सत्य के लिए साहस नहीं सहजता चाहिए || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

12 min
230 reads
सत्य के लिए साहस नहीं सहजता चाहिए || आचार्य प्रशांत (2015)

प्रश्न: सर, मैं अपनेआप को सहजता से नहीं देख पाता हूँ। मैंनें बहुत सारी किताबें पढ़ीं थीं। जो भी मिलती थी उसे पढ़ लेता था। और फ़िर उसे जीवन में उतारने की कोशिश करता था। ऐसे ही चलता रहा, पर बात बनी नहीं। फ़िर एक दिन मैंने सब छोड़ दिया यह सोचकर कि जो होगा देखा जाएगा। मेरे पास अभी यही क्षण है, मैं इसी में जियूँगा। अन्दर से एक आवाज़ आयी, वह कहीं और से ही आयी थी, मेरी नहीं थी। उसने कहा: यदि ज़िन्दगी जीनी है तो इस ‘मैं’ को भूल जाओ। उससे मुझे एक रास्ता दिखाई दिया। परन्तु मैं जब भी उस रास्ते पर चलने की कोशिश करता हूँ, तो चल नहीं पाता हूँ। इतना साहस नहीं होता कि उस पर चल सकूँ। यह साहस कैसे आएगा? कृपया मदद करें।

आचार्य प्रशांत: तुम्हारी पूरी कहानी के बाद वो बिंदु आता है जहाँ कह रहे हो कि साहस की ज़रुरत है। साहस की जो ज़रुरत तुम्हें प्रतीत हो रही है, ये इस पूरी कहानी का निचोड़ है, सार है। एक तरह का आख़िरी बिंदु है।

और अगर ये कहानी ही कुछ ख़ास सच्ची न हो तो साहस की ज़रुरत पड़ेगी?

‘मुझे ऐसा लग रहा है कि भीड़ है, जो एक दूर-दराज़ के शहर से मुझे मारने के लिए उद्यत है, और चली आ रही है। मुझे ऐसा लग रहा है कि अगर मैं अब किसी को भी मदद के लिए बुलाऊंगा तो वो नहीं आयेगा। कुछ दूर से अस्पष्ट धुंधली-सी आवाज़ें आ रही हैं, और मैंने निष्कर्ष निकाल लिया है कि ज़रूर ये उसी भीड़ का कोलाहल है। और अब मुझे पूरा यकीन हो गया है कि इस भीड़ से मुझे अकेले ही निपटना है।’ और ये सारे निष्कर्ष मैंने अपने कमरे में बैठे-बैठे निकाले हैं।

और अब मेरे भीतर से एक आवाज़ भी उठ रही है जो कह रही है कि तुझे जो करना है वो अकेले ही करना है। और अब ज़ाहिर सी बात है कि मुझे बड़े साहस की ज़रूरत है, उस भीड़ का सामना करने के लिए। तो मैं सवाल क्या कर रहा हूँ? मैं सवाल ये कर रहा हूँ कि मैं वो साहस कहाँ से लाऊं? मेरे सामने अब सवाल ये है कि मैं वो साहस कहाँ से लाऊं?

मैं जानना चाहता हूँ कि साहस की ज़रुरत है भी क्या? क्या वास्तव में कोई भीड़ है? क्या वास्तव में तुम असहाय हो? क्या वास्तव में भीतर से जो आवाज़ उठी है, ये सत्य की ही आवाज़ है?

अगर ये पूरी कहानी ही खोखली निकले, तो साहस की जो आवश्यकता तुम्हें प्रतीत होती है, वो आवश्यकता भी ख़त्म हो जाएगी।

तुम्हें कोई साहस चाहिए ही नहीं; सहज जी सकते हो। किसी सहस की कोई ज़रुरत नहीं; सहज जी सकते हो। तो तुम्हारी कहानी पर ज़रा गौर करते हैं, तुमने कहा कि तुमने अध्यात्मिक साहित्य पढ़ा, इधर-उधर की बातें पढ़ीं, शायद कुछ लोगों से जा कर मिले भी होगे, और फ़िर कहते हो, एक दिन, अचानक बैठे-बैठे भीतर से एक आवाज़ उठती है, जो कहती है कि ‘मैं’ को भूल जाओ, क्या ठीक सुना मैंने?

यही कहा तुमने?

श्रोता: जी सर।

वक्ता: ‘मैं’ को भूल जाओ, भूलेगा कौन?

भूलेगा कौन?

तुम्हें याद रहा घड़ी पहनना, और किसी दिन तुम भूल भी गए घड़ी पहनना, भूलने से न घड़ी खत्म हो गई, न तुम खत्म हो गए। घड़ी तो हो सकता है फ़िर भी तुमसे छिन जाए, पर भूलने पर भी तुम यथावत हो, कायम हो।

तुम कहीं चले नहीं गए। याद रखने वाले भी तुम, भूलने वाले भी तुम। और जो भूल रहा है उसके पास याद करने का विकल्प हमेशा खुला हुआ है, तो भूल कर क्या होगा? और ये भीतर से जो आवाज़ आई है, ये किस भाषा में आई थी?

श्रोता: (खुद पर हँसते हुए) हिंदी।

वक्ता: अरे! ये सत्य हिंदी ही क्यों बोल रहा है तुम्हारे साथ? जर्मन, फ्रेंच, अरबी, इनमें ये आवाज़ क्यों न उठी?

श्रोता: मुझे हिंदी आती है शायद इसीलिए।

वक्ता: तो वो आवाज़ किसकी थी? वो स्वर किसका था? भाषा से आगे चलो। चलो याद करो ये जो अन्दर से जो आवाज़ आती है, यह आवाज़ है किसकी?

श्रोता: मेरी ही आवाज़ है।

वक्ता: तो तुम्हारी ही आवाज़ है। तो तुम्हारी ही आवाज़ तुमसे कह रही है कि ख़ुद को भूल जाओ। और ख़ुद को भूल गए तो ये कैसे याद रखोगे कि आवाज़ किसकी है? ये खुद को भुलाने का तरीका है, या खुद को और सुद्रढ़ करने का?

माया के खेल अजीब हैं, पता भी नहीं चलेगा कि क्या हो रहा है! कभी वो ऐसे बलवती होती है कि कहती है, ‘फंसे रहो, फंसे रहो’ और कभी वो ऐसे बलवती होती है कि कहती है, ‘भाग जाओ, भाग जाओ’, कभी वो तुम्हें याद दिला-दिला करके तुम्हारे सर पर नाचती है, और कभी वो तुमसे यह कह-कह कर सर पर चढ़ती है कि, ‘भूल जाओ, भूल जाओ’।

भूलने वाले भी तो तुम्हीं हो न; भूल भी गए तो तुम तो शेष ही रह गए।

मैं नहीं कह रहा कि उस आवाज़ को भूलो, उस घटना को भूलो। भूलो नहीं, करीब जाओ। गौर से देखो कि मामला वास्तव में क्या है। माज़रा क्या है, ज़रा समझो। बचने की कोई ज़रुरत नहीं है, क्योंकि बच पाओगे नहीं। संभव नहीं होगा।

अपनेआप से बच कर कोई कहीं भाग नहीं पाया। मन से बचकर मन कहाँ भागेगा? जहाँ भी जायेगा, स्वयं को साथ ही तो लेकर जाएगा।

भागो नहीं, जानो।

भागो नहीं, जागो।

गौर से देखो कि आवाज़ किसकी है।

सत्य का मार्ग अति सहज है, उसमें साहस चाहिए ही नहीं। साहस और डर तो द्वैत युग में है। ये इकट्ठे चलते हैं — जहाँ डर है वहीं साहस की मांग है। और सत्य में कहीं डर होता नहीं। किसी को अगर डर लग रहा है, वह साहस की मांग कर रहा है, इसका अर्थ एक ही है, क्या? कि उसको जो भी विचार आ रहा है वो निरर्थक ही है। और विचार अधिकांशत: निर्थक होते ही हैं। कोई साहस नहीं चाहिए। जितना अपनेआप से ये कहोगे कि मुश्किल है रास्ता, उतना तुम अपनेआप को यकीन दिला रहे हो कि मुझे चलने की ज़रूरत नहीं। मैं चल ही नहीं पाऊंगा, मेरे बूते से बाहर की बात है, अति कठिन है रास्ता।

कबीर बड़े मज़ें ले रहे हैं इसी बात पर, एक मौके पर कहते है कि, ‘पी का मार्ग कठिन है’ — बड़ा कठिन है सत्य का मार्ग — ‘जैसे खानड़ा सोये’ — ऐसा नहीं है कि जैसे रस्सी पर चलना हो, ऐसा, जैसे तलवार की धार पर चलना हो। तो लोग कहते हैं, ‘वाह भई! कबीर ने बता दिया कि सत्य का मार्ग तो बड़ा कठिन है’, वैसे ही दूसरे मौके पर बोलते हैं, ‘प्रेम गली अति साकरी, ता में दो ना समाये’, अरे भाई! सत्य का मार्ग भी कठिन है, प्रेम का मार्ग भी कठिन है! और फ़िर ये कहने के बाद हँसने लगते हैं, फ़िर हँसते हुए कहते हैं कि ‘पी का मार्ग सरल है, ‘तेरी’ चलन अड़ेड़। नाच न जाने बापुरी, कहे अनना टेड़।’।

पहले वो तुम्हें खूब बता देंगे कि पी मार्ग बड़ा कठिन है! भाई, बड़ा कठिन है! और फ़िर धीरे से हँस कर बता देंगे: बहुत सरल है। तुम्हें चलना नहीं आता। इसीलिए तो देखो वहाँ पर क्या लिख रखा है (एक चित्र की ओर इशारा करते हुए): जो भरम, उसे भरम; जो परम, उसे परम। परम कोई मुश्किल थोड़ी है, परम मुश्किल तब है जब तुम अपनेआप को भरम माने बैठे हो। तुम्हारा भरम से तादात्म्य है तो परम तुम्हारे लिए मुश्किल ही नहीं, असंभव है। फ़िर तो कोई संभावना ही नहीं है।

इसलिए संतो ने हमेशा ये दो बातें कही हैं, और दोनों विरोधाभासी प्रतीत होती हैं। तुम कोई भी धर्म ग्रन्थ उठा लो, तुम किसी भी ऋषि-संतो-पैगम्बरों की बातें पढ़ लो, वो दो प्रकार की बातें बोलते हैं। वो विपरीत लगती हैं।

एक तरफ़ तो ये बोलेंगे: बड़ा मुश्किल है। उस तक पहुँच पाना बड़ा मुश्किल है। पहुँच ही नहीं सकते!

और फ़िर थोड़ी देर बाद बोलेंगे: पहुँचना क्या है? वहीँ तो बैठे हुए हैं। उससे बाहर निकले ही कब थे? पहुँचने की ज़रुरत ही नहीं है, वहीँ तो हैं। ज़रा आँखें खोलो और देख लो।

और दोनों बातें दो अलग-अलग तरीके के लोगों के लिए हैं: जिन्हें नहीं पहुँचना, उन्हें पहली बात सुहाएगी; जिन्हें पहुँचना ही है, उन्हें दूसरी बात सुहा जायेगी।

सवाल ये उठता है कि पहले प्रकार की बात बोली ही क्यों गयी है? बोली इसलिए गयी है ताकि जो लोग ये भ्रम पाले बैठे हैं कि ‘हम पहुँच ही गए’ उनको ज़रा जमीन पर लाया जा सके। उनसे कहा जाए, ‘भाई! तुम जैसे हो, तुम नहीं पहुँच सकते। तुम्हारे लिए बड़ा मुश्किल है। तो अपनाप को ये गलतफहमी मत देना कि तुम पहुँच ही गए हो।’ लोग बड़ी ग़लतफहमियाँ पाले रहते हैं: ‘मुझे ये पता है। मुझे ज्ञान है। मैं यहाँ पहुँच चुका हूँ। मुझे ये मुकाम हासिल है।’ उनको फ़िर यथार्थ का दर्शन कराने के लिए ये कहना पड़ता है कि ‘भाई! तुम जैसे हो, तुम्हारे लिए मामला इतना सहज नहीं। जब तुम पूर्णतया टेड़े-तिरछे हो, तो तुम्हारे लिए सीधा रास्ता सहज कैसे हो सकता है?

तुम सीधे हो जाओ, मामला बहुत सीधा है। तुम सहज हो जाओ, मामला बहुत सहज है। कोई साहस नहीं चाहिए।

कोई साहस नहीं चाहिए, चीजें बहुत सीधी हैं। क्या साहस चाहिए? साहस, भय की तरह मात्र एक कल्पना है। पहले तुम कल्पना करते हो कि ख़तरा है, फ़िर तुम कल्पना करते हो कि तुम्हें उस ख़तरे का सामना करना है, ‘तो मुझे साहस चाहिए’। दिक्कत ये है कि समाज ने, और शिक्षकों ने, साहस को एक बहुत ऊँचा मुकाम दे दिया है। बचपन से ही हमें बता दिया जाता है कि साहस बड़ी बात है। बचपन से ही हमें बता दिया जाता है कि ‘डरना मत!’। डर है क्या? — ये बताने वाला कोई नहीं होता। ‘डरना मत’, ये शिक्षा देने वाले बहुत खड़े हो जाते हैं। अब उनके कहने भर से डर चला थोड़े ही जायेगा। हाँ, डर का दमन कर सकते हो, तो फ़िर इंसान वही करता है, डरा-डरा रहता है, पर नकाब ऐसा पहनता है कि बड़ा निर्भीक हो।

‘नहीं साहब, हम नहीं डरते। हमसे ज़्यादा बेख़ौफ़ कौन है!’

और मन में, गहराई में, जड़ों में, डर का ज़हर पूरी तरह व्याप्त रहता है।

डर को समझ जाओ, साहस की कोई ज़रुरत पड़ेगी ही नहीं। जो होगा, सहजता में हो जाएगा। डर बीमारी है; साहस भी बीमारी है। पर चूकि ये समाज द्वैत और अद्वैत के फर्क को समझता ही नहीं, तो ये डर का एक ही इलाज जानता है: कि डर का जो विपरीत ध्रुव है, वहाँ कूद कर पहुँच जाओ। डर का विपरीत ध्रुव है साहस — दोनों में विशेष अंतर नहीं है। डर के पार जाने की शिक्षा नहीं दे पाते; डर के दमन की शिक्षा जरुर दे देते हैं। और वो और ज़्यादा खतरनाक है। मेरे सामने यदि कोई आये जो कहे कि वो बहुत डरा हुआ है, मेरे लिए आसान है उससे बात करना। दिक्कत उन लोगों से बात करने में हो जाती है जो ज़रा साहसी किस्म के, योद्धा किस्म के होते हैं। क्योंकि उन्हें ये तो पता है कि डर ज़रा गड़बड़ बात है। तो डरे हुए आदमी को कम से कम अपनी अवस्था से कोई लगाव नहीं होता। उसे पता है कि मैं डरा हुआ हूँ और डरना ठीक नहीं। उसे अपनी अवस्था से कोई लगाव नहीं होता। वो गर्व के साथ नहीं कह पाता कि मैं डरा हुआ हूँ। वो खुद ही उत्सुक होता है अपनी अवस्था से मुक्त हो जाने को। वो कहता है कि ‘मैं डरा हुआ हूँ, मुझे मुक्ति चाहिए’।

पर जो साहसी आदमी है, उसने तो साहस को बड़ा मूल्य दे रखा होता है। उसकी कोई उत्सुकता ही नहीं होती अपनी अवस्था से मुक्त होने में। वो कहता है, ‘साहब! साहस तो बड़ी बात, और आप कह रहे हो कि साहस से मुक्ति पाओ!’

हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जहाँ हमें निर्भयता और अभयता का भेद नहीं पता है।

सहज चलो, कोई साहस नहीं चाहिए। चुप-चाप अगला कदम उठाओ, अगले कदम से अगला कदम निकलेगा, उससे अगला कदम निकलेगा, उससे अगला कदम निकलेगा। जीवन यदि समय है, तो जीवन आगे बढ़ता रहेगा। तुम समयातीत में अवस्थित रहो। और अपनी कहानी को बहुत गंभीरता से मत लो। इस कहानी की बुनियाद पर कोई निर्णय मत ले लेना।

इस कहानी में कुछ नहीं रखा है; किसी कहानी में कुछ नहीं रखा है!

कहानियाँ क्या हैं? कहानियाँ ही तो हैं। गंभीरता से नहीं लेते उनको।

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

इस विषय पर और लेख पढ़ें:

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories