आचार्य प्रशांत: हम ये स्वीकार करने में तो तत्पर रहते हैं कि मन बहुत जल्दी संस्कारित हो जाता है, पर हम ये भूल जाते हैं कि उसी मन का अपना स्वभाव निर्मल ही है, इसी कारण जब वो संस्कारित होता है और गंदगी इकट्ठा करता है तो कष्ट पाता है। अगर गंदगी इकट्ठा करना, कंडिशन्ड हो जाना मन की नियति ही होती, मन का स्वभाव ही होता तो मन को उसमें कष्ट क्यों होता? मन उसमें छुटकारे की कोशिश क्यों करता? क्यों लोग कहते कि मुक्ति चाहिए?
तो एक पक्ष को ही न देखें, यही न देखें कि मन पर संस्कार आ जाते हैं। नहीं, चेतना से उठने वाली कोशिश से उनको साफ़ निश्चित रूप से किया जा सकता है। उसमें बल होता है, बल इसलिए होता है क्योंकि वो चेतना, उस चेतना में जितनी ऊर्जा होती है वो मन की नहीं होती है, परम की होती है, तो इसलिए उसको हल्का आँकना भूल होगी।
हाँ, ठीक है, होंगी बौध धर्म में अस्सी हज़ार किताबें, तो क्या कहना चाहते हैं हम, अस्सी हज़ार किताबें लिखने वाले मूर्ख थे? उनको पता था कि इन किताबों से किसी की कोई मदद नहीं हो सकती, फिर भी उन्होंने किताबें लिखीं? नहीं, ऐसा तो नहीं है।
आज हम जब दोपहर में बात कर रहे थे, हमने कहा कि एक गहरा भरोसा होना चाहिए कि परम सत्ता एक ही है। वो भरोसा अगर हमको नहीं है, तो फिर हमें नियतिवादी होना पड़ेगा। भरोसा हमें अगर नहीं है तो हम इधर-उधर फटकारे खाएँगे। यदि कहा गया है कि सत्यमेव जयते, तो किसी कारणवश कहा गया है न। और हाँ, जैसा हम जीवन को जानते हैं, वो युद्धक्षेत्र ही है। आदमी का मन युद्धक्षेत्र ही है, और उस युद्धक्षेत्र में सत्य को ही जीतना है। सत्य के अतिरिक्त कोई जीत ही नहीं सकता, क्योंकि सत्य के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं जीतने के लिए।
देखिए कितनी व्यवस्थाएँ जोड़ी हैं उन्होंने। जिन्होंने जाल बुने हैं, उन्होंने आपके लिए कदम-कदम पर — और विशाल तंत्र है उनका, क्षण-भर के लिए वो आपको छोड़ते नहीं हैं, सब कुछ उनके साथ है। ताकत उनके पास है, परंपरा उनके पास है, बहुमत उनके पास है, लेकिन उसके बाद भी अध्यात्म का आकाश जगमगाता ही रहता है। अगर आप क्षेत्रफल को गिनें तो निश्चित रूप से आकाश की ओर देखिए, कालेपन का क्षेत्रफल प्रकाश की तुलना में बहुत, बहुत, बहुत ज़्यादा है, लेकिन जगमगाहट तो सितारों की ही दिख रही है न।
तमाम कालिमा के बावज़ूद बुद्ध चमक उठते हैं और हज़ार बुद्ध चमकते ही रहे हैं। व्यवस्था की पूरी कोशिश के बाद भी जीतता सत्य ही रहा है। तो उसमें हार मान लेने की, हथियार डाल देने की कोई ज़रुरत नहीं है। सत्य के अलावा कभी कोई विजय हो नहीं सकता, लेकिन सत्य अपना मालिक खुद है। वो कैसे जीतता है और किन तरीकों से जीतता है ये वो ही तय करेगा क्योंकि जो दो पक्ष लड़ रहे हैं, वो दोनों ही पक्ष सत्य के हैं, तो ये जीते या वो जीते, जीतता तो वही है।
तो आपको कभी भी यह सोचने की ज़रुरत है ही नहीं कि यदि बुद्ध ने पचास वर्षों तक कुछ बोला तो उसका प्रभाव हुआ कि नहीं। आकाश में कुछ प्रकाश फैला कि नहीं, सोचने की ज़रुरत नहीं है। फैला हो तो भी सत्य जीतता है, और नहीं फैला हो तो भी सत्य ही जीतता है, जो भी जीतता है, वही सत्य है।
मनुष्य होकर के जो हमारा धर्म है, हम उसका पालन करें। यदि एक व्यवस्था है जो पूरी ताकत से लगी हुई है आदमी को अँधा करने में, और वो मनुष्यों की ही बनाई हुई व्यवस्था है तो मनुष्य के ही हाथ में ताकत है कि वो एक दूसरी व्यवस्था भी खड़ी करे। और ये जो दूसरी व्यवस्था है, भले बहुमत इसके पास न हो, पर इसके पीछे एक दूसरी बहुत बड़ी ताकत है। यूँही नहीं कह दिया था, कि "सवा लख से एक लड़ाऊँ, और चिड़ियों से मैं बाज तुड़ाऊँ।"
होगा बहुमत समाज के पास, होंगे वो सवा-लाख, जगा हुआ एक बुद्ध काफी है, वो सवा-लाख पर भारी पड़ेगा। आसमान पूरा काला हो, बीच में एक तारा चमक रहा हो, आपकी नज़र जाकर के सितारे पर ही बैठेगी। और धर्म में हमेशा ऐसा हुआ है कि चिड़ियों ने बाज़ को तोड़ दिया है। असंभव घटनाएँ घटी हैं, जादू हुआ है। आप जादू को होने दीजिए। जिन इक्कू की बात हो रही है, उन इक्कू के माध्यम से पता नहीं कितनी ज़िंदगियों में जादू हुआ। बिलकुल हुआ, आज भी हो रहा है, अभी भी हो रहा है, ठीक अभी भी हो रहा है।
सितारे को नहीं देखना है कि अँधेरा कितना घना है, डर नहीं जाना है उसे। बल्कि गौर करिएगा कि अँधेरा जितना घना होगा सितारे की चमक उतनी ही निखर कर सामने आएगी। तो जो ज़िन्दगी का साधारण मोल-भाव है, व्यापार की जो साधारण भाषा है, उसमें मत गिन लीजिएगा, कि, "अरे, उधर तो सौ हैं और हम दो!" ये कोई बात हुई? क्या फ़र्क पड़ता है उधर सौ हैं। उधर अगर सौ की जगह एक अरब होते तो और मज़ा आता।
ये सदा की बात रही है, चाहे कबीर हों, बुद्ध हों, कृष्णमूर्ति हों। और ये खेल ऐसा ही चलता रहा है, आप इसे अपनी पूरी ताकत से खेले जाइए। कबीर ने कहा है, "साधु न चले जमात।"
साधू कब चले हैं जमात में, सच तो यह है कि उनकी इतनी संख्या ही कभी नहीं हुई है कि बड़ा कोई दल बन सके। वो अकेला ही काफी होता है। "सिंघों के नहीं लेड़े, हंसो की नहीं पात।"
जब आपके माध्यम से परम काम कर रहा होता है तब आपको अनपेक्षित जगहों से मदद मिलेगी। आप बस मन में ये भाव मत आने दीजिएगा कि सत्य हार सकता है। जिसको मैं दोपहर को कह रहा था कि परम सत्ता कोई दूसरी भी हो सकती है — ये भाव बस मन में मत आने दीजिएगा, जादू होगा।
जादू जानते हैं क्या है? कुछ नहीं में से कुछ प्रकट हो जाना जादू है। यही तो जादू होता है, जहाँ कुछ नहीं था वहाँ आ गया कुछ। जहाँ कोई संभावना नहीं थी वहाँ आ गया कुछ, यही तो जादू कहलाता है। आप अपने को अपने का सहारा दीजिए, आप अपनों को सहारा दीजिए। जो आपके माध्यम से होना चाहता है उसे रोकिए मत, उसे आगे बढ़ने दीजिए। और फिर उसमें अड़चनें आएँ, पीछे हटना पड़े, हार दिखाई दे, तो सीधे कहिए, "तेरी हार भी नहीं है तेरी हार।"
हारे बहुत आएँगी, हारी हुई ही लड़ाई है, लेकिन फिर याद रखिएगा कि, "तेरी हार भी नहीं है तेरी हार।" पटकथा ही कोई और लिख रहा है। हार भी उसकी मर्ज़ी से हो रही है, तो हार में भी जीता हुआ है। आप खेलिए। और मनुष्य होने के नाते जो धर्म है उस पर अडिग रहिए। चमत्कार होते हैं, यूँही नहीं कह गए हैं कृष्ण, 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिः भवति भारत।'
कृष्ण आते हैं, वैसे नहीं आते हैं जैसी आपकी अपेक्षा हो पर आते हैं। आप ही के माध्यम से आएँगे, हाँ आप तय ही कर लें कि नहीं आने देना है तो नहीं आएँगे।
और थोड़ा आँखें खोलिए, जब इतने जाल बुने गए हैं आपके चारों ओर तो आप भी थोड़ा बुद्धि का प्रयोग करिए। आपसे किसने कहा है कि आप शस्त्र नहीं उठा सकते? कृष्ण खड़े हैं पांडवों की ओर से, तो भी लड़ना तो पड़ रहा है न पांडवों को। ऐसा तो नहीं है कि बिना लड़े जीत गए, आपसे किसने कहा है कि आप ना लड़िए? उन्होंने अगर चक्रव्यूह रचे हैं तो आप से किसने कहा है कि आप अपनी बुद्धि का प्रयोग करके चक्रव्यूह को ना काटिए, आपसे किसने कहा है?
वहाँ तंत्र है। वहाँ तुरंत सूचनाएँ इधर से उधर पहुँच जाती हैं कि कौन फिसल रहा है और उसको तुरंत जकड़ने के लिए तंत्र सक्रिय हो उठता है। तो इस बात को तो हम तुरंत कह देते हैं, कि उधर एक पूरा तंत्र सक्रिय है जो लगातार लोगों को अपनी गिरफ्त में रखे रहता है और उस तंत्र से कोई बाहर हो रहा होता है तो तुरंत सूचना पहुँच जाती है और एक पुलिस सक्रिय हो जाती है, कि कोई छूट रहा है जेल से और उसे तुरंत वापस लेकर आओ। तो आपको किसने कह दिया कि आप एक दूसरे को सहारा नहीं दे सकते, किसने कह दिया है? देखिए अहंकार होता है जो कहता है कि, "जो करूँगा खुद ही करके दिखा दूँगा।"
वो कहानी सुनी है न कि, बाप बेटे से कह रहा है कि, "ये पत्थर उठा।" बेटा पूरी कोशिश कर रहा है, बाप कह रहा है कि, "अपनी पूरी ताकत लगा, उठ जाएगा।" उससे उठ नहीं रहा है। बाप कह रहा है, "पूरी ताकत लगाएगा तो उठ जाएगा।" नहीं उठ रहा है, वो लगा रहा है पूरा ज़ोर। अंत में बाप सहारा देता है, पत्थर उठ जाता है। बाप कहता है कि, "तेरी पूरी ताकत में ये शामिल है कि तू मेरी मदद ले, ये भी तेरी ताकत का एक हिस्सा है, कि जब मैं तेरा ही हूँ, तेरा शुभेच्छु ही हूँ तो तू सीधे-सीधे मेरे पास आकर कहे कि 'मदद करो'।"
तो हम क्यों नहीं मदद ले सकते अपने शुभेक्षुओं से? हमें किसने रोका है? ऐसा तो नहीं है कि हम बुद्धिहीन हैं। ये जो पूरी व्यवस्था है यह कैसे काम करती है हम इसे समझते तो हैं ही, ऐसा नहीं है कि हम समझते नहीं हैं। इसके दाँव-पेच से अवगत हैं हम। एक औसत आदमी जितना समझता है उस से कहीं ज़्यादा समझते हैं हम कि ये व्यवस्था कैसे अपने चंगुल में रखती है। जब इस बात को समझते हैं तो फिर दायित्व भी हमारा ही है न।
अगर पाते हैं कि अपना आपा कम पड़ता है तो बेशक आप भी सलाह माँगिए, मदद माँगिए। उसमें कोई ओछापन नहीं है। या आप यह कहना चाहते हैं कि अस्तित्व सिर्फ आपकी दुश्मनी करने के लिए खड़ा है? मदद नहीं लेंगे आप अस्तित्व से, कि, "वो तो मेरा दुश्मन है, उस से मदद कैसे लूँ"?
वो तुम्हारी मुखालफत करने आता है, तुम्हे मानने में कोई दिक्कत नहीं होती। तुम कहते हो, "हाँ, बिलकुल सही बात है, समाज सड़ा हुआ है, मुझे गिरफ्त में ले लिया है, संस्कारित कर दिया है, अँधेरा बहुत घना है", ठीक। और जो तारे चमक रहे हैं वो, वो दोस्त नहीं हैं तुम्हारे? किसने कह दिया कि उनको साथ ना लो? किसने कह दिया कि तुम उनके सहारे ना बनो और वो तुम्हारे सहारे ना बनें? बुद्ध को भी एक संघ बनाना पड़ा था, क्योंकि सम को सम का सहारा अतिआवश्यक होता है।
दो तरह के लोग होते हैं जिनकी हार पक्की होती है। एक तो वो, जो युद्ध में उतरे ही नहीं, और दूसरे वो, जो युद्ध में उतरे पर उनकी मानसिकता कैसी रहे? — महाभारत में एक चरित्र आता है, शल्य के नाम से, वो कर्ण का सारथी था, वो लगातार यही बोलता रहता था कर्ण को, कि, "तुम्हारी औकात क्या, तुम्हारी बिसात क्या, तुम हारोगे, तुम हारोगे।" और इस व्यक्ति को कर्ण ने अपने पास बैठा रखा था। सारथी है, और वो दिन-रात कर्ण के कानों में यही ज़हर डाल रहा है। अब उधर है अर्जुन जिसका सारथी है कृष्ण, और इधर है कर्ण जिसका सारथी है शल्य, बात बहुत सीधी सी है कि अब क्या होगा।
तुम्हें किसने कहा है कि अपने जीवन को शल्यों से भर दो, जो दिन-रात तुम्हें यही कह रहे हों कि तुम जीत नहीं सकते? और पागलपन है कर्ण का कि जब दिख रहा है कि सामने ऐसा सारथी है तब भी ढो रहा है। निकाल, फ़ेंक बाहर कर सकता था। इतिहास बदल सकता था, पर कहीं-न-कहीं कर्ण ने ठान रखा था कि हारना है। जिन्होंने महाभारत को सूक्ष्मता से पढ़ा है वो जानते होंगे कि कर्ण चाहता ही था कि हार जाऊ।
वैसे मत हो जाइए। देखिए इनमें लाख ताकत होगी, पर ये किसी गिनती के नहीं हैं। ये जन्मते हैं, कीड़े-मकौड़ों की तरह और मर जाते हैं। होंगे बहुमत में, होंगी बड़ी संख्याएँ, उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। इन्होंने जीवन को ही नहीं पाया है, ये जिये ही नहीं हैं। आप इनसे घबराते क्यों हो? आप घबरा सकते हो इन लोगों से? पर आप घबरा जाते हो, और कुछ नहीं बस इसलिए कि मन संख्या गिनता है, बहुत बड़ी तादात है इनकी, कीड़े-मकौड़ों की तरह लगातार, यही हैं, यही हैं, यही हैं।
देखो, फिर से आसमान की ओर देखो, कितना काला है, पर क्या फ़र्क पड़ता है। आसमान की तुलना में चाँद कुछ नहीं है, पर ध्यान से देखो कि इस वक़्त हमारे ऊपर अँधेरा नहीं है, चांदनी है। कभी किसी ने अँधेरे की प्रतीक्षा नहीं करी है, लोगों ने चाँद-सूरज की प्रतीक्षा करी है, तारों की प्रतीक्षा करी है।
ये सब मन को पीछे ढकेलने वाले ख्याल हैं कि किसी को कितना भी कह दो कुछ हो नहीं सकता, कि बुद्धों ने जो करा वो फलदायक नहीं रहा। है कबीर का, कि "न होते साधूजन तो जल मरता संसार।"
पूछा गया कि, "इतने साधू हैं, इतने संत हैं, उसके बाद भी संसार की ये दुर्दशा क्यों है?" तो उत्तर यही दिया गया था। कि, "बचा भी हुआ है तो इसी कारण बचा हुआ है क्योंकि संत हैं, न होते तो जल मरता, बिलकुल ही जल मरता।" बहुत महत्व है, कुछ ऐसा नहीं है कि तुम जो कर रहे हो, तुम जो हो, फलदायक नहीं है, बिलकुल ऐसा नहीं है।
अगर आदमी के जन्म को कुछ सार्थक बना सकता है तो वो काम है जो तुम कर रहे हो। तुम्हारा तो दिल हमेशा भरा हुआ होना चाहिए, नज़र एक क्षण को झुके ना। अस्तित्व तुम्हारे साथ है, उनके साथ थोड़े ही है। उनकी संख्या होंगी पर अस्तित्व उनके साथ नहीं है, अस्तित्व तुम्हारे साथ है।
और कोई बंदिश नहीं है तुम पर। सत्य, धर्म बंदिशें नहीं सिखाते हैं। तुम्हें भी पूरी स्वतंत्रता है बुद्धि का, विवेक का उपयोग करने की। यदि जाल है तो जाल को काटने की योग्यता तुममें होनी चाहिए। उसमें विचार का प्रयोग करो, अक्ल लगाओ, जुगत बैठाओ; भोंदू बनकर मत रहो, कि, "मैं तो ऐसा हूँ मेरे साथ ये हो गया, मैं तो सच्ची बात बोलता हूँ पर मेरी पिटाई कर दी जाती है।" कहाँ सत्यमेव जयते और कहाँ तो खड़े हो जाओ कि, "मैं तो सत्य की राह पर चल रहा हूँ और दर-दर ठोकरें ही खाता हूँ।"
एक बुद्ध-जन अस्तित्व का बेटा है, अस्तित्व की बाहों में झूमता है, उसका चेहरा निखरा हुआ होता है। वो ठोकरें नहीं खाता, वो उदास नहीं रहता, परम विश्वास होता है, उसकी आवाज़ नहीं काँपती, उसके पाँव नहीं थरथराते। जो सबसे बड़ी ताकत हो सकती है वो उसके साथ है। वो तो योद्धाओं में योद्धा होता है, वो बेचारगी की शक्ल लेकर नहीं घूमता कि, "मैं क्या करूँ? मेरे ऊपर बड़ी बंदिशें हैं, मुझे ये कहा जा रहा है, मैं तो चाहता हूँ लेकिन हो नहीं पा रहा है।"
शल्य मत बनो, तुम्हारा जो मन है वही शल्य है। तुम कर्ण हो, समाज तुम्हारे ही भीतर घुसकर बैठ गया है और लगातार बता रहा है कि, "तू जीत नहीं सकता, तू हमसे जीत नहीं सकता।" हम सबके भीतर समाज शल्य बनकर बैठा हुआ है, है कि नहीं, बोलो? वो तुमसे कहता है, "आज नहीं तो कल कुचल दिए जाओगे!" इसको निकाल बाहर करो।
शेर जब जाता है जंगल में, बन्दर होते हैं आस-पास, खूब चें-चें कर रहे होते हैं। और वहाँ वो दहाड़ मारता है तो दो-चार तो उसकी दहाड़ से ही नीचे गिर पड़ते हैं पेड़ से। ये सम्बन्ध होना चाहिए तुम्हारा समाज से। ये बन्दर हैं।
बन्दर कौन? जो बेचैन है। बंदर को देखो कभी ध्यान से, वो ऐसा लगता है जैसे पता नहीं कहाँ पहुँचना चाहता है, क्या पाना चाहता है, उसी को तो बन्दर कहते हैं। कभी कोई बन्दर देखा है ध्यान मग्न, शान्ति से बैठा हुआ, स्थिर? ये बन्दर हैं, एक दहाड़ मारोगे, ये नीचे गिर पड़ेंगे।
तुमने इनको इतनी बड़ी ताकत मान लिया? तुम्हें क्या लगता है इनमें कोई आत्मबल है? ये चेहरों का सूनापन देखो, आँखों का वीराना देखो, क्या दम है इनमें? बात-बात पर तो ये शंकित, कँपे हुए रहते हैं, क्या दम है इनमें? और तुम इन्हें भाव दे कर के बैठते हो, कि पचास वर्षों तक कुछ भी कर लें कोई अंतर नहीं पड़ेगा। एक दहाड़ से अंतर पड़ जाता है। एक नज़र काफी होती है ये ऐलान कर देने के लिए कि, "मैं मुक्त हूँ!"
एक नज़र काफी होती है, पर पहले ये ख्याल बिलकुल मन से निकाल दो कि एक के अलावा कोई दूसरा है जिसके पास ताक़त है, जिसकी सत्ता है, जो जीत सकता है; कोई दूसरा नहीं है, और तुम उस एक के बेटे हो, उसका साथ है तुम्हारे साथ। उसका हाथ है तुम्हारे सर पर, तुम कैसे हारोगे? वो तुम्हे काट भी दें, मार भी दें, तुम तब भी नहीं हारोगे। तुम दोबारा आओगे, जीतना तुम्हें ही है। तुम फिर आओगे। तुम्हीं कृष्ण हो, तुम्हीं बार-बार आते हो, वो कहते हैं न, कृष्ण का काम कोई पूरा नहीं हो गया है कि एक बार अर्जुन को बोल दिया। वो बार-बार लौटकर आते हैं।
इनपर करुणा की दृष्टि रख लो तो ठीक है। ये करुणा के पात्र हैं, जैसे बहके हुए बच्चे। तो करुणा के पात्र हो सकते हैं पर बहके हुए बच्चों से तुम डर जाओ, ये अजूबा कैसे? इन्हें कोई परिपक्वता थोड़े ही मिली है, ये खिले थोड़े ही हैं। ये तो बच्चे ही हैं, बच्चे की ऊँगली पकड़ी जा सकती है, और बच्चे ज़्यादा नादानी करें तो उसे डाँटना भी पड़ेगा। पर तुम डरे हुए हो बच्चों से, कह रहे हो, "अरे! बाप रे इतने सारे बच्चे हैं।"
लाख बार हारोगे, तब भी नहीं हारे हो, क्योंकि तुम जो लड़ाई लड़ रहे हो वो तुम्हारी है ही नहीं। वो हारी नहीं जा सकती। सौ बार हार लो, हँसते-हँसते हार लो। और गहरी श्रद्धा रहे मन में, कि, "मैं कल फिर आऊँगा, नए रूप में आऊँगा, ये जिस्म नहीं भी रहा तो भी आऊँगा।"
"तुम ख़त्म हो जाओगे। तुम देह भर हो, मैं फिर आऊँगा, मैं नहीं हारता, कभी नहीं हारता, मैं जीता ही हुआ हूँ, सत्यमेव जयते, मैं जीता ही हुआ हूँ।"
अपनी बुद्धि को चलने दो उस परम के इशारे पर। पूरा-पूरा उपयोग होने दो बुद्धि का। तुम जानते हो तुम्हें क्या करना है, अपनी पूरी सामर्थ्य को लग जाने दो। कोई बंदिश नहीं है, बिलकुल ही कोई बंदिश नहीं है।
देखो हम जो अद्वैत में काम करते हैं, उसमें बहुत हारे मिल सकती हैं। सौ बार हारोगे। कितना भी हारना, मुँह लटका कर मत आना, क्योंकि तुम जीते ही हुए हो।
वो ख़त्म हो जाएँगे, उनकी कोई बिसात नहीं है। उनमें कोई ताकत नहीं है, वो ख़त्म हो जाएँगे, तुम ख़त्म नहीं होओगे। मैं नहीं कह रहा हूँ कि एक झटके में तुम आसमान को रौशन कर दोगे, स्थिति शायद यही रहेगी हमेशा, जैसे अभी है, पर तारे को ही हक़ है हँसने का, तारा ही हँसता है, अँधेरा थोड़े ही हँसता है। तुम हँसो। जब तुम्हें लग रहा हो कि तुम हार गए हो, तुम तब भी हँसो, और तुमसे ज़्यादा किसी को हक़ नहीं है सेलिब्रेशन (उत्सव) का।
तुम्हें लगता है उन्हें कोई सेलिब्रेशन का हक़ है? अरे, उत्सव कुछ पाने का होता है, जिन्होंने कुछ पाया नहीं है, बस प्यास है उनके पास, वो काहे की ख़ुशी मना रहे हैं? काहे की उनकी होली और काहे की दिवाली है? उनके पास है क्या ख़ुशी मनाने का हक़? तुमको है! और पूरी-पूरी ख़ुशी मनाओ, यही इनाम है न तुम्हारा, यही इनाम है कि तुम्हारा जीवन उत्सव रहेगा, उनका जीवन खाली जाम रहेगा। "और जहाँ पर रुका वहाँ पर जाम है खाली।" वहाँ बस यही रहेगा, तुम क्यों इतने निराश से रहते हो, कि सब कुछ है फिर भी तुम मानते हो कि तुम्हारा जाम खाली है?
सबको हक़ नहीं होता है दीप जलाने का, रंग खेलने का, गीत गाने का, मौज मनाने का। तुम्हें हक़ है। पूरी मौज मनाया करो। बड़ी-से-बड़ी तबाही हो जाए, लगे कि जितनी कोशिशें की थी सब व्यर्थ हो गईं, उस क्षण में भी ये मत सोचना कि तुम असफल हो गए। कुछ नहीं। तुम्हें पता भी नहीं है कि तुम्हारे माध्यम से कौन खेल रहा है, वो हारने के लिए खेलता ही नहीं। वो कभी हारने के लिए खेला ही नहीं है। तुम प्यादे हो उसके खेल के। तुम पिट भी गए तो भी खेल वही जीत रहा है।
शतरंज में कई बार प्यादे की क़ुरबानी हो जाती है पर प्यादे को मायूस नहीं होना है। वो मरा भी है तो भी जीत गया है। तुम्हें पूरा दृश्य दिखाई नहीं देता, टोटल पिक्चर देख नहीं पाते इसलिए मायूस हो जाते हो। तुम कहते हो, "मैं तो लड़ाई लड़ रहा था।" जैसे शतरंज का प्यादा सोचे कि इस पूरे शतरंज के खेल में वही तो महत्वपूर्ण है और वो देखे कि, "मैं तो मर गया, मैं हार गया। क्या करें कि खेल ख़त्म हो गया!" नहीं, प्यादे के पिट जाने से खेल ख़त्म नहीं हो जाता।
तुम लड़ो, अड़ो, ये जिहाद है, असली जिहाद है ये, वास्तविक अर्थों में जिहाद है ये। जिन्होंने जिहाद शब्द पहली बार दिया था, अगर वो आज मौजूद हों, और हैं, तो वो आनंद मग्न हो जाएँगे कि, "हाँ, अगर कोई समझा है जिहाद का अर्थ तो ये लोग समझे हैं।" इसे कहते हैं जिहाद। और जिहादी की तरह रहो।