प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कई रिश्ते ऐसे होते हैं जो न चाह कर भी पीछे छूट जाते हैं, क्या उन्हें दोबारा पाया जा सकता है?
आचार्य प्रशांत:
“जिस समय निर्विकल्प समाधि द्वारा आत्मा का दर्शन होता है, उसी समय हृदय की अशानरूप गांठ का पूर्णत: नाश होता है।”
~ अध्यात्म उपनिषद
(श्लोक संख्या: १७)
“आत्मा के ऊपर ही आत्म-भाव को दृढ़ करके अहंकार आदि के ऊपर वाले आत्म-भाव का त्याग करना। घड़ा, वस्त्र आदि पदार्थों से जिस प्रकार उदासीन भाव से रहा जाता है, उसी प्रकार अहंकार आदि की तरफ से भी उदासीन भाव से रहना।”
~ अध्यात्म उपनिषद
(श्लोक संख्या: १8)
जब हृदय में सत्य के प्रति निष्ठा होती है, तब बाहर भी सत्य ही दिखाई देता है। ऐसे समझ लो कि तुमने अगर अपने भीतर के झूठ को काट दिया, उसे सहारा और ऊर्जा ना दी, तो बाहर भी जो झूठ बिखरा पड़ा है, तुम उसके शिकार नहीं बनोगे। यही बात उपनिषद् कह रहा है।
बाहर का झूठ तुम्हें अपने शिकंजे में इसीलिए ले लेता है, क्योंकि तुमने पहले भीतर झूठ को प्रश्रय दिया होता है। इसलिए इतनी पौराणिक कहानियां हैं, जो बताती हैं कि कैसे भगवान स्वयं संसार में उतरे भक्त की रक्षा हेतु। भगवान संसार में उतरे अर्थात् संसार में ही कुछ ऐसा हो गया जो तुमको सहारा देने लग गया। कब? जब भक्त के हृदय में भगवान थे। तुम्हारे हृदय में यदि भगवान हों, तो संसार भी तुम्हारे लिए भगवत्ता युक्त हो जाता है। संसार से ही सहारा मिलने लग जाता है। जिस संसार को अभी तक शत्रु मानते थे, गाली देते थे, जिस संसार से ठोकरें और चोट ही पाते थे, उसी संसार से प्रेम पाने लगते हो, अमृत पाने लगते हो। अब बताओ संसार एक है या कई हैं? बोलो।
जैसे तुम हो वैसा तुम्हारा संसार है। तुम मन में उपद्रव को छाँव दिए रहो, बाहर तुम्हें उपद्रव ही उपद्रव मिलेगा। और तुम मन में, आंखो के पीछे भगवान को बैठाए रहो तो आंखो के आगे भी भगवान ही भगवान नाचेंगे।
ये वही लोग थे जिन्होंने मन में भगवान को बैठा रखा था, कि जिन्होंने पत्थरों में ईश्वर को पूजा, पत्तियों में ईश्वर को पूजा, नदियों में ईश्वर को पूजा, पशुओं में ईश्वर को पूजा। वो जिधर देखते थे उनको भगवान ही नजर आते थे क्योंकि भीतर भगवान बैठा लिया था। वो स्थिति फिर कहलाती है अहिंसा: जित देखूं तित तू। अब किसको मारे, और कौन मारे। एक ही तो है, तू ही तू।
और यदि भीतर सत्य को स्थापित तुमने नहीं होने दिया है, तो बाहर की छोटी-से-छोटी चीजा भी, साधारण-से-साधारण चीज़ भी, अति अहानिप्रद वस्तु भी तुम्हारे लिए खतरा ही बन जाएगी। ठीक वैसे कि जैसे अगर किसी ने भीतर मृत्यु को बसा लिया हो, तो बाहर पड़ा हुआ एक साधारण सा दुशाला भी उसके लिए फांसी का फंदा ही बन जाता है। अगर किसी ने भीतर मौत को ही बसा लिया हो, तो बाहर एक साधारण सी साड़ी हो या रस्सी हो या दुप्पट्टा हो, वो उसके लिए क्या बन जाती है? मौत ही तो बन जाती है। जो तुम्हारे भीतर बैठ गया है, वहीं तुम्हें बाहर मिलेगा। तो अगर बाहर तुमको दुख ही दुख और धोखा ही धोखा दिखाई देता है तो? भीतर तुम दुख के समर्थन में खड़े हो, भीतर तुम धोखे के समर्थन में खड़े हो, आनंद से कुछ विरोध है तुम्हारा। होगा कुछ! मुल्यगत विरोध, नीतिगत विरोध।
“पानी से बाहर आकर के पानी के पौधे की जो हालत होती है वही हालत तुम्हारी होती है सत्य से बाहर आकर के।”
~ अध्यात्म उपनिषद
(श्लोक संख्या: १५)
सुंदर प्रतीक बनाया है उपनिषद् ने। पानी के पौधे होते हैं न, जो सागर के भीतर ही होते हैं, या तालाबों के भीतर होते हैं, वो जबतक पानी के भीतर हैं, वो थमें-थमें से रहते हैं। और उसको उखाड़ लो, बाहर ले आओ तो उसमें फिर जान ही नहीं बचती। उसमें किसी तरह का बल ही नहीं बचता। वो लचर-मचर हो के कभी इधर गिरेगा कभी उधर गिरेगा। पानी के भीतर था तो उसे पानी का ही सहारा था। पानी के बाहर आते ही वो जैसे भरभरा के गिर पड़ता हो। तो उसी को उपनिषद् ने प्रतीक बना कर कहा है कि “पानी से बाहर आकर के पानी के पौधे की जो हालत होती है वहीं हालत तुम्हारी होती है सत्य से बाहर आकर के।” पानी के भीतर है जबतक पानी का पौधा तो पानी से ही उसे पोषण भी है और संबल भी। पानी ही उसको जड़ से संभाल रहा है और पानी ही उसको तने से, पत्तियों से और पूरे आकार में संभाल रहा है। पानी से बाहर आता है उसका सबकुछ खो जाता है। वही हालत इंसान की होती है जब वो परमात्मा से बाहर आता है। कल चुआंग-ज़ू भी आपसे यही कह रहे थे कि *"द वाइज मैन लिव्स इन ताओ। ताओ इज हिज आर्मर। ही इज इन्ˈव़े̮लप्ड बाइ ताओ"* (बुद्धिमान व्यक्ति ताओ में रहता है। ताओ उसका कवच है। वह ताओ द्वारा ढका रहता है।)
सत्य के भीतर हो तो जड़ों से भी उसी का सहारा मिलेगा, तने पर भी, शाख पर भी और शिखर पर भी। और बाहर हो तो न तुम्हारी कोई गरिमा है, न तुममें कोई बल है, न तुम्हारा कोई मान है, न तुममें कोई सौंदर्य है। और मैं हमेशा कहा करता हूँ कि इसी बात को फिर पलट के देख लिया करो कि अगर तुम पाओ कि तुम्हारे जीवन में मान नहीं है, सौंदर्य नहीं है, गरिमा नहीं है, बल नहीं है, तो ये प्रमाण है इस बात का कि तुम परमात्मा से बाहर आ गए हो।
“इस अनादि संसार में करोड़ों कर्म इकट्ठा कर लिए जाते हैं, पर इस समाधि द्वारा वे नष्ट हो जाते हैं और शुद्ध धर्म बढ़ते हैं।”
~ अध्यात्म उपनिषद
(श्लोक संख्या: 37)
जिसे ये कह रहे है करोड़ों कर्म, उसको मान लीजिए मन में संचित सारी सामग्री। जो भी कुछ मन में है, वो बहुत-बहुत पीछे से आ रहा है। कुछ तो वो है जो आपने इस जन्म में अनुभव करके इकट्ठा किया और बाकी वो है जो शरीर के साथ आया। आपने देखा है, मिट्टी का कोई पात्र होता है, उसमें आप पानी डालें तो पानी में से एक गंध उठने लगती है, सौंधी सी। अब उस पात्र में क्या है? उस पात्र में पहले तो उतना पानी है, जो अभी डाला गया, और उस पात्र में उस पानी के अलावा अब वो पात्र भी है, जिसमें पानी डाला गया। पात्र में तो पानी डाला ही गया, पानी में भी पात्र घुल-मिल गया है। पानी में जो खुशबू आ रही है वो किसकी खुशबू है? पात्र की ही तो खुशबू है। तो ठीक इसी तरीके से ये जो शरीर है, इसमें बहुत पुरानी-पुरानी गंधे रची-बसी हुई हैं। बहुत पीछे से आ रहा है न ये, बहुत-बहुत पीछे से। वो सारे संस्कार, वो सारे अनुभव यह लिए हुए है। तो आप इस जन्म में जो कुछ इकट्ठा करते हो, उसका पहले एक संबंध बनता है उससे जो शरीर पहले ही लेकर के आ रहा था। ठीक वैसे जैसे कि अगर आप एक लोहे के पात्र में पानी डालें और आप एक मिट्टी के पात्र में पानी डालें, तो पानी भले ही एक ही डाला हो, लेकिन दोनों से गंध अलग-अलग आएगी। आएगी कि नहीं आएगी? उसी तरीके से अगर दो जुड़वाँ बच्चे पैदा हुए हों और उनको आप एक ही अनुभव कराएं, तो भी उनके अनुभव अलग-अलग हो जाएंगे क्योंकि पात्र अलग-अलग हैं, वो पीछे से अलग-अलग आ रहे हैं।
उपनिषद् कह रहा है: ये सब कुछ जो संचित करे बैठे हो, ये सब कुछ जब विलीन हो जाता है, तब जो बचता है उसको कहते हैं—धर्म।
अपने खाली मन से, अपने पक्षपात रहित मन से, तुम जिधर को चलते हो, तुम जो खाते-पीते हो, तुम जो निर्णय करते हो, तुम जो आचरण करते हो उसको कहते है—धर्म।
धार्मिक तुम तब तक नहीं हो सकते जबतक तुम अतीत को ढोए ही जा रहें हो। पुराना, पुराने के निशान, पुराने की गंध, पुराने के अवशेष, पुराने के घाव जबतक बचे हुए हैं, तबतक तुम धार्मिक नहीं हो सकते। एक धार्मिक चित्त पूर्णतया स्वस्थ चित्त होता है, साफ और स्वस्थ। उसपर न तो पुराने निशान होते हैं, न पुराने घाव होते हैं, साफ और स्वस्थ।
पुरानी यादों से आहत रहते-रहते पुराने अपमानों का ही बदला निकालने के लिए अगर तुम बहुत सफल भी हो गए इस संसार में, तो तुम असफल ही रहे। तुम धार्मिक नहीं हो पाए क्योंकि तुम्हारी सारी सफलता है ही पुराने घावों के कारण। अक्सर जिन्हें चोट लगी होती है, वही सबसे ज़्यादा छटपटा के सक्रिय हो उठते हैं, क्योंकि उन्हें अपने-आपको बचाना होता है, उन्हें अपनी रक्षा करनी होती है, तो वो खूब दौड़-धूप करते हैं। उनकी सारी ऊर्जा का केंद्र होता है उनका घाव। घाव से उठती ऊर्जा का उपयोग करके अगर तुम संसार में बहुत कुछ अर्जित भी कर लो तो तुम रह तो भिखारी ही गए। तुम्हारी हालत वैसे ही होगी कि जैसे कोई भिखारी अपने घाव दिखा-दिखा के, अपनी दयनीय स्थिति की दुहाई दे-दे करके खूब पैसा इकट्ठा कर ले। पैसा तो उसने इकट्ठा किया पर पैसा इकट्ठा करने के पीछे उसका दुख, उसकी यंत्रणा ही थी।