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सत्य के सान्निध्य से बेहतर कोई विधि नहीं || आचार्य प्रशांत (2015)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्न: सर, ऐसी कोई विधि आपने बनायी है जो आपने सोचा हो कि किसी शिष्य को आप देंगे जिसको बहुत ज़्यादा ज़रूरत होगी इसकी, जो आपके प्रवचन नहीं समझ सकता।

वक्ता: तुम जिन विधियों की बात कर रहे हो वो बहुत बाद की और बहुत निम्नतम श्रेणी की हैं। जितना भी ऊँचे से ऊँचा ज्ञान गुरु से शिष्य को मिला है वो सामीप्य में शब्दों के माध्यम से ही मिला है। उपनिषद क्या हैं? संवाद नहीं हैं? अष्टावक्र क्या कर रहे हैं? ऋभु गीता भी क्या है? वेदों के ऋषि अपने शिष्यों को कोई विधि थोड़ी दे रहे थे, वो सीधे सामने बिठा कर के सहज ज्ञान दे रहे थे।

पर यह भी आज के युग की बड़ी विडंबना है कि ‘विधि चाहिए’ और वो विधि भी कुछ शारीरिक किस्म की हो तो ज़्यादा अच्छा है। कुछ पदार्थ उसमें शामिल होना चाहिए। कोई ख़ास किस्म की माला पहन ली जाए, कोई शारीरिक मुद्रा पकड़ ली जाए।

ये सब बातें तो बहुत बाद में आ गयी हैं, नहीं तो जो सरलतम और शुद्धतम तरीका रहा है बोध की जागृति का वो यही रहा है कि आमने सामने बैठो और बात करो।

पता नहीं तुम्हारे मन में यह बात कहाँ से आ गयी कि संवाद बहुत कम दिए गए हैं, संवाद ही दिए गए हैं। ये जो विधि बाज़ हैं ये अभी-अभी आए हैं कि “हम तुम को विधि देंगे”। पुराने ग्रंथों में, जिनमें विधियाँ हैं, उनमें बस दो-चार ऐसे ग्रन्थ हैं, बाकि तो जो तुम्हारे श्रेष्ठतम ग्रन्थ हैं, उनमें कोई विधि थोड़ी है। वो उद्घोषणाएं हैं, बैठो और सुनो और समझो; बस सीधे यह है। और जिसको सीधी बात सीधे-सीधे समझ नहीं आ रही है उस पर क्या विधि काम करेगी।

इससे सरल विधि क्या हो सकती है?

शांति से, मौन से बैठ के सुनना मन को आक्रांत करता है। तो मन इधर-उधर के तमाम उपाय खोजता है बचने के। ये जो तुम्हारी विधियाँ हैं न, मेथड्स , उपाय, इनका बहुदा तो इस्तेमाल मन इसीलिए करता है।

“सहज, प्रकट सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे और दुनिया भर की दौड़ लगायेंगे”

क्यों भाई?

गुरु जी कुछ बोल रहे हैं; जब बोल रहे हैं तब समझ में नहीं आ रहा है और गुरु जी विधि के रूप में एक ताबीज़ दे दें तो उससे ज़्यादा समझ में आजाएगा?

सत्संग से श्रेष्ठम विधि कोई होती नहीं।

चुप-चाप बैठो और सुनो, और उतने में सब हो जाता है। और फिर जिसे न सुनना हो, बचना हो, उसके लिए हज़ारों विधियाँ हैं।

जो सुन लेता है ध्यान से उसमें स्वयं ही यह ताकत आ जाती है कि फ़िर वो अपने लिए विधियाँ खुद ही खोजने लग जाता है। इतने अलग-अलग पल आते हैं जीवन में, इतनी अलग-अलग परिस्थितियाँ आती हैं, हर परिस्थिति एक अलग उत्तर माँगती है। अगर विधि की उपयोगिता है भी तो तुम्हें बहुत सारी विधियाँ चाहिए, हर पल एक नई विधि चाहिए। कहाँ से लाओगे उतनी विधियाँ? लानी पड़ेंगी, वो विधि भी तो तुम्हारे अपने बोध से ही निकलेगी न।

तो पहली चीज़ तो यही है कि तुम्हारे भीतर कुछ प्रकाशित हो, फिर अपने प्रकाश में तुम खुद अपनी विधियाँ तय कर लोगे। खुद जान जाओगे कि तुम्हें अपने लिए क्या-क्या उपाय करने चाहिए। ये इन चक्करों में मत फंस जाना कि एक फोटो यहाँ टांग दी, या एक गले में माला पहन ली या अंगूठियाँ डाल लीं या सुबह उठ कर के कुछ कर आए कहीं, इनसे कुछ नहीं हो जाना है। हद से हद एक झूठा सुकून मिलेगा जो कुछ ही समय बाद खंडित हो जाएगा।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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