जो मूर्ख तत्व को नहीं जानते, वे ही अपने बालकपन के कारण संभावित अवस्थाओं से दूर भागते हैं। —योगवासिष्ठ सार
प्रश्नकर्ता: 'बालकपन' कह रहे हैं, अहंकार नहीं कह रहे। ऐसा क्यों?
आचार्य प्रशांत: अप्रौढ़ता। 'बालकपन' कहना उचित भी है। बालकपन मतलब वैसे जैसे तुम पैदा होते हो। कैसे पैदा होते हो? अहंकार की गाँठ पैदा होती है। बड़े होने का यही तो अर्थ होता है कि अपने छुटपन से तुमने मुक्ति पाई। बालक समझ लीजिए क्षुद्रता, बालकपन माने छुटपन। पैदा क्यों होते हैं? ताकि बड़े हो जाएँ। और बड़े होकर भी छोटे से ही रह गए तो?
प्र२: आज के पाठ से सहमत भी हूँ और उसे जीवन में भी उतारता हूँ, लेकिन फिर भी कुछ बचा सा लगता है। आखिर कैसे हो सत्य का अनुभव?
आचार्य: तो पाठ है, उसे तुम जीवन में उतार रहे हो। क्या बचा सा लगता है? - जो उतार रहा है, वो बचा सा लगता है। उधर सोना है और इधर भी सोना है, और उधर के स्वर्ण को कोई इधर कर रहा है। इस पूरी प्रक्रिया में, इस पूरे माहौल में क्या है जो स्वर्ण नहीं है? - जो इधर का उधर कर रहा है।
पाठ में जो लिखा है, वो भी बढ़िया, जीवन में उतर आया, वो भी बढ़िया। ये उतारने वाला कौन है? ये सहमति देने वाला कौन है? ये तो तुम हो न? आज सहमति दे रहे हो, बड़ी कृपा है तुम्हारी, कल असहमति भी दे दोगे।
पाठ को जीवन में उतार रहे हो, तुम हो उतारने वाले। तो उतारना तो तुम्हारे गुण-दोष पर निर्भर कर जाएगा, तुम्हारी ताक़त पर निर्भर कर जाएगा, तुम्हारी कुशलता पर निर्भर कर जाएगा कि तुम कितना उतार पाते हो। पर बड़ा अच्छा लगता है, “ग्रंथों की महान बातों को मैं अपने जीवन में उतार रहा हूँ।” सब कुछ कर लो, उतार लो, पर तुम पहले उतर तो जाओ अपने जीवन से। और तो सब उतार लिया, तुम कब उतरोगे?
हालत हमारी ऐसे है कि जैसे कोई किसी पेड़ पर चढ़ जाए और पेड़ बेचारा मोटे आदमी के वज़न तले थर-थर काँपे तो आदमी उस पेड़ के जितने फल-फूल, पत्ते हों सब तोड़-तोड़कर फेंक दे। वह कहे, “इस पेड़ पर वज़न बहुत ज़्यादा है। इस पर जो कुछ चढ़ा हुआ था, हमने सब नीचे फेंक दिया। सारे इसके फल तोड़कर फेंक दिए, सारी डालियाँ फेंक दी, सारी पत्तियाँ फेंक दी।” सब उतार दिया, तुम कब उतरोगे? पेड़ को तो नंगा कर मारा, तुम कब उतरोगे?
जर्जर नाव थी, वज़न बहुत ज़्यादा था, तो चढ़ गए उस पर और जितना सामान था सब फेंक दिया। तुम कब उतरोगे? अपना भी तो बताओ। तुम्हें तो लेकिन अपनी मौजूदगी कायम रखनी है न? कि जैसे कोई खाली जगह पर जाए, वहाँ उसकी उपयोगिता ये है कि वहाँ जाकर पूछे, "यहाँ कोई है तो नहीं?” तो बोले, "हाँ, बिलकुल कोई नहीं है।” और पूरी दुनिया सुन ले कि कोई नहीं है इसीलिए एकदम चिल्ला कर बोले। सन्नाटे को भी सुनायी दे जाए, ऐसी गड़गड़ाहट में बोले, "यहाँ कोई नहीं है!”
बहुत साफ़ मन चाहिए; होशियारी का कोई अंत नहीं होता। सारे तर्क आपका समर्थन कर देंगे, सारी युक्तियाँ आपका समर्थन कर देंगी, सारी बहसें आप जीत लोगे, सारे मुकदमें आप जीत लोगे, बस ज़िन्दगी हार जाओगे।
आप दूसरों को ही नहीं, अपने-आप को भी बना सकते हो, आप अपने-आप को भी साबित कर सकते हो कि, "मैं तो बिलकुल ठीक हूँ!" वाकई आपको ऐसा लगेगा भी कि आपने बिलकुल ठीक जीवन बिताया है, आपकी सत्यनिष्ठा में कोई कमी नहीं है, आपके भीतर कोई दुराग्रह, कोई बेईमानी नहीं है। आप अपने-आप को ही आश्वस्त कर सकते हो। कर लो!