरह के साधन सतत् मौजूद हैं। सबसे बड़ा साधन तो मोबाइल फ़ोन है, जिसमें इंटरनेट की सुविधा है। आप यात्रा कर रहे हो या कहीं बैठे हो, बिस्तर पर हो या दफ़्तर में हो, हर जगह ये इंटरनेट ऐसी चीज़ है जो आपको व्यस्त रख ही देती है। लोग हैं, दोस्त हैं, पर फिर भी मुझ युवा को इतना अकेलापन क्यों महसूस होता है? जब चारों तरफ़ इतने साधन व्यस्त रखने के लिए मौजूद हैं, तब भी हमेशा अकेला क्यों महसूस करता हूँ?

आचार्य प्रशांत: मेरे सामने ये मेज़ रखी है, मेरी बायीं तरफ़ ये दीवार है, ये दूसरा फर्नीचर है, बिजली का लैंप है, और मेरी दायीं तरफ़ ये स्विचबोर्ड है, मेरे पीछे ये पर्दा है। और मुझे चाहिए क्या है? पानी।

प्रश्नकर्ता कह रहे हैं, ‘चारों तरफ़ व्यस्तता के, मन बहलाव के साधन मौजूद हैं, चारों तरफ़ बहुत लोग मौजूद हैं, खूब भीड़ है। और अगर लोग न मौजूद हों तो मोबाइल फ़ोन है, इंटरनेट है, वर्चुअल (आभासी) तरीक़े से लोगों से जुड़ा जा सकता है, सम्बन्धित हुआ जा सकता है। चारों तरफ़ बहुत कुछ है जो उपलब्ध है जुड़ने के लिए, मिलने-जुलने के लिए, व्यस्त रहने के लिए, फिर भी अकेलापन बहुत लगता है।‘ ये प्रश्न है। ‘चारों तरफ़ इतना कुछ है, रीयल वर्ल्ड (असली दुनिया) में भी, वर्चुअल वर्ल्ड (आभासी दुनिया) में भी, फिर भी सूनापन काटता है।‘

तो मैं पूछ रहा हूँ, ‘मेरे सामने ये मेज़ है, बायीं तरफ़ दीवार है, दायीं तरफ़ स्विचबोर्ड है, पीछे काला पर्दा है। इतना कुछ है मेरे पास, मेरी प्यास क्यों नहीं बुझ रही?’ जवाब दो! इतना कुछ है, मैं प्यासा हूँ, मेरी प्यास क्यों नहीं बुझ रही? मेज़ है, इतनी बड़ी मेज़ है, बाप रे बाप! वो दीवार है, इधर भी बहुत कुछ है, पीछे इतना चौड़ा पर्दा है। मेरी प्यास क्यों नहीं बुझ रही? मेरी प्यास क्यों नहीं बुझ रही?

और अगर मुझे प्यास बुझानी है और मैं मेज़ पकड़कर बैठा हूँ, या दीवार से गले मिल रहा हूँ, या खंभे पर चल रहा हूँ, या पर्दे को अपने चारों ओर लपेट रहा हूँ, या स्विचबोर्ड में उँगली दे रहा हूँ, तो ये मैं अपनी प्यास बुझाने का इंतज़ाम कर रहा हूँ या बढ़ाने का? और उस पर तुर्रा ये, कि मैं कह रहा हूँ कि प्यास क्यों नहीं बुझ रही, मैंने पूरी उँगली तो दे दी है स्विचबोर्ड में!

अब बेटा, ऐसा करो, स्विच ऑन भी कर दो, न रहेगा गला, न बचेगी प्यास!

अपनेआप को लोगों से या चीज़ों से या विचारों से घेर लेना ही काफ़ी है क्या? या ये पूछना ज़रूरी है कि ये सबकुछ जिससे मैं घिरा हुआ हूँ, मेरे किसी काम का भी है या नहीं? घिरे तो खूब हुए हो, पर प्यासे को घेर रहे हो भूसे से, भूसा खा-खाकर अपनी प्यास बुझाएगा? या प्यासे को दे रहे हो शराब। वो पी भी लेगा शराब तो प्यास और बढ़ेगी, कम तो नहीं होगी।

अब आगे मैं जो कुछ बोलूँगा, जितना अभी तक बोला, बस उसका विस्तार होगा, समझने वाले के लिए ये पाँच मिनट बहुत थे।

हर चीज़ जो तुम्हारा समय घेरकर बैठी है, उससे पूछो, ‘तू मुझे वो दे सकती है क्या जो मुझे चाहिए? नहीं दे सकती तो तू मेरा समय क्यों घेरती है, तू मेरी ज़िंदगी पर काहे कुंडली मारकर बैठ गयी है? तू इतना समय खाती है मेरा, उससे मुझे मिलता क्या है? न सिर्फ़ तुझसे मुझे कुछ मिलता नहीं, बल्कि तूने वो क़ीमती समय घेर लिया मेरा जो समय किसी सार्थक प्रयोजन में जा सकता था। जा सकता था न? और उस समय को तू ले गयी।‘

पता भी नहीं चलता, समय तो ऐसे बीतता है। रेत फिर भी अगर उँगलियों के बीच से फिसले, तो थोड़ा सा तो एहसास होता है न, कि हाथ से कुछ फिसल रहा है। जब समय बीतता है तो लेशमात्र भी एहसास नहीं होता कि कुछ फिसल गया, उँगलियों के बीच से कुछ निकल गया, लौटेगा नहीं वो। गिरी हुई रेत तो दोबारा भी उठा सकते हो, बीता हुआ समय नहीं लौटा सकते। संसार का काम है तुम्हारा समय खाना, संसार का कुल काम इतना है। वो तुम्हारा समय खा जाएगा और दोष भी अपने ऊपर नहीं लेगा कि उसने समय खाया, वो कहेगा, ‘तुम ही तो आए थे हमारे पास!’

और बात सही है। मोबाइल तो नहीं उठकर के तुम्हारे हाथ में आ जाता, न स्क्रीन तुम्हारी आँखों के सामने आ जाती है। तुम जाते हो न, अपने हाथों से मोबाइल को उठाने, इंटरनेट उसमें चालू करते हो, फिर अपने पसंद की ऐप (अनुप्रयोग) दबाते हो, ये सब करते हो। ये संसार का काम है। वो बिलकुल घातक नहीं है, बस वो एक छोटा सा काम करता है, तुम्हारी ज़िंदगी खा जाता है; अब इसको तुम छोटा नुकसान मान लो चाहे बड़ा।

कोई आकर तुम्हें छूरा मार दे तो तुम कहते हो, ‘हाय-हाय! इसने मेरी जान ले ली, इसको जेल में डालो, इसे फाँसी की सज़ा दो।’ है न? और ये जो संसार है पूरा, ये तुम्हारी जान तो नहीं लेता, पर ज़िंदगी ले लेता है, कोई नहीं कहता कि इसको सज़ा दो। सज़ा क्या देनी है, हम तो आशिक हैं उसके, हम तो मुरीद हैं उसके, हम तो कायल हैं उसके, फ़ैन (प्रशंसक) हैं उसके, हम तो भिखारी हैं उसके सामने - 'कुछ दे दे, कुछ दे दे।' वो देता तो कुछ नहीं है, तुमसे वो ले लेता है जो एकमात्र चीज़ तुम्हारे पास थी - समय, जीवन, ज़िंदगी; वो ले जाता है और नहीं पता चलता।

किसी आदमी की, जिसकी उम्र थोड़ी बढ़ गयी हो, उससे पूछो, ‘किया क्या?’ हैरत में पड़ जाओगे, वो बता नहीं पाएगा कि किया क्या। और ये तो बात सिर्फ़ हैरत की थी, अब खौफ़नाक बात बताता हूँ। बहुत लोगों से जाकर के रात में पूछो, ‘दिनभर किया क्या?' वो दिनभर का भी कुछ हिसाब नहीं दे पाएँगे कि किया क्या; ऐसे बीतता है समय। लेकिन जब समय बीत रहा था तब यही लग रहा था कि कुछ नहीं हो रहा है, कुछ लग ही नहीं रहा था। ‘सब ठीक है, सामान्य है, ऑलराइट (ठीक), नॉर्मल (सामान्य)।‘

प्यासे को कुछ ना मिलता हो प्यास बुझाने को, सम्भव है कि उसकी जान बच जाए। क्योंकि अगर उसे कुछ नहीं मिला है, कोई विकल्प नहीं मिला है, कोई बहाना, कोई सांत्वना नहीं मिली है, तो वो ज़ोर लगाकर तलाशेगा क्योंकि उसे कुछ भी मिला नहीं है। लेकिन अगर प्यासे को तुम बहुत सारे झूठे विकल्प दे दो, तो अब तो उसका तबाह होना, बर्बाद होना, ख़त्म होना निश्चित है। वो उलझा रहेगा उन्हीं विकल्पों में, और उसे अगर किसी तरह ये पता भी चला कि इन विकल्पों से उसकी प्यास नहीं बुझ रही है, तब तक बहुत समय खो चुका होगा, मामला और गंभीर हो चुका होगा।

अब अगली बात समझना - भूलों-में-भूल। तुमने कहा, ‘चारों तरफ़ से हमें संसार घेरे हुए है, चारों तरफ़ हमें बहुत सारे विकल्प दिखाई देते हैं जिनके साथ जुड़ा जा सकता है, जिनके साथ रिश्ते बनाए जा सकते हैं और समय गुज़ारा जा सकता है।‘

तो ये चारों तरफ़ हैं मौजूद विकल्प, बहुत सारे। इतना तो होता है कभी-कभार इंसान के साथ कि उसे ये समझ में आ जाए कि मेज़ खाकर प्यास नहीं बुझती। सामने मेरे क्या है? मेज़। इतना तो फिर भी होता है कभी-कभी कि हमें ये बात कौंध जाती है कि काठ खाकर प्यास नहीं बुझती। लेकिन जब हमें समझ में आता है न, कि सामने जो है वो प्यास नहीं बुझा सकता हमारी, तो फिर हम बायीं तरफ़ आस जोड़ लेते हैं, फिर हम आशा बाँध लेते हैं बायीं तरफ़ वाले से।

‘अच्छा, मेज़ से धोखा मिल गया। देखा मैं कितना होशियार हूँ, मैंने पकड़ लिया कि मेज़ से प्यास नहीं बुझ सकती।‘ तो अब मैं क्या करूँगा? मैं जाऊँगा और अपना समय देने लगूँगा बायीं तरफ़ वाले को। अब वहाँ पर जो कुछ भी सामग्री है, अब मैं उससे उलझूँगा, कि अभी-अभी तो मैं पता करके आया हूँ न, कि मेज़ से प्यास नहीं बुझती, तो मैंने ये नया तरीक़ा निकाला है, अब यहाँ बुझेगी, देखना। ‘देखो मैं कितना होशियार हूँ! अभी-अभी एक धोखा हो रहा था, उस धोखे से बचकर आया हूँ, चूँकि मैं होशियार हूँ इसीलिए अब मैं जहाँ पर उम्मीद रख रहा हूँ उस जगह पर मेरी उम्मीद ज़रूर पूरी होगी।‘

और फिर अगर वहाँ भी चोट मिली, तो फिर मैं कहूँगा, ‘अब ज़रा पर्दे से आशा रखते हैं।‘ कहेंगे, ‘ये मुलायम है। ये मेज़ और दीवार, ये सब तो बड़े सख़्त थे, इसलिए मेरी प्यास नहीं बुझती थी। ये पर्दा कैसा झीना और मुलायम है, इस बार तो मैं सफ़ल होकर रहूँगा। साहब हमने यूँही नहीं बाल सफ़ेद करे हैं, दर-दर की ठोकरें खायीं हैं, पचास जगह जेब कटवायी है, तो हम भलीभाँति जानते हैं कटवाने का मतलब। इस बार तो सफलता हमारी है।‘

ठीक है भाई, तुम पर्दे के साथ कोशिश कर लो प्यास बुझाने की।

पर्दे से भी नहीं हुआ, तो बोले, ‘अरे! अब समझ में आयी है ग़लती क्या हो रही थी, ये सब ज़रा पुराने समय की चीज़ें हैं न! लकड़ी की चीज़, ये लकड़ी तो आदमी दो हज़ार साल से इस्तेमाल कर रहा है। और ये दीवार, ये सीमेंट वगैरह भी हज़ार साल पुरानी चीज़ें हो गईं। और ये कपड़ा, कपड़ा भी आदमी जितना ही पुराना है। इस बार हम ज़रा मॉडर्न (आधुनिक), टेक्निकल (तकनीकी) तरीक़ा लगाएँगे प्यास बुझाने का, ये स्विचबोर्ड, इससे बुझेगी प्यास।'

तो बदल-बदल के, तरीक़े-तरीक़े से हम कोशिश करते रहते हैं, एक निराशा मिलती भी है तो दूसरी तरफ़ आशा बाँध लेते हैं। हम निराश होते भी हैं तो संसार के किसी एक पक्ष से निराश होते हैं, संसार-मात्र से निराश नहीं होते। अगर हमें चार लोग हैं धोखा देने वाले, तो हम उनके साथ मेरी-गो-राउंड खेलते हैं। जब एक से धोखा खाएँगे तो दूसरे की शरण में जाएँगे, जब दूसरे से खाएँगे तो तीसरे की शरण में जाएँगे, फिर चौथे की; फिर चौथे से भी खा लेंगे तो फिर पहले का नंबर आ जाएगा वापस।

हम कभी ये नहीं करते कि चारों को ही उठाकर के एकसाथ बेदखल कर दें, कहें, ‘हाँ जानता हूँ कि तुम चारों एक ही परिवार के हो, तुम चारों बिलकुल एक हो। मैं एक-एक करके तुमसे धोखा खाऊँ और समय बर्बाद करूँ, इससे अच्छा है कि मैं तुम चारों को ही बाहर किये देता हूँ।’ वो हम कभी नहीं करते, हम क्रमवार धोखा खाते हैं, वो जो कहते हैं न, टर्न (पारी) लगाकर के।

‘हाँ भाई! आजकल किसकी बारी चल रही है, किसकी टर्न चल रही है तुम्हें धोखा देने की?’

‘जी आजकल हम वहाँ पर अपना बेवकूफ़ बनवा रहे हैं।‘

‘अच्छा, ठीक है।‘

छः महीने बाद कहीं और नज़र आएँगे बेवकूफ़ बनवाते। और जब एक जगह बनवा रहे होते हैं बेवकूफ़, तो बोलते हैं, ‘हमें बिलकुल पता है, बस यही सही जगह है अभी, आजकल हम जहाँ पर हैं। बाकी सब जगहों पर बहुत धोखा खाया है हमने, बाकी सब जगहें बेकार हैं। अभी तो मिला है सही आसरा, यहाँ पर तो अब सफलता मिलनी निश्चित है। और ज़ोर लगाकर बोलो - कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती!'

और कोशिश कैसी चल रही है? ऐसे ही चल रही है कि चार सामने खाली गिलास रखे हैं, पहले इससे पिया, कुछ नहीं हुआ, फिर इससे पिया, फिर कुछ नहीं हुआ, फिर इससे पिया, फिर कुछ नहीं; फिर लौटकर पहले से पिया, फिर दूसरे से, फिर..। और नारा लगा रहे हैं, ‘देखो छोड़ मत देना ममैदान, एक-न-एक दिन सफलता ज़रूर मिलेगी। एक-दो-तीन-चार, एक-दो-तीन-चार, एक-दो-तीन-चार, एक-दो-तीन-चार, सफलता मिलेगी-ही-मिलेगी।‘

अरे तुम इन्हीं चार बेवकूफ़ी भरी हरकतों को दोहराते रहोगे तो कहाँ से सफ़लता मिलेगी! न तुम नये, न तुम्हारे लक्ष्य नये, न तुम्हारी मूढ़ता नयी, न तुम्हारे तरीक़े नये, परिणाम नया कहाँ से आ जाएगा! परिणाम भी तुम पुराने ही दोहराते रहोगे।

हिम्मतवर आदमी चाहिए, जो कहे एक बार में कि माया के एक पक्ष से नहीं, माया से ही जीत हासिल करनी है; ये नहीं कि एक गेंद पर छक्का मारा और अगली पर बोल्ड । और छक्का मारने के बाद आउट होने की अक्सर वजह होती ही यही है कि पिछली गेंद पर छक्का मार दिया था, तब लगा कि अब तो हम ही धुरंधर हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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