सत्य परलोक में नहीं || आचार्य प्रशान्त (2016)

Acharya Prashant

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सत्य परलोक में नहीं || आचार्य प्रशान्त (2016)

आचार्य प्रशांत: दो बच्चे थे, एक का नाम था ‘आजू’, दूसरे का नाम था ‘काजू’। बचपन में उनको देखा था। पूरे मोहल्ले में जिसके भी घर जाते थे, वहाँ मुँह बिछोर कर बैठते थे, ऐसे (मुँह बनाते हुए)। क्योंकि इनका दावा था कि दूर कहीं इनके दादाजी की एक हवेली है, जो बहुत बड़ी, बहुत सुन्दर, और तमाम तरह की संपदाओं और सुविधाओं से परिपूर्ण है। तो, जिसके भी घर में जाते थे, वहाँ मुँह चढ़ा कर ही बैठते थे, आजू और काजू, कि जहाँ भी रहे, इनको यही लगे कि ये जगह तो ज़रा घटिया है। हमारे दादाजी की हवेली है। अठारह तो वहाँ नौकर लगे हुए हैं। फुटबॉल मैदान के बराबर चारों तरफ लॉन है, सत्ताईस उसमें कमरे हैं। वैसी ही हमारी हालत है।

जहाँ भी हम रहते हैं, आजू और काजू जैसे ही रहते हैं। दूर दादाजी की हवेली है देखो। असली जगह तो वो है। तो नतीजा क्या रहा, कि आजू और काजू को पूरा ज़माना ही नापसंद करता था, और हमारे साथ भी यही हुआ है। जैसे हम अस्तित्व को नापसंद करते हैं, वैसे ही अस्तित्व भी हमें नापसंद करता है।

आपने देखा होगा, जो लोग धूप से बहुत बच कर रहते हैं, उनको आतपदाह भी जल्दी हो जाता है। आप जितना अस्तित्व को नापसंद करेंगे, अस्तित्व उतना ही आपको नापसंद करना शुरू कर देगा। आप बाहर निकलो, आप जल जाओगे। जो लोग धूल इत्यादि में खेले नहीं होते हैं, वो खेलना अगर शुरू कर दें तो उनको बीमारियाँ हो जाती हैं। ये विदेशी जब यहाँ आते हैं, पता नहीं कौन सा और कितने तरीके का छना पानी पीते हैं, यहाँ आते हैं तो पता नहीं इनको कितने तरह के कीड़े लग जाते हैं।

और जितना अस्तित्व आपको नापसंद करता है, उतनी आपकी नापसंदगी बढ़ती जाती है कि ये तो दुनिया ही खराब है। दुनिया जितनी खराब लगती है, परमात्मा उतना प्यारा लगता है।

और ऐसा होता है, अभी भी, बड़े शहरों में तो होना बंद हो गया है, गाँवों, कस्बों में अभी भी आयोजित विवाहों का बड़ा प्रचलन है।

तो वहाँ कोई ज़्यादा बातचीत तो हुई नहीं होती है लड़की लड़के में, लड़की ब्याह कर पहुँच जाती है। और उसको घर अभी वही याद आ रहा है बाबुल का, अब यहाँ पर पति जी सामने भी बैठे हैं, प्रेम प्रदर्शित करने लगे हैं, बात करना चाहते हैं, स्पर्श करना चाहते है, “दूर रहो, असली घर तो वहाँ है!” तो वैसे हम सब हैं।

इस दुनिया से प्यार मिलता ही नहीं, क्योंकि जब सामने आता है, तब उसे हम लेते ही नहीं। "पप्पा पास जाना है!" और दिक्कत ये है कि तमाम इस तरीके के मामें, ताऊ, पापे, बैठे हुए हैं जो कहते हैं कि, "हम प्रतिनिधि हैं, यात्रा अभिकर्ता। हम इस लोक से उस लोक की बस सेवा चलाते हैं।" तो तैयार बैठे हैं। कहते हैं, “आओ, ऋषिकेश से चलती है और वहाँ तक जाती है, तुम्हारे पापा के घर तक ले जाएँगे।" पिया जी प्यासे रह जाते हैं, पिया जी प्यासे हैं तो आप भी प्यासे हैं, समझ पा रहे हैं न?

कभी धोखे से, भूल से पिया जी की और मुँह किया भी तो बीच में आ गए गुरूजी। बोले, “हाँ, क्या कर रही हो? महा पाप। तुम कुमारी ही रहना। इस लोक को अपने ऊपर छू मत लेने देना, कुमारी ही रहना। अब कुमारी को थोड़ा आध्यात्मिक रहना होता है, तो कभी आध्यात्म कुमारी, ब्रह्मकुमारी, कुछ कुमारी, तुम कुमारी ही रहना, कोई छूने न पाए तुम्हें। और जल्दी ही हम तुम्हें यहाँ से विदा करा कर वापस पप्पा के यहाँ ले जाएँगे। धोखे से तुम आ गई हो पिया के यहाँ। तुम्हारा असली घर तो पप्पा का घर है। धोखे से यहाँ आ गई हो, और जितने दिन यहाँ रहोगी, दुःख भोगोगी। जो इस मर्त्यलोक में आता है, दुःख भोगने ही आता है। ये मर्त्य लोक है।" और पियाजी यूँ बैठे हैं, सुन रहे हैं, कह रहे हैं “कब मरेगा ये बुढ़ऊ?" पर अब आदरणीय बुढ़ऊ हैं तो उसकी घर में आवाजाही बंद भी नहीं की जा सकती।

वो दे रहा है बिलकुल विशुद्ध ज्ञान और ये पूरी, सुविकसित स्त्री, फली फूली स्त्री, ये अपने आप को पप्पा की बच्ची ही माने बैठी है, ये जाएँगी अभी पप्पा की गोद में खेलेंगी। गोद में ही खेलना है, तो पिया की गोद में क्या बुराई है भाई? हम सब ऐसे ही हैं। सबको पप्पा पास जाना है, सब विरह के गीत गा रहे हैं।

पप्पा, पिया से दूर नहीं होते। पिया में पप्पा हैं। पप्पा ही पिया बनकर आते हैं, ये दो अलग अलग नहीं होते। किसी ने तुम्हें वहाँ भेजा नहीं है, कोई तुम बनकर आया है। तुम यहाँ भेजे हुए हो तो किसी से अलग करके, जुदा करके, वियुक्त करके नहीं भेजे गए हो। कोई है जो तुम्हारे रूप में आया है। वो खुद आया है। तुमसे अलग नहीं है, वो खुद आया है। कहाँ आया है? अपने में आया है। वो खुद ही खुद में आया है। व्यक्ति और संसार, ऐसे समझलो कि जैसे परमात्मा ने ही अपने दो फाड़ कर दिए हों। कि जैसे परमात्मा अपनी ही आँखों से खुद को ही देखता हो। अब तुम कहाँ किसे खोजने जा रहे हो? तुम्हारी आँखें तुम्हारी नहीं रही, परमात्मा की आँखें हैं। जिन आँखों से तुम संसार को देख रहे हो, वो संसार नहीं है, वो परमात्मा ही है। पर तुम दावा करते हो कि न, आँखों से तो देखा ही नहीं जा सकता, तो संसार क्या है फिर? तुम कहते हो, “मोह, माया, भ्रम है, मिथ्या है।” तो ये जो मिथ्या है, ये कहाँ से आ गया? या उसका उद्भव किसी और स्रोत से होता है?

ये जो परलोकवाद है, ये भारत को बड़ा महँगा पड़ा है। दुनिया के कुछ देशों को छोड़ दें तो भारत की औसत ऊँचाई दुनिया में सबसे कम है। दुनिया के कुछ देशों को छोड़ दें तो भारतियों की औसत आय दुनिया में सबसे कम है। प्रदूषण भारत में सबसे ज़्यादा, मदुमेह भारत में सबसे ज़्यादा, हृदयघात भारत में सबसे ज़्यादा। ये सब इसीलिए है, क्योंकि शरीर का क्या करना है? शरीर तो वैसे भी निंदनीय चीज़ है, मल मूत्र का घर है। नौ दस द्वार हैं जिनसे समस्त प्रकार की दुर्गन्धयुक्त निकास होते रहते हैं। इसे तो छुपा कर रखो। और कोई प्रदर्शित करदे तो बोलो “ये देखो बेशरम है।” तो और नतीजा क्या निकलेगा?

भारत का शरीर बीमारियों का घर बन गया है। कुपोषण के सबसे ज़्यादा मामले भारत में हैं। और ये मत सोचियेगा कि कुपोषण का एकमात्र कारण गरीबी है। दो साल से कम उम्र के बच्चों में जो कुपोषण पाया जाता है, वो मात्र इसीलिए नहीं पाया जाता कि उनके माँ-बाप उन्हें खिला पिला नहीं पाते, इसीलिए भी पाया जाता है क्योंकि उनके माँ-बाप खिलाने पिलाने की तरफ ध्यान ही नहीं देते। ठीक ठाक आर्थिक स्थिति वाले घरों में भी बच्चे कुपोषित हैं। पैसा है माँ-बाप के पास, चाहें तो खिला सकते हैं, बच्चे तब भी कुपोषित हैं। चार-चार, पाँच-पाँच साल के बच्चों की आँखों पर चश्मा लगा हुआ है, ऐसे थोड़े ही है कि उनके घर पर खाने को नहीं है।

ऐसा इसीलिए है क्योंकि हमने शरीर को हेय दर्जा दे रखा है। जो माँ कभी अपने शरीर का खयाल नहीं रख पाएगी, जिसको पता ही नहीं है कि शरीर माने क्या। वो बच्चे के पैदा होते ही अचानक ज्ञान विभोर तो नहीं हो जाएगी? कहाँ से जान जाएगी वो कि शरीर माने क्या? अभी कुछ माह पहले जब यूरोप में था, वहाँ देख रहा था कि ठण्ड है खूब, उसके बाद भी लोग करीब करीब पूर्णतया निर्वस्त्र होकर और कई बार तो पूर्णतया ही निर्वस्त्र होकर बीच पर पड़े हुए हैं। धूप खिल आए तब तो ज़रूर ही, कई बार धूप नहीं है तब भी। ये वहाँ बात ही बड़ी विचित्र मानी जाए कि कोई बीच पर है, और पूरे कपड़े पहन कर के घूम रहा है। उन्हें अपने शरीर का तिरस्कार नहीं करना है। उन्हें अपने शरीर को लेकर कोई मिथ्या नहीं है, इसीलिए उनके शरीर फिर सुन्दर भी हैं।

हम तो बीच पर भी कुरता पायजामा पहन कर चलेंगे। तो ज़ाहिर सी बात है कि मोटी तोंद, थुल थुल जांघें, भरे पूरे नितम्ब छुपे हुए रह जाते हैं। अरे ज़रा मर्द की तरह दौड़ लगाइए रेत पर, घुस जाइए पानी में, एक कच्छा पहन रखा है आपने, काफी है। वहाँ पहन लेती हैं टू पीस, और बिकिनी, तो फिर उन्हें ख्याल भी रखना होता है कि शरीर भी ऐसा रहे कि उसपर बिकिनी पहनी जा सके। यहाँ तो पहननी ही नहीं है तो पचास किलो से पहले सत्तर किलो, फिर नब्बे किलो, अब पति बेचारे की हिम्मत कहाँ है कि कुछ बोल दे कि भैंस हुई जाती है।

आप शरीर पर ध्यान मत दीजिए, आप शरीर को बर्बाद होने दीजिए, शरीर आपको बर्बाद करेगा, हर तरीके से। आप मन पर ध्यान मत दीजिए, आप मन की सहज तरंगों का दमन करिए, मन आपका दमन कर देगा। मन तो जानना चाहता है, मन जिज्ञासु है, मन पूछता है, आप कहिए, "ना! ज्ञान तो व्यर्थ है, सत्य तो जाना जा ही नहीं सकता, तो ज्ञान का फायदा क्या?" तो नतीजा वही निकलेगा कि आपको छोटी-से-छोटी तकनीक के लिए पश्चिम की ओर देखना पड़ता है। ठीक है, थोड़ी तरक्की कर ली है, लेकिन फिर भी। क्योंकि आपने तो कह दिया, "ज्ञान में रखा क्या है? उत्सुकता, कौतूहल, ये तो व्यर्थ की बातें हैं। परमात्मा तो अचिन्त्य है। उसके बारे में तुम क्या कौतुहल करते हो? कोई सवाल पूछना ही व्यर्थ है। सवाल क्या पूछें?"

ठीक वैसे ही जैसे मैं आपसे यहाँ आकर कहता हूँ कि बोलिए, बात करिए, सवाल पूछिए, हमारे पास पूछने के लिए कुछ होता नहीं। हम पूछते भी हैं तो तर जाने की बातें। और बड़ी बात नहीं है कि हममें से कुछ लोगों को लग रहा हो कि ये बातें कुछ आध्यात्मिक सी नहीं लग रही, ये तो ऐसा लग रहा है कि कोई विज्ञान का पक्षधर बोल रहा है। हाँ, बिलकुल हूँ, विज्ञान का पक्षधर हूँ। जिसको संसार नहीं समझ में आता, उसे सत्य क्या समझ में आएगा? और संसार को आप कैसे समझेंगे? विज्ञान नहीं है तो कैसे समझेंगे? फिर तो आप यही बोलते रह जाएँगे कि पञ्च-तत्व होते हैं।

आज रसायन शास्त्र के आठवीं कक्षा का विद्यार्थी भी जानता है कि पंचतत्व नहीं होते। एक सौ पाँच से भी ज़्यादा होते हैं, पाँच छोड़िए। और ऐसा नहीं है, पीरिओडिक-टेबल तो आपने भी पढ़ा ही है, पर आज भी वो सब बातें भुला जाती हैं, ज्यों ही आकर के आप किसी आध्यात्मिक सभा में बैठते हैं। वहाँ फिर बोलना शुरू कर देते हैं, पञ्च-तत्व होते हैं। भाई तब उनके पास न प्रयोगशालाएँ थी, न शोधन की कोई विधियाँ थी, तो उनको लगा कि पाँच ही होते होंगे, वो सोचते थे कि पानी तत्व होता है। आज आपको नहीं पता कि पानी तत्व नहीं है? पानी का विखंडन हो जाता है? आप हाइड्रोजन नहीं जानते? आप ऑक्सीजन नहीं जानते? आप एटम (अणु ) नहीं जानते? आज तो एटम भी बीती हुई बात हो चुकी है, पर हम आज भी बोले जाते हैं 'पञ्च-तत्व'।

किसी की मृत्यु हो जाएगी, अखबार में आएगी श्रद्धांजलि, “अब पंचतत्व में विलीन हो गए।” भाई वो मर गया है, अब क्यों झूठ बोल रहे हो? वहाँ वो आग को तत्व मान रहे हैं, हम सब जानते हैं कि आग तत्व नहीं होता। जानिए, समझिए, संसार को देखिए, उत्सुकता रखिए। आप मन को जानना चाहते हैं, अपने आप को देखिए। नहीं तो अभी अमेरिका में चुनाव हुए थे, उनको देखिए। आप समझ जाएँगे, मन कैसे चलता है। ये जो आजकल बैंक और एटीएम के सामने लम्बी कतारें लगती हैं, लोगों को देखिए, आप समझ जाएँगे। आप राजनेताओं की प्रतिक्रियाओं को देखिए, आप मीडिया की प्रतिक्रिया को देखिए, आप मन को समझ जाएँगे।

संसार को देखेंगे, तथ्यों के करीब आ जाएँगे, तथ्यों के करीब आकर के आप पाएँगे कि सत्य भी दूर नहीं है। वास्तव में जो आप कहते हैं तथ्यों के करीब आना, तो उसमें जो शब्द है ‘करीब’, वही सत्य है। सत्य नहीं है तो आप तथ्य भी नहीं जान सकते। सत्य का मतलब है ईमानदारी। वो ईमानदारी ही आपको तथ्यों के निकट लाती है, अन्यथा आप आ नहीं पाएँगे।

पर मैं ये एक और वृत्ति देखता हूँ, जो लोग आध्यात्म की तरफ मुड़ जाते हैं, वो कहते हैं, “हमें अब दुनिया से कोई लेना देना नहीं।” आप उनसे पूछिए कि, "मोहल्ले में क्या चल रहा है?" वो कहेंगे, “कुछ होश नहीं।” आप उनसे पूछिए, "देश में क्या चल रहा है?" वो कहेंगे, "कुछ होश नहीं।" और उनको उद्दीपन मिलता है, उन श्लोकों से, उन भजनों से, उन गीतों से जो कहते हैं कि “अब तो हम कुछ ऐसे बाँवरे हुए कि अब हमें ज़माने की सुध ही नहीं रही।” बड़ा आकर्षण होता है वहाँ, बड़ा आकर्षण होता है। आप कहते हैं, “अच्छा ऐसा होता है? ऐसा होता है तो मेरे साथ भी होना चाहिए, मैं कर के दिखाऊँगा।”

तो उनको तो शायद इसीलिए नहीं रही थी क्योंकि कोई एक ख़ास मुकाम था जिससे वो गुज़र रहे थे। उनकी बात उनके लिए सच रही होगी। आपके लिए तो वो पराई है, आपने तो ओढ़ ली है अपने ऊपर। फिर बड़ा अच्छा लगता है कहने में कि, "अब और कुछ पता ही नहीं क्या चल रहा है, क्या नहीं चल रहा! अब तो हम अपने में समा गए।" कैसे समा गए हो अपने आप में? मुँह में हाथ डाला है? क्या किया है? अर्थ बताओ न? इन सब शब्दों से आशय है क्या तुम्हारा? ये समझा दों। पर सुनने में बड़े रोमांचक लगते हैं। लगता है कुछ तो हुआ ज़िन्दगी में, अपने में समा गए।

प्र: दिखावा हो जाएगा।

आचार्य: ज़रा वज़न बहुत बढ़ गया था, तब बाथरूम में तो समा नहीं पाते थे। तो और जब कहीं समाना बंद हो जाता है तो आदमी अपने आप में समाने की कोशिश शुरू कर देता है। कल अपार मुझे एक विडियो दिखा रहे थे, तो उसमे समकालीन गुरूजी थे, वो कुछ ऊर्जा ज्ञान इत्यादि दे रहे थे। ऊर्जा ज्ञान या ऐसा ही कुछ नाम था। तो, दो को बैठा रखा था, एक को कुर्सी पर, जो पुरुष था वो कुर्सी पर बैठा था, और जो स्त्री थी वो खड़ी थी। और दोनों के माथे पर उन्होंने उँगलियाँ रखी हुई थी। और दोनों बिलकुल झूमे जा रहे थे, बावले हुए जा रहे थे, उछल रहे थे, ऐसा लग रहा था बिलकुल चार-सौ-चालीस वोल्ट से उनको जोड़ कर दिया गया है।

तो गुरूजी खड़े हुए, एक को बैठा रखा है, स्त्री खड़ी हुई है, दोनों के माथे पर ऐसे उँगलियाँ रखी हुई हैं और सर्किट पूरा हो गया है। और दोनों ऐसे ऐसे (गर्दन हिलाते हुए) कर रहे हैं। तो पूछा कि, "क्या है?" मैंने कहा, "जो कर रहे हैं उन्हें भी पता है क्या है और जो करवा रहे हैं उन्हें भी पता है क्या है।" तभी तो हो पा रहा है, दोनों को पहले से ही पता है क्या है, तभी हो पा रहा है। एक रस्म है जिसमें दोनों पक्षों को अपना-अपना पात्र, अपना-अपना रोल अदा करना है। और दोनों पहले ही जानते हैं कि इन्हें क्या करना है, इन्हें क्या करना है। अन्यथा हो नहीं सकता था। आप बात समझ रहे हैं? हो नहीं सकता था।

ये सब लक्षण हैं इस बात के कि हम न तो विज्ञान समझते हैं, न संसार समझते है, और न ही हमें कुछ सत्य से लेना देना है। हमें बस अपने आप को धोखा देना है। हमें बता दिया गया है कि इस तरीके कि कोई चीज़ अगर तुम्हारे साथ होगी, कि गुरूजी तुम्हारे माथे पर अंगूठा रख दें और तुम्हें लगे कि विद्युतीय प्रवाह तुम्हारे पूरे तन मन में प्रवाहित हो गया, तो समझना कि परमात्मा की अनुकम्पा हो गई है आज। तो जहाँ गुरूजी ने अंगूठा रखा नहीं कि हम तो तैयार ही बैठे थे कि तुम अंगूठा रखो और हमारे करंट बहे। कई बार तो ये भी हो सकता है कि रखने से पहले ही बह जाए, फिर पहले थमना, अभी रखा नहीं था। पागल, हड़बड़ी में गलत कर दिया। कोई रिकॉर्ड कर ले तो? तो रखा नहीं कि बहने लग गया।

हमारे यहाँ पर अर्दली हैं, ओंकार। अब मुझे माफ़ करिएगा, आध्यात्म के नाम पर मैं तो यही सब बातें करूँगा, जो रोज़मर्रा की होती है। तो वो आया और बोला कि, "हमारे यहाँ पर एक है, उसको, उसके गाँव में, तो उसको कभी-कभी वो चढ़ता है।" मैंने कहा, "अच्छा, तो वो चढ़ता है तो क्या होता है?" बोला, "वो जाकर के खुले मैदान में बाँस गाड़ देता है, जाता है थोड़ा सा बाँस गाड़ देता है, थोड़ा सा ही। बोलता है उसके बाद कोई भी आकर के उस बाँस को उखाड़ नहीं सकता। एक आदमी, दो आदमी, पूरा का पूरा गाँव लग जाए, सब मिल कर नहीं उखाड़ सकते।" मैंने एक सवाल पूछा, मैंने कहा, "बताओ जितने लोग आज तक उखाड़ने आए हैं उन्हें पता है न पहले से कि ये उखाड़ा नहीं जा सकता?” बोला, “हाँ क्योंकि गाँव के ही लोग आते हैं उखाड़ने।” मैंने कहा, “मैं फिर पूछ रहा हूँ, जो कोई भी उखाड़ने आ रहा है, उसे पहले से ही पता है कि ये उखाड़ा नहीं जा सकता?" बोला, "हाँ।” मैंने कहा “वो क्यों उखाड़ेंगे फिर? उनका दिमाग ख़राब है जो उखाड़ा नहीं जा सकता, उसे उखाड़ दें?”

मैंने कहा, “अब ऐसा करना, बाँस वहाँ लगे रहने देना और किसी ऐसे को बुलाना जो वो जानता नहीं है, उससे कहना इसे उखाड़ना, वो ऐसे करके उखाड़ देगा।" सामूहिक प्रवंचना ,पारस्परिक धोखा, सब एक दूसरे को, तुम मुझे बेवकूफ बनाओ, मैं तुम्हे बनाता हूँ। जब दूर का आपके लिए असली हो जाता है, तब आप वर्तमान में नकली दुनिया में जीना शुरू कर देते हैं। अब इनके लिए वो दैवीय चमत्कार असली हो गया है। तो अब ये नकली हरकतें करेंगे ही करेंगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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