आचार्य प्रशांत: सवाल है कि, "सोचने बैठते हैं तो बहुत सारी बातें दिमाग में आती हैं। परस्पर विरोधी ख़याल उठते हैं। दाएँ से एक ख़याल आता है तो बाएँ से भी एक ख़याल आता है। एक ऊपर का ख़्याल आता है तो एक नीचे का भी आता है। जो ही बात मन में आती है, उसका बिलकुल विपरीत भी आता है। तो इस स्थिति में आदमी कोई भी फैसला करे कैसे? बस फँस कर रह जाते हैं। ना आगे चल पाते हैं ना पीछे। दो कदम आगे बढ़ाते हैं तो ख़्याल आता है कि शायद पीछे जाना ठीक था। और पीछे भी बहुत दूर तक नहीं जा पाते।"
उसका कारण है। कारण ये है कि हमें जितने भी ख़्याल आते हैं वो वास्तव में हमारे अपने हैं नहीं। इतनी ताक़तें हैं, हम जिनके संपर्क में आते हैं। और हर ताक़त हमारे मन पर एक नई छाप छोड़ करके चली जाती है।
प्रश्नकर्ता: सर जो सवाल हमारे मन में आते हैं वो हमारे हैं या फिर छाप है बाहरी, ये पता कैसे चले?
आचार्य: ये निर्णय नहीं करना है, बात आने दो, आने दो।
प्र: सिर्फ खड़े हो कर अपने विचारों को देखना, मैं उस स्थिति की बात कर रहा हूँ।
आचार्य: जब ये दिखने लग जाए कि सही भी मेरा नहीं है और ग़लत भी मेरा नहीं है तो सही और ग़लत दोनों ही अपना वज़न खो देते हैं। फिर ना सही में कुछ बड़ी बात रहती है, ना ग़लत में कुछ बड़ी बात रहती है। फिर तो तुम्हारे ऊपर दबाव रहेगा ही नहीं कि क्या सही है क्या ग़लत है। मैंने तुमसे काफी बातें कही हैं, घण्टे, डेढ़ घण्टे में। इनसे बिलकुल उलटी बातें भी कहीं-न-कहीं तुम सुन ज़रूर चुके होओगे। उम्मीदें सारा खेल खराब कर देती हैं। उसकी बिलकुल उलटी बात भी तुम कहीं-न-कहीं सुन ज़रूर चुके होओगे। मैंने तुमसे कहा तुम पूरे हो। उस से बिलकुल विपरीत बात भी तुम सुन ज़रूर चुके होओगे। मैंने तुमसे कहा आते ही कि इंसान को रिश्ते की तरह नहीं, इन्सान की तरह देखो। उससे बिलकुल उल्टा सन्देश तुम्हें कई बार मिल चुका है, चारों तरफ से। अब अगर अभी तुम ध्यान से सुन नहीं रहे हो तो जो मैंने अभी कहा वो तुम्हारे लिए मेरे शब्द बन कर ही रह जाएँगे, समझ नहीं बनेंगें। ये शब्द तुम्हारे मन में स्मृति की तरह बैठ जाएँगे। जैसे तुम्हारे मन में हज़ार और बातें बैठी हुई हैं। जो मैंने कहा वो पहले सुनी हुई किसी बात के विपरीत है। मैंने तुम्हें दाएँ जाने को कहा है, पहले तुमने सुना है बाएँ जाने के लिए। और ये दाएँ और बाएँ अब दिमाग में लड़ेंगे आपस में। लड़ तो दाएँ और बाएँ रहे हैं और युद्ध भूमि बन गया है तुम्हारा मन। नुक्सान हो रहा है तुम्हारे मन का। तुम्हारे मन का यानि तुम्हारा। ये तब होता है जब आदमी के पास अपनी कोई समझ, अपनी कोई नज़र नहीं होती। एक बात दाएँ से सुनी, दूसरी बात बाएँ से सुनी और दोनों ही ठीक लगेंगी या दोनों ही ग़लत भी लग सकती हैं। कभी एक ठीक, एक ग़लत, कभी एक ठीक दूसरी ग़लत। अब जाएँ तो जाएँ कहाँ! और ये बात सिर्फ दो बातों की नहीं है, तुमने दो नहीं, बीस, दो-सौ, दो-हज़ार बातें सुनी हैं। और ये हम सब के साथ होता है कि किसी एक क्षण पर कोई एक बात पूर्णतया सही लगती है। और दूसरे ही क्षण वही बात, बिलकुल बेकार। सुबह को एक ओर को चलना चाहते हो और शाम तक मन बिलकुल बदल जाता है, कहीं और को चल देते हो। कुछ भी जीवन में ऐसा नहीं रहता जो बदलाव से अछूता हो। सब कुछ बदलता रहता है। मन अभी कैसा है, थोड़ी देर में कैसा हो जाता है। अभी यहाँ बैठे हो, एक ख़बर आ जाए, मन बिलकुल बदल जाएगा। चुपचाप ध्यान से सुन रहे हो, पड़ोसी कान में बोल दे, बिलकुल उसी ओर को चल दोगे।
बात इतनी से ही है कि हमारी मालकियत नहीं है अपने उपर। वही जो पूरा होने का भाव कहा था न, मज़बूत होने का भाव। जब मज़बूत होने का भाव होता है तो आदमी अपना मालिक ख़ुद होता है। पर उनको परखता वो अपनी नज़र से,अपने विवेक से है। सुनता है दूसरों की कही बातें पर परखता है अपने विवेक से, अपनी समझ से अपनी इंटेलिजेंस से। अब वो इधर-उधर से आए विचारों का, धारणाओं का, गोदाम मात्र नहीं है। किसी ने कुछ कहा और मैंने उसको इकट्ठा करके रख दिया है। कहा जाए कि इसमें मेरा कितना है तो जितना ध्यान से देखूँ उतना ही पता चले कि मेरा तो इसमें कुछ भी नहीं है। सब कुछ उधार का है। और ये जो उधार का है, ये भी आपस में लड़ता रहता है।
ना सही की बहुत परवाह करो, ना ग़लत की बहुत परवाह करो, जो कुछ है तुम्हारे सामने है, उसको ध्यान से देखो। पहली चीज़ है फैक्ट्स (तथ्य)। फैक्ट्स को पूरी तरह से देखो। इससे पहले कोई ख़्याल बनाओ, कोई ओपिनियन बनाओ फैक्ट्स की जाँच-पड़ताल पूरे तरीके से कर लो। हमने पहले एक सवाल में तीन तलों की बात करी थी, यहाँ पर भी तीन तल हैं।
सबसे निचला तल है कल्पना का जिसमें दो काल्पनिक ख़्याल आपस में लड़े जा रहे हैं। दो काल्पनिक ख़्याल क्या हैं? "मैं ट्रैन से जाऊँ, मैं कार से जाऊँ?" और बैठ कर के दो घण्टे से इसी उलझन में उलझे हुए हैं। कभी ट्रेन से जाना राईट (सही) लगता है, कभी कार से जाना राईट लगता है। तो मैं कहूँगा कि पहला काम तो है कि फैक्ट्स चेक करो कि आज कोई ट्रेन जाती भी है। तुम्हें कार अभी उपलब्ध भी है? और ज़्यादातर हमारा जीवन ऐसा ही है कि जहाँ ट्रेन जा ही नहीं रही, कार उपलब्ध ही नहीं है पर साहब के सामने बहुत बड़ी समस्या है कि मैं कार से जाऊँ कि मैं ट्रेन से जाऊँ। अरे कहाँ है कार और कहाँ है ट्रेन ? ना कार है ना ट्रेन है। तो पहला तल है कल्पना का, दूसरा तल है फैक्ट्स का। तीसरा तल है कि ऐसा क्या है जो मुझे कार से जाने को विवश कर रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मुझे ये बता दिया गया है कि जो लोग कार से चलते हैं उनका सम्मान ज़्यादा होता है, उनका ओहदा ज़्यादा है? तो मैं कहीं पहुँचूँगा और वहाँ लोग मेरी कार देखेंगे तो उससे मुझे बड़ी इज़्ज़त मिल जाएगी, कहीं मैं कार से इसलिए तो नहीं जाना नहीं चाह रहा? कार से जाने का विचार मेरे मन में डाला किसने? मैं पूछूँ अपने आप से। कहाँ से आ गया? क्या ये मेरा है?
ज़्यादातर उलझनें जो हमारी हैं वो काल्पनिक ही हैं। जब तथ्यों को देखोगे, फैक्ट्स को, तो ज़्यादातर तो वहीं पर साफ़ हो जाएँगी। और आगे जाना चाहते हो तो अपने आप से पूछना कि ये जो दो ताक़तें लड़ रही हैं दिमाग में, ये जो दो विचार लड़ रहे हैं, वो आए कहाँ से? इसमें मेरा क्या है? इसमें मेरा कितना है? उसके बाद उन दोनों को ही किनारे कर दोगे, उलझन ही ख़त्म। जो होना है, अपने आप होगा। फिर वो लड़ाई ख़त्म हो जानी है। फिर उस लड़ाई में कुछ बचना नहीं है। ये बड़ी उधार कि लड़ाई है। ये तुम्हारी लड़ाई है ही नहीं। तुम इसे क्यों अपना माने बैठे हो? प्रॉक्सी वॉर है ये। जैसे कि इस पड़ोस से एक आदमी आया हो और उस पड़ोस से एक आदमी आया हो और दोनों तुम्हारे घर में लड़ रहे हों। उन दोनों को निकाल दो, बोलो, "लड़ना है तो बाहर जाकर लड़ो। अपने घर जाओ!" एक इधर का है, एक उधर का है और लड़ने के लिए उन्होंने तुम्हारा घर चुन लिया है। बड़ी ज़बरदस्त हालत है। तोड़-फोड़ कहाँ मचा रहे हैं वो? शीशे तोड़ दिए, बर्तन तोड़ दिए, टेबलें उठा-उठा कर पटक रहे हैं। किसके घर की?
श्रोतागण: (एक स्वर में ) हमारे घर की।
आचार्य: तुम्हारे घर की। कोई जीते, कोई हारे, नुक्सान किसका होना है?
श्रोतागण: (एक स्वर में) हमारा।
आचार्य: उनमें से कोई जीत भी गया तो तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा। उनमें से कोई हार भी गया तो तुम्हारा कुछ नहीं जाएगा। पर नुक्सान खा जाओगे। इस नुक्सान से बचो। देखो, इसमें मेरा है ही क्या?
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