सत्य के प्रति प्रेम की शुरुआत कैसे करें?

Acharya Prashant

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सत्य के प्रति प्रेम की शुरुआत कैसे करें?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, सत्य के प्रति प्रेम में कैसे पड़ गये?

आचार्य प्रशांत: उसका दुपट्टा हरा था। (श्रोतागण हॅंसते हैं) और चूड़ियाॅं खनक रही थीं और कजरारे नैनों की तीखी धार थी। बिलकुल छुरी चल गयी। ऐसे बताऊँ या ऐसे बताऊँ कि कार्बन टेट्रा-फ्लोराइड और अमोनिया मिले और दस एटमॉस्फेरिक प्रेशर का दवाब था। और आठ-सौ-साठ डिग्री का तापमान था और बेरियम कैटलिस्ट था तो रिएक्शन हो गया। कैसे बताऊँ?

अरे, कैसे भी नहीं होता पागल! तुम्हें ऐसे होता है क्या? चलो, परमात्मा के प्रति प्रेम को छोड़ो, जिसको तुम साधारण प्रेम कहते हो वो भी प्रक्रियागत होता है क्या? बताते हो कि अभी प्रेम के पहले चरण में हैं। अभी उसके चरण देख रहे हैं। फिर प्रेम का दूसरा चरण आया, अब घुटने देख रहे हैं। आगे के चरण! ऐसे होता है या बस होता है? क्या पूछ रहे हो?

प्र: आचार्य जी, क्या ईश्वर के सम्बन्ध में धारणा बनाकर हम ईश्वर तक पहुॅंच जाऍंगे?

आचार्य प्रशांत: जिसको तुम धारणा बनाकर पकड़ रहे हो, तुम्हें कैसे पता वो है भी या नहीं? प्रॉब्लम नहीं है। वो तो बात ही फूहड़ हो गयी न कि तुम कहो कि मैंने पहले धारणा बनायी कि मेरे भगवान ऐसे हैं और इतने सुन्दर हैं। और फिर मैं उस धारणा के प्रेम में पड़ गया। धारणा किसकी है?

प्र: हमारी।

आचार्य प्रशांत: तुम्हारी। और तुम धारणा से प्रेम कर रहे हो। तो ले-देकर किससे प्रेम कर रहे हो?

प्र: अपनेआप से।

आचार्य प्रशांत: अपनेआप से, कर लो। कर लो। इस तरह के काम जब जवान लोग करने लगते हैं तो उसको बीमारी कहते हैं। वो अपने से ही प्रेम करना शुरू कर देते हैं। ये जो सवाल पूछ रहे हो, इसी सवाल में प्रवेश करो। समझना क्या कह रहा हूॅं।

शाब्दिक पतंग नहीं उड़ा रहा हूॅं। तुम सवाल कर रहे हो, परमात्मा तक कैसे पहुँचे । और सवाल को एक बुरी आदत होती है। वो बाहर खोजता है। सवाल तो बढ़िया है। सवाल क्या है?

प्र: परमात्मा तक कैसे पहुँचे?

आचार्य प्रशांत: परमात्मा तक कैसे पहुँचे? पर वो उत्तर कहाँ खोजेगा? बाहर। मैं कह रहा हूॅं, थोड़ा सा मुड़ जाओ। बहुत मुश्किल नहीं है। पूछो कि ये सवाल ही क्यों उठा। ये नहीं कि सवाल उठा और तुमने खोजना शुरू कर दिया। सवाल तो तुम्हें प्रेरित कर रहा है कि बाहर खोजो। सवाल प्रेरित कर रहा है कि?

प्र: बाहर खोजो।

आचार्य प्रशांत: बाहर खोजो, ‘परमात्मा को कहाँ ढूँढें, कैसे पायें इत्यादि।’ तो तुम खोजने लग जाते हो। इतनी जल्दी पुरानी आदत के वशीभूत मत हो जाओ कि परमात्मा को कहाँ खोजें। पूछो कि ये सवाल क्यों उठा। क्या पूछो?

प्र: सवाल क्यों उठा।

आचार्य प्रशांत: सवाल क्यों उठा। ये पूछ रहा है? (किताब की ओर इशारा करते हुए) ये पूछ रहा है क्या, ‘परमात्मा को कहाँ खोजें’? ये चाय? ये मेरी नाक पूछ रही है क्या? ये बाल पूछ रहे हैं? ये दांत पूछ रहे हैं? ये हाथ पूछ रहा है? कुछ पूछ रहा है? तो ये सवाल क्या है, परमात्मा को कहाँ खोजें? कौन पूछ रहा है?

तो वो क्यों पूछ रहा है? कहाँ है? क्या चीज़ है वो? क्या चीज़ है वो? भाई, एक बात तो पक्की है, परमात्मा खुद तो आएगा नहीं पूछने कि मुझे कहाँ खोजें। और न ये चाय का प्याला पूछता है कि परमात्मा को कहाँ खोजें। तो वो कौनसी वस्तु है जो पूछती है, परमात्मा को कहाँ खोजें। वो कौन है? अरे भाई, वो कौन है?

प्र: मन।

आचार्य प्रशांत: मन माने क्या?

श्रोतागण: इगो, हमारी इगो।

आचार्य प्रशांत: हाॅं, हाॅं, अ, ब, का, का, ड, का! और? तुम मुझे शब्द क्यों फेंक रहे हो? अभी यहाॅं अरबी जानने वाला आ जाएगा, वो कोई और शब्द फेंक देगा।

प्र: ये ‘मैं’ ही पूछ रहा है।

आचार्य प्रशांत: मैं’ माने कौन? तुम्हारा मुॅंह!

प्र: ‘मेरा अहंकार।’

आचार्य प्रशांत: वो कौन है?

प्र: ‘मेरा अहम्।’

आचार्य प्रशांत: वो कौन है?

प्र: आंशिक परमात्मा।

आचार्य प्रशांत: आंशिक परमात्मा भी होता है? अंश जिसके हो सकते हों, याद रखना वो पूर्ण नहीं है। पूर्ण के अंश नहीं हो सकते। पूर्ण का तो अंश भी पूर्ण ही होगा। उपनिषदों ने क्या समझाया है? हाॅं, कौन बोलेगा?

प्र: “ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं।”

आचार्य प्रशांत: दूसरी पंक्ति में क्या बोला है? “पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।” पूर्ण से पूर्ण का ही जन्म होता है। पूर्ण का कोई अंश नहीं होता। जहाॅं भी ये सुन आये हो, उनको कहना कि क्या पागलपन की बात कर रहे हो कि हम परमात्मा का अंश हैं इत्यादि। परमात्मा का अंश अगर तुम होते तो परमात्मा ही होते।

तो कौन हो तुम? चलो, तुम कौन हो इसको पता एक दूसरे तरीके से करते हैं। तुम जो हो, वो कुछ चाह रहा है। ये बात तो पक्की है। ये ठीक है? कोई ऐसा है यहाॅं पर जिसको इच्छाऍं न उठती हों?

तो अगर हम जो भी हैं, उसका एक सार्वजनिक और सार्वभौम गुण ये है कि वो चाहता है तो हम ज़रूर कोई हैं जो चाहता है। इस परिभाषा में खोट नहीं। क्योंकि ये परिभाषा स्वयं सिद्ध है। कोई इस पर आपत्ति नहीं कर सकता। आदमी है, चाहता है। अलग-अलग आदमी, अलग-अलग चीज़ें चाहते हैं लेकिन हर कोई चाहता है। तो हम वो हैं जो चाहते हैं।

ठीक है?

अब ये चाहते हैं और माॅंग क्या रहे हैं? परमात्मा। तो ये लो परमात्मा। (हाथ में तौलिया लेकर आगे बढ़ाते हुए) लो। अरे! थमो। इन्हें चाहिए, ये कौन हैं? जो चाहते हैं। तो इन्होंने क्या माॅंगा?

प्र: परमात्मा।

आचार्य प्रशांत: तो मैंने कहा, ‘लो अब परमात्मा।’ तो ये मुझसे क्या बोलेंगे? बेवकूफ़ मत बनाओ, चाय नहीं चाहिए। इससे प्यास नहीं बुझती। मैं कहूॅंगा, ‘अरे! कोई बात नहीं साहब। हमारी दुकान में दूसरा माल भी है। ये लो।’

तो ये लेंगे, इसे जाॅंचेंगे। नहीं, इससे भी नहीं। परमात्मा चाहिए, परमात्मा। भाई माॅंगे ही जा रहे हैं। तो अब मैं थोड़ा और ऊॅंचा माल दिखाऊॅंगा। मैं कहूॅंगा, (मेज़ पर रखा सामान आगे बढ़ाते हुए) ‘ये लो।’ नहीं, ये भी नहीं चाहिए। मैं कहूॅंगा, ‘घर ही ले लो पूरा।’ ये भी नहीं चाहिए। क्या चाहिए?

प्र: परमात्मा।

आचार्य प्रशांत: फिर मैं उठाकर के इनको दे दूॅंगा। कहूॅंगा, ‘ये ले जाओ।’ ये भी नहीं चाहिए। तो फिर ये पुरुष है। मैं कोई बाहर बढ़िया स्त्री घूम रही होगी। मैं कहूॅंगा, ‘वो लो, उसको ले लो।’ कुछ दिन तृप्त रहेंगे। फिर कहेंगे, ‘ये भी नहीं चाहिए।’

तुम कौन हो वो इसी बात से समझ लो। तुम्हें वही चाहिए जो तुम माॅंग रहे हो, तो तुम वही हो जो तुम माॅंग रहे हो। भूल बस ये है कि तुम माॅंग रहे हो। (दोहराते हुए) तुम वही हो जिसको माॅंग रहे हो, बस भूल ये कर रहे हो कि माॅंग रहे हो।

तुम कुछ और होते अगर तो किसी और चीज़ से तुम्हारी प्यास भी बुझ जाती न, लो चाय पियो। अरे बाबा! ये अकेला है (पुस्तक की तरफ़ इशारा करते हुए)। इसको जोड़ा मिल गया। इसकी प्यास बुझ गयी? हाॅं, बुझ गयी। तो बराबर हो गये। अब ये नहीं बोलेगा कि मुझे कुछ और भी चाहिए। पदार्थ को पदार्थ मिल जाता है, खेल पूरा हो जाता है। पदार्थ को मिला पदार्थ, बात खत्म। पदार्थ शोर नहीं मचाएगा। पानी पहाड़ से बहता है, सागर में पहुॅंच जाता है। फिर शोर नहीं मचाता। वहाॅं वो स्थिर हो जाता है, बिलकुल शान्त। आदमी कहीं शान्त नहीं होता, किसी पदार्थ के साथ। पहाड़ के पानी को सागर का पानी मिल जाता है और वो शान्त हो जाता है न। इसका अर्थ है कि तुम जो हो, तुम्हें उसी की प्यास होती है।

अमोनिया क्लोरिन के साथ रिएक्शन करती है। करती है न? एक रसायन, दूसरे रसायन के साथ मिलने को आतुर है। अर्थात् तुम जो होते हो, तुम्हें वही तृप्ति दे सकता है। तुम उसी के लिए आतुर होते हो।

तुम्हें कोई चाहिए जो तुम्हारी ही जाति का हो। जो तुम्हारी ही नस्ल का हो। तुम्हारे ही तल का हो। वहाॅं तुम्हें तृप्ति मिल जाती है।

बात समझ रहे हो?

गले की प्यास को चाय से तृप्ति मिल जाती है, गले की प्यास है। गले की प्यास को चाय से तृप्ति मिल जाती है। अमोनिया को क्लोरिन मिलती है, दोनों शान्त हो जाते हैं। पूरा जो रासायनिक जगत है, वो शान्ति की ओर ही बढ़ना चाहता है।

रेडियोएक्टिविटी क्या है? तुम्हारे पास एक ऐसा रसायन है, एक ऐसा पदार्थ है, एक ऐसा एलिमेंट है जो अपनेआप में स्थिर नहीं है, अनस्टेबल है। तो वो क्या करता है? अपने टुकड़े करता है। और हर टुकड़ा मूल पदार्थ से ज़्यादा शान्त होता है। और अंश और टुकड़े होते ही जाते हैं, होते ही जाते हैं जब तक पूर्ण शान्ति नहीं आती। पूर्ण शान्ति कभी आती नहीं है। और ज़्यादा सम्भावना रहती है कि और शान्ति हो जाए, और शान्ति हो जाए, और शान्ति हो जाए।

बात समझ रहे हो?

प्रोटॉन को इलेक्ट्रॉन मिल जाए, शान्ति। प्रोटॉन इलेक्ट्रॉन एक ही वर्ग के, एक ही आयाम के हैं। दोनों मिलकर एक-दूसरे को खत्म कर देते हैं, शान्त हो जाते हैं। तिरोहित हो गये। पर तुमको ये तो तृप्त करता नहीं (चाय के कप की ओर इशारा करते हुए)। या करता है? ये तुम्हारे गले को तृप्त कर देता है, तुमको नहीं करता।

तुमने तो सवाल ही क्या पूछा है? मुझे परमात्मा चाहिए। हम कह रहे हैं, जिसको जो चाहिए वो वही होता है। अब तुम समझे तुम कौन हो? तुम परमात्मा ही हो जो खेल-खेल में खुद को भुलाये बैठा है। इसीलिए तुम परमात्मा-परमात्मा माॅंगते हो। उससे नीचे कुछ भी तुम्हें शान्ति देता नहीं।

आयी बात समझ में?

प्र २: अचार्य जी, एक प्रश्न है। आपको कैसे हो गया?

आचार्य प्रशांत: वो नहीं समझ पाओगे। जिसको स्वयं का पता नहीं, वो मेरा क्या समझेगा? और मुझे तुम ऐसे देख रहे हो जैसे मैं दूर कुर्सी पर बैठी कोई इकाई हूॅं। जो मैं तुम्हें समझा रहा हूॅं, वो अपने ही बारे में समझा रहा हूॅं। पर पुरानी आदत है और गन्दी आदत है। ऐसे सोचना कि जैसे दुनिया में बहुत सारे लोग हैं। पहले तो ये धारणा बनाओ कि दुनिया में बहुत सारे अलग-अलग लोग हैं और फिर उनके कमरों में झाॅंको कि वहाॅं चल क्या रहा है।

अध्यात्म में बहुत सारे अलग-अलग लोग होते नहीं, एक इकाई होती है — अतृप्त अहम्। उसी की बात कर रहा हूॅं। कोई मेरी निज़ी ज़िन्दगी नहीं है जिसमें झाॅंककर के कोई ऐसा सूत्र मिल जाएगा तुम्हें जो काम का हो। मैं और तुम एक हैं। हाॅं, तुम कुछ बातें थोड़ा भूले हुए हो। मुझे कुछ बातें थोड़ी याद हैं। मात्र इतना अन्तर है।

समझ रहे हो?

तो परमात्मा के प्रति प्रेम में पड़ने का कोई ज़रिया नहीं होता। तुम्हें पूछना होता है कि ये प्यास जिसको लग रही है, वो कौन है। क्योंकि उसके अलावा तुम कहीं से शुरूआत कर ही नहीं सकते। शुरूआत तथ्य से होगी न, धारणा से तो नहीं। और धारणा से ही शुरूआत करनी है तो धारणा बना लो, ये परमात्मा है (किताब की ओर इशारा करते हुए)। लो, ये रख लो, गले से लगा लो। कुछ भी करना है, कर लो। धारणा ही बनानी है तो कठिन धारणा क्यों बनाते हो? धारणा ही बनानी है तो ऐसी धारणा बना लो जो तुम्हारे लिए बिलकुल अनुकूल हो। बना लो धारणा कि ये दीवार परमात्मा है। बस ठीक है। बना लो धारणा कि तुम्हारा चश्मा ही परमात्मा है। फिर दूर की धारणा भी क्यों बनाओ? एकदम ही नकली और आसान धारणा बना लो।

बस एक बात से तुम बाकिफ़ हो और उस एक बात के अलावा तुम याद रखना, कुछ नहीं जानते। और वो एक बात ये है कि तुम हो। तुम हो और तुम्हें अपने होने का अनुभव इसीलिए है क्योंकि तुम प्यासे हो। ये दोनों वक्तव्य एक होते हैं — ‘मैं हूॅं’ और ‘मैं प्यासा हूॅं।’ क्योंकि प्यास का ही तो अनुभव होता है। तुम हो, ये बात तुम कह ही नहीं पाओगे अगर तुम प्यासे न हो। ‘मैं प्यासा हूॅं’, बस इस एक बात को तुम जानते हो बाकी सब धारणाऍं हैं। हटाओ उनको। धारणाओं से शुरूआत करके सत्य तक नहीं पहुॅंचा जाता।

शुरूआत कम-से-कम तथ्य से तो करो। तथ्य क्या है? ‘मैं हूॅं। मैं प्यासा हूॅं।’ यहाॅं से शुरूआत करो। ‘मैं प्यासा हूॅं, चाय मेरी प्यास बुझाती नहीं। दुकान मेरी प्यास बुझाती नहीं, दीवार मेरी प्यास बुझाती नहीं। तो मैं कौन हूॅं? तो मैं कौन हूॅं?’

ठीक? ऐसे पूछना है।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=8lzLR6vKLmA

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